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Saturday, October 5, 2019

इनके जीते, जीत है


मंदी का इलाज है कहांवहीं जहां इसका दर्द तप रहा हैदरअसलमेक इन इंडिया के मेलों की शुरुआत (2014) तक भारतीय अर्थव्यवस्थाएक दशक तक अपने इतिहास की सबसे तेज विकास दर के बाद ढलान की तरफ जाने लगी थीलेकिन 2015 में जीडीपी का नवनिर्मित (फॉर्मूलानक्कारखाना गूंज उठा और भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के दरकने के दर्द को अनसुना कर दिया गयाअलग-अलग सूबों के निवेश उत्सवों में निवेश के जो वादे हुएअगर उनका आधा भी आया होता तो हम दो अंकों की विकास दर में दौड़ रहे होते.

खपत और निवेश टूटने से आई इस मंदी की चुभन देश भर में फैली राज्य और नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में जाकर महसूस की जा सकती हैजो पिछले दशक में मांग और नए रोजगारों का नेतृत्व करती रही हैं. 1995 से 2012 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था का क्षेत्रीयस्थानीय और अंतरराज्यीय स्वरूप पूरी तरह बदल चुका हैपिछले सात-आठ वर्षों की नीतियां इस बदलाव से कटकर हवा में टंग गई हैंइसलिए मंदी पेचीदा हो रही है

भारतीय अर्थव्यवस्था की बदली ताकत का नया वितरण काफी अनोखा हैजिसे मैकेंजी जैसी एजेंसियांआर्थिक सर्वेक्षण और सरकार के आंकड़े नापते-जोखते रहे हैं.

·       दिल्ली में सरकार चाहे जो बनाते हों लेकिन भारत को मंदी से निकालने का दारोमदार 12 अत्यंत तेज और तेज विकास दर वाले राज्यों पर है. 2002-12 के दौरान इनमें से आठ की विकास दर भारत के जीडीपी से एक फीसद ज्यादा थीगोवाचंडीगढ़दिल्लीपुदुच्चेरीहरियाणामहाराष्ट्रगुजरातकेरलहिमाचलतमिलनाडुपंजाब और उत्तराखंड आज देश का 50 फीसद जीडीपी और करीब 58 फीसद उपभोक्ताओं की मेजबानी करते हैंअगले सात साल में इनमें आठ से दस राज्य यूरोप की छोटे देशों जैसी अर्थव्यवस्था हो जाएंगेमंदी से लड़ाई की अगुआई इन्हें ही करनी है.

·       अगले सात साल में भारत की करीब 38 फीसद आबादी (करीब 55-58 करोड़ लोगनगरीय होगीभारत के 65 नगरीय जिले (जैसे दिल्लीनोएडाहुगलीनागपुररांचीबरेलीइंदौरनेल्लोरउदयपुरकोलकातामुंबईसूरतराजकोट आदिदेश की खपत का नेतृत्व करते हैंदेश की करीब 26 फीसद आबादी, 45 फीसद उपभोक्ता वर्ग और 37 फीसद खपत और 40 फीसद जीडीपी इन्हीं में केंद्रित हैअगले पांच साल में खपत के सूरमा जिलों की संख्या 79 हो जाएगीखपत बढ़ाने की रणनीति इन जिलों के कंधों पर सवार होगी.

·       यूं ही नहीं भारत में रोजगार के अवसर गिने-चुने इलाकों में केंद्रित हैंलगभग 49 क्लस्टर (उद्योगनगरबाजारभारत मे जीडीपी में 70 फीसद का योगदान करते हैंइनके दायरे में करीब 250 से 450 शहर आते हैंयही रोजगार का चुंबक हैं और यहीं से बचत गांवों में जाती हैभारत के अंतरदेशीय प्रवास के ताजा अध्ययन इन केंद्रों के आकर्षण का प्रमाण हैंदुर्भाग्य से नोटबंदी और जीएसटी की तबाही का इलाका भी यही है.

