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Monday, August 22, 2016

बुरे दिन इंसाफ के


सरकार और न्यायपालिका के बीच अधिकारों की राजनीतिक लड़ाई ने न्याय व्यवस्था को  निचले स्तर तक बंधक बना लिया है.

राजनैतिक बहसें चलती रहनी चाहिए. लोकतंत्र के विभिन्न अंगों के बीच संतुलन को नए सिरे से नापते रहने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन ये बहसें इतनी बड़ी और लंबी नहीं होनी चाहिए कि व्यवस्था रुक जाए और आम लोग सैद्धांतिक टकरावों के बोझ तले दबकर मरने लगें. भारत में न्यायपालिका और विधायिका के टकराव में अब लगभग यही स्थिति है. बौद्धिक मनोरंजन के लिए हम इसे न्यायिक सक्रियता या लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच संतुलन की बहस कह सकते हैं. अलबत्ता तल्ख हकीकत यह है कि भारत में न्याय का बुनियादी अधिकार राजनेताओं और न्यायमूर्तियों के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई में फंस गया है और अफसोस कि लड़ाई हद से ज्यादा लंबी खिंच रही है.
आजादी के समारोह के मौके पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने सीधे प्रधानमंत्री से ही जजों की नियुक्ति में देरी की कैफियत पूछ ली. फिर भारत में क्रिकेट के तमामों विवादों के गढ़ बीसीसीआइ के अध्यक्ष और बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर ने क्रिकेट बोर्ड में पारदर्शिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को न केवल चुनौती दी बल्कि सीधे मुख्य न्यायाधीश की नीयत पर सवाल उठा दिया. यह दोनों घटनाएं बताती हैं कि पिछले साल न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) पर सुप्रीम कोर्ट के इनकार के बाद विधायिका और न्यायपालिका के बीच अविश्वास कितना गहरा चुका है.  
ताजा टकराव की शुरुआत कांग्रेस ने की थी, जो भ्रष्टाचार पर अदालतों की सख्ती से परेशान थी. यूपीए सरकार के नेतृत्व में राज्यसभा ने 2013 में न्यायिक नियुक्ति आयोग (जेएसी) विधेयक मंजूर किया था जो जजों की नियुक्ति के लिए कोलेजियम (सुप्रीम कोर्ट नियंत्रित) की स्थापना करता था. इस विधेयक का बीजेपी ने विरोध किया था. 15वीं लोकसभा भंग होने के कारण विधेयक निष्प्रभावी हो गया. सत्ता में आने के बाद एनडीए ने अदालतों में नियुक्ति पर नियंत्रण की कांग्रेसी मुहिम को अपनाने में खासी तेजी दिखाई.
कांग्रेस पहले से साथ थी, इसलिए नए एनजेएसी विधेयक पर राजनैतिक सहमति बन गई. आयोग के गठन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और अदालत व सरकार के अधिकारों को लेकर कड़वाहट भरी जिरह के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल अक्तूबर में न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी को खारिज कर सरकार को नई न्यायिक नियुक्तियों के लिए एक प्रकिया बनाने का निर्देश दिया.
इस फैसले के बाद नई नियुक्तियां शुरू होनी चाहिए थीं लेकिन टकराव का दूसरा चरण एनजेएसी पर अदालत के निर्णय के बाद शुरू हुआ. सरकार जजों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की सिफारिशों को खारिज करने का विशेषाधिकार अपने पास रखना चाहती है और इसे नियुक्ति की प्रक्रिया में शामिल कराना चाहती है. जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट इससे सहमत नहीं होगा. इसी के चलते हाइकोर्ट में 75 जजों की लंबित नियुक्ति का प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास लंबित है जबकि हाइकोर्ट में अलग-अलग स्तरों पर करीब 400 न्यायिक पद खाली पड़े हैं.
