Tuesday, February 23, 2010

बीस साल बाद ..!

यहां अब भी बहुत कुछ ऐसा घटता रहता है जो अबूझ, अजब और (आर्थिक) तर्को से परे है। अर्थव्यवस्था की इस इमारत से लाइसेंस परमिट राज का ताला खुले बीस साल बीत चुके हैं। कुछ हिस्सों में उदारीकरण की झक साफ रोशनी भी फैली है, मगर कई अंधेरे कोनों का रहस्य, बीस साल बाद भी खत्म नहीं हुआ है। कोई समझ नहीं पाता आखिर खेतों से हर दूसरे तीसरे साल बुरी खबर ही क्यों आती है। सब्सिडी के जाले साल दर साल घने ही क्यों होते जाते हैं। बढ़ते खर्च का खौफ बीस साल बाद भी वैसे का वैसा है और पेट्रो उत्पादों की कीमतों व बिजली दरों का पूरा तंत्र इतना रहस्यमय क्यों है। दरअसल खेती का हाल, बजट का खर्च और ऊर्जा की नीतियां पिछले बीस साल के सबसे जटिल रहस्य हैं। नए दशक के पहले बजट में इन पुरानी समस्याओं के समाधान की अपेक्षा लाजिमी है। देश यह जरूर जानना चाहेगा कि इन अंधेरों का क्या इलाज है और उत्सुकता यह भी रहेगी कि उदारीकरण की तमाम दुहाई के बावजूद बहुत जरूरी मौकों पर आखिर आर्थिक तर्को की रोशनी यकायक गुल क्यों हो जाती है।
खेती का अपशकुन
खेती पर अपशकुनों का साया बीस साल बाद भी, पहले जितना ही गहरा है। हर दूसरे तीसरे साल खेती में पैदावार गिरने की चीख पुकार उभरती है और महंगाई मंडराने लगती है। बीस साल में खेती के लिए चार कदम (चार फीसदी की वृद्धि दर) चलना भी मुश्किल हो गया है। खेती का अपशकुन कई रहस्यों से जन्मा है। कोई नहीं जानता कि आखिर हर बजट नेता नामधन्य ग्रामीण रोजगार व विकास की स्कीमों को जितना पैसा देते हैं, उसका आधा भी खेती को क्यों नहीं मिलता? हाल के कुछ बजटों में गांव के विकास को मिली बजटीय खुराक, खेती को बजट में हुए आवंटन के मुकाबले सात गुनी तक थी। 1999-2000 के बजट ने ग्रामीण रोजगार व गरीबी उन्मूलन को 8,182 करोड़ रुपये दिए तो खेती व सिंचाई को करीब 4,200 करोड़। लेकिन मार्च में पुराने हो रहे बजट में ग्रामीण विकास को मिलने वाली रकम 72,000 करोड़ रुपये पर पहुंच गई और खेती को मिले केवल 11,000 करोड़। भारत की आर्थिक इमारत में यह सवाल हमेशा तैरता है कि आखिर खेतों से दूर सरकार कौन से गांव विकसित कर रही है और खेती के बिना किन गरीबों को रोजगार दे रही है। वैसे इस इमारत के खेती वाले हिस्से में और भी रहस्यमय दरवाजे हैं। दस साल में खेती को उर्वरक के नाम पर करीब 2,71,736 करोड़ रुपये की सब्सिडी पिलाई जा चुकी है। यानी खेती के पूरे तंत्र के एक अदना से हिस्से के लिए हर साल करीब 27,000 करोड़ रुपये की रकम। मगर पूरी खेती के लिए इसका आधा भी नहीं। सिंचाई, बीजों, शोध, बाजार, बुनियादी ढांचे के लिए चीखती खेती में पिछले बीस साल के दौरान विकास दर करीब छह बार शून्य या शून्य से नीचे गई है, लेकिन सरकार उसे सस्ती खाद चटाती रही है। ..उदारीकरण की रोशनी में खेती और अंधेरी हो गई है।
खर्च का खौफ
यह रास्ता बीस साल पुराना है, मगर उतना ही अबूझ और अनजाना है। क्या आपको याद है कि कांग्रेस ने 1991 में अपने चुनाव घोषणापत्र में बजट के गैर योजना खर्च को दस फीसदी घटाने का वादा किया था ???? बाद में सुधारों वाले एतिहासिक बजट भाषण में मनमोहन सिंह ने यह वादा दोहराया था। तब से आज तक खर्च घटाने की कोशिश करते कई सरकारें, समितियां और रिपोर्टे (खर्च घटाने की रंगराजन समिति की ताजी सिफारिश तक) खर्च हो चुकी हैं। मगर हर वित्त मंत्री खर्च के दरवाजे में झांकने से डरता रहा है, तभी तो पिछले दस साल में केवल राशन, खाद और पेट्रोलियम पर बजट से करीब 5,80,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी बांटी जा चुकी है। इसमें करीब 2.79 लाख करोड़ की सब्सिडी उस राशन प्रणाली पर दी गई, जिसे बीस साल में दो बार बदला गया और फिर भी उसे प्रधानमंत्री ने हाल में निराशाजनक व असफल कहा है। खाद सब्सिडी से उबरने की ताजी जद्दोजहद का भविष्य अभी अंधेरे में है। 