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Friday, April 2, 2021

लौट के फिर न आए ...

 


 हर्ष बुरी तरह निराश है. लॉकडाउन खत्म हुए नौ महीने बीतने को हैं. सरकारी मुखारविंदों से मंदी खत्म होने उद्घोष झर रहे हैं. रैलियां, चुनाव, मेले सब कुछ तो हो रहे हैं, बस उसकी नौकरी नहीं लौट रही.

हर्ष जैसे लोग पहले भी बहुत ज्यादा नहीं थे जिनके पास मासिक पगार वाली ठीक ठाक नौकरी थी. हर्ष जैसे गिनती के लोग टैक्स दे पाते हैं, और अपने खर्च के जरि‍ए कई परिवारों को जीविका देते हैं. कोविड से पहले 2019-20 में वेतनभोगियों की तादाद करीब 8.6 करोड़ थी जो अप्रैल 2020 में घटकर 6.8 करोड़ और जुलाई में घटकर 6.7 करोड़ रह गई (सीएमआईई).

लॉकडाउन खत्म होने के बाद, पहले से कम मजदूरी और कभी भी निकाले जाने के खतरे के तहत असंगठित दिहाड़ी कामगारों को कुछ काम मिलने लगा है, लेकिन संगठित नौकरियों के बाजार में स्थायी मुर्दनी छाई है.

आर्थि‍क मंदी की गर्त से वापसी के सफर में नौकरी पेशा बहुत पीछे क्यों छूटते जा रहे हैं? कोविड के बाद नौकरियां क्यों नहीं लौट रही हैं? इसके‍ लिए कोविड के पहले की तस्वीर देखनी होगी.

भारत में संगठित क्षेत्र के रोजगारों का बाजार पहले से बहुत छोटा है. जिसका दुर्भाग्य कोवि‍ड की आमद से पहले ही जग चुका था.

1,703 प्रमुख और बड़ी कंपनियों की बैलेंस शीट का आकलन (केयर रेटिंग्स, नवंबर 2020) बताता है कि कोविड से पहले 2019-20 में भारत की 60 फीसद कॉर्पोरेट नौकरियां केवल पांच उद्योग या सेवाओं (सूचना तकनीक 20.8, बैंक 18, ऑटोमोबाइल 7.5, हेल्थकेयर 6.4, वित्तीय सेवाएं 6.1 फीसद ) में थीं. इनमें करीब 39 फीसद कॉर्पोरेट रोजगार केवल बैंक और सूचना तकनीक में केंद्रित हैं.

मंदी कोविड से पहले ही आ गई थी इसलिए प्रमुख कंपनियों में नई नियुक्तियों में दो फीसद गिरावट दर्ज की गई. 2018-2019 में प्रमुख कंपनियों ने करीब 2.55 लाख कर्मचारी रखे थे जबकि‍ वित्त वर्ष 2020 में केवल 1.38 लाख नई भर्तियां हुईं.

उपरोक्त पांच उद्योग और सेवाओं के अलावा उपभोक्ता उत्पाद, बीमा, रिटेल, स्टील, भवन निर्माण व रियल एस्टेट, केमिकल और उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेट नौकरियों वाले अन्य प्रमुख क्षेत्र हैं. इनमें केवल बैंक और उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों ने 2018-2019 की तुलना में 2019-20 ज्यादा भर्तियां की. अन्य सभी क्षेत्रों में नए रोजगारों की संख्या घट गई थी.

बैंकिंग-वित्तीय सेवाएं, अचल संपत्ति‍, ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्र लोगों की आय व खपत मांग पर केंद्रित हैं. मंदी के बाद मांग खत्म होने से इनमें नए अवसर बनते नहीं दिख रहे हैं. बैंकिंग में कोविड से पहले तक नए रोजगार बन रहे थे, वहां फंसे हुए कर्ज, सरकारी बैंकों का विलय और निजीकरण रोजगारों की बढ़त पर भारी पड़ने वाला है.

इसके बाद सूचना तकनीक, उपभोक्ता उत्पाद (एफएमसीजी) और स्वास्थ्य सेवाएं बचती हैं जहां कोविड लॉकडाउन के दौरान 'गए' रोजगारों की एक सीमा तक वापसी हो सकती है. हालांकि यहां भी कोविड के बीच नई तकनीक के सहारे श्रम लागत में कटौती के नए रास्ते अपनाए जा रहे हैं इसलिए बड़े पैमाने पर नए रोजगार आने की उम्मीद नहीं दिखती. 

