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Monday, September 10, 2018

बाजार बीमार है !


सेबी के चेयरमैन म्युचुअल फंड उद्योग की बैठक में मानो आईना लेकर गए थे. यह उद्योग अब 23.5 लाख करोड़ रुपए (2013 में केवल 5 लाख करोड़ रु.) की निवेश संपत्तियों को संभालता है. इस उत्सवी बैठक में सेबी अध्यक्ष ने पूछा, इस कारोबार में केवल चार म्युचुअल फंड 47 फीसदी निवेश क्यों संभाल रहे हैं जबकि (एसेट मैनेजमेंट) कंपनियां तो 38 हैं. 
कारोबार तो बढ़ा पर प्रतिस्पर्धा क्यों नहीं बढ़ी?
नियामकों को ठीक ऐसे ही सवाल पूछने चाहिए. 
लेकिन टीआरएआइ चेयरमैन ने यही सवाल टेलीकॉम कंपनियों से क्यों नहीं पूछा जहां प्रतिस्पर्धा घिसते-घिसते तीन ऑपरेटरों तक सीमित हो गई है. कभी हर सर्किल में तीन ऑपरेटर थे. अब 135 करोड़ के देश में तीन मोबाइल कंपनियां हैं.  

क्या पेट्रोलियम मंत्रालय यह पूछेगा कि पूरा बाजार तीन सरकारी पेट्रोल कंपनियों के पास ही क्यों है?

2015 में एक दर्जन से अधिक ई-कॉमर्स कंपनियों से गुलजार भारत का बाजार अब पूरी तरह दो अमेरिकी कंपनियों के पास चला गया है. सबसे बड़े ई-रिटेलर फ्लिपकार्ट को अमेरिकी ग्लोबल रिटेल दिग्गज वालमार्ट ने उठा लिया. अब वालमार्ट का मुकाबला ई-कॉमर्स बाजार की सबसे बड़ी कंपनी अमेजन से है जो भारत में पहले से है. यानी देसी ई- कॉमर्स कंपनियों का सूर्य डूब रहा है.
क्या भारत की मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था एडिय़ां रगडऩे लगी है?

प्रतिस्पर्धा जमने से पहले ही बेदखल होने लगी है?

नए बाजारवादी एकाधिकार उभर रहे हैं?

क्या बाजार चुनिंदा हाथों में केंद्रित हो रहा है?

दरअसल, जो सेबी चेयरमैन ने म्युचुअल फंड उद्योग से पूछा, अगर उसका विस्तार किया जाए तो ऊपर लिखे सच को स्वीकारना होगा.
क्या सरकार बताना चाहेगी कि ऐप आधारित टैक्सी सेवा में केवल दो ही कंपनियां क्यों हैं? जेट एयरवेज अगर बीमार हुई तो विमान सेवाओं के अधिकांश बाजार पर तीन (दो निजी, एक सरकारी) कंपनियों का एकाधिकार हो जाएगा! 

स्टील, दुपहिया वाहन, प्लास्टिक रॉ मटीरियल, एल्युमिनियम, ट्रक और बसें, कार्गो, रेलवे, कोयला, सड़क परिवहन, तेल उत्पादन, बिजली वितरण, कुछ प्रमुख उपभोक्ता उत्पाद सहित करीब एक दर्जन प्रमुख क्षेत्रों का अधिकांश बाजार एक से लेकर तीन कंपनियों (निजी या सरकारी) के हाथ में केंद्रित है. केवल कार, कंप्यूटर, फार्मास्यूटिकल्स, मोबाइल का बाजार ही ऐसा है जहां पर्याप्त प्रतिस्पर्धा दिखती है.
उदारीकरण के करीब दो दशक बाद प्रतिस्पर्धा बढऩे, मंदी के झटके, नई तकनीकों की आमद, नए अवसरों की तलाश और पूंजी की कमी से बाजार में पुनर्गठन शुरू हुआ. कंपनियों के अधिग्रहण और विलय हुए. वोडाफोन-आइडिया, वालमार्ट-फ्लिपकार्ट, अडानी-रिलायंस एनर्जी, मिंत्रा-जबांग, एमटीएस-रिलायंस कम्युनिकेशंस, रिलायंस-एयरसेल, कोटक-बीएसएस माइक्रोफाइनांस, फ्लिपकार्ट-ई बे, बिरला कॉर्प-रिलायंस सीमेंट... फेहरिस्त लंबी है.

