Tuesday, January 5, 2010

बस इतना सा ख्वाेब है

नया साल बहत्तर घंटे बूढ़ा हो चुका है, यानी कि उम्मीदों का टोकरा उतारने में अब कोई हर्ज नहीं हैं। कामनायें और आशायें सर माथे. लेकिन हमारी बात तो अनिवार्यताओं, अपरिहार्यताओं और आकस्मिकताओं से जुड़ी है। यह चर्चा उन उपायों की है जिनके बिना नए साल में काम नहीं चलने वाला, क्यों कि कई क्षेत्रों में समस्यायें, संकट में बदल रही हैं। अगले साल की सुहानी उम्मीदों पर चर्चा फिर करेंगे पहले तो सुरक्षित, शांत और संकट मुक्त रहने के लिए इन उलझनों को सुलझाना जरुरी है। .. दरअसल यह 'दस के बरस' का संकटमोचन या आपत्ति निवारण एजेंडा है। कभी, ताकि सुरक्षा, शांति और संकटों से मुक्ति सुनिश्चित हो सके।

तो खायेंगे क्या ?

कभी आपने कल्पना भी की थी कि आपको सौ रुपये किलो की दाल खानी पड़ेगी। यानी कि उस खाद्य तेल से भी महंगी, जो गरीब की थाली में अब तक सबसे महंगा होता था। भूल जाइये गरीबी हटाने को दावों और हिसाबों को। यह महंगाई गरीबी कम करने के पिछले सभी फायदे चाट चुकी है। खाद्य उत्पादों की महंगाई गरीबी की सबसे बड़ी दोस्त है। दरअसल खेती का पूरा सॉफ्टवेर ही खराब हो गया है। इसका कोड नए सिरे से लिखने की जरुरत है और वह भी युद्धस्तर पर। अगर सरकार को कुछ रोककर भी खेती की सूरत बदलनी पड़े तो कोई हर्ज नहीं है। किसान के सहारे वोटों की खेती तो होती रहेगी लेकिन अगर खेतों में उपज न बढ़ी तो देश की आबादी खाद्य इमर्जेसी की तरफ बढ़ रही है। दस का बरस खाद्य संकट का बरस हो सकता है। एक अरब से ज्यादा लोगों को अगर सही कीमत पर रोटी न मिली तो सब बेकार हो जाएगा।

शहर फट जाएंगे

आपको मालूम है कि इस साल करीब आधा दर्जन नई छोटी कारें भारतीय बाजार में आने वाली हैं। मगर कोई बता सकता है कि वह चलेंगी कहां? शहर फूलकर फटने वाले हैं। पिछले दो दशकों के उदारीकरण ने शहरों को रेलवे प्लेटफार्म बना दिया है। सरकारें गांवों की तरफ देखने का नाटक करती रही और गांव के गांव आकर शहरों में धंस गए। सूरत सुधारने के लिए हर शहर में राष्ट्रमंडल खेल तो हो नहीं सकते लेकिन हर शहर को ढहने से बचने का रास्ता जरुर चाहिए। आबादी के प्रवास से लेकर, शहरी ढांचे की बदहाली व बीमार आबोहवा तक और कानून व्यवस्था की दिक्कतों से लेकर बिजली पानी की जरुरतों तक, शहरों का ताना बाना हर जगह खिंचकर फट रहा है। सिर्फ दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बंगलौर ही देश नहीं है। कानपुर, पटना, नासिक, इंदौर, लुधियाना भी देश में ही है। बरेली, जलगांव, भागलपुर, पानीपत भी उतने ही बेहाल हैं। दस का बरस शहरों के लिए नई और बड़ी दिक्कतों का है।

हवा में है खतरा

मतलब पर्यावरण से कतई नहीं है। बात विमानन क्षेत्र की है। अगर हवाई यात्रा करते हों इस साल बहुत संभल कर चलने की जरुरत है। देश का उड्डयन ढांचा चरमरा गया है। पिछले बरस लगभग हर माह कोई बड़ा हादसा हुआ है या होते-होते बचा है। हेलीकॉप्टर गिर रहे हैं, जहाज जमीन पर रनवे छोड़ कर गड्ढों में उतर रहे हैं, पायलट नशे में डूब कर सैकड़ो जिंदगियों के साथ एडवेंचर कर रहे हैं। जहाजों की तकनीकी खराबियां खौफ पैदा करने लगी हैं। विमानों को ऊपर वाला ही मेंटेन कर रहा है। दरअसल पूरा विमानन क्षेत्र एक गंभीर किस्म के खतरे में है और वह भी उस समय जब कि देश में विमान यात्रियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है और नए हवाई मार्ग खुले हैं। विमानन सेवाओं को सुधारने के लिए पता नहीं किस अनहोनी का इंतजार है। दस के बरस में यहां संकट बढ़ सकता है।

इंसाफ का तकाजा

आर्थिक स्तंभ में न्यायिक सुधारों की चर्चा पर चौंकिये मत? दुनिया में कोई अर्थव्यवस्था चाहे कितनी समृद्ध क्यों न हो, कानून के राज के बिना नहीं चलती। जहां सरकार के मंत्री अदालतों की निष्क्रियता और दागी साख को अराजकता बढ़ने की वजह बता रहे हो वहां कौन निवेशक अदालतों पर भरोसा करेगा। मुश्किल नहीं है यह समझना जिन इलाकों व राज्यों में न्याय और कानून व्यवस्था ठीक है वहां निवेशक अपने आप चले आते हैं। न्यायिक तंत्र में सुधार इसलिए जरुरी है क्यों कि यह लोकतंत्र के अन्य हिस्सों को जल्दी सुधार सकता है। वक्त का तकाजा है कि इंसाफ करने वाला पूरा तंत्र सुधारा जाए और वह भी बहुत तेजी से। यह सिर्फ लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनिवार्य नहीं है बल्कि आर्थिक प्रगति के लिए भी अपरिहार्य है। .. नया साल अदालतों से बहुत से सवाल करने वाला है।