2008 के बाद दुनिया में आए संकट को करीब से देखने के बाद दुनिया के कई देशों में यह महसूस किया गया कि उनकी स्थानीय समृद्धि कुछ दर्जन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के पास सिमट गईजबकि अगर स्थानीय अर्थव्यवस्था में 100 डॉलर लगाए जाएं तो कम से 60 फीसद पूंजी स्थानीय बाजार में रहती हैइसके आधार पर दुनिया में कई जगह लोकल इकोनॉमी (आर्थिक भाषा में लोकल मल्टीप्लायरताकत देने के अभियान शुरू हुएबैंकिंग संकट और ब्रेग्जिट के बीच उत्तर इंग्लैंड के शहर प्रेस्टन का लोकल ग्रोथ मॉडल चर्चा में रहा हैजहां उपभोक्ताओं से जुटाए गए टैक्स और संसाधनों का स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल किया गया.

कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती से मांग या रोजगार बढ़ने के दावे जड़ नहीं पकड़ रहे हैंबार्कलेज बैंक ने हिसाब लगाया हैअगर अपने मुनाफे पर टैक्स देने वाली कंपनियों की कारोबारी आय पिछले वर्षों की रफ्तार से बढे़ (जो कि मुश्किल हैतो यह कटौती जीडीपी को ज्यादा से ज्यादा 5.6 फीसद तक ले जाएगी और अगर आय कम हुई (जो कि तय लग रहा हैतो कॉर्पोरेट कर में कमी से जीडीपी हद से हद 5.2 फीसद तक जाएगायानी करीब 1.5 लाख करोड़ रुपए के तोहफे के बदले छह फीसद की ग्रोथ भी दुर्लभ है.
रोजगारों के बाजार में बड़ी कंपनियों की भूमिका पहले भी सीमित थी और आज भी हैहमारे पड़ोस की ग्रोथ फैक्ट्रियों और बाजारों के सहारे ही भारत की उपभोक्ता खपत 2002 से 2012 के बीच हर साल सात फीसद (7.7 फीसद की जीडीपी ग्रोथ के लगभग बराबरबढ़ी और निवेश जीडीपी के अनुपात में 35 फीसद के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचानतीजा यह हुआ कि करीब 14 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले और लगभग 20 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़ गए.

रोजगार और खपत बढ़ाने के लिए ज्यादा नहीं केवल एक दर्जन राज्य स्तरीय और 50 स्थानीय रणनीतियों की जरूरत हैअब मेक इन इंडिया की जगह मेक इन लुधियानापुणेकानपुरबेंगलूरूसूरतचंडीगढ़ की जरूरत हैइन्हीं के दम पर मंदी रोकी जा सकती हैयाद रहे कि भारत का कीमती एक दशक पहले ही बर्बाद हो चुका है.



Saturday, July 13, 2019

जिएं तो जिएं कैसे


प्रत्‍येक बड़ा कारोबार कभी न कभी छोटा ही होता है. इस ग्लोबल सुभाषित की भारतीय व्याख्या कुछ इस तरह होगी कि भारत में हर छोटा कारोबार छोटे रहने को अभिशप्तहोता है. आमतौर पर या तो वह घिसट रहा होता है, या फिर मरने के करीब होता है. यहां बड़ा कारोबारी होना अपवाद है और छोटे-मझोले बने रहना नियम. कारोबार बंद होने की संभावनाएं जीवित रहने की संभावनाओं की दोगुनी होती हैं.

भारत में 45 साल की रिकॉर्ड बेकारी की वजहें तलाशते हुए सरकारी आर्थिक समीक्षा को उस सच का सामना करना पड़ा है जिससे ताजा बजट ने आंखें चुरा लीं. यह बात अलग है कि बजट उसी टकसाल में बना है जिसमें आर्थिक समीक्षा गढ़ी जाती है.

सरकार का एक हाथ मान रहा है कि भारत की बेरोजगारी अर्थव्यवस्था के केंद्र या मध्य पर छाए संकट की देन है. कमोबेश स्व-रोजगार पर आधारित खेती और छोटे व्यवसाय अर्थव्यवस्था की बुनियाद हैं जो किसी तरह चलते रहते हैं जबकि बड़ी कंपनियां अर्थव्यवस्था का शिखर हैं जिनके पास संसाधनों और अवसरों का भंडार है. इन्हें कोई खतरा नहीं होता. रोजगारों और उत्पादकता का सबसे बड़ा स्रोत मझोली कंपनियां या व्यवसाय हैं जिनमें 25 से 100 लोग काम करते हैं. बड़े होने की गुंजाइश इन्हीं के पास है. इनके लगातार सिकुड़ने या दम तोड़ने के कारण ही बेरोजगारी गहरा रही है.