2017 में भारत में 46.5 अरब डॉलर के निवेश से कंपनियां बेची और खरीदी गईं. यह विलय व अधिग्रहण अगले साल 53 अरब डॉलर से ऊपर निकल जाएगा.

बैंक कर्ज में फंसी कंपनियों की बिक्री और बंदी भी प्रतिस्पर्धा को मार रही है. करीब 34 निजी बिजली कंपनियां कर्ज में दबी हैं. कर्ज की वसूली उन्हें बंदी या बिक्री के कगार पर ले आएगी. यानी बिजली बाजार में भी कुछ ही कंपनियां ही बचेंगी.

प्रतिस्पर्धा कम होने से मोबाइल सेवाओं, स्टील, ई-कॉमर्स, विमानन में रोजगार में खासी कमी आई है. उपभोक्ताओं पर मनमानी या खराब सेवाएं थोपी जा रही हैं. प्रतिस्पर्धा की कमी से कई उत्पादों में नए प्रयोग भी सीमित हो रहे हैं. 

मुक्त बाजार में सरकारों और नियामकों की जिम्मेदारी होती है कि वे बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ाएं, नई कंपनियों के प्रवेश का रास्ता खोलें, कार्टेल और एकाधिकार समाप्त करें. 

गूगल-फेसबुक वाली नई दुनिया की सबसे ताजा चिंता बाजार पर निजी एकाधिकार हैं. अमेरिका की 100 प्रमुख कंपनियां देश की आधी अर्थव्यवस्था पर काबिज हैं. 1955 में अमेरिका की अर्थव्यवस्था में  फॉच्र्यून 500 कंपनियों का हिस्सा 35 फीसदी था, आज यह 72 फीसदी है.

ताकत और अवसरों का केंद्रीकरण राजनीति और बाजार, दोनों जगह खतरनाक है. लोकतंत्र में सरकार और बाजार को एक दूसरे की यह ताकत तोड़ते रहना चाहिए लेकिन अब तो राजनीति (सरकार) बाजार में एकाधिकारों को पोस रही है और बदले में बाजार राजनीति को सर्वशक्तिमान बना रहा है. यह गठजोड़ हर तरह की आजादी के लिए, शायद सबसे बड़ा खतरा है.

Sunday, April 1, 2018

सबसे ज़हरीली जोड़ी


फ्रिट्ज (नोबेल 1918) केमिस्ट्री का दीवाना था. वह यहूदी से ईसाई बन गया और शोध से बड़ी ख्याति अर्जित की. बीएएसएफ तब जर्मनी की सबसे बड़ी केमिकल (आज दुनिया की सबसे बड़ी) कंपनी थी. उसे नाइट्रोजन का मॉलीक्यूल तोडऩे वाली तकनीक की तलाश थी ताकि अमोनिया उर्वरक बनाकर खेती की उपज बढ़ाई जा सके. हेबर ने 1909 में फॉर्मूला खोज लिया. उसने कार्ल बॉश के साथ मिलकर अमोनिया फर्नेस तैयार की और मशहूर हेबर-बॉश पद्धति पर आधारित पहला उर्वरक संयंत्र ओप्पूक में 1913 से शुरू हो गया.

अगले ही साल बड़ी लड़ाई छिड़ गई. जर्मनी के पास गोला-बारूद की कमी थी. टीएनटी विस्फोटक बनाने के लिए नाइट्रेट का आयात मुश्किल था. सरकार के निर्देश पर हेबर-बॉश की फैक्ट्रियां खाद की जगह बम बनाने लगीं. यप्रेस की दूसरी लड़ाई (1915) में फ्रेंच और सहयोगी सेना पर नाइट्रोजन बम का इस्तेमाल हुआ. हेबरजिसकी बदौलत जर्मनी चार साल तक जंग में टिक सका थावह नाजियों के नस्लवादी कानून का शिकार होकर (1934) ट्रिबलेस्की मे तंगहाली में मरा.

हेबर-बॉश पद्धति से बने उर्वरकों के कारण ही उपज बढ़ीजिससे आज दुनिया की तीन अरब आबादी का पेट भर रहा है.

