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Saturday, August 31, 2019

उम्मीदों की ढलान


र्थशास्त्र की असंख्य तकनीकी परिभाषाओं के परे कोई आसान मतलब? प्राध्यापक ने कहा, उम्मीद और विश्वास. कारोबार, विनिमय, खपत, बचत, कर्ज, निवेश अच्छे भविष्य की आशा और भरोसे पर टिका है. इसी उम्मीद का थम जाना यानी भरोसे का सिमट जाना मंदी है.

खपत आधारित है आगे आय बढ़ते रहने की उम्मीद पर. कर्ज अपनी वापसी की उम्मीद पर टिका है; औद्योगिक व्यापारिक निवेश खपत बढ़ने पर केंद्रित है; और बचत या शेयरों की खरीद इस उम्मीद पर टिकी है कि यह चक्र ठीक चलेगा.

सरकार ने मंदी से निबटने के लिए दो माह पहले आए बजट को शीर्षासन करा दिया. लेकिन उम्मीदें निढाल पड़ी हैं.

क्या हम उम्मीद और विश्वास में कमी को आंकड़ों में नाप सकते हैं? मंदी के जो कारण गिनाए जा रहे हैं या जो समाधान मांगे जा रहे हैं उन्हें गहराई से देख कर यह नाप-जोख हो सकती है.

मंदी की पहली वजह बताई जा रही है कि बाजार में पूंजी, पैसे या तरलता की कमी है लेकिन...

·       भारत में नकदी (करेंसी इन सर्कुलेशन), जुलाई के पहले सप्ताह में 21.1 लाख करोड़ रुपए पर थी जो पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 13 फीसदी ज्यादा है. दूसरी तरफ, बैंकों में जमा की दर 2010 से गिरते हुए दस फीसदी से नीचे आ गई.

·       रिजर्व बैंक ब्याज की दर एक फीसद से ज्यादा घटा चुका है लेकिन कर्ज लेने वाले नहीं हैं. यानी कि बाजार में पैसा है, लोगों के हाथ में पैसा है, बैंक कर्ज सस्ता कर रहे हैं लेकिन लोग बिस्किट खरीदने से पहले भी सोच रहे हैं, कार और मकान आदि तो दूर की बात है.

·       अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध (आयात महंगा करना) से तो निर्यात बढ़ाने का मौका है. कमजोर रुपया भी निर्यातकों के माफिक है लेकिन न निर्यात बढ़ा, न उत्पादन.

·       खर्च चलाने के लिए सरकार ने रिजर्व बैंक का रिजर्व निचोड़ लिया है तो सुझाव दिए जा रहे हैं कि जीएसटी कम होने से मांग बढ़ जाएगी. लेकिन लागू होने के बाद से हर छह माह में जीएसटी की दर कम हुई. न मांग बढ़ी, न खपत, राजस्व और बुरी तरह टूट गया.

·       पिछले पांच साल के दौरान एक बार भी महंगाई ने नहीं रुलाया फिर भी बचत और खपत गिर गई.

हाथ में पैसा होने के बाद भी खर्च न बढ़ना,

टैक्स और कीमतें घटने के बाद भी मांग न बढ़ना,

कर्ज सस्ता होने के बाद भी कर्ज न उठना...

इस बात की ताकीद करते हैं कि जिन्हें खर्च करना या कर्ज लेकर घर-कार खरीदनी है उन्हें यह भरोसा नहीं है कि आगे उनकी कमाई बढ़ेगीजिन्हें उद्योग के लिए कर्ज लेना है उन्हें मांग बढ़ने की उम्मीद नहीं है और जिन्हें कर्ज देना हैउन्हें कर्ज की वापसी न होने का डर है.

इस जटिलता ने दो दुष्चक्र शुरू कर दिए हैं. टैक्स कम होगा तो घाटा यानी सरकार का कर्ज बढ़ेगा. ब्याज दर बढ़ेगी, नए टैक्स लगेंगे या पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ेगी. अगर बैंक कर्ज और सस्ता करेंगे तो डिपॉजिट पर भी ब्याज घटेगा. इस तरह बैंक बचतें गंवाएंगे और पूंजी कम पड़ेगी.

