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Saturday, June 15, 2019

बचाएंगे तो बचेंगे!



गर पड़ोसी की नौकरी पर खतरा है तो यह आर्थिक सुस्ती  है लेकिन अगर आपके रोजगार पर खतरा है तो फिर यह गहरा संकट है.’’ अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रुमैन की पुरानी व्यंग्योक्ति आज भी आर्थिक मंदियों के संस्करणों का फर्क सिखाती है.

इस उक्ति का पहला हिस्सा मौसमी सुस्ती की तरफ इशारा करता है जो दुनिया में आर्थिक उठापटकमहंगे ईंधनमहंगाई जैसे तात्कालिक कारणों से आती है और जिससे उबरने का पर्याप्त तजुर्बा हैट्रुमैन की बात का दूसरा हिस्सा ढांचागत आर्थिक मुसीबतों की परिभाषा हैजिनका हमारे पास कोई ताजा (पिछले 25 साल मेंअनुभव नहीं है

सरकार ने चुनाव में जाने तक इस सच को स्वीकार कर लिया था कि अर्थव्यवस्था ढलान पर है लेकिन भव्य जीत के बाद जब सरकार वापस लौटी तब चार बड़े बदलाव उसका इंतजार कर रहे थे जो भारत की आर्थिक ढलान को असामान्य रूप से जिद्दी बनाते हैं:

·       भारत में कंपनियों का निवेश 1960 के बाद से लगातार बढ़ रहा था. 2008 में शिखर (जीडीपी का 38 फीसदछूने के बाद यह अब 11 साल के सबसे निचले (29 फीसदस्तर पर हैसालाना वृद्धि दर 18 फीसद (2004-08) से घटकर केवल 5.5 फीसद रह गई है.

·       निवेश के सूखे के बीच घरेलू खपतअर्थव्यवस्था का सहारा थीअब वह भी टूट गई है और मकानकार से लेकर घरेलू खपत के सामान तक चौतरफा मांग की मुर्दनी छाई है.

·       सरकार ने यह मान लिया है कि भारत में बेकारी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है.

·       रेटिंग एजेंसियों ने बैंकों व वित्तीय कंपनियों की साख में बड़ी कटौती कीअब कर्ज में चूकने का दौर शुरू हो गयापहले वित्तीय कंपनियां चूकीं और अब एक कपड़ा कंपनी भी.

भारत की विराट आर्थिक मशीन का आखिर कौन सा पुर्जा है जो निवेशकर्ज और खपत को तोड़ कर मुश्किलें बढ़ा रहा है?

भारतीय अर्थव्यवस्था बचतों के अप्रत्याशित सूखे का सामना कर रही हैसमग्र बचत जो 2008 में जीडीपी के 37 फीसद पर थीअब 15 साल के न्यूनतम स्तर पर (जीडीपी का 30 फीसदरह गई है और आम लोगों की घरेलू बचत पिछले 20 साल के (2010 में 25 फीसदन्यूनतम स्तर (जीडीपी का 17.6 फीसदपर हैघरेलू बचतों का यह स्तर 1990 के बराबर है जब आर्थिक सुधार शुरू नहीं हुए थेमकान-जमीन में बचत गिरी है और वित्तीय बचतें तो 30 साल के न्यूनतम स्तर पर हैं.

बचत के बिना निवेश नामुमकिन हैभारत में निवेश की दर बचत दर से हमेशा ज्यादा रही हैघरेलू बचतें ही निवेश का संसाधन हैंयही बैंक कर्ज में बदल कर उद्योगों तक जाती हैंसरकार के खर्च में इस्तेमाल होती हैंघर-कार की मांग बढ़ाने में मदद करती हैंबचत गिरते ही निवेश 11 साल के गर्त में चला गया है

दरअसलपिछले दशक में भारतीय परिवारों की औसत आय में दोगुनी बढ़त दर्ज की गई थीइस दौरान खपत बढ़ी और टैक्स भी लेकिन लोग इतना कमा रहे थे कि बचतें बढ़ती रहींआय में गिरावट 2006 के बाद शुरू हो गई थी लेकिन कमाई बढ़ने की दर खपत से ज्यादा थीइसलिए मांग बनी रही.