फेसबुक की डेटा चोरी में हेबर के आविष्कार का अक्स नजर आ सकता है. अभिव्यक्ति और संवाद के नए जनतंत्र पर धूर्त सियासत के पंजे गडऩे लगे हैं. हमने राजनीति का अपराधी और कारोबारियों से रिश्ता देखा था लेकिन हमारी निजी जानकारियों से लैस कंपनियों और कुटिल नेताओं का गठजोड़ सर्वाधिक विस्फोटक हैजो हमारी सोच व तर्क को मारकर लोकतांत्रिक फैसलों पर नियंत्रण कर सकता है.

हर दुश्‍मन पहले से ज्‍यादा ताकतवर होता है. यह जोड़ी हमारी नई आजादी की नई दुश्‍मन है. वेब की दुनिया में हम निचाट नंगे हैं इसलिए इनकी कुटिलताओं में अनंत खतरे पैबस्‍त हैं. 

इतिहास हमें सिखाता है कि प्रत्येक बदलाव के पीछे पूर्व निर्धारित उद्देश्य नहीं होता. हम 'जो होगा अच्छा ही होगा' के शिकार हैं. संदेह और सवाल करना छोड़ देते हैं. अनुयायी हो जाते हैं. क्या हमने कभी सोचा कि

सेवा मुफ्त तो ग्राहक बिकता हैः 2016 में जब फेसबुक भारतीय टेलीकॉम कंपनियों के साथ मुफ्त इंटरनेट सुविधा देने की कोशिश कर रहा था तो विरोध हुआ लेकिन जब रेलवे ने गूगल के साथ मुफ्त वाइ-फाइ दिया तोसेवाओं का कारोबारउत्पादों से फर्क है. कंपनियां मुफ्त सुविधाएं देकर हमारी आदतें किसी होटल या कार वाले को बेच आती हैं. राजनीति व सूचना कंपनियों को पता है कि हमारी खपत और हमारा वोटदोनों को मनमाफिक मोड़ा जा सकता है. दोनों मिलकर हमें मुफ्तखोरी की अफीम चटाते हैं. 

हमें जानना होगा कि मुफ्तखोरी का कारोबार कल्याणकारी हरगिज नहीं है.

बहुत बड़ा होने के खतरेः प्रतिस्प‍र्धा की दीवानी दुनिया को अचरज क्यों नहीं हुआ कि उसके पास दर्जनों कारफूडविमान कंपनियां हैं लेकिन अमेजनगूगल या फेसबुक इकलौते क्यों हैं. शेयर बाजार में गूगल फेसबुकएपल का संयुक्त मूल्य (कैपिटलाइजेशन) फ्रांसजर्मनीकनाडा के पूरे शेयर बाजार से ज्यादा है. हमने इन्हें इतना बड़ा कैसे होने दियाभारत में भी कई सेवाओं में कुछ कंपनियों का ही राज है.  

हमें प्रतिस्पर्धा के लिए लडऩा होगा ताकि कोई इतना बड़ा न हो सके कि हमारी आजादी ही छोटी पड़ जाए.

महानता और ताकतः राजनीति में हम महानता और ताकत के बीच अंतर करना भूल जाते हैं. सियासी ताकत के लिए लोगों को बांटना जरूरी हैजिसके लिए नेताओं को बमों से लेकर बैंक और लोगों की निजी जानकारी तक प्रत्येक ताकतवर चीज पर नियंत्रण चाहिए. हमारे निजी डेटा के लिए वे कुछ भी कर गुजरने को उत्सुक हैं. नेता आजकल यह बताते मिल जाएंगे कि आपका व्यवहार जानकर वे आपको अच्छा नागरिक बना सकते हैं. अचरज नहीं कि जापान से लेकर यूरोप तक कट्टर राजनैतिक ताकतों में सोशल नेटवर्क के प्रति गजब की दीवानगी है.

लोकतंत्र हमें यह शक्ति देता है कि हम नेताओं को यह बता सकें कि उन्हें हमारे लिए क्या करना चाहिए.