यही वजह है कि यह मंदी अपने ताजा पूर्वजों से अलग है. 2008 और 2012 में सरकार ने पैसा डाला और टैक्स काटे, जिससे बात बन गई लेकिन अब मुश्किल है.

2015 के बाद से लगातार सरकारी खर्च में इजाफा हुआ है और जीएसटी के चुनावी असर को कम करने के लिए टैक्स में कमी हुई लेकिन फिर भी हम ढुलक गए. अब संसाधन ही नहीं बचे. सरकारी खर्च के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व के इस्तेमाल से डर बढ़ेगा और विश्वास कम होगा.

कमाई, बचत और खपत, तीनों में एक साथ गिरावट मंदी की बुनियादी वजह है. लोगों को आय बढ़ने की उम्मीद नहीं है. देश में बड़ा मध्य वर्ग कर्ज में फंस चुका है. रोजगार न बढ़ने के कारण घरों में एक कमाने वाले पर आश्रितों की संख्या बढ़ रही है. यही वजह है कि बचत (बैंक, लघु बचत, मकान) 20 साल के न्यूनतम स्तर पर (जीडीपी का 30 फीसद) पर है. यह सब उस कथित तेज विकास के दौरान हुआ, जिसके दावे बीते पांच बरस में हुए. कोई अर्थव्यवस्था अगर अपने सबसे अच्छे दिनों में रोजगार सृजन या बचत नहीं करती तो आने वाली पीढ़ी के लिए मौके कम हो जाते हैं.

सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में तेज विकास के जो आंकड़े गढ़े थे क्या उन पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया? उसी की चमक में निवेश बढ़ाने, सरकारी दखल कम करने, मुक्त व्यापार के लिए ढांचागत सुधार नहीं किए गए जिसके कारण हम एक जिद्दी ढांचागत मंदी की चपेट में हैं

अगर यही सच है तो फिर जरूरत उन सुधारों की है, सुर्खियां बनाने वाले पैकेजों की नहीं क्योंकि उम्मीदों की मंदी बड़ी जिद्दी होती है.


Sunday, January 6, 2019

महंगाई की दूसरी धार


अभी खुदरा महंगाई सोलह महीने के सबसे निचले स्तर पर है और थोक महंगाई चार महीने के न्यूनतम स्तर पर लेकिन..

·       महंगाई में कमी और जीएसटी दरें कम होने के बावजूद खपत में कोई बढ़त नहीं है.

·   बिक्री में लगातार गिरावट के बावजूद कार कंपनियां कीमत बढ़ा रही हैं

·       जीएसटी में टैक्स कम होने के बावजूद सामान्यतः खपत खर्च में घरेलू सामान की खरीद का हिस्सा 50 फीसदी रह गया है, जो दस साल पहले 70 फीसदी होता था

·       जीएसटी के असर से उपभोक्ता उत्पादों या सेवाओं की कीमतें नहीं घटी 
हैं. कुछ कंपनियों ने लागत बढऩे की वजह से कीमतें बढ़ाई ही हैं

·       पर्सनल लोन की मांग जनवरी 2018 से लगातार घट रही है

·       उद्योगों को कर्ज की मांग में कोई बढ़त नहीं हुई क्योंकि नए निवेश नहीं हो रहे हैं  

·      महंगाई में कमी का आंकड़ा अगर सही है तो ब्याज दरें मुताबिक कम नहीं हुई हैं बल्कि बढ़ी ही हैं

इतनी कम महंगाई के बाद अगर लोग खर्च नहीं कर रहे तो क्या बचत बढ़ रही है?

लेकिन मार्च 2017 में बचत दर पांच साल के न्यूनतम स्तर पर थी. अब 
इक्विटी म्युचुअल फंड में निवेश घट रहा है.