91-92 के सुधार बजट में मनमोहन सिंह ने खाद की कीमत बढ़ाते हुए सब्सिडी व खर्च कम करने की बहस शुरू की थी। सरकारी रिपोर्टो और चर्चाओं से गुजरती हुई यह बहस छोटी होती गई और सब्सिडी बड़ी। राजकोषीय घाटा पिछले एक दशक में 5.6 फीसदी से शुरू होकर वापस सात फीसदी (चालू वर्ष में अनुमानित) पर आ गया है और बीस साल बाद भी खर्च का खौफ वित्त मंत्रियों की धड़कन बढ़ा रहा है। ..खर्च के जाले और सब्सिडी के झाड़ झंखाड़ बजट की शोभा बन चुके हैं
ऊर्जा का सस्पेंस
आर्थिक इमारत का यह हिस्सा सबसे खतरनाक और अंधेरा है। यहां से आवाजें भी नहीं आतीं और बहुत कुछ बदल जाता है। बीस साल बीत गए, मगर देश को ऊर्जा नीति की ऊहापोह से छुटकारा नहीं मिला। इस सवाल का जवाब इस इमारत में किसी के पास नहीं है कि तेल मूल्यों को बाजार आधारित करने का कौल कई-कई बार उठाने के बाद भी तेल की कीमतें राजनीति के अंधेरे में ही क्यों तय होती हैं? कमेटी और फार्मूले सब कुछ सियासत के दरवाजे के बाहर ही पड़े रह जाते हैं। यहां सस्पेंस दरअसल तेल नहीं, बल्कि ऊर्जा देने वाली दूसरी चीजों को लेकर भी है। कहीं कोई राज्य कभी बिजली की दर बढ़ा देता है तो कभी कोई मुफ्त बिजली देकर सांता क्लाज हो जाता है। बिजली कीमतें तय करने के लिए उत्पादन लागत नहीं, बल्कि वोटों की लागत का हिसाब लगता है। इसलिए वाहनों के वास्ते सस्ते किए गए डीजल से उद्योगों की मशीने दौड़ती हैं और शापिंग माल चमकते हैं। बिजली उत्पादन का लक्ष्य पंचवर्षीय योजनाओं का सबसे बड़ा मजाक बन गया है। बीस साल बाद अब बिजली क्षेत्र के सुधार आर्थिक चर्चाओं के फैशन से बाहर हैं। .. ऊर्जा नीति का अंधेरा पिछले बीस साल की सबसे रहस्यमय शर्मिदगी है।
उदारीकरण के बीस वर्षो में बहुत कुछ बदला है। बेसिक फोन के कनेक्शन के लिए जुगाड़ लगाने वाले लोग अब मोबाइल फोन से चिढ़ने लगे हैं। स्कूटरों की वेटिंग लिस्ट देखने वाला देश कारों की भीड़ से बेचैन है। बैंक खुद चलकर दरवाजे तक आते हैं और टीवी व फ्रिज कुछ वर्षो में रिटायर हो जाते हैं। नया बजट उदारीकरण के तीसरे दशक का पहला बजट है। इसलिए ... वित्त मंत्री जी .. यह सवाल तो बनता है कि जब कई क्षेत्रों में उजाला हुआ है तो बीस साल बाद भी खेती, खर्च और ऊर्जा जैसे कोने अंधेरे और रहस्यमय क्यों हैं? यह साजिशन है या गैर इरादतन? .. चली तो ठीक थी किरन, मगर कहीं भटक गई, वो मंजिलों के आसपास ही कहीं अटक गई, यह किसका इंतजाम है? कोई हमें जवाब दे? ... विश यू ए हैप्पी बजट!!!!
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Wednesday, February 17, 2010

बजट में जादू है !!

बगैर तली वाले बर्तन में पानी भरने का अपना ही रोमांच है..जादू जैसा? बर्तन में पानी जाता हुआ तो दिखता है मगर अचानक गायब। वित्त मंत्री हर बजट में यह जादू करते हैं। हर बजट में खर्च के कुछ बड़े आंकड़े वित्त मंत्रियों के मुंह से झरते हैं और फिर मेजों की थपथपाहट के बीच लोकसभा की वर्तुलाकार दीवारों में खो जाते हैं। पलट कर कौन पूछता है कि आखिर खर्च की इन चलनियों में कब कितना दूध भरा गया, वह दूध कहां गया और उसे लगातार भरते रहने का क्या तुक था? वित्त मंत्री ने पिछले साल दस लाख करोड़ रुपये का जादू दिखाया था और खर्च के तमाम अंध कूपों में अरबों रुपये डाल दिए थे। इस साल उनका जादू बारह लाख करोड़ रुपये का हो सकता है या शायद और ज्यादा का?
