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Monday, January 14, 2013

जिद बनाम जागरुकता


ह हरगिज जरुरी नहीं है कि समझदारी के सारे झरने सरकार और सियासत में ही फूटते हों। भारत में राजनीति और जनता के रिश्‍तों का रसायन अद्भुत ढंग से बदल गया है। भारत का समाज गवर्नेंस की उलझनों के प्रति व्‍यावहारिक व जागरुक हो कर उभरा है जबकि इसके विपरीत  सरकारें पहले से कहीं जयादा  मौकापरस्‍त, जिद्दी व जल्‍दबाज हो गईं हैं। रेलवे का किराया बढ़ाने और रसोई गैस के सिलेंडर घटाने के निर्णय, जनता और सरकार की परस्‍पर संवेदनशीलता का नया शास्‍त्र सामने लाए हैं। दोनों ही फैसले सेवाओं को महंगा करने से जुड़े हैं मगर जो लोग एलपीजी सब्सिडी घटाने की बेतुकी नीति पर भड़के हैं वही लोग महंगी रेल यात्रा को उचित मान रहे हैं। लोग रेलवे की आर्थिक हकीकत के प्रति संवेदनशील हैं मगर सरकार  लोगों की दैनिक जिंदगी प्रति निर्मम हो जाती है। सियासत की उंगलियों के नीचे जनता की नब्‍ज तो है ही नहीं,  सरकारें अपने क्रियान्‍वयन तंत्र से भी कट गई हैं। इसलिए उसका सिस्‍टम ही एलपीजी सब्सिडी और कैश ट्रांसफर जैसी महत्‍वाकांक्षी स्‍कीमों को औंधे मुंह गिरा देता है।
रेल के किराये में यह दस साल की पहली एक तरफा और सबसे बड़ी बढ़ोत्‍तरी थी। महंगाई के बावजूद आम लोग इसके समर्थन में अर्थशास्‍त्री की तरह बोले। लोग तो पिछले साल मार्च में भी सरकार के साथ थे जब दिनेश त्रिवेदी देश के सबसे बड़े सार्वजनिक परिवहन को उबारने की कोशिश कर रहे थे और ममता बनर्जी इस आर्थिक बुनियादी ढांचे का दम घोंट रही थीं। आम जनता कई महीनों से यह हकीकत समझ रही है कि भारतीय रेल दुनिया की सबसे दुर्दशाग्रस्‍त

Monday, December 31, 2012

जागते समाज से हारती सियासत


हरीर स्‍क्‍वायर पर जुटी भीड़ का नेता कौन था ? आकुपायी वालस्‍ट्रीट की अगुआई कौन कर रहा था ? ब्‍लादीमिर पुतिन के खिलाफ मास्‍को की सड़कों पर उतरे लोगों ने किसे नेता चुना था? लेकिन भारत के गृह मंत्री और नेता इंडिया गेट पर उतरे युवाओं में एक नेता तलाश रहे थे। भारतीय की सठियाई सियासत हमेशा जिंदाबादी या मुर्दाबादी भीड़ से खिताब जो करती रही है। इन युवाओं में उन्‍हें नेता न मिला तो लाठियां मार कर लोगों को खदेड़ दिया गया। भारत नए तरह के आंदोलनों के दौर में है। यह बदले हुए समाज के आंदोलन हैं। समकालीन राजनीति इसके सामने अति पिछड़ी, लगभग पत्‍थर युग की, साबित होती है। हमारे नेता या तो सिरफिरे हैं या फिर जिद में हैं। दुख व क्षोभ में भरे युवाओं को नक्‍सली या महिलाओं को डेंटेड पेंटेड कहने वाली राजनीति अब भी यह नहीं समझ रही है कि क्षुब्‍ध समाज एक बिटिया की जघन्‍य हत्‍या पर इंसाफ पाकर चुप नहीं होगा। वह तो भारतीय सियासत के पुराने व बुनियादी चरित्र को ही खारिज कर रहा है। 
भारत के युवा रोजगार मांगने के लिए इस तरह कब सड़क पर उतरे थे? महंगाई से त्रस्‍त लोगों ने कभी इस तरह स्‍व स्‍फूर्त राष्‍टपति भवन नहीं घेरा। लोग क्‍या मांगने के लिए इंडिया गेट पर लाठियां खा रहे थे ? कानून व्‍यवस्‍था ? ? पिछले साल लोग यहां रिश्‍वतखोरी से छुटकारा मांगने आए। याद कीजिये कि किस राजनीतिक दल के चिंतन शिविर या कार्यकारिणी में कब कानून बदलने या भ्रष्‍टाचार पर चर्चा हुई। नेता  भौंचक है कि लोग कानून व्‍यवस्‍था या पारदर्शिता को लेकर इतने आंदोलित हो गए हैं ? राजनीति अब तक जो भीड जुटाती रही है वह तख्‍त ताज यानी सरकार बदलने की बात करती है कानून

Monday, December 3, 2012

महाबहस का मौका


  ह महाबहस का वक्‍त है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की बहस को महाबहस होना भी चाहिए क्‍यों कि इससे बड़ा कारोबार भारत में है भी कौन सा समृद्ध व्‍यापारिक अतीत, नए उपभोक्‍ता और खुलेपन की चुनौ‍तियों को जोड़ने वाला यही तो एक मुद्दा है, जो तेज तर्रार, तर्कपूर्ण लोकतां‍त्रिक महाबहस की काबिलियत रखता है। संगठित बहुराष्‍ट्रीय खुदरा कारोबार राक्षस है या रहनुमा ? करोड़ो उपभोक्‍ताओं के हित ज्‍यादा जरुरी हैं या लाखों व्‍यापारियों के? देश के किसानों को बिचौलिये या आढ़तिये ज्‍यादा लूटते हैं या फिर बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां ज्यादा लूटेंगी? बहुतों की दुकाने बंद होने का खौफ सच है या रोजगार बाजार के गुलजार होने की उम्‍मीदें ?... गजब के ताकतवर प्रतिस्‍पर्धी तर्कों की सेनायें सजी हैं। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि संसद रिटेल में विदेश निवेश पर क्‍या फैसला देगी यह देखना भी महत्‍वपूर्ण होगा कि भारत की संसद गंभीर मुद्दों पर कितनी गहरी है और सांसद कितने समझदार। या फिर भारत के नेता राजनीतिक अतिसाधारणीकरण में इस संवेदनशील सुधार की बहस को नारेबाजी में बदल देते हैं।
आधुनिक अतीत 
यह देश के आर्थिक उदारीकरण की पहली ऐसी बहस हैं जिसमें सियासत भारत के मध्‍य वर्ग से मुखातिब होगी। वह मध्‍यवर्ग जो पिछले दो दशक में उभरा और तकनीक व उपभोक्‍ता खर्च जिसकी पहचान है। भारत की ग्रोथ को अपने खर्च से सींचने वाले इस नए इं‍डिया को इस रिटेल (खुदरा कारोबार) के रहस्‍यों की जानकारी देश के नेताओं से कहीं ज्‍यादा है। यह उपभोक्‍ता भारत संगठित रिटेल को अपनी नई पहचान से जोड़ता है। इसलिए मध्‍य वर्ग ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की चर्चाओं में सबसे दिलचस्पी