महंगाई कम होना तो राजनैतिक नेमत है. इससे मध्य वर्ग प्रसन्न होता है. लेकिन तेल की कीमतों में ताजा बढ़त और रुपए की कमजोरी के बावजूद महंगाई नहीं बढ़ी है.

अर्थव्यवस्था जटिल हो चुकी है और सियासत दकियानूसी. महंगाई दुधारी तलवार है. अब लगातार घटते जाना अर्थव्यवस्था को गहराई से काट रहा है. महंगाई के न बढ़ने के मतलब मांग, निवेश, खपत में कमी, लागत के मुताबिक कीमत न मिलना होता है. महंगाई में यह गिरावट इसलिए और भी जटिल है क्योंकि दैनिक खपत वस्तुओं में स्थानीय महंगाई कायम है. यानी आटा, दाल, सब्जी, तेल की कीमत औसतन बढ़ी है जिसके स्थानीय कारण हैं.



पिछले चार साल में वित्त मंत्रालय यह समझ ही नहीं पाया कि उसकी चुनौती मांग और खपत में कमी है न कि महंगाई. किसी अर्थव्यवस्था में मांग को निर्धारित करने वाले चार प्रमुख कारक होते है.

एक —निजी उपभोग खर्च जिसका जीडीपी में हिस्सा 60 फीसदी होता था, वह घटकर अब 54 फीसदी के आसपास है. 2015 के बाद से शुरू हुई यह गिरावट अभी जारी है, यानी कम महंगाई और कथित तौर पर टैक्स कम होने के बावजूद लोग खर्च नहीं कर रहे हैं.

दो—अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश खपत की मांग से बढ़ता है. 2016-17 की पहली तिमाही से इसमें गिरावट शुरू हुई और 2017-18 की दूसरी तिमाही में यह जीडीपी के अनुपात में 29 फीसदी पर आ गया. रिजर्व बैंक मान रहा है कि मशीनरी का उत्पादन ठप है. उत्पादन क्षमताओं का इस्तेमाल घट रहा है. दिसंबर तिमाही में निवेश 14 साल के निचले स्तर पर है. ऑटोमोबाइल उद्योग इसका उदाहरण है.

तीन— निर्यात मांग को बढ़ाने वाला तीसरा कारक है. पिछले चार साल से निर्यात में व्यापक मंदी है. आयात बढ़ने के कारण जीडीपी में व्यापार घाटे का हिस्सा दोगुना हो गया है.

चार—100 रुपए जीडीपी में केवल 12 रुपए का खर्च सरकार करती है. इस खर्च में बढ़ोतरी हुई लेकिन 88 फीसदी हिस्से में तो मंदी है. खर्च बढ़ाकर सरकार ने घाटा बढ़ा लिया लेकिन मांग नही बढ़ी.

गिरती महंगाई एक तरफ किसानों को मार रही है, जिन्हें बाजार में समर्थन मूल्य के बराबर कीमत मिलना मुश्किल है. खुदरा कीमतें भले ही ऊंची हों लेकिन फल-सब्जियों की थोक कीमतों का सूचकांक पिछले तीन साल से जहां का तहां स्थिर है. दूसरी ओर, महंगाई में कमी जिसे मध्य वर्ग लिए वरदान माना जाता है वह आय-रोजगार के स्रोत सीमित कर रही है.

आय, खपत और महंगाई के बीच एक नाजुक संतुलन होता है. आपूर्ति का प्रबंधन आसान है लेकिन मांग बढ़ाने के लिए ठोस सुधार चाहिए. 2012-13 में जो होटल, ई कॉमर्स, दूरसंचार, ट्रांसपोर्ट जैसे उद्योग व सेवाएं मांग का अगुआई कर रहे थे, पिछले वर्षों में वे भी सुस्त पड़ गए. मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था में मांग का प्रबंधन करना था ताकि लोग खपत करें और आय व रोजगार बढ़ें लेकिन नोटबंदी ने तो मांग की जान ही निकाल दी.