2015 से 2018 के बीच आय में तेज गिरावट दर्ज हुईप्रति व्यक्ति आयग्रामीण मजदूरी में रिकॉर्ड कमी और बेकारी में रिकॉर्ड बढ़त का दौर यही हैपहले बचतें टूटीं क्योंकि लोग आय का बड़ा हिस्सा खपत में इस्तेमाल करने लगेफिर मकानोंऑटोमोबाइल की मांग गिरी और अंततदैनिक खपत (साबुन-मंजनपर भी असर नजर आने लगा.

बैंक भी कमजोर बचतों के गवाह हैं. 2010 से बैंकों की जमा की वृद्धि दर भी गिर रही है. 2009-16 के बीच 17 से 12 फीसद सालाना बढ़ोतरी के बाद अब इस मार्च में बैंक जमा की बढ़ोतरी 10 फीसद से नीचे आ गईनतीजतन रिजर्व बैंक की तरफ से ब्याज दरों में तीन कटौतियों के बाद भी बैंकों ने कर्ज सस्ता नहीं कियाकर्ज पर ब्याज दर कम करने के लिए जमा पर भी ब्याज कम करना होगा जिसके बाद डिपॉजिट में और गिरावट झेलनी पड़ेगी.

शेयर बाजारों में बढ़ता निवेश (म्युचुअल फंडअर्धसत्य हैवित्तीय बचतेंखासतौर पर शेयर (सेकंडरीबाजार के जरिए बचत न तो कंपनियों को मिलती हैंजिससे वे नया निवेश कर सकेंन सरकार को इस बचत का सीधा लाभ (टैक्स के अलावाहोता हैछोटी स्कीमोंबैंकों और मकान-जमीन में बचत ही निवेश का जरिया है.

बचतों का दरिया सूखने के कारण भारत की आर्थिक सुस्ती कई दुष्चक्रों का समूह बन गई हैमोदी सरकार के छठे बजट को कसने का अब केवल एक पैमाना होगा कि इससे लोगों की आय और बचत बढ़ती है या नहींक्योंकि यही मंदी से उबरने का जंतर-मंतर है.

प्रसिद्ध अर्थविद‍ जॉन मेनार्ड केंज (पुस्तकद एंड ऑफ लैसे-फेयरकहते थेयह जरूरी है कि सरकारें ऐसा कुछ भी न करें जो कि आम लोग पहले से कर रहे हैंउन्हें तो कुछ ऐसा करना होगा जो अभी तक न हुआ होचुनावी जीत चाहे जितनी भव्य हो लेकिन उद्योगउपभोक्ता और किसान थक कर निढाल हो रहे हैंअर्थव्यवस्था के लिए यह ‘एंड ऑफ लैसे-फेयर’ ही हैयानी सरकार के लिए परिस्थितियों को उनके हाल पर छोड़ने का वक्त खत्म हो चला है.


Tuesday, June 14, 2016

आंकड़ों की चमकार

सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों  का  खतरा अब बढऩे लगा है.  

थ्यसंगत विमर्श में रुचि लेने वाले एक मित्र से जब मैंने पिछले सप्ताह कहा कि देश में बिजली का उत्पादन मांग से ज्यादा यानी सरप्लस हो गया है तो उनके माथे पर बल पड़ गए. वे बिजली की व्यवस्था में पीक डिमांड, एवरेज और रीजनल सरप्लस जैसे तकनीकी मानकों से अपरिचित नहीं थे लेकिन बार-बार बिजली जाने से परेशान, पसीना पोंछते मेरे मित्र के गले यह बात उतर नहीं रही थी कि सचमुच मांग से ज्यादा बिजली बनने लगी है.

उनकी यह हैरत उस मध्यवर्गीय उपभोक्ता जैसी ही थी जो सब्जी, तेल, दाल खरीदते समय यह नहीं समझ पाता कि महंगाई यानी मुद्रास्फीति में रिकॉर्ड कमी के आंकड़े ब्रह्मांड के किस ग्रह से आते हैं. ठीक इसी तरह रोजगार में कमी, सूखे के हालात, मांग में गिरावट और कंपनियों की बिक्री के नतीजे पढ़ते हुए, आर्थिक विकास दर के आठ फीसदी (7.9 फीसदी) के करीब पहुंचने के ताजा आंकड़े एक तिलिस्मी दुनिया में पहुंचा देते हैं.

हमने ऊपर जिन तीन आंकड़ों का जिक्र किया है, वे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं, लेकिन शायद एक विशाल देश में आंकड़ों का व्यावहारिक तौर पर सही होना और ज्यादा जरूरी है, क्योंकि सांख्यिकीय पैमानों की बौद्धिक बहस में टिकाऊ होने के बावजूद अगर बड़े और प्रमुख आंकड़े व्यावहारिक हकीकत से कटे हों तो उनकी राजनैतिक विश्वसनीयता पर शक-शुबहे लाजिमी हैं.