बस एक पहचान

आखिर इस देश के सभी लोगों को एक पहचान पत्र देने के लिए कितने कर्मचारी और कितना पैसा चाहिए? लाखों बाबुओं की फौज और लाखों करोड़ के बजट वाला यह देश अगर चाहे तो एक या दो साल में पूरी परियोजना लागू नहीं कर सकता? मामला पैसे या संसाधनों का नहीं है, करने की जिद का है। अगर आतंकी हमले न हुए होते तो शायद नागरिक पहचान पत्र को लेकर कोई गंभीर नहीं होता। लेकिन वह संजीदगी भी किस काम की, जो वक्त पर नतीजे न दे सके। सुरक्षा संबंधी चाक चौबंदगी के लिए ही नहीं बल्कि लोगों को एक आधुनिक और वैधानिक पहचान भी चाहिए ताकि वह सरकारी सेवाओं तक और सरकारी सेवायें उन तक पहुंच सकें। यह परियोजना सरकार की इच्छा शक्ति की सबसे बड़ी परीक्षा है। इसमें देरी का नतीजा सिर्फ नुकसान है। दिसंबर में पूछेंगे कि हमें आपको पहचान देने की यह मुहिम फाइलों से कितना बाहर निकली?

नए साल में इस खुरदरे और अटपटे एजेंडे के लिए माफ करियेगा। हम जानते हैं कि यह नूतन वर्ष की रवायती शुभकामनाओं के माफिक नहीं है लेकिन यह हम सबकी उलझनों के माफिक जरुर है जो नए साल की पहली सुबह से ही हमें घेर कर बैठ गई हैं। तो नए साल में सिर्फ इतनी सी ख्वाहिश है कि सुधार अगरचे धीमे हों लेकिन संकटों के इलाज में सरकारें जल्दी दिखायेंगी। यह उम्मीद भी हमने सिर्फ इसलिए की है क्यों कि उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। इसके बाद इंतजार के अलावा और क्या हो akataa है। ..तुम आए हो, न शबे इंतजार गुजरी है , तलाश में है सहर, बार-बार गुजरी है। (फैज)

Monday, December 28, 2009

बोया पेड़ बबूल का..