अमेरिका और एशिया में राजनीति-सोशल नेटवर्क का गठजोड़ ज्यादा विध्वंसक है. लेकिन यूरोप ने इतिहास से सीखा है कि किसी के बहुत ताकतवर होने के क्या खतरे हैं. सोशल नेटवर्क पर तैरता निजी डेटा हेबर-बॉश प्रोसेस है. इससे पहले कि राजनेता इससे बम बना लेंयूरोप के नए कानून सोशल मीडिया के लोकतंत्र को नेता-कंपनी गठजोड़ से बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं. यूरोपीय समुदाय में अगले दो माह के भीतर वहां जीडीपीआर (जनरल डेटा प्रोटेक्शन रूल्स) यानी डेटा सुरक्षा के नए नियम लागू हो जाएंगे. वित्तीय उत्पादों के साथ एकत्र होने वाली निजी सूचनाएं बेचने पर भी रोक लग गई .

हमें यह सचाई कब समझ में आएगी कि नेता पहाड़ को नदी से लड़वा सकते हैं और नदी को मछलियों से. नेताओं को दुनिया की एकता का नेटवर्क दे दीजिएवे उस पर भी युद्ध करा देंगे. राजनेताओं को नियंत्रण में रखिये इससे पहले कि वह हमें ढोर-ढंगर बनाकर हांकने लगें.   

  

Sunday, March 18, 2018

जानना जरुरी है !



मार्च 2015एक ब्रेकिंग न्यूज कौंधी... भारत के इतिहास की सबसे सफल स्पेक्ट्रम नीलामी! सरकार को मिलेंगे 1.10 लाख करोड़ रु. मंत्रियों के चेहरे टीवी-टीवी घूमने लगे. प्रवक्ता आ डटे. 2जी घोटाले के कथित नुक्सान की भरपाई का उत्सव शुरू हो गया था. (स्पेक्ट्रमवायरलेस फ्रीक्वेंसी जिस पर मोबाइल चलता है) 

मार्च 2018केंद्रीय मंत्रिमंडल ने तय किया कि टेलीकॉम कंपनियां अब सरकार को दस साल की जगह 16 साल में स्पेक्ट्रम की फीस देंगी. (मार्च 2015 में किसी ने कहा था कि 1.10 लाख करोड़ रु. सरकार को मिल गए हैं) कंपनियां अब अपनी जरूरत से ज्यादा स्पेक्ट्रम भी रख सकेंगी (इसे जमाखोरी भी कह सकते हैं). ऊंची कीमत पर सरकार से स्पेक्ट्रम खरीदने के बाद टेलीकॉम कंपनियां 7.7 लाख करोड़ रु. के कर्ज में दब गई हैं. सरकार की ताजा मेहरबानी से कंपनियों को 550 अरब रु. का फायदा होगा.

हैरत हो रही है न कि 2015 की भव्य सफलता महज तीन साल के भीतर दूरसंचार क्षेत्र की बीमारी और एक रहस्यमय इलाज में कैसे बदल गई ?

2015 से 2108 तक दूरसंचार क्षेत्र में ऐसा बहुत कुछ हुआ हैजिसे समझना उन सबके लिए जरूरी है जिनके हाथ में एक मोबाइल है.

 स्पेक्ट्रम की नीलामी 2जी घोटाले के बाद शुरू हुई. दूरसंचार के धंधे में स्पेक्ट्रम ही कच्चा माल है. 2015 की पहली बोली जोरदार रहीपर 2016 में दूसरी बोली को कंपनियों ने अंगूठा दिखा (5.64 खरब रु. के लक्ष्य के बदले केवल 65,000 करोड़ रु. की बिक्री) दिया.

 स्पेक्ट्रम प्राकृतिक संसाधन है. जिस कंपनी के पास जितना अधिक स्पेक्ट्रमउसके पास बाजार में उतनी अधिक बढ़त का मौका और निवेशकों की निगाह में ऊंची कीमत. स्पेक्ट्रम की शॉपिंग पर कंपनियों ने अपनी जेब ढीली नहीं की बल्कि इसे दिखाकर बैंकों से कर्ज लिया. जो दो साल में टाइम बम की तरह टिकटिकाने लगा और फिर सरकार की राहत बरस पड़ी.

 इस बीच जिस 2जी घोटाले के कारण यह नीलामी हुई थी वह घोटाला ही अदालत में खेत रहा. सब बरी हो गए.