तिलिस्मी सुरंग में अंधे कुएं
खर्च बजट की तिलिस्मी सुरंग है। कोई वित्त मंत्री इसमें आगे नहीं जाता। खो जाने का पूरा खतरा है। खर्च का खेल सिर्फ बड़े आंकड़ों को कायदे से कहने का खेल है। पिछले दस साल में सरकार का खर्च पांच गुना बढ़ा है। 1999-2000 में यह 2 लाख 68 हजार करोड़ रुपये पर था मगर बीते बजट में यह दस लाख करोड़ रुपये हो गया। कभी आपको यह पता चला कि आखिर सरकार ने इतना खर्च कहां किया? बताते तो यह हैं कि पिछले एक दशक के दौरान सरकार अपनी कई बड़ी जिम्मेदारियां निजी क्षेत्र को सौंप कर उदारीकरण के कुंभ में नहा रही है। दरअसल खर्च में पांच गुना वृद्घि को जायज ठहराने के लिए सरकार के पास बहुत तर्क नहीं हैं। यह खर्च कुछ ऐसे अंधे कुओं में जा रहा है, जो गलतियों के कारण खोद दिए गए मगर अब उनमें यह दान डालना अनिवार्य हो गया है। दस साल पहले केंद्र सरकार 88 हजार करोड़ रुपये का ब्याज दे रही थी मगर आज ब्याज भुगतान 2 लाख 25 हजार करोड़ रुपये का है। यानी कि दस लाख करोड़ के खर्च का करीब 22 फीसदी हिस्सा छू मंतर। दूसरा ग्राहक सब्सिडी है। दस साल पहले सब्सिडी थी 22 हजार करोड़ रुपये की और आज है एक लाख 11 हजार करोड़ रुपये की। यानी बजट का करीब 11 फीसदी हिस्सा गायब। ब्याज और सब्सिडी मिलकर सरकार के उदार खर्च का 30-31 फीसदी हिस्सा पी जाते हैं। मगर जादू सिर्फ यही नहंी है और भी कुछ ऐसे तवे हैं जिन पर खर्च का पानी पड़ते ही गायब हो जाता है। तभी तो कुल बजट में करीब सात लाख करोड़ रुपये का खर्च वह है जिसके बारे में खुद सरकार यह मानती है कि इससे अर्थव्यवस्था की सेहत नहीं ठीक होती मगर फिर भी यह रकम अप्रैल से लेकर मार्च तक खर्च की तिलिस्मी सुरंग में गुम हो जाती है। सरकार के मुताबिक उसके बजट का महज 30 से 32 फीसदी हिस्सा ऐसा है जो विकास के काम का है। आइये अब जरा इस काम वाले खर्च की स्थिति देखें।
चलनियों का चक्कर
देश मे करीब 35 करोड़ ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। एक दशक पहले भी इतने ही लोग गरीब थे। (जनसंख्या के अनुपात में कमी के आंकड़े से धोखा न खाइये, गरीबों की वास्तविक संख्या हर पैमाने पर बढ़ी है।) अभी भी दो लाख बस्तियों में कायदे का पेयजल नहीं है। इसे आप पुराना स्यापा मत समझिये, बल्कि यह देखिये कि सरकार ने पिछले एक दशक में सिर्फ गांव में गरीबी मिटाने की स्कीमों पर 78 हजार करोड़ रुपये खर्च किये हैं और गांवों को पीने का पानी देने की योजनाओं पर कुल 36 हजार करोड़। यानी दोनों पर करीब 11 हजार करोड़ रुपये हर साल। ... दरअसल यह कुछ नमूने हैं उन चलनियों के, जिनमें सरकार अपने योजना बजट का दूध भरती है। इन पर गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव जैसे बड़े नाम चिपके हैं, इसलिए सिर्फ नाम दिखते हैं काम नहीं। पिछले एक दशक में गरीबी उन्मूलन की स्कीमों में खर्च को लेकर जितने सवाल उठे हैं, उनमें आवंटन उतना ही बढ़ गया है। स्कीमों का नरेगा मनरेगा परिवार इस समय सरकार के स्कीम बजट का सरदार है। वैसे चाहे वह पढ़ाने लिखाने वाली स्कीमों का कुनबा हो या सेहतमंद बनाने वाली स्कीमों का, यह देखने की सुध किसे है कि 200 के करीब सरकारी स्कीमों की चलनियों में जाने वाला दूध नीचे कौन समेट रहा है? सीएजी से लेकर खुद केंद्रीय मंत्रालयों तक को इनकी सफलता पर शक है। लेकिन हर बजट में वित्त मंत्री इन्हें पैसा देते हैं तालियां बटोरते हैं। बेहद महंगे पैसे के आपराधिक अपव्यय से भरपूर यह स्कीमें सरकारी भ्रष्टाचार का जीवंत इतिहास बन चुकी हैं मगर यही तो इस बजट का रोमांच है।
थैले की करामात
बजट का अर्थ ही है थैला। मगर असल में यह कर्ज का थैला है। सरकार देश में कर्जो की सबसे बड़ी ग्राहक है और सबसे बड़ी कर्जदार भी। वह तो सरकार है इसलिए उसे कर्ज मिलता है नहीं तो शायद इतनी खराब साख के बाद किसी आम आदमी को तो बैंक अपनी सीढि़यां भी न चढ़ने दें। बजट के थैले से स्कीमें निकलती दिखतीं हैं, खर्च के आंकड़े हवा में उड़ते हैं मगर थैले में एक दूसरे छेद से कर्ज घुसता है। इस थैले की करामात यही है कि सरकार हमसे ही कर्ज लेकर हमें ही बहादुरी दिखाती है। सरकार के पास दर्जनों क्रेडिट कार्ड हैं यह बांड, वह ट्रेजरी बिल, यह बचत स्कीम, वह निवेश योजना। पैसा बैंक देते हैं क्योंकि हमसे जमा किये गए पैसे का और वे करें भी क्या? मगर इस थैले का खेल अब बिगड़ गया है। सरकार का कर्ज कुल आर्थिक उत्पादन यानी जीडीपी का आधा हो गया है। अगले साल से सरकार के दरवाजे पर बैंकों के भारी तकाजे आने वाले हैं। यह उन कर्जो के लिए होंगे जो पिछले एक दशक में उठाये गए थे। ऐसी स्थिति में हर वित्त मंत्री अपना सबसे बड़ा मंत्र चलाता है। वह है नोट छापने की मशीन जो रुपये छाप कर घाटा पूरा करने लगती है। कुछ वर्ष पहले तक यह खूब होता रहा है। हमें तो बस यह देखना है कि इस बजट में यह मंतर आजमाया जाएगा या नहीं?