पच्चीस रुपये किलो का आलू और चालीस रुपये किलो की चीनी खरीदते हुए किसे कोस रहे हैं आप? बेहतर होगा कि खुद को कोसिए! पहले तो इस बात पर कि आप उपभोक्ता हैं और दुनिया में सरकारें बहुसंख्य उपभोक्ताओं के बजाय मुट्ठी भर उत्पादकों की ज्यादा सुनती हैं और दूसरी बात यह कि आपने ही सरकार को वह 'बहुमद' दिया है, जिसमें मस्त नेताओं के लिए महंगाई अब मुद्दा ही नहीं (नान इश्यू) है। दरअसल हम वक्त पर कभी सही सवाल करते ही नहीं। ..आपने अपने नेता से आखिरी बार कब यह पूछा था कि देश में पिछले चालीस वर्षो में फसलों का रकबा क्यों नहीं बढ़ा, जबकि खाने वाले पेट दोगुने हो गए? या चीन पिछले एक दशक में खेती में नौ फीसदी की विकास दर के साथ कृषि उत्पादों का बड़ानिर्यातक कैसे बन गया और भारत शुद्ध आयातक में कैसे बदल गया? याद कीजिए कि कब और किस चुनाव में उठा था यह सवाल कि भारत में पिछले एक दशक में हर आदमी को कम अनाज (प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धता) क्यों मिलने लगा जबकि कमाई बढ़ गई है? या गरीब बांग्लादेश और रेगिस्तानी इजिप्ट (मिस्त्र) के खेत भारत से ज्यादा अनाज क्यों देते हैं? ..यकीन मानिए, आपको छेद रही महंगाई की बर्छियां इन्हीं सवालों से निकली हैं। मंदी आई और गई, शेयर बाजार गिरा और चढ़ा, सरकारें गई और आई मगर इन सबसे बेअसर, जिद्दी महंगाई पिछले दो ढाई साल में हमारे आर्थिक तंत्र में पैबस्त हो गई है। सरकार अब दयनीय विमूढ़ता में है, आयात नामुमकिन है और देश लगभग खाद्य आपातकाल की तरफ मुखातिबहै।
सरासर गलत दिलासे
हम आपको आटा दाल का भाव क्या बताएं? हम तो आपको उन दिलासों की असलियत बताना चाहते हैं जो महंगाई की जिम्मेदारी से बचने के लिए दिए जाते हैं। सरकार का चेहरा छिपाने वाली अंतरराष्ट्रीय पेट्रो कीमतें गिर चुकी हैं, मगर महंगाई चढ़ी हुई है। अब तो इस महंगाई से मुद्रा के प्रवाह का भी कोई रिश्ता नहंी रहा। यह अब तक की सबसे पेचीदा और कडि़यल महंगाई है, जिसे कई अहम क्षेत्रों की लंबी उपेक्षा ने गढ़ा है। भारत ने इससे पहले भी महंगाई के दौर देखे हैं। सत्तर, अस्सी, नब्बे के दशक औसतन सात से नौ फीसदी की महंगाई के थे। 1974-75 में महंगाई 25 फीसदी तक गई थी और 80-81 में 18.2 फीसदी व 91-92 में 13.2 फीसदी तक। लेकिन ताजी महंगाई उनसे फर्क है। 1974 की महंगाई सूखे में खरीफ की तबाही से उपजी थी, जबकि अस्सी की महंगाई को खेती की असफलता व तेल की कीमतों में तेजी ने गढ़ा था। मत भूलिए कि पिछले साल देश में दशक का सबसे अच्छा खाद्यान्न उत्पादन हुआ था, मगर तब भी खाने की कीमतें मार रही थीं और अब जब खरीफ कुछ नरम-गरम रही, तब भी महंगाई का कहर जारी है। भारत में महंगाई अब आम लोगों को मारने के लिए मौसम या दुनिया के बाजार की मोहताज नहीं है। सरकार के नीतिगत अपकर्मो ने उसे बला की ताकत दे दी है।
..आम कहां से खाय
भारतीय कृषि की करुण कथा बहुत लंबी है। हम इसे सुनाना भी नहीं चाहते। आप केवल खेती की चर्चा के जरिए ताजी महंगाई के कांटों की जड़ें देखिए। जिनकी तलाश के लिए कोई खुर्दबीन नहीं चाहिए। हिसाब बड़ा साफ है कि पिछले दो दशकों में देश की आबादी 20 से 24 फीसदी की (1991 में करीब 24 और 2000 में 22 फीसदी) प्रति दशक गति से बढ़ी, मगर अनाज उत्पादन बढ़ने की दर दो दशकों में 11 व 18 फीसदी रही है। भूल जाइए कि अधिकांश सांसद अपना पेशा किसान बताते हैं, भारत में (3124 किग्रा) एक हेक्टेअर जमीन में तो बांग्लादेश (3904 किग्रा) के बराबर भी धान नहीं पैदा होता। गेहूं की प्रति हेक्टेअर उपज में मरुस्थलीय इजिप्ट (6455 किग्रा) हमसे ढाई गुना आगे है। बीस साल में भूखे पेटों की आबादी दोगुना करने वाले देश में कुल बुवाई क्षेत्र तीन दशक से 140 से 141 मिलियन हेक्टेअर पर लटका है। हैरत में पड़ना जरूरी है कि भारत में अनाज की प्रति व्यक्ति वार्षिक उपलब्धता 1991 में 171 किग्रा से घटकर अब 150 किग्रा पर आ गई है। यह बात सिर्फ गेहूं चावल की है। दालें तो वर्षो से पतली हैं। 1.3 अरब पेटों को पाल रहे चीन में प्रति व्यक्ति 404 किग्रा अनाज उपलब्ध है। करीब डेढ़ दशक पहले तक विश्व खाद्य कार्यक्रम के तहत अनाज का दान लेने वाला चीन खेती की सूरत बदल कर दुनिया के अनाज बाजार बड़ा खिलाड़ी बन गया है और आज अनाज उत्पादन बढ़ाने की प्रयोगशाला है। इसके विपरीत भारत खाने की स्थायी किल्लत का केंद्र बनता जा रहा है। भारत ने पिछले दो दशकों में अपने खेतों में बदहाली उगाई और बाजार में मांग। आय, खपत व बाजार बढ़ा मगर पैदावार, खेत, अनुसंधान घट गया। रोटियों की जिद्दोजहद तो होनी ही है।
महंगाई का उदारीकरण
दो दशकों में देश के कुल आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा लगभग तीन गुना (52 फीसदी से 18 फीसदी) घट जाना आपको अचरज में नहीं डालता? उगाने वाले और खाने वाले हाथों के बीच संतुलन अब बिगड़ गया है। असंतुलन पहले भी था, मगर तब आय कम थी। उद्योग व सेवा क्षेत्रों के बूते बढ़ी आय ने लोगों को ताजी क्रय शक्ति दे दी है, जिसे वह किल्लत वाले खाद्य बाजार पर चलाकर मांग व आपूर्ति के संतुलन को कायदे से बिगाड़ रहे हैं। उत्पादन कम हो तो उदार बाजार मुश्किलों का सौदा करता है। खाद्य प्रसंस्करण, स्नैक्स और कृषि उपज आधारित मूल्य वर्धित उत्पादों का बाजार अनाज का विशाल व संगठित, नया ग्राहक है। सबको निवाला न दे पाने वाली खेती इन्हें भी आपूर्ति करती है। इन्हें खूब मुनाफा होता है। वक्त के साथ जमाखोरी के ढंग बदल रहे हैं। किल्लत की दुनिया में वायदा बाजार भी खूब चमकता है और मुश्किलें बढ़ाता है। यह महंगाई का उदारीकरण है। खेती में उत्पादक व उपभोक्ता के हितों के बीच संतुलन की बहस अंतरराष्ट्रीय है। भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था में उत्पादक घटे हैं, जबकि उपभोक्ता बढ़ रहे हैं। आदर्श स्थिति में नीतियां उपभोक्ताओं के हित में होनी चाहिए क्योंकि उत्पादक भी किसी न किसी स्तर पर उपभोग करता है। लेकिन यहां तो साफ ही नहीं कि खेती की किस्मत लिखने वाली नीतियां किसानों के लिए हैं या उपभोक्ताओं के लिए। अगर पूरी राजनीति खेती के हक में है तो उत्पादकों को बाजार खाद्य सामग्री से भर देने चाहिए। फिर दाल, रोटी, सब्जी की आपूर्ति कम क्यों है? महंगाई क्यों निचोड़ रही है? और अगर खेती का उत्पादन नहीं बढ़ सकता तो फिर आयात खुलना चाहिए जैसा कि दुनिया के कई मुल्क करते हैं। भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता पिसता है और उत्पादक का राजनीतिक इस्तेमाल होता है। .. कोई तीसरा है जो मालामाल होता है? हमने कभी पूछा नही कि यह तीसरा आदमी कौन है?. बस शांति के साथ महंगाई सहने की आदत डाल ली है। तो आइए, खुद को शाबासी तो दीजिए..आने वाली पीढि़यां आपके त्यागकी कथाएं गाएंगी!
anshumantiwari@del.jagran.com