मध्यम आकार की कंपनियों का ताजा हाल दरअसल संख्याएं नहीं बल्कि बड़े सवाल हैं, बजट जिनके जवाबों से कन्नी काट गया.

         संगठित मैन्युफैक्चरिंग के पूरे परिवेश में 100 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों का हिस्सा 85 फीसद है लेकिन मैन्युफैक्चरिंग से आने वाले रोजगारों में ये केवल 14 फीसद का योगदान करती हैं. उत्पादकता में भी यह केवल 8 फीसद की हिस्सेदार हैं यानी 92 फीसद उत्पादकता केवल 15 फीसद बड़ी कंपनियों के पास है.

         दस साल की उम्र वाली कंपनियों का रोजगारों में हिस्सा 60 फीसद है जबकि 40 साल वालों का केवल 40 फीसद. अमेरिका में 40 साल से ज्यादा चलने वाली कंपनियां भारत से सात गुना ज्यादा रोजगार बनाती हैं. इसका मतलब यह कि भारत में मझोली कंपनियां लंबे समय तक नहीं चलतीं इसलिए इनमें रोजगार खत्म होने की रफ्तार बहुत तेज है. अचरज नहीं कि नोटबंदी और जीएसटी या सस्ते आयात इन्हीं कंपनियों पर भारी पड़े.

निवेश मेलों में नेताओं के साथ मुस्कराते एक-दो दर्जन बड़े उद्यमी अर्थव्यवस्था का शिखर तो हो सकते हैं लेकिन भारत को असंख्य मझोली कंपनियां चाहिए जो इस विशाल बाजार में स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ बन सकें. ऐसा न होने से बेकारी के साथ दो बड़ी असंगतियां पैदा हो रही हैं:

एकहर जगह बड़ी कंपनियां नहीं हो सकतीं. विशाल कंपनियों के बिजनेस मॉडल क्रमश: उनका विस्तार रोकते हैं. भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्था में (पुणे, कानपुर, जालंधर, कोयंबत्तूर, भुवनेश्वर आदि) इसके विकास में संतुलन का आधार हैं. मझोली कंपनियां इन लोकल बाजारों में रोजगार और खपत दोनों को बढ़ाने का जरिया हैं.

दोमध्यम आकार की ज्यादातर कंपनियां स्थानीय बाजारों में खपत का सामान या सेवाएं देती हैं और आयात का विकल्प बनती हैं. यह बाजार पर एकाधिकार को रोकती हैं. मझोली कंपनियों के प्रवर्तक अब आयातित सामग्री के विक्रेता या बड़ी कंपनियों के डीलर बन रहे हैं जिससे खपत के बड़े हिस्से पर चुनिंदा कंपनियों का नियंत्रण हो रहा है जो कीमतों को अपने तरह से तय करती हैं.

पिछले एक दशक में सरकारें प्रोत्साहन और सुविधाओं के बंटवारे में स्थानीय और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन नहीं बना पाईं. रियायतें, सस्ता कर्ज और तकनीक उनके पास पहुंची जो पहले से बड़े थे या प्राकृतिक संसाधनों (जमीन, स्पेक्ट्रम, खनन) को पाकर बड़े हो गए. उन्होंने बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित कर दी. दूसरी तरफ, टैक्स नियम-कानून, महंगी सेवाओं और महंगे कर्ज की मारी मझोली कंपनियां सस्ते आयात की मार खाकर प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गईं और उनके प्रवर्तक बड़ी कंपनियों के एजेंट बन गए.