इंडिया टुडे के 11 मई के अंक में प्रकाशित शोध एजेंसी ''क्ष'" के निष्कर्षों के मुताबिक, अदालतों में तीन करोड़ मामले लंबित हैं. निचली अदालतों में मुकदमे औसतन छह साल और हाइकोर्ट में तीन साल लेते हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट जाने पर 13 वर्ष लग जाते हैं. न्याय मांगने वाले, धीमी सुनवाई के कारण अदालतों में सालाना 30,000 करोड़ रु. खर्च करते हैं.
न्यायाधीशों की कमी ऐतिहासिक है. मुख्य न्यायाधीश ठाकुर ने मई में ओडिशा हाइकोर्ट के एक कार्यक्रम में कहा था कि लंबित मामलों को निबटाने के लिए 70,000 जजों की जरूरत है, जबकि उपलब्ध जजों की संख्या केवल 18,000 है. पटना, कोलकाता, हैदराबाद के हाइकोर्ट में जज प्रति दिन 109 से 149 मामलों की सुनवाई करते हैं यानी औसत दो मिनट में एक सुनवाई पूरी.
दक्ष के इस सर्वे को पढ़ते हुए न्यायिक सक्रियता की बहस बेमानी लगती है. पांच-छह साल में शायद एक या दो मुकदमे ही ऐसे होते होंगे जिनमें विधायिका और न्यायपालिका के अधिकारों के संतुलन पर असर पड़ता हो. देश में 66 फीसदी मामले जमीन विवादों से जुड़े हैं और शेष मामले बुनियादी अधिकारों को हासिल करने या अपराध पीड़ितों के हैं जिन्हें लेकर संविधान और कानून में कोई अस्पष्टता नहीं है.
अदालतों और सरकार के एक दूसरे पर शक और अधिकारों में दखल की लड़ाई भारतीय लोकतंत्र जितनी ऐतिहासिक हो चली है और इसमें सरकारों के बदलने से कोई फर्क नहीं आया है. पिछले 70 साल में न्यायपालिका का अधिकांश समय सरकारों के साथ राजनैतिक टकरावों में ही बीता है. नेहरू के दौर में संपत्ति के अधिकार को लेकर अदालती फैसले से लेकर इंदिरा गांधी के दौर में संसद की सीमाएं तय करने वाले निर्णय और इमरजेंसी तक शायद ही कभी ऐसा हुआ, जब लंबे समय तक सरकार और अदालतों ने एकजुट होकर काम किया है.
इस लंबे इतिहास के बावजूद टकराव का ताजा अंक इसलिए ज्यादा परेशान करता है कि क्योंकि लोग पहले से ज्यादा जागरूक हैं. भ्रष्टाचार मानवाधिकार छीन रहा है और सरकार के प्रति अविश्वास व राजनीति से मोहभंग के कारण लोकतांत्रिक अधिकार और सेवा के तौर पर न्याय की मांग सबसे ज्यादा है.
अदालतों में लंबित मामलों की रोशनी में भारत में न्याय की चुनौती संवैधानिक और कानूनी नहीं है बल्कि यह बुनियादी ढांचे, श्रम शक्ति और व्यवस्था की चुनौती है जिसे दूर करने के लिए राजनैतिक बहस नहीं, संसाधन, जज और तकनीक चाहिए. लेकिन सरकार और न्यायपालिका के बीच लंबे समय से चल रही सैद्धांतिक खींचतान ने न्याय व्यवस्था को  निचले स्तर तक बंधक बना लिया है.
राजनेताओं और अदालतों को खुद से यह जरूर पूछना चाहिए कि उनके अधिकारों की बहस क्या इतनी महत्वपूर्ण है कि इसके चलते लोगों को बुनियादी न्याय मिलना ही बंद हो जाए? क्या हम इन बहसों को करते हुए भी उन लाखों लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं कर सकते, जिन्हें सरकारें और जज बदलने से फर्क नहीं पड़ता. अलबत्ता अदालतों में एडिय़ां घिसते-घिसते उनकी जिंदगी खत्म होती जा रही है.