सरकार के खर्च में वृद्घि से ईष्र्या होती है। काश देश के अधिकांश लोगों की आय भी इसी तरह बढ़ती, सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता भी इसी तर्ज पर बढ़ जाती। बुनियादी सुविधायें भी इतनी नहंी तो कम से कम थोड़ी भी बढ़ जातीं, तो मजा आ जाता। लेकिन वहां सब कुछ पहले जैसा है या बेहतरी नगण्य है। इधर बजट में खर्च फूल कर गुब्बारा होता जा रहा है और सरकार का कर्ज बैंकों की जान सुखा रहा है लेकिन इन चिंताओं से फायदा भी क्या है? बजट तो खाली खजाने से खरबों के खर्च का जादू है और जादू में सवालों की जगह कहां होती है? वहां तो सिर्फ तालियों सीटियों की दरकार होती है, इसलिए बजट देखिये या सुनिये मगर गालिब की इस सलाह के साथ कि .. हां, खाइयो मत, फरेब -ए- हस्ती / हरचंद कहें, कि है, नहीं है।
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अन्‍यर्थ के लिए
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Monday, February 8, 2010

बजट की बर्छियां

मंदी के जख्म भरने लगे हैं न? तो आइए कुछ नई चोट खाने की तैयारी करें। बजट तो यूं भी स्पंज में छिपी पिनों की तरह होते हैं, ऊपर से गुदगुदे व मुलायम और भीतर से नुकीले, छेद देने वाले। मगर इस बजट के मुलायम स्पंज में तो नश्तर छिपे हो सकते हैं। पिछले एक माह के भीतर बजट की तैयारियों के तेवर चौंकाने वाले ढंग से बदल गए हैं। बात तो यहां से शुरू हुई थी कि मंदी से मुकाबले का साहस दिखाने वाली अर्थव्यवस्था की पीठ पर शाबासी की थपकियां दी जाएंगी, पर अब तो कुछ डरावना होता दिख रहा है। मौका भी है दस्तूर भी और तर्क भी। पांच साल तक राज करने के जनादेश को माथे पर चिपकाए वित्त मंत्री को फिलहाल किसी राजनीतिक नुकसान की फिक्र नहीं करनी है। दूसरी तरफ घाटे के घातक आंकड़े उन्हें सख्त होने का आधार दे रहे हैं। यानी कि इशारे अच्छे नहीं हैं। ऐसा लगता है मानो वित्त मंत्री बर्छियों पर धार रख रहे हैं। दस के बरस का बजट करों के नए बोझ वाला, तेल की जलन वाला और महंगाई के नए नाखूनों वाला बजट हो सकता है यानी कि ऊह, आह, आउच! !.. वाला बजट।
करों की कटार
कमजोर याददाश्त जरूरी है, नहीं तो बहुत मुश्किल हो सकती है। जरा याद तो करिए कि कौन सा बजट करों की कील चुभाए बिना गुजरा है? बजट हमेशा नए करों की कटारों से भरे रहे हैं। यह बात अलग है कि वित्त मंत्रियों ने कभी उन्हें दिखाकर चुभाया है तो कभी छिपाकर। यकीन नहीं होता तो यह आंकड़ा देखिए इस दशक के पहले बजट यानी 1999-2000 के बजट से लेकर दशक 2009-10 तक के बजट तक कुल 55,694 करोड़ रुपये के नए कर लगाए गए हैं। यहां तक कि चुनाव के वर्षो में भी करों में ऐसे बदलाव किए गए हैं जो बाद में चुभे हैं। पिछले दस सालों का हर बजट (08-09 के बजट को छोड़कर) कम से कम 2,000 करोड़ रुपये और अधिकतम 12,000 करोड़ रुपये तक का कर लगाता रहा है। इस तथ्य के बाद सपनीले बनाम डरावने बजटों की बहस बेमानी हो जाती है। इन करों के तुक पर तर्क वितर्क हो सकता है, लेकिन करों की कटार बजट की म्यान में हमेशा छिपी रही है। जो कंपनियों से लेकर कंज्यूमर तक और उद्योगपतियों से लेकर आम करदाताओं तक को काटती रही है। यह बजट कुछ ज्यादा ही पैनी कटार लेकर आ सकता है। बजट को करीब से देख रहे लोग बीते साल से सूंघ रहे थे कि दस का बजट सताने वाला होगा, ताजी सूचनाओं के बाद ये आशंकाएं मजबूत हो चली हैं। वित्त मंत्री को न तो दूरसंचार कंपनियों से राजस्व मिला और न सरकारी कंपनियों में सरकार का हिस्सा बेचकर। घाटा ऐतिहासिक शिखर पर पहुंचने वाला है। दादा कितने उदार कांग्रेसी क्यों न हों, लेकिन आखिर राजकोषीय जिम्मेदारी भी तो कोई चीज है? आने वाले बजट में वह इस जिम्मेदारी को हमारे साथ कायदे से बांट सकते हैं। आने वाला बजट न केवल मंदी के दौरान दी गई कर रियायतें वापस लेगा यानी कि करों का बोझ बढ़ाएगा, बल्कि नए करों के सहारे खजाने की सूरत ठीक करने की जुगत भी तलाशेगा। ऐसी स्थितियों में वित्त मंत्रियों ने अक्सर सरचार्ज, सेस और अतिरिक्त उत्पाद शुल्क या अतिरिक्त सीमा शुल्क की अदृश्य कटारें चलाई हैं और काफी खून बहाया है। संभल कर रहिएगा, वित्त मंत्री इन कटारों की धार कोर दुरुस्त कर रहे हैं।
तेल बुझे तीर