यह देखना दिलचस्प है कि प्रत्यक्ष अनुभव, आंकड़े और सरकारी आर्थिक समीक्षा वही उपदेश दे रहे हैं जो एक चतुर और कामयाब उद्यमी अपनी अगली पीढ़ी से कहता है कि या तो घास बने रहो या फिर जल्द से जल्द बरगद बन जाओ. घास बार-बार हरी हो सकती है और बरगदों को कोई खतरा नहीं है. हर मौसम में मुसीबत सिर्फ उनके लिए है जो बीच में हैं यानी न जिनके पास गहरी जड़ें हैं और न ही मजबूत तने.

चुनावी चंदे बरसाने वाली बड़ी कंपनियों के आभा मंडल के बीच, सरकार नई औद्योगिक नीति पर काम कर रही है. क्या इसे बनाने वालों को याद रहेगा कि गुलाबी बजट की सहोदर आर्थिक समीक्षा अगले दशक में बेकारी का विस्फोट होते देख रही है. जब कामगार आयु वाली आबादी में हर माह 8 लाख लोग (97 लाख सालाना) जुड़ेंगे. इनमें अगर 60 फीसद लोग भी रोजगार के बाजार में आते हैं तो हर महीने पांच लाख (60 लाख सालाना) नए रोजगारों की जरूरत होगी.


Saturday, March 23, 2019

इस तरह आई बेरोजगारी


भारत में बेरोजगारी क्या कल पैदा हुई है? ट्रक भर आंकड़े उपलब्ध हैं कि अवसरों और हाथों में फर्क हमेशा रहा है. फिर अचानक बेरोजगारी का आसमान क्यों फट पड़ा?

जुमलेबाजी से निकलकर हमें वहां पहुंचना होगा जहां आंकड़े और अनुभव एक दूसरे का समर्थन करते हैं और बताते हैं कि बेरोजगारी का ताजा सच सरकार के हलक में क्यों फंस गया है.

कई दशकों में पिछले पांच साल का वक्त शायद पहला ऐसा दौर है जब सबसे अधिक रोजगार खत्म हुए यानी नौकरियों से लोग निकाले गए. रोजगार की कमी तो पहले से थी लेकिन उसके अभूतपूर्व विनाश ने दोहरी मार की. इससे ही निकले हैं वे आंकड़े जिन्हें नकारकर सरकार ने रेत में सिर घुसा लिया है.

¨    2017-18 में बेकारी की दर 6.1 फीसदी यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर: एनएएसओ (सरकारी एजेंसी) 
¨    फरवरी 2019 में बेकारी की दर 7.2 फीसदी के रिकॉर्ड पर: सीएमआइई (प्रतिष्ठित निजी एजेंसी)                                 

   रोजगार ध्वंस के परिदृश्य को समझने के लिए कुछ बुनियादी आंकड़े पकडऩे होंगे.

- - कम ही ऐसा होता हैजब किसी देश में बेरोजगारी की दर आर्थिक विकास दर के इतने करीब पहुंच जाए. मोदी सरकार के तहत देश की औसत विकास दर 7.6 फीसद रही और बेकारी की दर 6.1 फीसद (यूपीए शासनकाल में बेकारी दर 2 फीसदी थी और विकास दर 6.1 फीसद)

- -     आंकड़े ताकीद करते हैं कि भारत में बेकारी की दर 15 से 20 फीसद तक हो सकती है क्योंकि औसतन 40 फीसद कामगार मामूली पगार यानी औसतन 10-11000 रु. प्रति माह वाले हैं.

-   भारत में ग्रामीण मजदूरी की दर चार साल के न्यूनतम स्तर पर है.

      आर्थिक उदारीकरण के बाद यह शायद पहला ऐसा काल खंड है जब संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों में एक साथ बड़े पैमाने पर रोजगार खत्म हुए.

       संगठित क्षेत्र यानी बड़ी कंपनियों में नौकरियों के कम होने की वजहें थीं मंदी और मांग में कमी, कर्ज में डूबी कंपनियों का बंद होना और नीतियों में अप्रत्याशित फेरबदल. मसलन, 
- -        बैंक कर्ज में फंसी कंपनियों के लिए बने दिवालिया कानून के तहत जितने मामले सुलझे हैं उनमें से 80 फीसद (212 कंपनियां) बंद हुई हैं. केवल 52 कंपनियों को नए ग्राहक मिले हैं लेकिन नौकरियां वहां भी छंटी हैं.