Tuesday, May 12, 2015

यह वो जीएसटी नहीं

लोकसभा ने जीएसटी के जिस प्रारूप पर मुहर लगाई है उससे न तो कारोबार आसान होगा और न महंगाई घटेगी. देश को वह जीएसटी मिलता नहीं दिख रहा है जिसका इंतजार पिछले एक दशक से हो रहा था.

करीबन तीन साल पहले गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) पर राज्यों की एक बैठक की रिपोर्टिंग के दौरान राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझसे कहा था कि पूरे भारत में उत्पादन, सेवा और बिक्री पर एक समान टैक्स दरें लागू करना लगभग नामुमकिन है! उस वक्त मुझे उनकी यह टिप्पणी झुंझलाहट से भरी और औद्योगिक राज्यों की तरफ इशारा करती हुई महसूस हुई थी, क्योंकि वह दौर जीएसटी पर गतिरोध का था और गुजरात एक दशक से इस सुधार का विरोध कर रहा था. जीएसटी पर ताजा राजनैतिक खींचतान ने उस अधिकारी को सही साबित कर दिया. देश के सबसे बड़े कर सुधार का चेहरा बदल गया है. जीएसटी के नाम पर हमें जो मिलने वाला है उससे पूरे देश में कॉमन मार्केट बनना तो दूर, महंगाई बढऩे व कर प्रशासन में अराजकता का जोखिम सिर पर टंग गया है.
टैक्स जटिल हैं लेकिन जीएसटी पर एक दशक की चर्चा के बाद लोगों को इतना जरूर पता है कि भारत में उत्पादन, बिक्री और सेवाओं पर केंद्र से लेकर राज्य तक किस्म-किस्म के टैक्स (एक्साइज, सर्विस, वैट, सीएसटी, चुंगी, एंटरटेनमेंट, लग्जरी, पर्चेज) लगते हैं जो न केवल टैक्स चोरी को प्रेरित करते हैं बल्कि उत्पादों की कीमत बढ़ने की बड़ी वजह भी हैं. जीएसटी लागू कर इन टैक्सों को खत्म किया जा सकता है ताकि पूरे देश में समान टैक्स रेट के जरिए कारोबार आसान हो सके. यह अंततः उपभोक्ताओं के लिए उत्पादों और सेवाओं की कीमत कम करेगा. लेकिन जीएसटी का प्रस्तावित ढांचा इस मकसद से उलटी दिशा में जाता दिख रहा है.
एक दशक से अधर में टंगे जीएसटी को लेकर उत्साह इसलिए लौटा था क्योंकि गुजरात उन राज्यों में अगुआ था जो जीएसटी के हक में नहीं हैं. दिल्ली पहुंचने के बाद मोदी जीएसटी के मुरीद हो गए, जिससे इस टैक्स सुधार की उम्मीद को ताकत मिल गई. लेकिन जीएसटी को लेकर मोदी का नजरिया बदलने से राज्यों के रुख में कोई बदलाव नहीं हुआ. केरल के वित्त मंत्री व जीएसटी पर राज्यों की समिति के मुखिया के.एम. मणि की मानें तो गुजरात और महाराष्ट्र ने दबाव बनाया कि सभी तरह के जीएसटी के अलावा, राज्यों को वस्तुओं की अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स लगाने की छूट मिलनी चाहिए, उत्पादकों को जिसकी वापसी नहीं होगी. यह टैक्स उस राज्य को मिलेगा जहां से सामान की आपूर्ति शुरू होती है. गुजरात का दबाव कारगर रहा. यह नया टैक्स लोकसभा से पारित विधेयक का हिस्सा है जो औद्योगिक राज्यों का राजस्व बढ़ाएगा जबकि अन्य राज्यों को नुक्सान होगा. इस तरह औद्योगिक व उपभोक्ता राज्यों के बीच पुरानी खाई फिर तैयार हो गई है. इसलिए जीएसटी विधेयक अब न केवल राज्यसभा में फंस सकता है बल्कि राज्यों के विरोध के कारण इसे अगले साल से लागू किए जाने की संभावना भी कम हो गई है.