कभी आपने यह सोचा है कि आखिर पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ने के तीर बजट के साथ ही क्यों चलते हैं? बजट से ठीक पहले ही तेल कंपनियां क्यों रोती हैं, पेट्रोलियम मंत्रालय उनके स्यापे पर मुहर क्यों लगाता है और क्यों बजट की चुभन के साथ तेल की जलन बोनस में मिल जाती है? दरअसल यह एक रहस्यमय सरकारी दांव है। बजट से ठीक पहले तेल कीमतों का मुद्दा उठाना सबके माफिक बैठता है। सरकार के सामने दो विकल्प होते हैं या तो कीमतें बढ़ाएं या फिर तेल कंपनियों के लिए आयात व उत्पाद शुल्क घटाएं। अगर उदारता दिखाने का मौका हुआ तो शुल्क दरें घट जाती हैं और अगर खजाने की हालत खराब हुई तो कीमतें बढ़ जाती हैं। पेट्रो कीमतों के मामले में बरसों बरस से यही होता आया है। तेल कंपनियां व उनके रहनुमा पेट्रोलियम मंत्रालय को अब यह मालूम हो गया है कि उनका मनचाहा सिर्फ फरवरी में हो सकता है। यह महीना वित्त मंत्रियों के लिए भी माफिक बैठता है, क्योंकि वह भारी खर्च वाली स्कीमों के जयगान के बीच सफाई से यह काम कर जाते हैं और कुछ वक्त बाद सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। रही बात तेल मूल्य निर्धारण की नीति ठीक करने की तो उस पर बहस व कमेटियों के लिए पूरा साल पड़ा है। यह तो वक्त बताएगा कि तेल बुझे तीर बजट से पहले छूटेंगे, बजट में या बजट के बाद, लेकिन दर्द का पूरा पैकेज एक साथ अगले कुछ हफ्तों में आने वाला है।
महंगाई का मूसल
इससे पहले तक हम अक्सर बजट के बाद ही यह जान पाते थे कि बजट महंगाई की कीलें कम करेगा या बढ़ाएगा, लेकिन यह बजट तो आने से पहले ही यह संकेत दे रहा है कि इससे महंगाई की आग को हवा और घी दोनों मिलेंगे। कैसे? इशारे इस बात के हैं कि वित्त मंत्री पिछले साल दी गई कर रियायतें वापस लेने वाले हैं। यह सभी रियायतें अप्रत्यक्ष करों यानी उत्पाद व सीमा शुल्कों से संबंधित थीं। मतलब यह कि आने वाले बजट में कई महत्वपूर्ण उत्पादों पर अप्रत्यक्ष कर बढेंगे। अप्रत्यक्ष कर का बढ़ना हमेशा महंगाई बढ़ाता है, क्योंकि कंपनियां बढ़े हुए बोझ को उपभोक्ताओं के साथ बांटती हैं। यानी कि महंगाई को पहला प्रोत्साहन तो दरअसल प्रोत्साहन पैकेज की वापसी से ही मिल जाएगा। साथ ही महंगाई की आग में पेट्रोल भी पड़ने वाला है यानी कि पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ने वाली हैं। यह महंगाई की कीलों को आग में तपाने जैसा है। इसके बाद बची खुची कसर सरकार का घाटा पूरा कर देगा। सरकार को अगले साल बाजार से अभूतपूर्व कर्ज लेना होगा। जो कि बाजार में मुद्रा आपूर्ति बढ़ाएगा और महंगाई के कंधे से अपना कंधा मिलाएगा।
करों की कटार के साथ तेल बुझे तीर और ऊपर से महंगाई.. लगता है कि जैसे बजट घायल करने के सभी इंतजामों से लैस होकर आ रहा है। दरअसल मंदी के होम में सरकार ने अपने हाथ बुरी तरह जला लिये हैं। वह अब आपके मलहम नहीं लगाएगी, बल्कि आपसे मलहम लेकर अपनी चोटों का इलाज करेगी। लगता नहीं कि यह बजट अर्थव्यवस्था की समस्याओं के इलाज का बजट होगा, बल्कि ज्यादा संभावना इस बात की है कि इस बजट से सरकार अपने खजाने का इलाज करेगी। जब-जब सरकारों के खजाने बिगड़े हैं तो लोगों ने अपनी बचत और कमाई की कुर्बानी दी है, यह कुर्बानी इस बार भी मांगी जा सकती है अर्थात नया बजट तोहफे देने वाला नहीं, बल्कि तकलीफ देने वाला हो सकता है।

अन्‍यर्थ
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच) SATORI

Monday, February 1, 2010

मुक्त बाजार का मर्सिया

अमेरिका और इक्वाडोर में क्या समानता है? करीब एक तिहाई गरीब आबादी वाला नन्हा सा दक्षिण अमेरिकी मुल्क इक्वाडोर और अमीरों का सरताज अमेरिका, दोनों ही दुनिया को यह बता रहे हैं कि दुर्बलता और कठोरता एक दूसरे के विलोम नहीं बल्कि पूरक हैं। मंदी से कमजोर हुए दोनों देश उदारता छोड़कर अपने बाजारों के दरवाजे बंद कर रहे हैं। इक्वाडोर जैसों का डरना चलता है, मगर जब मुक्त बाजार के गुरुकुल का महाआचार्य दुनिया को बाजार बंद करने के फायदे बताने लगे तो अचरज लाजिमी है। जरा देखिये तो, बस एक झटका लगा और उदारता की कसमें टूट गई। पूरी दुनिया अचानक कछुआ कॉलोनी नजर आने लगी है। मंदी से डरे मुल्क संरंक्षणवाद के कठोर खोल में सिमट रहे हैं। पिछले एक साल के दौरान अमेरिका, यूरोप और एशिया व लैटिन अमेरिका के प्रमुख देशों ने 150 से अधिक ऐसे उपाय किये हैं जो गैरों के माल व सेवाओं को अपने बाजार में आने से रोकते हैं। बीस सालों तक तक उदार बाजारों का महासागर देखने वाली दुनिया यह पोखर प्रवृत्ति देखकर हैरत में है। डब्लूटीओ पैरोकारों को काठ मार गया है। खोल में छिपते कछुए मुक्त बाजार का मर्सिया (शोक गीत) पढ़ रहे हैं।