सबसे पहले बिजली को लें, जो गर्मी में सबसे ज्यादा छकाती है. केंद्रीय बिजली अधिकरण (सीईए) ने जैसे ही कहा कि इस साल बिजली का उत्पादन सरप्लस यानी मांग से ज्यादा हो जाएगा तो कई मंत्रियों के ट्विटर हैंडल चिचिया उठे. सीईए ने बताया था कि देश में पीक डिमांड (सर्वाधिक मांग के समय) और नॉन पीक डिमांड (औसत मांग) के समय, बिजली का उत्पादन मांग से क्रमश 3.1 फीसदी और 1.1 फीसदी ज्यादा रहेगा. यह आंकड़ा बिजली की मांग और आपूर्ति पर आधारित है, घंटों और स्थान के आधार पर परिवर्तनशील है. सरकार ने कोयले की बेहतर आपूर्ति के आधार पर बिजली उत्पादन में क्रांति का दावा किया तो कांग्रेसी कह उठे कि काम तो पिछले एक दशक में हुआ है, बीजेपी सरकार तो उसकी मलाई खा रही है.

बहरहाल, अगर आपके इलाके में खूब बिजली कटती है (जो अखिल भारतीय सच है) तो मांग से ज्यादा बिजली उत्पादन के दावे पर भरोसा असंभव है. अलबत्ता अगर तकनीकी चीर-फाड़ करें तो लगेगा कि सीईए बजा फरमाता है. सीईए ने एक निर्धारित समय (घंटा भी हो सकता है) पर पूरे देश में बिजली की मांग व आपूर्ति का औसत निकाला जो उत्पादन में सरप्लस बताता जान पड़ता है. यह स्थिति पिछले साल की तुलना में बेहतर है.

इस तथ्य के बावजूद यह समझना जरूरी है कि भारत में सबसे बुरे वर्षों में भी अलग-अलग समय पर राज्यों में बिजली का उत्पादन सरप्लस रहा है लेकिन इसके साथ ही देश के कई दूसरे हिस्से हमेशा बिजली की कटौती झेलते हैं. कई जगह बिजली कंपनियां घाटा कम करने के लिए कटौती करती रहती हैं. इसलिए बिजली के तात्कालिक सरप्लस उत्पादन का आंकड़ा तकनीकी तौर पर भले ही सही हो, लेकिन इस गर्मी में अक्सर बिजली गायब रहने के दैनिक तजुर्बे से बिल्कुल उलट है जो सरकार के जोरदार दावे पर उत्साह के बजाए खीझ पैदा करता है.

अप्रैल में बढ़त दर्ज करने से पहले तक थोक कीमतों वाली महंगाई पिछले 18 महीने से शून्य से नीचे थी. फुटकर महंगाई की दर भी ताजा बढ़ोतरी से पहले तक पांच फीसदी से नीचे आ गई थी. आंकड़े सिद्धांततः सही हो सकते हैं, लेकिन यहां भी तकनीकी पेच है. खुदरा महंगाई दर जिस सर्वेक्षण पर आधारित होती है, उसके आंकड़े 310 कस्बों और 1,180 गांवों से जुटाए जाते हैं. इस व्यवस्था में गलतियों की भरपूर गुंजाइश है. इन कमजोर आंकड़ों से जो सूचकांक बनता है, उसमें मौसमी चीजों (सब्जी, फल), दूध और दालों की कीमतों का हिस्सा कम है. कपड़ों, शिक्षा परिवहन के खर्चों की गणना का फॉर्मूला भी पुराना है. इसलिए अक्सर सब्जी की दुकान पर खड़े होकर जो महंगाई महसूस होती है, मुद्रास्फीति के घटने के आंकड़े उस पर नमक मलते जान पड़ते हैं.

भारत में जीडीपी के ताजा आंकड़े तो कल्पनाओं की बाजीगरी लगते हैं. मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी की करीब 51 फीसदी ग्रोथ डिस्क्रीपेंसीज या असंगतियों के चलते आई है. चौंकिए नहीं, जीडीपी की गणना के फॉर्मूले में एक कारक का नाम ही असंगति है. ठोस आंकड़ों के अभाव में सरकार उत्पादन व खर्च का एक मोटा-मोटा अंदाज लगा लेती है और जीडीपी की ग्रोथ तय कर दी जाती है. यह अंदाजा ही डिस्‍क्रिपेंसी या असंगति है.