सियासत ने जीएसटी की तस्वीर पूरी तरह बदल दी है. अब इनडायरेक्ट टैक्स का एक नहीं बल्कि पांच स्तरीय ढांचा होगा. सीजीएसटी के तहत केंद्र के टैक्स (एक्साइज, सर्विस) लगेंगे और एसजीएसटी के तहत राज्यों के टैक्स. इसके अलावा अंतरराज्यीय बिक्री पर आइजीएसटी लगेगा जो सेंट्रल सेल्स टैक्स की जगह लेगा. सामान की अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स और पेट्रोल डीजल, एविएशन फ्यूल पर टैक्स अलग से होंगे. जीएसटी तो पूरे देश में एक समान टैक्स ढांचा लाने वाला था, केंद-राज्य के अलग-अलग समेकित जीएसटी तक भी बात चल सकती थी लेकिन जीएसटी के नाम पर पांच टैक्सों का ढांचा आने वाला है जो मुसीबत से कम नहीं है.
दरअसल, जीएसटी के तहत उत्पादकों और व्यापारियों को कच्चे माल पर दिए गए टैक्स की वापसी होनी है ताकि एक ही सेवा या उत्पाद पर बहुत से टैक्स न लगें. अब जबकि कई स्तरों वाला टैक्स ढांचा बरकरार है तो लाखों टैक्स रिटर्न की प्रोसेसिंग सबसे बड़ी चुनौती होगी. अगर जीएसटी अपने मौजूदा स्वरूप में आया तो हर रोज हजारों रिटर्न फाइल होंगे, जिन्हें जांचने के लिए तैयारी नहीं है. जीएसटी के लिए देशव्यापी कंप्यूटरराइज्ड टैक्स नेटवर्क बनना था, जिसकी प्रगति का पता नहीं है जबकि राज्यों के टैक्स सिस्टम पुरानी पीढ़ी के हैं. जीएसटी अगर इस तरह लागू हुआ तो अराजकता व राजस्व नुक्सान ही हाथ लगेगा.
जीएसटी की दर आखिर कितनी होगी? राज्यों की समिति 27 फीसद की जीएसटी दर (रेवेन्यू न्यूट्रल रेटिंग जिस पर राज्यों को राजस्व का कोई नुक्सान नहीं होगा) का संकेत दे रही है. यह मौजूदा औसत दर से दस फीसद ज्यादा है. अगर जीएसटी दर 20 फीसद से ऊपर तय हुई तो भारत का यह सबसे बड़ा कर सुधार महंगाई की आफत बनकर टूटेगा. दुनिया के जिन देशों ने हाल में जीएसटी लागू किया है वहां टैक्स पांच (जापान) से लेकर 19.5 फीसदी (यूरोपीय यूनियन) तक हैं. जीएसटी के मामले में सियासत को देखते हुए सरकार के लिए यह दर कम रख पाना बेहद मुश्किल होगा.
जीएसटी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हृदय बदलने के अलावा और कुछ नहीं बदला है. केंद्र से लेकर राज्यों तक कोई तैयारी नहीं है. पूरी बहस केवल सरकारों के राजस्व पर केंद्रत है. कर वसूलने व चुकाने वाले, अर्थात् व्यापारी व उपभोक्ता अंधेरे में हैं. जीएसटी, सुर्खियां बटोरू स्कीम या मिशन नहीं है, यह भारत का सबसे संवेदनशील सुधार है जो हर अमीर-गरीब उपभोक्ता की जिंदगी से जुड़ा है. सरकार को ठहरकर इसकी पर्याप्त तैयारी करनी चाहिए. प्रधानमंत्री को अपने रसूख का इस्तेमाल कर राज्यों को इस पर सहमत करना चाहिए. जीएसटी लागू न होने से जितना नुक्सान होगा, उससे कहीं ज्यादा नुक्सान इसे बगैर तैयारी के लागू करने से हो सकता है.
अधिकांश लोग टैक्स का गणित नहीं समझते. लेकिन इतना जरूर समझते हैं कि ज्यादा टैक्स होने से महंगाई बढ़ती है और अगर पूरे देश में टैक्स की एक दर हो तो कारोबार आसान होता है. लोकसभा ने जीएसटी के जिस प्रारूप पर मुहर लगाई है उससे न तो कारोबार आसान होगा और न महंगाई घटेगी. देश को वह जीएसटी मिलता नहीं दिख रहा है जिसका इंतजार पिछले एक दशक से हो रहा था.