- -   दूरसंचार क्षेत्र में अधिकांश कंपनियों ने कारोबार समेट लिया या विलय (आइडिया-वोडाफोन, भारती-टाटा टेली) हुए, जिससे 2014 के बाद हर साल 20-25 फीसद लोगों की नौकरियां गईं. उद्योग का अनुमान है कि करीब दो लाख रोजगार खत्म हुए. 

- -     स्वदेशी के दबाव में सरकार ने ई-कॉमर्स कंपनियों को डिस्काउंट देने से रोक दिया. फंडिंग बंद हुई और 2015 के बाद से छंटनी शुरू हो गई. अधिकांश बड़े स्टार्टअप बंद हो चुके हैं या उनका अधिग्रहण हो गया है.

- -      सॉफ्टवेयर उद्योग में मंदी, तकनीक में बदलाव, अमेरिका में आउटसोर्सिंग सीमित होने के कारण बड़े पैमाने पर नौकरियां खत्म हुईं. इनमें दिग्गज कंपनियां भी शामिल हैं.

- -    बैंक‌िंग में मंदी, बकाया कर्ज में फंसे बैंकों के विस्तार पर रोक के कारण रोजगार खत्म हुए.

- -   पिछले पांच साल में कई उद्योगों में अधिग्रहण (फार्मास्यूटिकल), मंदी और पुनर्गठन (भवन निर्माण, बुनियादी ढांचा) या सस्ते आयात की वजह से रोजगारों में कटौती हुई है.

- -  2015 तक एक दशक में संगठित क्षेत्र की सर्वाधिक नौकरियां कंप्यूटर, टेलीकॉम, बैंक‌िंग सेवाएं, ई-कॉमर्स, कंस्ट्रक्शन से आई थीं. इनमें बेरोजगारी के अनुभवों और छंटनी की सार्वजनिक सूचनाओं की कोई किल्लत नहीं है.

अब असंगठित क्षेत्र, जो भारत में लगभग 85 फीसदी रोजगार देता है. मुस्कराते हुए नोटबंदी (95 फीसदी नकदी की आपूर्ति बंद) और घटिया जीएसटी थोपने वाली सरकार को क्या यह पता नहीं था कि
  भारत में कुल 585 लाख कारोबारी प्रतिष्ठान हैं, जिनमें 95.5 फीसद में कर्मचारियों की संख्या पांच से कम है: छठी आर्थिक जनगणना 2014
     कुल 1,91,063 फैक्ट्री में से 75 फीसद में कामगारों की संख्या 50 से कम है: एनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्रीज (2015-16) 

नोटबंदी से बढ़ी बेकारी के कई नमूने हैं. मिसाल के तौर पर, मोबाइल फोन उद्योग के मुताबिक, नोटबंदी के बाद मोबाइल फोन बेचने वाली 60 हजार से ज्यादा दुकानें बंद हुईं. छोटे कारोबारों में 35 लाख (मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन सर्वे) और पूरी अर्थव्यवस्था में अक्तूबर, 2018 तक कुल 1.10 करोड़ रोजगार खत्म (सीएमआइई) खत्म हुए हैं.

इस हालत में नए रोजगार तो क्या ही बनते, दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था हालिया इतिहास की सबसे भयानक बेरोजगारी से इसलिए जूझ रही है क्योंकि देखते-देखते सरकार के सामने पांच साल में सर्वाधिक रोजगार खत्म हुए और सरकारी एजेंसियां आंकड़े पकाने में लगी रहीं.



Sunday, October 22, 2017

जीएसटी के उखडऩे की जड़


चुनावों में भव्‍य जीत जमीन से जुड़े होने की गारंटी नहीं है. यह बात किसी उलटबांसी जैसी लगती है लेकिन यही तो जीएसटी है.
जीएसटी की खोटनाकामी और किरकिरी इसकी राजनीति की देन हैंइसके अर्थशास्‍त्र या कंप्‍यूटर नेटवर्क की नहीं.