Monday, December 21, 2009

छोटे होने की जिद

तो फिर भारत का हर छोटा राज्य समृद्धि में बड़ा क्यों नहीं हो जाता? क्यों छोटे राज्य विशेष श्रेणी के दर्जे यानी केंद्रीय सहायता के मोहताज हैं? वित्तीय देनदारियों में डिफाल्टर होने का खतरा इन पर ही क्यों मंडराता है? इनके पास शानदार विकास और जानदार कानून व्यवस्था दिखाने वाला कोई चमकदार अतीत क्यों नहीं है? विकास के बेहद सीमित अवसर, चुनिंदा संसाधन व सीमित आर्थिक गतिविधियां क्यों इन राज्यों की नियति बन जाती हैं? इन सवालों से ईमानदारी के साथ आंख मिलाकर तो देखिए!.. छोटे राज्यों को लेकर होने वाले बड़े-बड़े आंदोलनों का तुक-तर्क आपको असमंजस में डाल देगा। छोटे राज्यों की पूरी बहस को यदि आर्थिक संदर्भो और बदले वक्त की रोशनी में खोला जाए तो हैरत में डालने वाले निष्कर्ष निकलते हैं। दुनिया के छोटे देश, अब तो बड़े भी, इस निर्दयी बाजार में साझी आर्थिक (यूरोपीय समुदाय, आसियान) किस्मत लिख रहे हैं, तब भारत में ऐसी राज्य इकाइयां बनाने की मांग उठती है जो आर्थिक कमजोरी व जोखिम के डीएनए के साथ ही पैदा होने वाले हैं।
अतीत किसे सिखाता है?
बहस पिछड़े इलाकों के आर्थिक विकास की ही है ना! मगर गैर आर्थिक तर्को पर बांटे गए राज्यों ने तो भारत को विकास की विसंगतियों का अजायबघर बना दिया है। 28 राज्यों वाले इस मुल्क में 13 राज्य छोटे हैं। इनमें आठ तो विशेष दर्जे वाले हैं, जिन्हें मजाक में विशेष खर्चे वाले राज्य कहा जाता है। केंद्रीय मदद और अनुदान पर निर्भर, क्योंकि अपनी अर्थव्यवस्था बैसाखी भी नहीं देती। पांच राज्य जो इस दर्जे से बाहर हैं, उनमें झारखंड गरीबी और भ्रष्टाचार का स्वर्ग है। छत्तीसगढ़ नक्सली हिंसा का और गोवा राजनीतिक अस्थिरता का। .. पंजाब और हरियाणा? जिज्ञासा लाजिमी है क्योंकि छोटे राज्यों के समर्थन की पूरी तर्क श्रृंखला को इन्हीं से ऊर्जा मिलती है। पंजाब व हरियाणा भारतीय कृषि के स्वर्ण युग की देन हैं। वक्त बदला तो खेती आधारित विकास का माडल उदारीकरण की आंधी में उखड़ गया। जैसे-जैसे देश के आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा घटा, आबादी बढ़ी, जोतें छोटी हुई, वैसे-वैसे पंजाब और हरियाणा मुश्किलों की गांठ बनते गए हैं। भारी घाटे, असंतुलित विकास व आय में अंतर और पलायन इनकी पहचान है। हरियाणा को खेतिहर जमीन गंवाकर कुछ उद्योग मिल भी गए, लेकिन पंजाब तो बड़े उद्योगों के मामले में छोटा ही रह गया। भाषाई पहचान के लिए बना पंजाब अतीत में पहचान की संकट का एक हिंसक आंदोलन झेल चुका है और खेती का यह स्वर्ग किसानों की आत्महत्या का नर्क भी रहा है। जबकि हरियाणा में अधिकांश जमीन मुट्ठी भर लोगों के पास है। नए हो या पुराने, छोटे राज्य न आंकड़ों में कोई करिश्मा करते दिखते हैं और न जमीन पर। झारखंड अगर प्रति व्यक्ति आय में देश में पांचवें नंबर पर है तो राज्य में गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले 42 फीसदी का आंकड़ा इसकी चुगली खाता है। उत्तर पूर्व को सात छोटे राज्यों में बांटकर भी यहां विकास की तस्वीर नहीं बदली जा सकी।
विभाजन के जोखिम
कल्पना करिए कि अगर मौसम का बदलाव किसी छोटे राज्य में खेती का ढर्रा ही बदल दे (दुनिया के कुछ देशों में यह हो रहा है) या पर्यावरण के कानूनों के कारण खानें बंद करनी पड़ें या फिर वित्तीय कानूनों में बदलावों की वजह से राज्यों के लिए बाजार से कर्ज लेना मुश्किल हो जाए?.. कुछ भी हो सकता है! लेहमन की बर्बादी या दुबई के डूबने के बारे में किसने सोचा था? वित्तीय तूफानों में थपेड़े खा रही दुनिया मान रही है कि छोटा होना अब जोखिम को बुलाना है। इसलिए देश अपनी आर्थिक सीमाओं का एकीकरण कर रहे हैं भौगोलिक तौर पर एक भले ही न हों। पिछले साल की मंदी ने यूरोप के कई छोटे मुल्कों को बर्बाद किया था। भारत में पिछले दो साल की आर्थिक कमजोरी के मद्देनजर एक अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ने कहा है कि केंद्र पर निर्भर छोटे राज्यों के लिए आने वाले साल बहुत मुश्किल हैं। कर कानूनों में एक फेरबदल भी छोटे राज्य की औद्योगिक तस्वीर बदल देता है। याद कीजिए कि दो साल पहले उत्तर पूर्व के राज्यों से जब केंद्र ने कर रियायतें वापस लीं तो उद्योग भी वापस चल दिए। छोटे राज्यों का झंडा उठाने वालों को कौन यह बताए कि अब बाजार में छोटा होना ज्यादा जोखिम भरा है। निवेशक स्वतंत्र हैं, बैंक अब साख देखते हैं। बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अपने व्यापक आर्थिक आधार के कारण फिर भी बच जाती हैं, मगर छोटी तो एक झटके में निबट जाती हैं। आर्थिक अतीत गवाह है कि वेतन आयोग की सिफारिशों से लेकर आपदाओं तक जब भी बोझ बढ़ा है, छोटे राज्यों की अर्थव्यवस्थाएं भूलोट हो गई हैं।
यह पहाड़ा ही उलटा है
विशालता या राजधानी से भौगोलिक दूरी के कारण कोई प्रदेश या प्रदेश का हिस्सा उपेक्षित नहंी होता। इस तर्क पर उत्तर पूर्व और लद्दाख कुछ भी सोच सकते हैं। विकास में उपेक्षा की वजह सिर्फ राजनीतिक है। दूरी का तर्क तो अब हास्यास्पद है क्योंकि सूचना तकनीक के विकास के बाद एक राज्य का मुख्यमंत्री (अगर चाहे तो) राजधानी में बैठकर सुदूर जिले के डीएम से आंख में आंख डालकर विकास के सवाल कर सकता है। विकास के इस उलटे पहाड़े ने कई बार पेचीदा जनसंख्या प्रवास को भी जन्म दिया है। जातीय या क्षेत्रीय पहचान के सवाल अक्सर सक्षम मानव संसाधनों को एक राज्य की सीमा में बांध (उस राज्य विशेष के लोग बाहर से आकर वापस बसते हैं और गैर राज्य के लोग बाहर का रुख करते हैं) देते हैं या फिर बाहर रोक देते हैं। क्योंकि राज्य का बंटवारा ही मूल निवासियों को प्रमुखता देने के तर्क पर होता है, इसलिए प्रवासियों की उम्मीदें खत्म हो जाती हैं। यही वजह है कि छोटे राज्यों में उत्पादक गतिविधियां बहुआयामी नहीं हो पातीं।राजनीति की उम्र हमेशा दिनों व हफ्तों में होती है, जबकि आर्थिक विकास को वर्षो तपना पड़ता है। तेजी से बदलते बाजार और बिल्कुल नए किस्म की उलझनों ने दुनिया के सारे आर्थिक सिद्धातों को पलट दिया है। छोटे राज्यों में बस इतना फायदा जरूर है कि जो नेता कभी सामूहिक और व्यापक जनाधार की राजनीति नहीं कर सकते, उनकी सत्ताकांक्षाएं ये राज्य पूरी कर देते हैं, मगर इससे विकास के सवाल कहां हल होते हैं? छोटे राज्यों की बहस को नए संदर्भो में एक बार फिर परखना चाहिए? तर्कों व तथ्यों पर आधारित बहस में न बसें जलती हैं और न शहर थमते हैं, बल्कि काम के निष्कर्ष जरूर निकल आते हैं।