2009 में आठ नौ फीसदी की महंगाई के बाद भी यूपीए इसलिए जीत गया क्योंकि मांग व खपत बढ़ रही थी और सबसे कम महंगाई की छाया में हुए ताजा चुनावों में सत्तारूढ़ दल खेत रहा. तो क्या बेहद कम या नगण्य महंगाई 2019 में मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है, न कि महंगाई का बढ़ना? 

Monday, November 26, 2018

आगे ढलान है !




पिछले चार साल में मेक इन इंडिया के जरिए उद्योग के सरदारों को रिझा रही सरकार को अचानक बेचारे बेबस और नोटबंदी-जीएसटी के मारे छोटे उद्योग क्यों याद आ गए, जिन्हें सामने रखकर वित्त मंत्रालय ने रिजर्व बैंक पर तोप तान दी है. 




हम इस पर आश्चर्य कर सकते हैं, यह जानते हुए भी कि बैंक और वित्तीय प्रणाली कर्ज के फंदे में फंसकर बुरी तरह हांफ रहे हैं और छह माह बाद यह मुसीबत फट पड़ेगी, फिर भी सरकार आखिर बैंकों को कर्ज की रेवडिय़ों का बाजार खोलने के लिए क्यों कह रही है?

दरअसल, चुनाव सामने है और भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार पर बन आई है. मौसम बिगड़ रहा है. पिछले दो माह का घटनाक्रम बता रहा है कि बड़े चुनाव से पहले ग्रोथ के आंकड़े सरकार के चुनाव प्रचार को बदमजा कर सकते हैं. कर्ज को लेकर सरकार की ताजा बेचैनी इसी डर से उपजी है.

आर्थिक विकास दर में अब तेज गिरावट के आसार हैं. चार कमजोरियां पहले से ही मौजूद हैं. एक—नोटबंदी और जीएसटी के बाद से बाजार में मांग नदारद है क्योंकि न तो निजी निवेश में बढ़त हो रही है और न उपभोक्ता खपत में. दो—ब्याज दरों में बढ़ोतरी का दौर प्रारंभ हो चुका है. तीन—जीएसटी की चपत से सरकार के राजस्व में गिरावट है, घाटा और नतीजतन कर्ज बढ़ रहा है. और चार—बकाया कर्ज से परेशान बैंक नए कर्ज बांटने की स्थिति में नहीं हैं और न ही सरकार अपनी जेब से इन बैंकों के उद्धार का बोझ उठा सकती है.

इन तीन बुनियादी चुनौतियों के बावजूद अर्थव्यवस्था किसी तरह ढुलक रही थी लेकिन सितंबर के बाद माहौल बुरी तरह बदल गया. रुपए की कमजोरी और कच्चे तेल की कीमतों में उफान के बीच वित्तीय बाजार में संकट का चक्र शुरू हो रहा है.

सितंबर के पहले सप्ताह में अचानक कई गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) बैंकों की तरह ही बकाया कर्ज की बीमारी की चपेट में आ गईं. ठीक यही मौका था जब बाजार में ब्याज दर भी बढऩे लगी थी इसलिए उनके लिए नया कर्ज जुटाना मुश्किल हो
गया और बाजार में पूंजी की कमी हो गई. 

अब खतरा विकास दर गिरने का है क्योंकि...

1. बैंकों के बकाया कर्ज के जाल में फंसने के बाद गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां कर्ज और पूंजी का प्रमुख स्रोत थीं. 2014-18 के बीच एनबीएफसी कर्ज पर अर्थव्यवस्था की निर्भरता पांच फीसदी से अधिक बढ़ी है. एनबीएफसी के डूबने के साथ सबसे बड़ा खतरा अचल संपत्ति के बाजार पर है जहां हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों की कर्ज की आपूर्ति 2013-18 के बीच 27 फीसदी की गति से बढ़ी है. एनबीएफसी और हाउसिंग फाइनेंस से कर्ज की आपूर्ति में कमी या महंगे कर्ज की वजह से अचल संपत्ति बाजार में गहरे संकट का अंदेशा है. खतरा है कि कई अचल संपत्ति कंपनियां और डेवलपर मुश्किल में होंगे जैसा कि आइएलएफएस के साथ हुआ है. सरकार बेतरह उलझे कर्ज बाजार में बैंकों को और ज्यादा जोखिम की तरफ धकेल रही है.