दरअसल,  अगर कोई राजनैतिक दल किसी बड़े सुधार के वक्‍त जमीन से कट जाए तो उसे तीन माह में दो बार दीवाली मनानी पड़ सकती है. पहले जीएसटी लाने की दीवाली (1 जुलाई) और इससे छुटकारे की (6 अक्तूबर). 

जीएसटी मुट्ठी भर बड़ी कंपनियों का नहींबल्कि भाजपा के बुनियादी वोट बैंक का सुधार था. यह देश के लाखों छोटे उद्योगों और व्‍यापार के लिए कारोबार के तौर-तरीके बदलने का सबसे बड़ा अभियान था. 1991 से अब तक भारत ने जितने भी आर्थिक सुधार किएवह संगठित क्षेत्र यानी बड़ी कंपनियों के लिए थे. जीडीपी में करीब 50 फीसदी और रोजगारों के सृजन में 90 फीसदी हिस्‍सा रखने वाले असंगठित क्षेत्र को सुधारों की सुगंध मिलने का संयोग नहीं बन सका.

टैक्‍स सुधार के तौर पर भी जीएसटी भाजपा के वोट बैंक के लिए ही था. बड़ी कंपनियां तो पहले से ही टैक्‍स दे रही हैं और आम तौर पर नियमों की पाबंद हैं. असंगठित क्षेत्र रियायतों की ओट में टैक्‍स न चुकाने के लिए बदनाम है. उसे नियमों का पाबंद बनाया जाना है.

अचरज नहीं कि छोटे कारोबारी जीएसटी को लेकर सबसे ज्‍यादा उत्‍साहित भी थे क्‍योंकि यह उनकी तीन मुरादें पूरी करने का वादा कर रहा थाः

1. टैक्‍स दरों में कमी यानी बेहतर मार्जिन और ज्‍यादा बिक्री
2. आसान नियम यानी टैक्‍स कानून के पालन की लागत में कमी अर्थात् साफ-सुथरे कारोबार का मौका
3. डिजिटल संचालन यानी अफसरों की उगाही और भ्रष्‍टाचार से निजात

छठे आर्थिक सेंसस (2016) ने बताया है कि भारत में खेती के अलावाकरीब 78.2 फीसदी उद्यम पूरी तरह संचालकों के अपने निवेश पर (सेल्‍फ फाइनेंस्‍ड) चलते हैं. उनकी कारोबारी जिंदगी में बैंक या सरकारी कर्ज की कोई भूमिका नहीं है. जीएसटी के उपरोक्‍त तीनों वादे, छोटे कारोबारियों के मुनाफों के लिए खासे कीमती थे. जमीन या किरायेईंधन और बिजली की बढ़ती लागत पर उनका वश नहीं हैजीएसटी के सहारे वह कारोबार में चमक की उम्मीद से लबालब थे. 

2015 की शुरुआत में जब सरकार ने जीएसटी पर राजनैतिक सहमति बनाने की कवायद शुरू की तब छोटे कारोबारियों का उत्‍साह उछलने लगा. 
यही वह वक्‍त था जब उनके साथ सरकार का संवाद शुरू होना चाहिए था ताकि उनकी अपेक्षाएं और मुश्किलें समझी जा सकें. गुरूर में झूमती सरकार ने तब इसकी जरूरत नहीं समझी. कारोबारियों को उस वक्‍त तकजीएसटी की चिडिय़ा का नाक-नक्‍श भी पता नहीं था लेकिन उन्‍हें यह उम्मीद थी कि उनकी अपनी भाजपाजो विशाल छोटे कारोबार की चुनौतियों को सबसे बेहतर समझती हैउनके सपनों का जीएसटी ले ही आएगी.

2016 के मध्य में सरकार ने मॉडल जीएसटी कानून चर्चा के लिए जारी किया. यह जीएसटी के प्रावधानों से, छोटे कारोबारियों का पहला परिचय था. यही वह मौका था जहां से कारोबारियों को जीएसटी ने डराना शुरू कर दिया. तीन स्‍तरीय जीएसटीहर राज्‍य में पंजीकरण और हर महीने तीन रिटर्न से लदा-फदा यह कानून भाजपा के वोट बैंक की उम्‍मीदों के ठीक विपरीत था. इस बीच जब तक कि कारोबार की दुनिया के छोटे मझोले , जीएसटी के पेच समझ पातेउनके धंधे पर नोटबंदी फट पड़ी.