सरकार के प्रधान आंकड़ाकार टीसीए अनंत को कहना पड़ा कि आंकड़े मिलने में देरी के कारण डिसक्रिपेंसीज कुछ ज्यादा ही हो गई हैं. लेकिन कितनी ज्यादा? इस असंगति के खाते ने मार्च, 2016 की तिमाही में जीडीपी में 143 लाख करोड़ रु. का उत्पादन जोड़ दिया, जो 2015 की इसी तिमाही में केवल 29,933 करोड़ रु. था. आंकड़ों के विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर असंगतियों की इस भेंट को जीडीपी से निकाल दें तो मार्च की तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 7.9 नहीं बल्कि 3.9 फीसदी रह जाएगी, क्योंकि इनके अलावा सरकार के खर्च में बढ़ोतरी मामूली है, निजी निवेश व निर्यात गिरा है, जिनके दम पर जीडीपी बढ़ता है.

ध्यान रखना जरूरी है कि विकास और बदलाव संख्याओं में नहीं, जमीन पर महसूस होता है जैसा कि रेलवे की सेवाओं में या काले धन को लेकर नजर आ रहा है. लेकिन ऐसा हर क्षेत्र में नहीं हो पाया है. सरकारें हमेशा अपनी उपलब्धियों का प्रचार करती हैं लेकिन आंकड़ों में गफलत साख के लिए खतरनाक हो सकती है.

पिछले दो साल में सरकारी आर्थिक आंकड़ों पर निवेशकों का भरोसा कम हुआ है. वे आंकड़ों की स्वतंत्र पड़ताल को मजबूर हो रहे हैं. सरकारी दावे तकनीकी तौर पर सही हो सकते हैं लेकिन अगर आंकड़े असंगति से भरे और व्यावहारिकता से कटे हों तो इनके अति सुहानेपन के विपरीत एक प्रतिस्पर्धी संवाद पैदा होता है जो बेहतरी की तथ्यात्मक कोशिशों को भी नकारात्मकता और शक-शुबहे से भर देता है. सरकार के आंकड़ों को लेकर संदेह के संवादों का खतरा अब बढऩे लगा है.  


Monday, January 25, 2016

मंदी की बैलेंस शीट


अगर मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज कंपनियों ने निवेश शुरू नहीं किए तो स्टार्ट-अप के पास न मांग होगी, न मुनाफा और तब इनके वैल्यूएशन बुलबुले बन जाएंगे.