Sunday, December 13, 2009

गरीबी बनाम गर्मी

यह इस सदी की शायद सबसे पेचीदा गुत्थी है जो दुनिया के वर्तमान और भविष्य से जुड़ी है। बेजोड़ उलझन से भरा यह विमर्श अब तक की सबसे जटिल व सनातन बहसों पर भारी है। ..यह असमंजस है 'हरे' बनाम 'भरे' का। तलाश एक ऐसी दुनिया की जो पर्यावरण से हरी हो मगर समृद्धि से भी भरी हो। .. हरे और भरे को एक दूसरे का पूरक समझने की गलती मत कर बैठियेगा। यह दुनिया के दो नए धु्रव हैं। एक तरफ पिघलते हिमशैलों, उफनते सागरों, सूखती नदियों और बौराते मौसम की गंभीर चिंतायें हैं, तो दूसरी तरफ बेहतर जीवन स्तर, समृद्धि और सुविधाओं की जायज अपेक्षायें हैं। दोनों फिलहाल आसानी से एक साथ नहीं हो सकते क्योंकि दुनिया में समृद्धि का अतीत कोयले, बिजली, तेल के कार्बनी धुएं से निकले जीडीपी ने बनाया है। यानी कि बीता हुआ कल भी इस पेंच को खोलने का कोई सूत्र नहीं देता। दुनिया के कुछ हिस्सों ने पिछली सदी में जिस तरह हरियाली चाट कर खुद को समृद्धि से भरा था, नई सदी में दुनिया के दूसरे हिस्से भी यही करना चाहते हैं। इन्हें अमीरी की अहमियत और गरीबी दूर करने का जो रास्ता दिखा है वह कार्बन फेंकने वाली औद्योगिक प्रगति से ही निकलता है। गैर पारंपरिक ऊर्जा में उम्मीदें जरूर हैं, मगर वक्त लगेगा और पिछड़ी हुई दुनिया जरा जल्दी में है। इसलिए क्या विकसित और क्या विकासशील? किसी को नहीं मालूम कि आर्थिक प्रगति और कार्बन उत्सर्जन की इस जोड़ी को कैसे तोड़ा जाए?
जोड़ी अनोखी, मेल अनोखा
कारें और उद्योग बिजली व तेल जैसे जीवाश्म ईधन पचाकर कार्बन परिवार की गैसें उगलते हैं जिनसे मौसम गरमा रहा है। सारी जिद्दोजहद कार्बन के इस वमन को रोकने की है। बुनियादी तौर पर तलाश उस सूत्र की है जिसके जरिये आर्थिक विकास को कार्बन उत्सर्जन से अलग (डिकपलिंग आफ इकोनामिक ग्रोथ फ्राम कार्बन एमीशन) किया जा सके। मगर यह जोड़ी तोड़ना बहुत कठिन है। दुनिया अपनी अमीरी आर्थिक उत्पादन यानी जीडीपी को बढ़ाकर ही नापती है। पिछले कई दशकों का इतिहास कार्बन की खपत और जीडीपी में बढ़ोत्तरी का स्पष्ट रिश्ता बताता है। लगभग हर देश ने ईधन व ऊर्जा पर आर्थिक प्रगति हासिल की है। हाल के वर्षो में दुनिया की औसत सालाना विकास दर 3.6 फीसदी रही है, मगर 2000 से 2006 के दौरान दुनिया में कार्बन उत्सर्जन भी 3.1 फीसदी की सालाना गति से बढ़ा है। 1990 से 1999 के दौरान भी कार्बन उत्सर्जन का, जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय से सीधा वृद्धिपरक रिश्ता रहा है। पिछली करीब एक चौथाई सदी में दुनिया की अर्थव्यवस्था का आकार दोगुना हो गया मगर 1990 (क्योटो समझौते) के बाद से दुनिया को गरमाने वाली गैसों का उत्सर्जन भी 40 फीसदी बढ़ गया। कोई शक नहीं कि इस प्रगति से दुनिया ने 60 फीसदी पर्यावरण गंवाया है मगर यह बहस पूरी तरह थकाऊ है कि कौन कितना कार्बन छोड़ रहा है। पिछले आधे दशक में जब दुनिया में तेल की कीमतें रिकार्ड पर थीं तब भी तो खूब तेल फूंका गया। अमेरिका, ब्रिटेन, जापान अगर ऊर्जा के इस्तेमाल को बेहतर करने का दावा कर रहे हैं तो क्या फर्क पड़ता है उनके इस्तेमाल का सामान बनाने के लिए अब चीन या भारत कार्बन उगल रहे हैं। क्यों उन्हें भी तो उत्पादन बढ़ाने व अमीर होने का हक है।
हरा भी और भरा भी