बराक (हूवर) ओबामा
बात केवल आउटसोर्सिग के खिलाफ ओबामा के ताजे संसदीय संबोधन की ही नहीं है। अमेरिका के वर्तमान मुखिया में लोगों को पूर्व राष्ट्रपति जेम्स हूवर का अक्स काफी समय से नजर आ रहा है। राष्ट्रपति बनने के बाद पिछले साल फरवरी में ओबामा ने अमेरिका को मंदी से उबारने के लिए जिस रिकवरी एंड रिइन्वेस्टमेंट एक्ट को मंजूरी दी थी उसमें सिर्फ अमेरिका माल को खरीदने की शर्त रखने वाला कुख्यात प्रावधान (बाइ अमेरिकन) भी था। यह कानून अमेरिका में तीस के दशक के बदनाम स्मूट हाउले एक्ट की याद दिलाता है। इतिहास गवाह है कि 1930 के दशक की महामंदी के बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जेम्स हूवर ने इसी एक्ट के जरिये आयात शुल्क बढ़ाकर अपने बाजार बंद कर दिये और दुनिया में व्यापारिक संरंक्षणवाद की बाढ़ आ गई थी। जिसे महामंदी के बाद का ट्रेडवार या व्यापार युद्ध कहा गया। इस दौर में प्रत्येक देश अपने बाजार में दूसरे का प्रवेश रोक रहा था। नतीजतन 1929 से 1934 के बीच दुनिया का व्यापार दो तिहाई घट गया। .. वैसे यह तबाही नई विश्व व्यापार व्यवस्था की शुरुआत भी थी। यहीं से दुनिया में बहुपक्षीय वित्तीय संस्थायें बनाने की शुरुआत हुई। ब्रेटन वुड्स के मुद्रा समझौते हुए और दुनिया को विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) मिले जिन्हें ब्रेटन वुड्स की जुड़वां संतानें कहा जाता है। इसी मौके पर गैट यानी ग्लोबल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ की बुनियाद पड़ी थी, जो आज के डब्लूटीओ का पूर्वज है। एक बार फिर मंदी आते ही इतिहास जी उठा है। पिछले साल नवंबर में जब ओबामा ने चीन से टायरों के आयात 35 फीसदी का शुल्क थोप दिया तो यह साफ हो गया कि हूवर की आत्मा ह्वाइट हाउस में भटक रही है। चीन ने अमेरिकी चिकन और आटो पुर्जो पर शुल्क बढ़ाकर जवाब दे दिया। ओबामा प्रशासन ने पिछले कई माह में ऐसा बहुत कुछ किया है जो कि मुक्त बाजार के अमेरिकी शास्त्र के खिलाफ है। गुजरे हफ्ते अपनी संसद को संबोधित करते ओबामा बता रहे थे कि पुरानी आदतें आसानी से नहीं जातीं।
कच्छप साधना शिविर
जब उदार बाजार के उस्ताद की आदत नहीं बदली तो फिर दुनिया की कैसे बदल जाएगी। बीते एक साल में दुनिया में मानो बाजारों के दरवाजे बंद करने और संरंक्षणवाद के खोल में घुसने करने की मुहिम सी चल पड़ी है। आयात शुल्क, डंपिंग रोधी शुल्क , गैर तटकर प्रतिबंध, स्वदेशी के इस्तेमाल की सरकारी मुहिम और, निर्यात सब्सिडी। बीते एक साल में हर दांव खेला गया है अर्थात मुक्त बाजार के परिंदे अचानक संरंक्षणवाद के सरीसृप बन गए हैं। उदाहरण हाजिर हैं। अर्जेटीना ने कपडे़, टायर सहित एक 1000 सामानों पर आयात लाइसेंसिंग थोप दी है। ब्राजील ने तमाम उत्पादों पर एंटी डंपिग शुल्क लगा दिये हैं। चीन आयरिश मांस सहित कई आयातों पर पाबंदी लगा चुका है तो यूरोपीय समुदाय थोक में आयात शुल्क बढ़ा रहा है। इंडोनेशिया ने गैर तटकर बाधायें खड़ी की तो जापान ने आटा, खाद्य उत्पाद आदि के आयात पर प्रतिबंध लगा रहा हैं। इस फेहरिस्त, मलेशिया, न्यूजीलैंड और हम भी यानी भारत भी हैं। पिछले एक साल में दुनिया के देशों ने 172 संरंक्षणवादी उपाय किये जिनमें 121 सीधे तौर विदेशी वाणिज्यिक हितों की सीमित करने के थे जबकि अन्य शुल्क दरें बढ़ाने आदि से संबंधित थे। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, स्पेन, फ्रांस और पोलैंड जैसे बड़े मुल्कों में प्रत्येक ने पिछले बारह माह में संरंक्षणवादी उपायों से अपने कम से कम सौ व्यापार भागीदार देशों का नुकसान किया है।
दूर तक जाने वाली बात