स्टार्ट-अप इंडिया का मेक इन इंडिया से क्या रिश्ता है? वैसा ही जैसा कि मेक इन इंडिया का भारतीय खेती से है या फिर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का शहरी और औद्योगिक अर्थव्यवस्था से है, क्योंकि ग्रामीण और कस्बाई मांग के बिना ऑटो, सीमेंट, खाद्य और उपभोक्ता उत्पादों का बाजार आज जैसी मंदी में डूब जाता है. भारत के सबसे ज्यादा वैल्यूएशन (शुद्ध कारोबार का औसतन सात गुना) वाले स्टार्ट-अप ई कॉमर्स से आते हैं. ई कॉमर्स भारत के विशाल उद्योग क्षेत्र के लिए छोटी-सी शॉपिंग मॉल जैसा है. दूसरी तरफ स्टार्ट-अप इंडिया के ग्राहक शहरी क्षेत्र से आते हैं जहां उद्योगों और इनसे जुड़ी सेवाएं ही रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत हैं.
बीते रविवार को प्रधानमंत्री जब लघु उद्योगों की नई पीढ़ी यानी स्टार्ट-अप के लिए सहूलियतों का अभियान शुरू कर रहे थे तब स्टार्ट-अप उद्यमियों की सूझ व साहस पर व वित्तीय जरूरतों की आपूर्ति पर संदेह नहीं था. सरकारी स्टार्ट-अप फंड का विचार उपजने (फंड अभी दूर है) से पहले इस महीने तक पिछले दो साल में वेंचर कैपिटल आधारित कंपनियों की फंडिंग 12 अरब डॉलर यानी करीब 80,000 करोड़ रुपए पर पहुंच गई. स्टार्ट-अप एग्रीगेटर टैक्स्कैन के मुताबिक, करीब 7.3 अरब डॉलर की फंडिंग तो 2015 में हुई है. इसलिए स्टार्ट-अप को पैसा कैसे मिलेगा, यह सवाल नहीं है बल्कि चुनौती तो यह है कि इन्हें बाजार मिलेगा या नहीं. अगर मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज में कंपनियों ने निवेश शुरू नहीं किया तो स्टार्ट-अप के पास न मांग होगी, न मुनाफा और तब इनके वैल्यूएशन बुलबुले बन जाएंगे जिसका डर सॉफ्टबैंक के प्रेसिडेंट और सीओओ निकेश अरोड़ा ने स्टार्ट-अप इंडिया के भव्य मंच से जाहिर भी किया.
स्टार्ट-अप इंडिया की सफलता के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली की जोड़ी को उस मंदी को तोडऩा है जो कंपनियों की बैलेंस शीट में बैठी है. पिछले दो साल में तमाम गंभीर कोशिशों और उससे गंभीर प्रचार के बावजूद अर्थव्यवस्था की चुनौती पिछले 18 माह में ज्यादा गहरा गई है. भारत में उद्योग, निर्माण और सेवाएं रोजगार के सबसे बड़े स्रोत हैं लेकिन यह मोर्चा तिल-तिल कर ढह रहा है. औद्योगिक ग्रोथ नवंबर में चार साल के सबसे निचले स्तर पर आ गई है. 2015-16 की पहली दो तिमाही में कंपनियों की कमाई 6 से 15 फीसद घटी. और यह गिरावट पिछले दो-तीन साल से जारी है. लगातार निर्यात मुश्किलें दोगुनी कर रहा है.
मेक इन इंडिया की कोशिशों और दो बजटों के बावजूद मोदी सरकार उद्योगों को नए निवेश के लिए क्यों राजी नहीं कर सकी? भारत का उद्योग जगत अब उस मंदी से घिर गया है जिसे तकनीकी जबान में बैलेंस शीट रिसेशन कहते हैं. यह पुरानी पारंपरिक मंदी से अलग और जटिल है. यह मंदी कंपनियों पर लदे कर्ज से उपजती है. नई अर्थव्यवस्था में अधिकांश निवेश निजी कंपनियां ही करती हैं. बैलेंस शीट रिसेशन के दौरान कंपनियां बुरी तरह कर्ज में दब जाती हैं इसलिए कंपनियां जो भी कमाई करती हैं, उसे कर्ज चुकाने में लगाती हैं, न कि नए निवेश में. ऐसी स्थिति में नया निवेश खत्म हो जाता है. ग्लोबल अर्थशास्त्री मानते हैं कि जापान की 1990 से 2005 तक की मंदी दरअसल कंपनियों की बैलेंस शीट को निचोड़ देने वाले उस कर्ज से उपजी थी जो उन्होंने बैंकों से ले रखा था. अमेरिका में 2007 से 2009 के बीच की मंदी भी बैलेंस शीट रिसेशन ही थी.
कर्ज ने भारत में कंपनियां की कमर तोड़ दी है. एक आर्थिक अखबार के अध्ययन के मुताबिक, 2014-15 के अंत में देश की 441 प्रमुख कंपनियां करीब 28.5 लाख करोड़ रुपए के कर्ज पर बैठी थीं जो देश की कुल 656 गैर वित्तीय कंपनियों के कर्ज का 98.1 फीसदी है. बीते दिसंबर में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कंपनियों को निवेश की राह में सबसे बड़ी मुसीबत यूं ही नहीं कहा था. कंपनियों के संचालन लाभ कर्ज पर ब्याज देने या चुकाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. ऐसा दबाव महसूस कर रही कंपनियों की संख्या 2009-10 में 16 थी जो तीन साल पहले 29 और अब 67 हो गई है. इसी तरह कंपनियों के निवेश पर रिटर्न भी 2014-15 में घटकर दशक के सबसे निचले स्तर 7.4 फीसद पर आ गया है. यही बैलेंस शीट रिसेशन है.
 याद कीजिए, ग्रोथ के लिए कर्ज पर ब्याज दरें घटाने की वह बहस जो पिछले साल खूब चली और तब ऐसा लगता था कि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय, दोनों दो ध्रुवों पर हैं. अलबत्ता रिजर्व बैंक सही निकला. कंपनियों के कर्ज इस कदर बढ़ चुके हैं कि वे जो कमाई कर रही हैं, वह कर्ज चुकाने में जा रही है. दूसरी तरफ, बैंक बकाया कर्जों के पहाड़ तले दब गए हैं. यही वजह है कि ब्याज दर में कमी के बावजूद न निवेश बढ़ा, न ग्रोथ. इसके साथ ही यह समझ में आ गया कि इस मंदी का इलाज सस्ता कर्ज है ही नहीं क्योंकि जिस वजह से कंपनियां बीमार हैं उसे बढ़ाने वाली दवा वह क्यों लेंगी.