त्तर प्रदेश की जीतभाजपा के दंभ या गफलत का चरम थी. जीएसटी को लेकर डर और चिंताओं की पूरी जानकारी भाजपा को थी. लेकिन तब तक पार्टी और सरकार ने यह मान लिया था कि छोटे कारोबारी आदतन टैक्‍स चोरी करते हैं. उन्‍हें सुधारने के लिए जीएसटी जरूरी है. इसलिए जीएसटी काउंसिल ने ताबड़तोड़ बैठकों में चार दरों वाले असंगत टैक्‍स ढांचे को तय कियाउनके तहत उत्‍पाद और सेवाएं फिट कीं और लुंजपुंज कंप्‍यूटर नेटवर्क के साथ 1 जुलाई को जीएसटी की पहली दीवाली मना ली गई.

जीएसटी आने के बाद सरकार ने अपने मंत्रियों की फौज इसके प्रचार के लिए उतारी थी लेकिन उन्‍हें जल्‍द ही खेमों में लौटना पड़ा. अंतत: अपने ही जनाधार के जबरदस्‍त विरोध से डरी भाजपा ने गुजरात चुनाव से पहले जीएसटी को सिर के बल खड़ा कर दिया. यह टैक्‍स सुधार वापस कारीगरों के हवाले है जो इसे ठोक-पीटकर भाजपा के वोट बैंक का गुस्‍सा ठंडा कर रहे हैं.



ग्रोथआसान कारोबार या बेहतर राजस्वजीएसटी फिलहाल अपनी किसी भी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा क्योंकि इसे लाने वाले लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ते हुए राजनैतिक जड़ों से गाफिल हो गए थे. चुनावों में हार-जीत तो चलती रहेगीलेकिन एक बेहद संवेदनशील  सुधारअब शायद ही उबर सके. 

Monday, August 28, 2017

आइये, चीन से लड़ते हैं

कहांडोकलाम पठार पर?
नहीं. चावड़ी बाजार में.
दुआ कीजिए कि भूटान के पठार पर चीन से दो-दो हाथ न हो (तनाव घटने लगा है) लेकिन चावड़ी बाजार में चीन से जंग करनी ही होगी. इस की अपनी कीमत होगी लेकिन फायदे भी हैं 

यदि हम इसे न्यूयॉर्क के मैनहटन या लंदन के ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट में भी लडऩा चाहते हैं यानी ग्लोबल बाजार में भी चीन के दांत खट्टे करना चाहते हैं तो फिर ज्यादा बड़ी फौज चाहिए.

चीन के प्राचीन युद्ध गुरु सुन त्जु ने कहा था कि शत्रु की ताकत के बारे में जानकारी भूत-प्रेतों से नहीं मिलतीन ही बातें या कयास काम आते हैंदुश्मन की हकीकत जानने वाले लोग ही बता सकते हैं कि उसके खेमे में कितनी ताकत है... इसलिए एक नजर चीन की कारोबारी ताकत पर.

- दुनिया को 2,097 अरब डॉलर (लगभग 13 खरब रु.) का निर्यात, 1,587 अरब डॉलर का आयात, 509 अरब डॉलर का व्यापार सरप्लस (2016 के आंकड़े) लेकिन इसके बाद भी दुनिया के कुल व्यापार में चीन का हिस्सा केवल 14 फीसदी है. चीन इसे बढ़ाते जाने की ताकत से लैस है.

- चीन में कुल विदेशी निवेश 126 अरब डॉलर और 3,000 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है.

- एक खरब डॉलर की वन बेल्टवन रोड परियोजना जो 60 देशों में बुनियादी ढांचा बनाएगी. ये मुल्क बाद में चीन के लिए सस्ते उत्पादन का केंद्र बनेंगे. इसमें पाकिस्तान में 46 अरब डॉलर का निवेश शामिल है.

- चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक 'दोस्त' है. हर साल करीब 61 अरब डॉलर का चीनी सामान भारत आता है और भारत बमुश्किल 10 अरब डॉलर का निर्यात चीन को करता है. 51 अरब डॉलर का फायदा चीन के हक में है.

- भारत के कई प्रमुख मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र अपनी अधिकांश आपूर्तियों के लिए चीन के मोहताज हैं टेलीकॉम इक्विपमेंटइलेक्ट्रॉनिक्सदवाएंकंप्यूटर हार्डवेयरलोहा-इस्पात बड़े आयात हैं. बताते चलें कि चीन से लंबी तनातनी के बावजूद दोतरफा व्यापार जारी है और वहां से सप्लाई रुकने से कई भारतीय उद्योग लडख़ड़ा जाएंगे.

चीन से जंग लंबी और मुश्किलों भरी होगी. पिछले तीन साल में सरकार ने इसकी तैयारी के लिए कुछ भी नहीं किया है.

चीनी पुर्जे इस्तेमाल कर रही इलेक्ट्रॉनिक्स और टेलीकॉम कंपनियों सेसरकार ने हाल में ही सुरक्षा पर सवाल-जवाब किए हैं. 2012 में इसी तरह के सवालों के जरिए राष्ट्रीय मैन्युफैक्चरिंग पॉलिसी तैयार की गई थी जो चुनिंदा उद्योगों में चीन पर निर्भरता घटाने की कोशिश थी. यह नीति 'मेक इन इंडिया' का आधार है. 'मेक इन इंडिया' को नारेबाजी से निकाल कर उन उद्योगों (टेलीकॉम इक्विपमेंटइलेक्ट्रॉनिक्सदवाएंकंप्यूटर हार्डवेयर) को रियायतें देने पर केंद्रित करना होगाजहां हम चीन के बिना सांस नहीं ले सकते.

स्वदेशी वाले कुछ समय तक शांत रहें. जिन उत्पादों में हम चीन पर निर्भर हैं उनकी तकनीक भारत में नहीं है. इसलिए यूरोपीय और अमेरिकी कंपनियों को खास प्रोत्साहन देकर बुलाना होगा और घरेलू तकनीकों के विकास में निवेश करना होगा.

सस्ते चीनी सामान का जवाब लघु उद्योग देंगेजिन्हें चीन में माइक्रो मल्टीनेशनल्स कहा जाता है. इन्हें आत्मनिर्भरता के सिपाही बनाने के लिए बजट से संसाधन देने होंगे.

जीएसटी बनाते समय क्या हमने चीन के बारे में सोचा थाजीएसटी में उन सभी उद्योगों पर भारी टैक्स थोपा गया हैजहां मुकाबला चीन से है. जीएसटी ने चीन के सस्ते सामान के मुकाबले भारत को कहीं ज्यादा महंगा उत्पादन केंद्र बना दिया है.

चीन को हराना है तो रुपए की ताकत घटानी होगी. जोरदार निर्यात के लिए रुपए का अवमूल्यन चाहिए.

युद्ध कोई भी होउसकी अपनी एक कीमत होती है. चीन से जो जंग हमें लडऩी होगी यह रही उसकी कीमतः

- विदेशी निवेश (गैर चीनी) और उद्योगों को प्रत्यक्ष प्रोत्साहन यानी बजट से खर्चा यानी ज्यादा घाटा
- जीसटी में फेरबदल और रियायतें अर्थात् कम राजस्व
- चीन से आयात पर सख्ती अर्थात् सप्लाई में कमी यानी महंगाई
- सस्ता रुपया यानी महंगे आयात
- देश की आर्थिक नीतियों में समग्र बदलावसरकारी खर्च पर नियंत्रण

सुन त्जु ने कहा था कि युद्ध के बगैर ही शत्रु को हराना ही सबसे उत्तम युद्ध कला है. यह कला आर्थिक ताकत से ही सधती है. चीन की ताकत उसकी विशाल सेना या साजो-सामान में नहीं बल्कि 3,000 अरब डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार में छिपी है.

चलिएचीन से लड़ते हैं.



यह लड़ाई हमें बेरोजगारी से जीत की तरफ ले जाएगी.