2. बाजार में मंदी के ताजा दौर ट्रैक्टर, मोबाइल फोन और दूसरे उपभोक्ता उत्पादों की खरीद एनबीएफसी के कर्ज पर निर्भर थी. यहां मांग और बिक्री बुरी तरह प्रभावित हुई है, जिसका असर इस बार त्योहारी मौसम की खरीद पर भी दिखा. छोटे कारोबारियों के रोजमर्रा की पूंजी और माइक्रोफाइनेंस की जरूरतें भी इस समानांतर बैंकिंग से पूरी हो रही थीं.

3. सरकार ने भले ही रिजर्व बैंक के जरिए बैंकों से कर्ज पाइप खुलवाने की कोशिश की है, बैंकों के एनपीए का इलाज रोक दिया है लेकिन कर्ज की महंगाई रोकना उसके बस का नहीं है. पिछले दो महीने में बैकों ने नए कर्ज पर ब्याज दरें बढ़ाई हैं. जमा दरें कम होने की गुंजाइश नहीं है इसलिए एनबीएफसी के साथ ही उपभोक्ताओं व कारोबारियो को मिलने वाला कर्ज भी महंगा होगा और इसके अलावा अमेरिका व यूरोप में भी ब्याज दरें बढऩे लगी हैं.

ब्याज दरों और ग्रोथ का रिश्ता संवेदनशील है. भारतीय अर्थव्यवस्था का ताजा इतिहास बताता है कि अगर छोटी अवधि के कर्ज (जैसा कि अभी है) पर ब्याज दरों में बढ़त लंबे समय तक जारी रहती है तो विकास दर में गिरावट तय है. चुनाव सामने है और सरकार का बजट बेपटरी है इसलिए नए सरकारी निवेश की गुंजाइश कम है.

अगली तिमाही से जीडीपी यानी आर्थिक विकास दर में ढलान शुरू हो सकती है. अगले साल फरवरी से मई तक जब देश में चुनाव का अश्वमेध यज्ञ चल रहा होगा तब बड़ी बात नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर ढलान की नई मंजिलें नाप रही हो. 2020 में विकास दर 6 फीसदी तक लुढ़कने के खतरे जायज हैं क्योंकि तब तक वित्तीय तंत्र में बीमारियां अपने उफान पर होंगी. यानी कि आर्थिक ग्रोथ के मामले में 2019 में हम शायद वहीं खड़े होंगे 2014 में जहां से चले थे.

Saturday, November 10, 2018

उन्नीस के बाद



अगर हम सियासत के गुबार से बाहर देख पाएं तो हमें कर्ज संकट से निबटने की तैयारी शुरु कर देनी चाहिए जो करीब दस-बारह महीने के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था पर फटने को तैयार होगा. 



भारत के वित्तीय तंत्र के लिए अब यूपीए और एनडीए में कोई बड़ा फर्क नहीं बचा है. 2008 के बाद जिस तरह यूपीए ने बैंकों से अंधाधुंध कर्ज बांटने को कहा और पूरी बैंक‌िंग में बकाया कर्जों का बारूद बिछ गया, ठीक उसी तरह आर्थिक ग्रोथ तेज करने की कोशिशों को ढहते देख मोदी सरकार को भी लगने लगा है कि कर्ज पर कर्ज देकर चुनावी संभावनाएं चमकाई जा सकती हैं. 