अगर वित्त मंत्री इस सच से इत्तेफाक रखते हैं तो इस मंदी का इलाज बजट को ही निकालना होगा. सरकार बदलने से सब कुछ बदल जाने के ख्यालीपुलाव की महक अब खत्म हो रही है और औद्योगिक उत्पादन, निर्यात, खेती की उपज, शेयर बाजारों में गिरावट की तल्ख हकीकत सामने आ चुकी है तो उन्हें बजट का पूरा गणित बदलना होगा. मोदी सरकार के पिछले दो बजटों में मंदी खत्म करने को लेकर बड़ी निर्णायक रणनीति नजर नहीं आई. सिर्फ खर्च रोककर और टैक्स बढ़ाकर घाटे को संभालने की कोशिश सफल हुई लेकिन इन बजटों से मांग की कमी और उस मंदी का इलाज नहीं हुआ जो कंपनियों की बैलेंस शीट में पैठ गई है. आधुनिक इकोनॉमी यानी स्टार्ट-अप, पुरानी इकोनॉमी यानी मेक इन इंडिया और खेती अब तीनों सरकार से मंदी का इलाज करने वाला ड्रीम बजट चाहते हैं क्या वित्त मंत्री बड़ी परियोजनाएं, खर्च में तेज बढ़ोतरी और टैक्सों में कमी दे सकेंगे? अगर यह साहस नहीं दिखा तो वास्तविक अर्थव्यवस्था की ढलान स्टार्ट-अप इंडिया को बढऩे की तो छोड़िए, पांव टिकाने का मौका भी नहीं देगी. 