2008-9 की मंदी ने यूरोप और अमेरिका में जो तबाही मचाई थी वही भारत में होता दिख रहा है. उस मंदी के बाद वित्तीय सेवाएं, भवन निर्माण, मैन्युफैक्चरिंग, बिजनेस सर्विसेज, मझोले स्तर के रोजगार बड़े पैमाने पर खत्म हो गए थे. इसलिए ही कोविड के दौरान वहां की सरकारों ने रोजगार बचाने में पूरी ताकत झोंक दी. भारत में भी मझोले स्तर के रोजगार खत्म हुए हैं. 

कोवि‍ड वाला वित्तीय वर्ष बीतते महसूस हो रहा है कि बीते एक साल में जितना आर्थि‍क उत्पादन पूरी तरह खत्म हुआ है उसका अधि‍कांश नुक्सान संगठित क्षेत्र के रोजगारों के खाते में गया है. 

सनद रहे कि कॉर्पोरेट और संगठित नौकरियों की संख्या पहले से बहुत कम थी. कोविड से ऐसे कामगारों कुल तादाद 47 करोड़ थी, जिसमें केवल पांच करोड़ पीएफ (भविष्य निधि‍) और करीब तीन करोड़ कर्मचारी बीमा के तहत हैं.

नौकरियों का अर्थशास्त्र बताता है कि अर्थव्यवस्था मंदी से भले ही उबर जाए पर लंबी बेकारी असंख्य लोगों को रोजगार के लायक नहीं रखती. भारत में बेरोजगारी में 2018 में (एनएसएसओ) ही 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुकी थी. मंदी के बाद यह सूखा अब और लंबा हो रहा है.

कंपनियों को नौकरियां बचाने और बढ़ाने पर बाध्य करने और खाली सरकारी पदों को भरने की दूर, हमारी सरकारें बेरोजगारी पर बात भी नहीं करना चाहतीं. अमेरिकी उप राष्ट्रपति हर्बट हंफ्रे कहते थे कि अगर भूख, गरीबी, खराब सेहत और तबाह जिंदगियां अस्वीकार्य हैं तो बेरोजगारी का कोई न्यूनतम स्तर कैसे स्वीकार हो सकता है! 

बेरोजगारी जीवन का अपमान है, यह राष्ट्रीय शर्म है लेकिन भारत में यह शर्म केवल बेरोजगारों को आती है, सरकारों को नहीं. हम अजीब दौर में हैं, जहां सरकार कारोबारों को फॉर्मल यानी संगठित बनाने की मुहिम में लगी है लेकिन रोजगार बाजार में अस्थायी (असंगठित) नौकरी और कम वेतन अब नया नियम होने वाले हैं.

Friday, October 2, 2020

राहत ऐसी होती है !


मुंबई में दो साल तक काम करने के बाद, सितंबर 2019 में कीर्ति की मेहनत कामयाब हुई, जब उसे लंदन की मर्चेंट बैंकिंग फर्म में नौकरी मिल गई. वह लंदन को समझ पाती इससे पहले कोविड गया. नौकरी खतरे में थी. लेकिन अप्रैल में ही उसकी कंपनी सरकार की जॉब रिटेंशन स्कीम (नौकरी बचाओ सब्सिडी) में शामिल हो गई. पगार कुछ कटी लेकिन नौकरी बच गईबहुत नुक्सान नहीं हुआ.

भारत में उसका भाई सिद्धार्थ इतना खुशकिस्मत नहीं रहा. जि स्टार्ट-अप में वह तीन साल से काम कर रहा था अप्रैल में वह बंद हो गया. आर्किटेक्ट पिता को कोविड के कारण अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. कीर्ति की नौकरी (यूके सरकार की जॉब रिटेंशन स्कीम) ही थी जो इस आपदा में उसके परिवार के काम रही थी.

कोविड की तबाही शुरू हुए छह महीने बीतने के अब आर्थिक फैसलों के असर समझने की कोशि हो रही है. दुनिया के देशों ने अपने समग्र आर्थिक उपाय रोजगारों को बचाने पर केंद्रित कर दिए हैं, जबकि भारत सरकार छंटनी और बेरोजगारी के विस्फोट पर उपाय तो दूर, सवाल भी सुनना नहीं चाहती.

जानना जरूरी है कि इस संकट में दुनिया के अन्य देश अपने लोगों का कैसे ख्याल रख रहे हैं.