इस बाजार में हर ग्राहक विक्रेता है और हर विक्रेता ग्राहक। खुले बाजार में दुनिया की आदतें इतनी बदल चुकी हैं कि इस नए कछुआ कानून में तो कुछ परिंदों के लिए दाना पानी ही खत्म हो जाएगा। दुनिया के बहुत देशों का आधा जीडीपी निर्यात से आता है। इसलिए अब तैयार हो जाइये एक नई होड़ के लिए। निर्यातक मुल्क आयातों को महंगा करने के कदमों का जवाब अपनी मुद्राओं के अवमूल्यन से देंगे ताकि वह बाजार में टिके रह सकें। जिन्हें मुद्रायें अवमूल्यन करने का विकल्प नहीं मिलेगा वह सब्सिडी झोंककर निर्यातों को सस्ता करेंगे। यूरोपीय समुदाय ने हाल में अपने कई निर्यातों पर सब्सिडी बढ़ाकर इसका रास्ता खोल दिया है। इन पैंतरों से बाजारों में बराबरी का पूरा विधान ही बदल सकता है। दुनिया मंदी के बाद की महंगाई से डरी है। सस्ते आयात मुद्रास्फीति की सबसे बड़ी काट होते हैं लेकिन दुनिया के देश तो कच्छप मुद्राओं में आकर बाजार सिकोड़ रहे हैं, इसलिए महंगाई मजबूत हो सकती है।
दुनिया का व्यापारिक माहौल बदलने में काफी वक्त लगा है। पिछले तीन दशक विश्व व्यापार के लिए अभूतपूर्व दशक रहे हैं। 1991 के बाद से तो दुनिया के बाजार में अद्भुत बदलाव हुए। नब्बे की शुरुआत में दुनिया के केवल एक तिहाई उत्पादन का व्यापार होता था लेकिन आज लगभग 65 फीसदी अंतरराष्ट्रीय उत्पादन व्यापार का हिस्सा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विस्तार, एशियाई प्रभुत्व, उदार अधिग्रहण, बहुत देशीय उत्पादन, आयात शुल्कों में समानता और पूरी दुनिया में जबर्दस्त खपत यह सब कुछ पिछले दो दशकों की ही उपलब्धि है। उदार बाजार की यह लहर ओबामा के मुल्क से उठी थी और जब भारत व चीन की महाद्वीपीय आकार वाली अर्थव्यवस्थायें खुलीं तो मुक्त बाजार का जुलूस झूम उठा। लेकिन उदार व्यापार की यही दुनिया हैरत के साथ अपने महागुरु का एक नया ही चेहरा देख रही है ?..सबकी निगाहों में सवाल है कि अरे कठोर!! आप तो ऐसे न थे?
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अन्‍यर्थ के लिए
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Tuesday, January 26, 2010

आपके जमाने का बजट या बाप के?

यह बजट कांग्रेसी समाजवाद पर आधारित होगा या फिर कांग्रेसी बाजारवाद पर। इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि यह बजट प्रणब मुखर्जी का होगा या डा. मनमोहन सिंह का? ..वैसे यह सब छोडि़ए, सीधा सवाल दो टूक सवाल किया जाए कि यह बजट आपके जमाने का होगा या बाप के जमाने का? गणतंत्र का साठ बरस का हो गया है और नई अर्थव्यवस्था बीस बरस की। बहस जायज है कि आने वाला बजट साठ वालों का होगा या बीस वालों का? 1991 सुधारों के साथ बढ़ी पीढ़ी बहुत कुछ सीख कर युवा हो गई है और जबकि दूसरी तरफ गणतंत्र और अर्थतंत्र को संभालने वाले हाथ उम्रदराज हो चले हैं। दो दशक पुराने सुधारों का बहीखाता सामने है तो सियासत के पास भी इन आर्थिक प्रयोगों को लेकर अपने तजुर्बे हैं। इसलिए उलझन भारी है कि दादा यानी प्रणब मुखर्जी किस पीढ़ी के लिए बजट बनाएंगे। अपनी वाली पीढ़ी के लिए या आने वाली पीढ़ी के लिए।
बजट की तासीर और असर
अधिकांश बजट देने वाली कांग्रेस की टकसाल से समाजवादी बजट भी निकले हैं और बाजारवादी भी। बजट का रसायन हमेशा राजस्व, खर्च, घाटे और आर्थिक नीतियों के तत्वों से बनता है, सो इसकी तासीर नहीं बदलती है। अलबत्ता लगभग हर दशक में बजट की केमिस्ट्री और असर जरूर बदले हैं। पचास से साठ के अंत तक बजट अर्थव्यवस्था को सार्वजनिक उपक्रमों की उंगली पकड़ा रहे थे। समाजवाद की फैक्ट्री से निकला आर्थिक चिंतन अर्थव्यवस्था में सरकार को सरदार बनाता था। आजादी के आंदोलन में तपी पीढ़ी के सभी कल्याणकारी सपने सरकार में निहित हो गए थे। ऊंचे कर, भारी खर्च और हर कारोबार में सरकार बजट की तासीर और असर के हिस्से थे। सातवें आठवें दशक में अर्थव्यवस्था ने चुनिंदा निजी उद्योगों व सरकार की जुगलबंदी देखी जो लाइसेंस राज के साज पर बज रही थी। ऊंची कर दरें मगर कुछ खास को कर रियायतों, नियमों के मकड़जाल, लोकलुभावन स्कीमें और तरह-तरह के लाइसेंसों से बजट का यह ताजा रसायन बना था। आठवें दशक में अर्थव्यवस्था बदलाव के लिए कसमसाने लगी थी और नब्बे के दशक के बाद की कहानी अभी ताजी है। दस का बजट इन्हीं तत्वों से बनेगा, लेकिन बहस अब साठ बनाम बीस की है।
इतिहास की तर्ज पर?