 महंगे स्पेक्ट्रम का बाजार लगाते हुए सरकार ने और उसे खरीदते हुए कंपनियों ने कहा था कि स्पेक्ट्रम की कमी की वजह से नेटवर्क (कॉल ड्रॉप) बुरी हालत में हैं लेकिन 2015 के बाद से पूरे देश में हर जगह मोबाइल नेटवर्क डिजिटल इंडिया की अंतिम यात्रा निकाल रहे हैं.

 और यह किसने कहा था कि कंपनियों को फ्रीक्वेंसी मिलेंगी तो मोबाइल दरें सस्ती होंगीनए खिलाड़ी जिओ ने भी पिछले साल दरें बढ़ा दीं. 

 2015 से 2018 के बीच मोबाइल बाजार की प्रतिस्पर्धा तीन कंपनियोंएयर टेलजिओवोडाफोन (आइडिया का विलय)में सिमट गई. सरकारी बीएसएनएल बीमार है और रिटायर होने वाला है. अब तीन कंपनियों के पास अधिकांश स्पेक्ट्रम है और पूरा बाजार भी. हाल में एयरसेल के दिवालिया होने से करीब 8 करोड़ उपभोक्ता इन्हीं तीन के पास जाएंगे.

हो सकता है कि कोई इसमें घोटाला सूंघने की कोशिश करे लेकिन घोटाले अब हमें विचलित नहीं करते. हमारी सरकारें नीति नपुंसक हो चली हैं.

2014 में सत्ता में आने के बाद सरकार को यह तय करना था कि प्राकृतिक संसाधनों (स्पेक्ट्रमकोयलाजमीन) को बाजार से बांटने की नीति क्या होगी?

उसके सामने दो विकल्प थे: एकऊंची कीमत पर प्राकृतिक संसाधन बेचकर सरकारी राजस्व बढ़ता हुआ दिखाया जाएजिसके लिए कंपनियां बैंकों से कर्ज (जमाकर्ताओं का पैसा) उठाकर सरकार के खाते में रख देंगी. और कामयाबी का ढोल बज जाएगा.

दूसरासंसाधनों का सही मूल्यांकन किया जाए. उन्हें सस्ता रखा जाए ताकि उनके इस्तेमाल से निवेशमांगनौकरियां और प्रतिस्पर्धा बढ़े और उपभोक्ता के लिए दरें कम रहें.

अपनी दूरदर्शिता पर रीझ रही सरकार चार साल में स्पेक्ट्रम जैसे संसाधनों के आवंटन की स्पष्ट नीति तक नहीं बना पाई. तो किस्सा कोताह यह कि स्पेक्ट्रम की शानदार नीलामी के बाद:

 कंपनियों को स्पेक्ट्रम मिल गयाबैंकों से खूब कर्ज मिला और लाइसेंस फीस से छूट भी हासिल हुई. बाजार पर एकाधिकार बोनस में.

 सरकार की कमाई नहीं बढ़ी.

 बैंक कर्ज देकर फंस गए.

 मोबाइल नेटवर्क बद से बदतर हो गए.

 मोबाइल बाजार में प्रतिस्पर्धा तीन कंपनियों में सिमट गई. ध्यान रहे कि पूरा उदारीकरण उपभोक्ताओं को आजादी देने के लिए हुआ था.

और

भारत की सबसे चमकदार मोबाइल क्रांति में 2015 के बाद से करीब 50,000 नौकरियां जा चुकी हैं. लगभग इतने ही लोग 2018 में बेकार हो जाएंगे.

फिर कहना पड़ेगा कि सरकारों के समाधान समस्या से ज्यादा भयानक होते हैं. 

Tuesday, January 12, 2016

उदार बाजार की गुलामी

 लाइसेंस परमिट राज खत्म होने के बाद भी भारत का बाजार पूरी तरह खुल नहीं सका. अगर सरकार हटी तो लोग चुनिंदा कंपनियों के बंधुआ हो गए. 