हरे विकास की बहस उभरने से पहले तक दुनिया को यही मालूम था कि तेज विकास ही गरीबी का इलाज है। भारत को अगले कई दशकों तक लगातार आठ फीसदी विकास दर चाहिए ताकि गरीबी मिटे। दुनिया के कई देशों को और भी तेज दौड़ना होगा मगर खेती हो या उद्योग, परिवहन हो या सेवा, सबको तेल, कोयला जैसे ईधन चाहिए। दिल्ली, ढाका और बैंकाक को लास एजिलिस में अपना भविष्य दिखता है। पिछड़े देशों को आधुनिक शहर, ढेर सारा उत्पादन और भरपूर रोजगार चाहिए। मगर अचानक बदलता मौसम बताने लगा कि पर्यावरण की बर्बादी से आने वाली गरीबी ज्यादा गहरी है। ...दुनिया में एक अरब से अधिक की गरीब आबादी दोनों तरफ से सांसत में फंस गई है। उसकी गरीबी आर्थिक विकास से मिटेगी मगर यही विकास सूखा बाढ़ जैसी आपदाओं के जरिये उसे मारने आ रहा है। हालांकि तेज और निरंतर विकास तो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को भी चाहिए खासतौर पर मंदी के बाद। दुनिया के देश कार्बन उत्सर्जन घटाने को तो तैयार हैं मगर विकास गंवाने को नहीं हैं। नतीजतन टोपियां घुमाई जा रही हैं और सब सर झटक रहे हैं। विकासशील देश, विकसित देशों को उनका अतीत दिखाते हैं जबकि विकसित देश कहते हैं कि पर्यावरण बिगड़ा तो गरीब मुल्क सबसे ज्यादा गंवायेंगें।
समाधानों पर संदेह
यह बहस तब और गुंथ जाती है जब समाधान नहीं दिखते। विकास को गंदे धुऐं से अलग करने की बहस में हरी तकनीकों या गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की तरफ उम्मीद की नजर जाती है। सौर ऊर्जा से लेकर पवन ऊर्जा तक सफलता की बड़ी कहानियां भी हैं, मगर भरोसा नहीं जमता क्योंकि दुनिया को ढेर सारी ऊर्जा चाहिए सस्ती और निरंतर। इस पैमाने पर यह विकल्प सिर्फ प्रायोगिक हैं। भारत सहित पूरी दुनिया तेल व कोयले जैसे जीवाश्म ईधनों पर भारी सब्सिडी देती है। अमेरिका के इंवायरमेंटल ला इंस्टीट्यूट ने बताया कि अमेरिका ने 2008 तक आठ साल में जीवाश्म ईधनों पर 72 अरब डालर की सब्सिडी दी जबकि गैर पारंपरिक ऊर्जा के लिए महज 29 अरब डालर की। आयल चेंज जैसी संस्थायें कहती हैं जब दुनिया तेल, कोयले, गैस जैसे ईधनों पर 250 अरब डालर सालाना की सब्सिडी दे रही हैं तो फिर किस बात की हरी तकनीक? डर सबको है मगर किसी को किसी की नीयत पर भरोसा भी नहीं है।
पर्यावरण के कुजनेत्स कर्व का सिद्धांत कहता है कि एक निश्चित समृद्धि के बाद विकास कार्बन की खपत खुद घटा देता है। सुनने में बहुत अच्छा लगता है, लेकिन दुनिया में बहुतों का यह कहना है कि उन्होंने तो विकास ही नहीं देखा। जो विकसित हैं वह इस कर्व को पहले सही साबित करें। बहस भारी है। दुनिया को मौजूदा माडल के खतरे दिख गए हैं लेकिन उसे छोड़ा कैसे जाए? कोपनहेगन में मेज पर अरबों डालर और दसियों प्रस्ताव हैं मगर कोई सर्वस्वीकार्य रास्ता नहीं। सौ टके की बात यह कि दुनिया को विकास के लिए साफ ईधन चाहिए और उसके आने तक सब कुछ गोल-मोल है।
तीसरी दुनिया की दिक्कत यह है जब तक वह विकास की गणित समझ पाती तब तक उसे इसके नुकसान दिखने लगे। उसे नहीं समझ में आता कि वह पहले गरीबी घटाये या फिर गर्मी। वह सूडान और सुनामी के बीच खड़ी है। एक तरफ भुखमरी है और दूसरी तरफ पर्यावरण। दुनिया फिलहाल अंधी गलियों में भटक रही है। कोपेनहेगन से उम्मीदों की हरियाली नहीं उलझनों का धुआं ही निकलेगा।
anshumantiwari@del.jagran.com