सरकार और रिजर्व बैंक के बीच ताजा विवाद के साथ ही कर्ज के इस टाइम बम की टिक्-टिक् भी शुरू हो गई है. भारत की छद्म बैंक‌िंग यानी एनबीएफसी (गैर बैंक‌िंग वित्तीय कंपनियों) ने पिछले चार साल में बेरोक-टोक कर्ज बाटे हैं. सरकार, रिजर्व बैंक के जरिए कर्ज के बकायों को बैंकों के गले बांधने जा रही है. बैंकों के पास बकाया कर्ज का भारी बारूद पहले से जमा है जिस पर अब नया आरडीएक्स बिछने वाला है.

रिजर्व बैंक गवर्नर रहें या जाएं लेकिन अब सरकार ने यह फरमान सुना ही दिया है कि एक-सरकारी बैंकों को एनबीएफसी के बकाया कर्ज खरीदने होंगे या नए कर्ज देने होंगे. दो-बैंकों पर बकाया कर्ज वसूली को लेकर सख्ती नहीं होगी और तीन-यूपीए की तर्ज पर बैंकों को कर्ज बांटने का अभियान शुरू करना होगा.

सब जानते हुए सरकार कर्ज से लदे बैंकों को नए बारूद पर क्यों बिठा रही है?

सरकार चुनाव के पहले एक कर्ज संकट को टालना चाहती है. एनबीएफसी या शैडो बैंक‌िंग ने बाजार से बड़े पैमाने पर (कॉमर्शियल पेपर और डिबेंचर) कर्ज लिए हैं. इन्हें जमा करने-जुटाने की छूट नहीं है. वे बैंक व बाजार से कर्ज लेकर आगे कर्ज देते हैं. एनबीएफसी के 2.3 लाख करोड़ के कर्ज दिसंबर तक चुकाए जाने हैं. कुछ बड़ी देनदारियां अगले साल सितंबर तक चलेंगी. 

इसी भुगतान की आहट के बाद अक्तूबर में बाजार में नकदी का संकट शुरू हुआ कि क्यों लेनदारों को यह पता है कि शैडो बैंक‌िंग के पैर के नीचे पूंजी की जमीन नहीं है.

सरकार की कवायद इस टाइम बम की घड़ी को आगे बढ़ाने की है ताकि चुनाव अच्छे-भले गुजर जाएं. ऐसा ही यूपीए ने किया था जब कंपनियों के बकाया कर्जों का भुगतान टाल कर उन्हें नए कर्ज दिए गए थे. सरकार के धमकाने पर रिजर्व बैंक ने बैंकों से कहा है कि वे इस शैडो बैंक‌िंग को और कर्ज दें, उनके बॉन्ड्स को गारंटी दें और यहां तक कि स्टेट बैंक तो एनबीएफसी के 45,000 करोड़ रु. के बकाया कर्ज खरीदने जा रहा है.

म्युचुअल फंड भी अपनी नकदी एनबीएफसी के बॉन्ड्स में लगाते थे. उन्हें इस शैडो बैंक‌िंग की सचाई मालूम है इसलिए पिछले दो माह में उन्होंने काफी बिकवाली की है. यानी अब इनके बकाया कर्ज की जिम्मेदारी बदहाल बैंकों पर आ गई है जिनके पास करोड़ों जमाकर्ताओं की बचत है.

रिजर्व बैंक के एनपीए फॉर्मूले के मुताबिक, एनबीएफसी यानी शैडो बैंक‌िंग के एनपीए उनके कुल उधार का 5.8 फीसदी है जबकि बैंकों का एनपीए (कुल कर्ज का प्रतिशत) 11.8 फीसदी है. इन्हें मिलने वाली ताजा राहत एक साल बाद बड़ी आफत बनकर टूटेगी और तब मुसीबत के नए दांत उग चुके होंगे.
2022 से सरकारी कर्ज की देनदारी का सबसे लंबा क्रम शुरू हो रहा है. यानी सरकार को या तो बैंकों से लिया कर्ज (ट्रेजरी बिल के जरिए) चुकाना होगा या उसे चुकाने के लिए नया कर्ज उठाना होगा. इस बीच सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ब्याज दरें बढऩे लगी हैं जो इस संकट को समय से पहले आमंत्रित कर सकती हैं.