कोई गणेश हैं जिन्होंने फेसबुक के फ्री बेसिक्स के ट्रायल मात्र से इतनी जानकारी हासिल कर ली कि उनके खेतों की पैदावार दोगुनी हो गई! अगर आप भारत की खेती की ताजा दशा से वाकिफ हैं तो आप दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्क कंपनी के विज्ञापनों की इस गणेश कथा को नियम तो दूर, अपवाद भी नहीं मानेंगे लेकिन फिर इतना तय है कि फेसबुक फ्री बेसिक्स के विशाल विज्ञापन आपको कुछ तो राजनीति हैवाले संदिग्ध एहसास भरे बिना नहीं छोड़ेंगे.
 जैसे चुनावी विज्ञापनों में गरीबी व असमानता हटाने के लिए वोट मांगे जाते हैं ठीक उसी तर्ज पर फेसबुक अगर भारत में डिजिटल असमानता दूर करने के लिए अपनी फ्री बेसिक्स सेवा को चुनने की अपील करे तो सब कुछ सामान्य नहीं है. दरअसल, इससे पहले कि हम अपने बाजार व उदारीकरण को, सरकारी व निजी दोनों, एकाधिकार से मुक्त कर पाते, हम बाजार की जटिल राजनीति में लिथड़ने जा रहे हैं. यह सियासत रोजमर्रा की राजनीति से ज्यादा पेचीदा और प्रभावी है क्योंकि इसमें चुनी हुई सरकारें भी शामिल हो जाती हैं.
 फेसबुक के फ्री बेसिक्स से जुड़ा सवाल निहायत बेसिक है. कोई हमें शॉपिंग मॉल में बुला रहा है जहां एंट्री फ्री होगी लेकिन बदले में सिर्फ चुनिंदा दुकानों से सामान लेने की छूट होगी. अगर पूरे मॉल में घूमना-खाना-खरीदना चाहते हैं तो फिर मुफ्त एंट्री नहीं मिलेगी. क्या हम ऐसा चाहते हैं? इससे पहले कि हम फ्री इंटरनेट बहस में उतरें, इंटरनेट की मौजूद व्यवस्था को समझना जरूरी है. भारत की मौजूदा नीति के तहत मोबाइल ऑपरेटर्स को स्पेक्ट्रम मिला है जिसके तहत सबको समान रूप से इंटरनेट मिलता है. जो जिस स्पीड का डाटा पैकेज लेता है उतना इंटरनेट चलता है. इंटरनेट का सस्ता होना जरूरी है और इसके लिए कंपनियों को सुविधाएं और रियायतें मिलनी चाहिए लेकिन कोई कंपनी मुफ्त इंटरनेट के बदले आपको एक सीमित क्षेत्र में सैर कराना चाहे तो यह इंटरनेट की उस आजादी के खिलाफ है जो भारत दे रहा है और दुनिया के लिए आदर्श है.