Tuesday, January 19, 2016

सुधारों का सूचकांक


क्‍या धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस लौट रही हैजो बीजेपी के साथ सुधारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था की वापसी की उम्मीदों के विपरीत है.
जब मौजूदा स्टील उद्योग मांग में कमी से परेशान हो और मदद मांग रहा हो तो केंद्र सरकार राज्यों के साथ नई स्टील कंपनियां क्यों बनाने जा रही है? छोटे उद्यमियों को कर्ज देने के लिए नए सरकारी बैंक (मुद्रा बैंक) की क्या जरूरत है जबकि कई सरकारी वित्तीय संस्थाएं यही काम कर रही हैं? गंगा सफाई के लिए सरकारी कंपनी बनाने की जरूरत क्यों है जबकि विभिन्न एजेंसियां व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसी का कमा-खा रहे हैं? व्यावसायिक शिक्षा और रोजगार निजी क्षेत्र से मिलने हैं तो स्किल डेवलपमेंट के लिए अधिकारियों का नया काडर बनाने की क्या जरूरत है? सरकारी स्कीमों की भव्य विफलताओं के बाद मिशन और स्कीमों की गवर्नेंस हमें कहां तक ले जाएंगी? क्या अब भी वह वक्त नहीं आया है कि रेलवे, कोयला, बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में सरकारी एकाधिकार खत्म किया जाए और सरकारी कंपनियों व बैंकों का निजीकरण किया जाए?
  फरवरी की 13 तारीख को जब मुंबई में मेक इन इंडिया के पहले सालाना जलसे में दुनिया भर की कंपनियां (60 देशों से 1,000 कंपनियों के आने की संभावना) जुटेंगी तो उनके दिमाग में ऐसे सवाल गूंज रहे होंगे. दरअसल, निवेशकों का सबसे बड़ा मलाल यह नहीं है कि बीजेपी बिहार-दिल्ली हार गई है बल्कि यह आशंका साबित होना है कि धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस लौट रही है, जो बीजेपी के साथ सुधारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था की वापसी की उम्मीदों के विपरीत है.
  राजनीति में दक्षिणपंथ, वामपंथ, समाजवाद, सेकुलरवाद, जातिवाद, राष्ट्रवाद की चाहे जो छौंक लगाई जाए लेकिन आम लोगों ने तजुर्बों के आधार पर सरकारों को सुधारक मानने के अपने पैमाने तय किए हैं. दिलचस्प यह है कि निवेशक और उद्यमी भी इन्हीं  पैमानों से इत्तेफाक रखते हैं जो कि देश के अधिकांश लोगों ने तय किए हैं. तेज आर्थिक सुधार, आय में बढ़ोतरी और रोजगार देने वाली सरकारें न केवल लोगों की चहेती रही हैं बल्कि निवेशकों ने भी इन्हें सिर आंखों पर बिठाया. यही वजह है कि मोदी का भव्य जनादेश तेज ग्रोथ, मुक्त बाजार और रोजगार देने वाली सरकार के लिए था.
  आर्थिक सुधारों की दमकती सफलता ने यह सुनिश्चित किया है कि मुक्त बाजार और निजी उद्यमिता के प्रबल पैरोकार को भारत में सुधारक राजनेता माना जाएगा. मोदी से मुक्त बाजार का चैंपियन बनने की उम्मीदें इसलिए हैं, क्योंकि वे खुले बाजार के करीब हैं और मोदी गुजराती उद्यमिता के अतीत से प्रभावित रहे हैं. कांग्रेस ने इक्लूसिव ग्रोथ की जिद में उदारीकरण पर जो बंदिशें थोप दी थीं, मोदी उन्हें खत्म करने वाले मसीहा के तौर पर उभरे थे.
  अलबत्ता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले 18 माह में ऐसे दस फैसले भी नहीं किए जो सैद्धांतिक या व्यावहारिक तौर पर उनकी सरकार को साहसी सुधारक या मुक्त बाजार की पैरोकार साबित करते हों. दूसरी तरफ ऐसे फैसलों की फेहरिस्त लंबी है जो मोदी सरकार को बंद बाजार, संरक्षणवाद की हिमायती यानी वामपंथी आर्थिक दर्शन के करीब खड़ा दिखाती है.
  मोदी सरकार ने पिछले 18 माह में आधा दर्जन नई सरकारी कंपनियों की बुनियाद रखी है. दूसरी तरफ बैंकिंग, एयर इंडिया, रेलवे और कोल इंडिया के विनिवेश या खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर पसीना आ गया है और विश्व के देशों से मुक्त व्यापार समझौतों पर स्वदेशी हावी हो गया है.
  मोदी से उदारीकरण का मसीहा बनने की उम्मीदें नाहक नहीं थीं. पिछले दो दशक के आंकड़े और अनुभव, दोनों ही यह साबित करते हैं कि सरकार ने नहीं, बाजार ने भारत का उद्धार किया है. 1991 में सुधारों के बाद से अगले एक दशक में भारत में अतिनिर्धनता करीब दस फीसद कम हुई, जिसमें बड़ा योगदान लोगों की आय बढऩे का है जो निजी क्षेत्र से आए रोजगारों के कारण बढ़ी है.
  आर्थिक उदारीकरण की सूत्रधार होते हुए भी कांग्रेस ने पिछले एक दशक में गवर्नेंस बदलने का कोई जोखिम नहीं लिया इसलिए शुरुआती सफलताओं के बाद आर्थिक सुधार दागी होते चले गए. मोदी जब मिनिमम गवर्नमेंट की बात कर रहे थे तो एहसास हुआ कि शायद उन्होंने अपेक्षाएं समझ ली हैं, क्योंकि मिनिमम गवर्नमेंट में ब्यूरोक्रेसी छांटने, हर तरह की पारदर्शिता लाने, प्रशासनिक सुधार, जैसे वे सभी पहलू आते हैं जिन्होंने भारत में ग्रोथ को दागी किया है. इसके विपरीत मोदी सरकर एक नया स्कीमराज लेकर आ गई जो इसे मैक्सिमम गवर्नेंस जैसा बनाता है.
  जिन सुधारों का जिक्र हमने किया वे मोदी से न्यू्नतम तौर पर अपेक्षित थे. दरअसल, सरकार को तो इसके आगे जाकर बाजार में किस्म-किस्म के कार्टेल ताोड़ने , कॉर्पोरेट गवर्नेंस, राज्यों में निजीकरण, नए नियामकों का गठन और राजनैतिक दलों में पारदर्शिता जैसे कदम उठाने थे, जिनसे भारत में दूरगामी बदलावों की दिशा तय होनी है.
 सरकारी हलकों में इस तल्ख हकीकत को अब महसूस किया जा रहा है कि स्कीमों, ब्यूरोक्रेसी और संरक्षणवाद से लदी-फदी यह ऐसी गवर्नेंस है जो न तो निचले तबके को छू सकी है और न ही युवा और निवेशकों और उद्यमियों में कोई उत्साह पैदा कर पाई है. मेक इन इंडिया सम्मेलन में लोगों के जेहन में वे आंकड़े भी तैरेंगे जो गवर्नेंस के लिए पहली बड़ी चुनौती का सायरन बजा रहे हैं. आर्थिक परिदृश्य को चाहे खेती, उद्योग, विदेश व्यापार में बांटकर देखें या केंद्रीय, राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय पक्षों में, यह पहला मौका है जब खेती, निर्यात, उद्योग, रोजगार आदि कई क्षेत्रों में लाल बत्तियां एक साथ जल उठी हैं और आर्थिक बहस को सुधारों की बजाए संकट प्रबंधन की तरफ मोडऩे वाली हैं.
2014 के जनादेश के बाद लोगों ने नरेंद्र मोदी में मार्गरेट थैचर, रोनाल्ड रेगन और ली क्वान यू की झलक देखी थी जो साहस और संकल्प से अपने देशों की कायापलट के लिए जाने जाते हैं. मोदी को थैचर, रेगन होने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी होना है जो सूझ, संकल्प और समावेश में मोदी सरकार के 18 महीनों पर भारी पड़ते हैं. अब बीजेपी की चुनौती किसी राज्य में सत्ता में पहुंचना हरगिज नहीं होनी चाहिए. सरकार को यह धारणा बनने से रोकना होगा कि नरेंद्र मोदी के रूप में भारत को वह सुधारक नहीं मिल पाया है जिसकी हमें तलाश थी. क्या 2016 का बजट इस धारणा को खारिज करने की शुरुआत करेगा?