चुनाव सामने हैं, वित्तीय संकट सबको दिख रहा है इसलिए कर्ज पर कर्ज बांटने से तत्काल न तो मांग बढऩी है और न निवेश. इसका लाभ कुछ ही बड़े शैडो बैंकों (एनबीएफसी) को ही मिलेगा. जैसा कि 2010 में माइक्रोफाइनेंस कंपनियों पर संकट के दौरान अन्य वित्तीय कंपनियों पर संकट बना रहेगा.

वित्तीय तंत्र में कर्ज मिथकों के राक्षस रक्तबीज की तरह होता है. वह सिर्फ जगह बदलता है, बढ़ता है, मरता कभी नहीं. बाजार को यह अच्छी तरह पता है. बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में ऐसे कर्ज संकट की स्थिति 40 साल में एक बार बनती है. क्या हम इससे बच पाएंगे?

Monday, February 5, 2018

बजट की कसौटी

एनडीए सरकार उसी घाट फिसल गई जिसको उसे सुधारना था. सरकार का आखिरी पूर्ण बजट पढ़ते हुए महसूस होता है कि सरकारों के तौर-तरीके आत्मा की तरह अजर-अमर हैं. यह आत्मा हर पांच वर्ष में राजनैतिक दलों के नाशवान शरीर बदलती है.

अगर बजट से सरकार की कमाई और खर्च को संसदीय मंजूरी निकाल दी जाए तो फिर इस सालाना जलसे में बचता क्या हैक्यों बजट इतने मूल्यवान हैं जबकि अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्साभाग्यवशबजट यानी सरकार के नियंत्रण से बाहर हैजहां बजट की भूमिका परोक्ष ही होती है. 

बजट इसलिए उत्सुकता जगाते हैं क्‍यों कि इनसे एक तो सरकार की नई सूझ का पता चलता है और दूसरा सरकार ने अपनी पिछली सूझ (फैसलोंनीतियों) पर अमल कितने दुरुस्त तरीके से किया है. बजट देखकर हम आश्वस्त हो सकते हैं कि हमसे लिया गया टैक्स कायदे से खर्च हो रहा है और बैंकों में हमारी जमा जो कर्ज में बदल कर सरकार को मिल रही हैउसका सही इस्तेमाल हो रहा है.

बजट हमेशा तात्‍कालिक और  दूरगामी कसौटी पर कसे जाते हैं तात्‍कालिक कसौटी यह है कि जिंदगी जीने की लागत बढ़ेगी या कम होगी. महंगाई ओर ब्‍याज दरें इस कसौटी का हिस्‍सा हैं.  दूरगामी कसौटी यह है कि जिंदगी कितनी सुविधाजनक होगी. सरकारी  स्‍कीमों का क्रियान्‍वयन इस कसौटी की बुनियाद है  

आगे और महंगाई है

महंगाई जिंदगी जीने की लागत बढ़ाती है. इस बजट के पीछे भी महंगाई थी जो जीएसटी से निकली थी और आगे भी महंगाई खड़ी है.

एकखेती के बढ़े हुए समर्थन मूल्य किसानों को भले ही न मिलें लेकिन बाजार को 
यह अहसास हो गया है कि खाद्य उत्‍पादों के मूल्‍य बढ़ेंगे. कई बाजारो में उन फसलों को लेकर तेजी माहौल बनने लगा है जिन की उपज आमतौर पर मांग से कम है. दालें इनमें प्रमुख हैं महंगाई उपभोक्‍ताओं के दरवाजे पर खड़ी है कीमतों तेजी रबी की फसल बाजार में आने के साथ प्रारंभ हो सकती है

दोढेर सारी चीजों पर सीमा शुल्क बढ़ा है जीएसटी का असर कीमतों पर पहले से है खासतौर  टैक्‍स के चलते सेवायें महंगी हुई हैं

तीनराजकोषीय घाटा बढऩे से सरकार का कर्ज बढ़ेगा जो महंगाई की वजह होगा.