Tuesday, December 8, 2009

महासंकट की उलटी गिनती!

अगर दिल कमजोर है तो इसे जरा संभल कर पढ़ें। यह एक खौफनाक असली कहानी है जो दुनिया के वित्तीय बाजारों में लिखी जा रही है। यह हारर स्टोरी समाचारी सुर्खियों की शक्ल में कभी भी और किसी भी वक्त दुनिया के सामने फट सकती है। यह यथार्थ मंदी दूर होने के मुगालतों को मसलने की कूव्वत रखता है और दुनिया को संकटों की एक अभूतपूर्व दुनिया में ले जा सकता है। हो सकता है आप यकायक अगली पंक्तियों पर भरोसा न करें मगर यह सच है कि .. 2010 में ब्रिटेन की सरकार कर्ज के संकट में फंस सकती है!! दो हजार दस का बरस दुनिया में सरकारों के दीवालिया होने का बरस हो सकता है!! अर्थात सावरिन डेट क्राइसिस!! मतलब सरकारों का डिफाल्टर होना यानी कि उस कर्ज को चुकाने में चूक जो सरकारों ने अपनी संप्रभु गारंटी के बदले लिया है। ..अतीत में अर्जेटीना को भुगत चुके वित्तीय बाजार के लिए ये जुमले महाप्रलय की भविष्यवाणियों से कम नहीं हैं। दुबई के डिफाल्टर होने के बाद पूरी दुनिया के कई देशों पर अचानक कर्ज संकट के प्रेत मंडराने लगे हैं। कम से कम आधा दर्जन छोटे बड़े देशों में कर्ज का पानी नाक तक आ गया है। इनमें कुछ तो जी 10 और जी 20 देश भी हैं यानी दुनिया के विकसित, बड़े और अमीर भी। वित्तीय बाजार के लिए यह एक महासंकट की उलटी गिनती है क्योंकि जैसे ही दुनिया के केंद्रीय बैंक ब्याज दरें बढ़ाना शुरू करेंगे तमाम देश कर्ज चुकाने में चूकने लगेंगे और यह चूक मुद्राओं के अवमूल्यन से होती हुई पता नहीं कहां जाकर रुकेगी।
दुबई तो नमूना है
वित्तीय बाजार कह रहा है कि दुनिया का एक बड़ा देश जल्द ही अपने कर्जो में डिफाल्टर होने वाला है? यह रूस है या फिर ब्रिटेन या कोई और? तकरीबन एक सप्ताह पहले मोर्गन स्टेनले दुनिया को यह विश्लेषण पेश कर दुनिया को चौंका दिया कि वर्ष 2010 में ब्रिटेन ऋण संकट में फंस सकता है। मोर्गन तो सिर्फ आशंका जाहिर कर रहा था, मगर स्टैंडर्ड एंड पुअर ने तो ब्रिटेन की साख को लेकन अपने आकलन को नकारात्मक कर दिया। वित्तीय बाजारों का सूत्रधार ब्रिटेन और रेटिंग एजेंसियों की नजर में साख नकारात्मक? ..हैरतअंगेज या सनसनीखेज? विशेषणों की कमी पड़ जाएगी। रूस भी कर्जो के जबर्दस्त दबाव में है खासतौर पर छोटी अवधि के कर्ज जो उसने तेल कीमतों में तेजी के दौर में अपनी चमकती साख के वक्त लिये थे, इनका भुगतान सर पर है। जर्मनी पर कर्ज का बोझ यूरोपीय बाजारों की सांस रोकने लगा है। जब बड़ों का यह हाल है तो फिर छोटों की कौन कहे? दरअसल दुबई का तूफान पश्चिम और पूरब के कई देशों की वित्तीय बदहाली को उघाड़ गया है। आयरलैंड की अर्थव्यवस्था कर्ज के तूफान में घिर रही है। बाल्टिक देश तो कर्ज के गर्त के सबसे करीब हैं। लाटविया शायद ही मुश्किलों से बचे। एस्टोनिया और लिथुआनिया पर विदेशी कर्ज उनके जीडीपी से ज्यादा हो गया है। बुल्गारिया और हंगरी भी इन्हीं देशों की जमात में हैं। इन छोटे देशों की हालत को हलके में मत लीजिए, एक दुबई की बर्बादी ने दुनिया की चूलें हिला दी हैं इनमें एक देश भी अगर अपनी संप्रभु देनदारियों में चूका तो वित्तीय बाजारों में हाहाकार मच जाएगा।
संकट की सुनामी
संकटों के वक्त हमेशा कुछ सर रेत में धंस जाते हैं। इस मौके पर भी ऐसा ही हो रहा है। दुनिया को मंदी से उबरने की मरीचिका दिखाई जा रही है, लेकिन वित्तीय बाजार में तो संकट की सुनामी बनती दिख रही है। यह संकट दरअसल पिछले कुछ वर्षो की उदार मौद्रिक नीतियों, वित्तीय अपारदर्शिता और बाजार में बहे अकूत पैसे से उपजा है। दुनिया जब सुखी थी या सुखी दिखने का नाटक कर सकती थी, तब सरकारों ने और सरकार की गारंटियों के सहारे कंपनियों ने वित्तीय बाजार से अंधाधुंध पैसा उठाया। मंदी आई तो रिटर्न के स्रोत सूख गए। इसलिए जब कर्ज की पहली देनदारी निकली तो बाजार ने दुबई जैसों को