Monday, December 24, 2012

मोदी का डर

गुजरात की वोटिंग मशीनें से जिस दिन चुनाव का नतीजा उगलने वालीं थीं ठीक उसके एक दिन पहले , मारुति सुजुकी ने गुजरात में 500 एकड़ जमीन का नया पट्टा मिला और मारुति ने हरियाणा में नए निवेश से तौबा कर ली। नवंबर के आखिरी सप्‍ताह में जब गुजरात चुनाव प्रचार की गरमी से तप रहा था तब तमिलनाडु के कपड़ा उद्यमी गुजरात में नया ठिकाना बनाने की तैयारी में जुटे थे। अगस्त में जब कांग्रेस व भाजपा चुनाव की बिसात बिछा रहे थे तब नोएडा के उद्यमी के गुजरात सरकार को पत्र लिखकर मेहसाणा में जगह मांग रहे थे और सितंबर में जब चुनावी प्रत्‍याशियों का गुणा भाग चल रहा था तब पंजाब का फास्‍टनर उद्योग गुजरात में 1000 करोड़ रुपये का क्‍लस्‍टर बिठाने की जुगाड़ में था। ..... नरेंद्र दामोदरदास मोदी की तीसरी जीत से डरना चाहिए, अल्‍पसंख्‍यकों को नहीं बल्कि भूपिंदर सिंह हुड्डा, जयललिता, अखिलेश यादवों और प्रकाश सिंह बादलों को। नए निवेशकों का पसंद तो अलग गुजरात, अगले पांच साल में पता नहीं देश के कितने सूबों में जमे जमाये  औ़द्योगिक इलाकों को वीरान कर देगा। यदि तरक्‍की, निवेश और रोजगार ही चुनावी सफलता का नया मंत्र हैं तो  नरेंद्र मोदी अब कई राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रियों के सबसे बड़े सियासी दुशमन हैं।
किसकी जीत 
मोदी की तारीफों के तूफान से बाहर निकलना जरुरी है ताकि गुजरात पर आर्थिक राजनीति के नए संदर्भों की रोशनी डाली जा सके। आर्थिक विकास के समग्र राष्‍ट्रीय परिप्रेक्ष्‍य में गुजरात की सफलता दरअसल शेष भारत की गहरी विफलता है। आर्थिक उदारीकरण के दूसरे दशक में औद्योगिक निवेश का जो राष्‍ट्रीय बंटवारा हुआ उसमें गुजरात को बड़ा हिस्‍सा मिला है। विकास का यह असंतुलन अंतत: उन राजयों के सामाजिक, आर्थिक ढांचे पर पर भारी पड़ा जो तरक्‍की के मुकाबले गुजरात से खेत