चार- कच्‍चे तेल की कीमतें बढ़ने लगी है, पेट्रोल-डीजल पर नया सेस लगाया गया है. जो ईंधन की महंगाई को असर करेगा.

इस बजट ने फिर यह साबित किया कि महंगाई बढ़ाए बिनासरकार खुद को नहीं चला सकती. सरकार अपना खर्च कम करने को तैयार नहीं है इसलिए लोग महंगाई या टैक्स की मार के बदले ही कुछ पाने की उम्मीद कर सकते हैं.

ताकि सनद रहे: पहले बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकारी खर्च के पुनर्गठन का वादा किया था.

स्‍कीम-राज !
भारतीय गवर्नेंस अच्छे इरादों को खोखले वादों में बदलने वाली मशीन है. जिंदगी को सुविधाजनक बनाने के लिए सरकारी स्कीमों का क्रियान्वयन बेहतर होना जरूरी है. जेटली जब 'दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा स्कीम का ऐलान कर रह थेउनकी अपनी ही सरकार की दो असफल स्वास्थ्य बीमा स्कीमें उनके पीछे खड़ी थीं. सरकारों की स्कीमबाजी उबाऊ हो चली है. इनकी असफलता असंदिग्ध है. नई सरकारें नई स्‍कीमें लाती हैं तो लोग निराश होते हैं उम्‍मीद यह होती है कि सरकार पुरानी स्कीमों की डिलीवरी को चुस्त करेगी.

ताकि सनद रहे: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा लक्ष्य गवर्नेंस यानी कि सरकारी कार्यक्रमों का क्रियान्वयन सुधारना था. लेकिन बजट दर बजट उन्हें नई स्कीमें लानी पड़ी हैं ताकि पिछली स्कीमों के खराब क्रियान्वयन को भुलाया जा सके. स्कीमों की भीड़ और उनके बुरे हाल से अब इस सरकार की ही नहींअगली सरकारों की साख भी खतरे में रहेगी.

कर्ज जो रहेगा महंगा

सस्ता कर्ज नोटबंदी के सबसे बड़े मकसदों में एक था. हालांकि ऐसा   हुआ नहीं. फंसे हुए कर्जों ने बैंकों के हाथ बांध दिये थे. नोटबंदी ने उन पर ब्‍याज का बोझ बढ़ा दिया. बैंकों की सरकारी मदद ( पूंजीकरण) पहुंचने तक महंगाई आ पहुंची. सात फरवरी को रिजर्व बैंक जब मौद्रिक नीति की समीक्षा करेगातो उसे महंगाई और राजकोषीय घाटे को लेकर खतरे की चेतावनियां भेजनी होंगी. ब्‍याज दरें कम होने की उम्‍मीद अब कम है. अचरज नहीं कि अगर ब्‍याज दरें बढ़ जाएं. स्‍टेट ने अपने डिपॉजिट पर ब्‍याज बढ़ाई है ताकि जमाकर्ता बैंकों से जुडे रहे हैं. इसका असर कर्ज की ब्‍याज दर पर होगा

मोदी सरकार के पहले दो बजट (जुलाई 2014 और फरवरी 2015 ) अभी कल की ही बात लगते हैं जब दहाई के अंकों में विकास दरनई गवर्नेंसबिग आइडियासब्सिडी में कटौतीखर्च में कमीघाटे पर काबूसस्‍ते कर्ज के आह्वान उम्मीदें जगाते थे लेकिन आखिरी बजट आते-आते महंगाईकच्चे तेल की बढ़ती कीमतस्कीमों की बारात और भारी टैक्स लौट आए हैं. और मंदी अभी तक गई नहीं है 

हाल के दशकों में सबसे भव्य जनादेश वाली सरकार का आखिरी बजट यही बता रहा है कि चुनावों में सरकार तो बदली जा सकती है लेकिन 'सरकार’ को बदलना नामुमकिन है.