 इंटरनेट की दुनिया में तीन भागीदार हैं जो इसे मुक्त संसार बनाते हैं. फेसबुक का फ्री बेसिक्स इन तीनों को बिगाड़ देगा. इंटरनेट तक पहुंचाने की सड़क यानी टेलीकॉम नेटवर्क मोबाइल ऑपरेटरों ने बनाई है. जाहिर है, फेसबुक का फ्री बेसिक्स एक ही कंपनी के नेटवर्क पर मिलेगा यानी कि इससे ऑपरेटर को ज्यादा ग्राहक मिलेंगे जिससे मोबाइल बाजार की प्रतिस्पर्धा बिगड़ेगी. इस बाजार के दूसरे भागीदार मीडिया, ई-कॉमर्स आदि कंटेट व सेवा कंपनियां हैं. भारत में इंटरनेट पूरी तरह स्वतंत्र है. लेकिन फेसबुक के बाजार में उन्हीं की दुकान लगेगी जो उसके साथ होंगे तीसरा, खुद इंटरनेट है जिसमें मुफ्त लेकिन सीमित पहुंच का नियम, इसके स्वतंत्र होने की बुनियाद ही हिला देगा. देश के सबसे बड़े ऑपरेटर एयरटेल ने पिछले साल एयरटेल जीरो सर्विस के तहत कुछ वेबसाइट पर फ्री इंटरनेट एक्सेस देने का प्रस्ताव किया था इसके बदले वे वेबसाइट एयरटेल को पैसा देने वाली थीं. यह पेशकश भारत में नेट न्यूट्रेलिटी की बहस की शुरुआत थी.  
 फेसबुक फ्री बेसिक्स जैसी पेशकश, प्रतिस्पर्धा को पूजने वाले पश्चिम के बाजारों में कर ही नहीं सकती, यह तो सिर्फ पिछड़े और विकासशील देशों को लुभा सकती है. इसके बावजूद दो दिन पहले इजिप्ट ने फ्री बेसिक्स बंद कर दिया. दरअसल, फेसबुक, एयरटेल के कारोबारी हित मुक्त बाजार में ही सुरक्षित हैं न कि उस बाजार में जिसे वे गढऩा चाहती हैं. भारतीय बाजार में एकाधिकार व कार्टेलों का दखल पहले से है. फेसबुक तो अपने आकार, फॉलोअर्स और रसूख के सहारे इस असंतुलन को मजबूत करने जा रहा है.
 लाइसेंस परमिट राज खत्म होने के बाद भी भारत का बाजार पूरी तरह खुल नहीं सका. अगर सरकार हटी तो लोग चुनिंदा कंपनियों के बंधुआ हो गए. हमारे मासिक बिल भुगतान हमें बता देंगे कि हम किस तरह अधिकांश पैसा करीब दो दर्जन कंपनियों को दे रहे हैं. चाकलेट से लेकर मोबाइल तक दर्जनों उत्पाद व सेवाएं ऐसी हैं जिनमें हमारे पास चुनिंदा विकल्प हैं. इसलिए इनके बाजार में या तो एकाधिकार (मोनोपली) हैं या कार्टेल. दूसरी तरफ पेट्रोलियम, रेलवे, कोयला, बिजली आदि  पर सरकार का एकाधिकार है इसलिए दोनों जगह उपभोक्ता ऐंटी कंपीटिशन गतिविधियों का शिकार हो होता है जबकि इनकी तुलना में ऑटोमोबाइल, खाद्य उत्पाद, दवा में प्रतिस्पर्धा बेहतर है.

भारत को जिन सुधारों की जरूरत है वे बाजार को खोलने के साथ उसे संतुलित करने थे और इनमें सरकार की भूमिका सबसे बड़ी होने वाली है. सरकार को न केवल अपने एकाधिकार वाले क्षेत्रों से निकलना था बल्कि जिन क्षेत्रों में निजी कार्टेल बन गए हैं वहां प्रतिस्पर्धा बढ़ानी है. मसलन, मोबाइल को ही लें जहां 2जी से 4जी तक जाते ऑपरेटरों की संख्या घट रही है यानी प्रतिस्पर्धा कम हो रही है. इन अपेक्षाओं के बीच जब सरकार में रह चुके नंदन नीलकेणि जैसे विशेषज्ञ आधार कार्ड के जरिए लोगों को मुफ्त इंटरनेट देने की वकालत करते हैं तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर हम सरकारी सब्सिडी की समाप्ति की तरफ बढ़ रहे हैं या नई सब्सिडी स्कीमें शुरू करने की तरफ.
 हम उदारीकरण के जरिए सभी को अवसर देने वाला मुक्त बाजार बनाने चले थे. हमने सोचा था कि लोगों की जिंदगी व कारोबार में सरकार की भूमिका सीमित होती जाएगी लेकिन कांग्रेस से बीजेपी तक आते भारत के आर्थिक उदारीकरण का पूरा मॉडल ही गड्डमड्ड हो गया है. हम नए किस्म के सरकारीकरण से मुकाबिल हैं और बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित करने के नए तरीकों का इस्तेमाल बढ़ गया है.
पिछले साल एयरटेल जीरो के विरोध के बाद भारत में नेट न्यूट्रेलिटी से खतरा टल गया था लेकिन टीआरएआइ ने इस बहस को फिर खोल दिया है और फेसबुक के कथित गणेश महंगे विज्ञापनों के जरिए खेती में सोशल नेटवर्किंग के फायदे बताने लगे हैं. यकीनन इस बहस की दोबारा शुरुआत को फेसबुक के अमेरिकी मंच पर भारतीय प्रधानमंत्री की मौजूदगी से जोडऩे का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन अगर बात निकली है तो दूर तलक जाएगी और लोग नरेंद्र मोदी से उम्मीद जरूर करेंगे कि उनकी सरकार बाजार की आजादी की पैरोकार बनकर उभरेगी, प्रतिस्पर्धाएं सीमित करने की कोशिशों की हिमायती नहीं.