साठ की पीढ़ी के हिसाब से बजट बनाने में दादा माहिर हैं। अगर वह उसी राह पर चले तो पिछले बजटों का कोई भी अध्येता बता देगा कि दादा दरअसल क्या करने वाले हैं। यह उधारवाद, कांग्रेसी समाजवाद और लोकलुभावनवाद का आजमाया हुआ बजट होगा। ऐसे बजटों में भारी खर्च पर तालियां बजवाई जाती हैं न कि बड़े सुधारों पर। इंदिरा, नेहरू, राजीव के नाम वाली स्कीमों की छेद वाली टंकियों में नया पानी, किसान, गांव, गरीब की बात, उद्योगों में जो ताकतवर होगा, उसे प्रोत्साहन और भारी घाटे की गठरी। ध्यान रखिए घाटा पहले से ही विस्फोटक बिंदु पर है। राजस्व विलासिता पर कर, कुछ कामचलाऊ कर प्रोत्साहन और रियायतों में कतर ब्योंत। ..साठ की पीढ़ी के बजट का यही नुस्खा है। चुनाव में जाने और जुलाई में जीतकर आने के बाद दादा ने इसी परिपाटी का निर्वाह किया था। अगर यह बजट दादा की अपनी पीढ़ी के फार्मूले पर बनता है तो सुधारों आदि की उम्मीद लगाकर अपना दिमाग मत खराब करिए। वैसे भी तगड़े सुधार सियासत का हाजमा खराब करते हैं और जब दुनिया में बाजारवाद व उदारीकरण के दिन जरा खराब चल रहे हों तो दादा के पास पुरानी रोशनाई से बजट लिखने का तर्क भी मौजूद है।
या इतिहास बनाने के लिए?
वैसे नए जमाने का बजट कुछ और ही तरह होना चाहिए। क्योंकि साठ के बजट चार-पांच फीसदी की ग्रोथ देते थे और अब के बजटों से आठ-नौ फीसदी की विकास दर निकली है व निकलने की उम्मीद होती है। लेकिन इस तरह के बजट से जुड़ी उम्मीदों की केमिस्ट्री ही दूसरी है। यह बहीखाते वाली नहीं, बल्कि डाटाबेस वाली पीढ़ी है। इसे तो जल्द से जल्द नया कर ढांचा यानी जीएसटी चाहिए। .. वित्त मंत्री देंगे? वह तो टल गया है। इसे नया आयकर कानून चाहिए। इसे श्रम कानूनों में बदलाव चाहिए। इसे वित्तीय बाजार का विनियमन और उदारीकरण चाहिए। इसे भरपूर बुनियादी ढांचा चाहिए। इसे महंगाई पर स्थायी काबू चाहिए ताकि वह अपनी बढ़ी हुई आय महंगी रोटी दाल लेने के बजाय अपनी जिंदगी बेहतर करने पर खर्च करे और बाजार में मांग बढ़ा सके। इसे सही कीमत पर शानदार सरकारी सेवाएं चाहिए ताकि वह उत्पादक होकर जीडीपी बढ़ा सके। इसे संतुलित, पारदर्शी बाजार चाहिए। और साथ में इसे चाहिए ऐसा बजट जिसमें घाटा हो मगर अच्छी क्वालिटी का यानी कि विकास के खर्च के कारण होने वाला घाटा, न कि फालतू और अनुत्पादक खर्च के कारण।
आर्थिक डाक्टर यानी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दो दशक पहले पुरानी पीढ़ी वाले बजट का खोल तोड़ा था और नई पीढ़ी को उसके सपनों के मुताबिक बजट दिया था। इसके बाद से नई अर्थव्यवस्था वाले जवान पीढ़ी हर बजट से ड्रीम बजट होने की उम्मीद लगाती है। उनके सपनों की सीमा नहीं है, इसलिए हर बजट को देखकर उनके सपने जग जाते हैं। इधर साठ की पीढ़ी का बजटीय हिसाब-किताब आर्थिक जरूरतों के फार्मूले से कम सियासी सूत्रों से ज्यादा बनता है। अर्थव्यवस्था संक्राति के बिंदु पर है। पिछले दो दशकों में खोए-पाए, गंवाए- चुकाए आदि का लंबा हिसाब-किताब होना है। वक्त बताएगा कि तजुर्बेकार प्रणब दादा ने उम्रदराज सियासत के लिए बजट बनाया या फिर चहकती नई पीढ़ी के लिए? ..इस बजट को बहुत ध्यान से देखिएगा। नई अर्थव्यवस्था यहां से तीसरे दशक की गाड़ी पकड़ेगी।
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और अन्‍यर्थ के लिए स्‍वागत है .....
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)