ज्यादा वक्त देने से मना कर दिया। कल बाजार औरों से किनारा करेगा। पूरी दुनिया में ब्याज दरें बढ़ने वाली हैं अर्थात देनदारियों को चुकाने के लिए नया कर्ज महंगा और मुश्किल होगा। इसलिए दुबई के बाद पूरी दुनिया में देशों की रेटिंग उलट-पलट गई है। दुनिया के कर्ज और कर्ज की दुनिया के बारे में दिलचस्पी रखते हैं, तो विश्व के के्रडिट डिफाल्ट स्वैप (के्रडिट डिफाल्ट स्वैप अर्थात सीडीएस वित्तीय बाजार के जाने पहचाने उपकरण हैं। यह एक तरह का बीमा है जो कि एक कर्ज देने वाली संस्था किसी दूसरी संस्था से लेती है। ताकि अगर लेनदार डिफाल्टर हो तो पैसा न डूबे। इसके लिए कर्ज देने वाला स्वैप देने वाले को प्रीमियम देता है।) बाजार की ताजी तस्वीर देखिए। छोटों की कौन कहे यहां तो बड़ों की साख पर बन आई है। चीन के सीडीएस छह फीसदी, रूस के 19 फीसदी, इंडोनिशया के 28 फीसदी महंगे हो गए हैं। दांतों तले उंगली दबाइए क्योंकि फ्रंास, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन, स्पेन और यहां तक अमेरिका भी कर्ज बाजार के ऋण जोखिम के सूचकांकों पर खतरे वाली श्रेणियों में चमकने लगे हैं। इन मुल्कों में कर्ज और जीडीपी का अनुपात खतरनाक हो गया है। जर्मनी का कुल कर्ज अगले साल उसके उत्पादन के 77 फीसदी के बराबर हो जाएगा। ब्रिटेन में यह 80 फीसदी है तो जापान में यह 200 फीसदी पर पहुंच रहा है। अमेरिका में ट्रेजरी यानी सरकार के कुल कर्ज का करीब 44 फीसदी हिस्सा अगले एक साल में चुकाया जाना है। तभी तो दुनिया विशेष ऋण बाजार में अमेरिका की साख को मिली ट्रिपल ए रेटिंग पर हैरत के साथ हंस रही है।
बचाएगा कौन?
कर्ज संकटों के इतिहास से वाकिफ कोई व्यक्ति कह सकता है कि आईएमएफ किस दिन काम आएगा। मगर देशों के कर्ज संकट के दो पहलू हैं, एक विदेशी कर्ज और दूसरादेशी। लाटविया, एस्टोनिया जैसे देशों पर विदेशी कर्ज है। आईएमएफ इन्हें विदेशी मुद्रा देकर कुछ समय के लिए बचा सकता है। अलबत्ता आईएमएफ का इलाज लेने वाले देशों की वित्तीय साख का कचरा बन जाता है। अर्जेटीना इसकी ताजी नजीर है। आईएमएफ की मदद लेने वाले देशों की कंपनियां दुनिया के बाजार में अछूत बन जाती हैं। हो सकता है ब्रिटेन, जापान, जर्मनी को आईएमएफ की जरूरत न पड़े, लेकिन इनके संकट आईएमएफ सुलझा भी नहीं सकता। ये देश घरेलू कर्ज की जकड़ में हैं। इन्हें ज्यादा घरेलू मुद्रा छापकर कर्ज पाटना होगा या फिर टैक्स बढ़ाना और खर्च घटाना होगा। इनमें से हर कदम खतरों भरा है। भारी राजकोषीय घाटे और नोटों की छपाई देशी मुद्रा का अवमूल्यन करती है और सरकार को अपने बांड खरीदने वाले भी नहीं मिलते। कर बढ़ाना और खर्च घटाना, मांग कम करता है और कर चोरी बढ़ाता है।
और भारत ?. आप कह सकते हैं कि कुछ सुरक्षित है या कुछ अर्थो में कतई सुरक्षित नहीं है। सरकार भले ही कर्जदार न हो, लेकिन वित्तीय बाजार तो दुनिया से जुड़ा है, इसलिए संकट की सुनामी हमें डुबाए भले न, लेकिन झकझोर जरूर देगी। हमारे लिए इतना ही काफी है। देशों के ऋण संकट वित्तीय बीमारियों की फेहरिस्त में सबसे भयानक हैं। इसके इलाज आर्थिक शरीर को बुरी तरह तोड़ देते हैं और अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाती है। अर्जेंटीना छह साल बाद आज भी घिसट रहा है और मेक्सिको को पुरानी रौ में आने में वक्त लगेगा। कभी-कभी यह लगता है कि दुनिया का वित्तीय एकीकरण फायदे से ज्यादा नुकसान का सौदा साबित हो रहा है। अर्जेटीना की सुनामी ने केवल लैटिन अमेरिका के बाजारों को हिलाया था मगर अब जो सुनामी बन रही है, वह पूरे भूमंडल के वित्तीय बाजारों को लपेट सकती है। वजह यह कि उदारीकरण के लाभ भले ही सामूहिक न हों, मगर गलतियां और नुकसान सामूहिक रहे हैं। इसलिए 2012 की फिक्र छोडि़ए.. 2010 वित्तीय बाजारों पर बहुत भारी पड़ सकता है।
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