वेतन संरक्षण या पगार सब्सिडी सरकारों के रोजगार बचाओ अभियानों का सबसे बड़ा हिस्सा है. भारत में जब हर चौथे कर्मचारी की पगार कटी है तब ब्रिटेन कीफर्लो’, जर्मनी की कुर्जरबेट जैसी स्कीमों सहित फ्रांस, इटली, कनाडा, मलेशिया, हांगकांग, नीदरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, डेनमार्क और सिंगापुर सहित 35 देशों में कंपनियों को सब्सिडी और फर्लो बोनस दिए जा रहे हैं. अमेरिका में छोटे उद्योगों को तकरीबन मुफ्त कर्ज मिल रहा है ताकि कर्मचारियों की तनख्वाहें कटें. इन सभी देशों में कर्मचारियों के 70 से 84 फीसद तक वेतन संरक्षित किए गए हैं. इन स्कीमों का लाभ मध्य वर्ग को मिला है जिससे बाजार में मांग बनाए रखने में मदद मिली है. बीमारी में वेतन काटे जाने इलाज आदि की रियायतें अलग से हैं.

अमेरिका, दक्षि कोरिया, चीन (प्रवासी श्रमिकों के लिए), कनाडा, आयरलैंड, बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देशों ने बेकार हुए लोगों और परिवारों को बेकारी भत्ते दिए हैं या मौजूदा भत्तों की दर बढ़ाई है. इसका लाभ कम आय वालों को मिला है.

अमेरिका, स्वीडन, डेनमार्क, कनाडा, आयरलैंड, फ्रांस सहित करीब दो दर्जन देशों ने अपने यहां स्वरोजगारों के लिए सब्सिडी और नुक्सान भरपाई की स्कीमें शुरू की हैं, जिनमें उनके हर माह हुए नुक्सान का 60 से 70 फीसद हिस्सा वापस हो रहा है. उनके टैक्स माफ किए गए हैं.

ज्यादातर स्कीमें छोटे उद्योगों में रोजगार बचाने पर केंद्रित हैं जबकि बड़ी कंपनियों को टैक्स रियायतें देकर नौकरियां और वेतन कटौती रोकने के लिए प्रेरित किया गया है. रोजगार बचाने की स्कीमों के कारण लोगों के वेतन संरक्षि हैं इसलि कोवि का डर बीतते ही मांग लौट आएगी. यूरोप और अमेरिका में तेज वापसी (V) का आकलन इसी पर आधारित है.

1930 की महामंदी के बाद उभरी आर्थि नीतियों (अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केंज का खुला पत्र) की रोशनी में सरकारों ने यह गांठ बांध ली थी कि रोजगार बचाना और बढ़ाना ही मंदी से उबरने का एकमात्र तरीका है. अप्रैल से लेकर अगस्त के दौरान यूरोप में करीब 5 करोड़ रोजगार बचाए (ओईसीडी रिपोर्ट) गए हैं. अमेरिका में सितंबर के आखिरी सप्ताह तक करीब 2.6 करोड़ बेरोजगारों को बेकारी सहायता मिली. छोटे उद्योगों में वेतन संरक्षण कार्यक्रम के तहत 520 अरब डॉलर के कर्ज (इन्हें बाद में माफ कर दिया जाता है) बांटे जा चुके हैं.

दूसरी तरफ, इसी दौरान भारत में 12.2 करोड़ रोजगार खत्म हुए (सीएमआइई) जिसमें 66 लाख नौकरियां मध्य वर्गीय हैं. करीब 72 लाख करोड़ के खर्च (केंद्र और राज्य), किस्म-किस्म के टैक्स, बैंकों से मनचाहे कर्ज के बावजूद हमारी सरकारों के पास इस सबसे मुश्कि वक्त में हमारे लिए कुछ नहीं है. सरकार ने 20 करोड़ महिला जनधन खातों में तीन माह में केवल 1,500 रुपए (आठ दिन की मनरेगा मजदूरी के बराबर) दी है जिस पर मंत्री और समर्थक लहालोट हुए जा रहे हैं.

भारत में मंदी गहराने के आकलन यूं ही नहीं बरस रहे. वास्तविकता से कोसों दूर खड़ी सरकार बेकारी और महामंदी से परेशान लोगों को कर्ज लेने की राह दिखा रही है या कि भूखों को विटामिन खाने की सलाह दी जा रही है. सबको मालूम है, मांग केवल खपत से आएगी और हर महीने जब बेकारों की तादाद बढ़ रही हो तो कारोबार में नया निवेश कौन करेगा. हमें याद रखना होगा कि सरकारें हमारी बचत और टैक्स पर चलती हैं. और जीविका पर इस सबसे बड़े संकट में हमें हमारे हाल पर छोड़ रही हैं.

शेक्सपियर के जूलियस सीजर में कैसियस और ब्रूटस का संवाद याद आता हैः खोट हमारे सितारों में नहीं है / हम ही गए बीते हैं.