Tuesday, March 16, 2010

ढूंढो तो, बुनियाद कहां है?

अभी तो नौ की तैयारी . पर जल्दी ही दस की बारी.. याद कीजिये, कुछ ऐसा ही तो अंदाज था वित्त मंत्री का बजट भाषण के दौरान। मगर जब वित्त मंत्री नौ और दस फीसदी की विकास दर का रंगीन सपना बुन रहे थे ठीक उसी समय सरकार के आंकड़ा भंडार से विकास दर के ताजे आंकड़े निकल रहे थे, जिनके मुताबिक दिसंबर में खत्म तिमाही में विकास दर तेज गोता खा गई थी। वित्त मंत्री का विकास उवाच, महंगाई पर शोर करते विपक्ष की आवाजों के बीच संसद की गोल दीवारों में खो गया मगर विकास दर का गिरने का आंकड़ा रिकार्ड में पुख्ता हो गया। ऐसा इसलिए क्योंकि आर्थिक विकास मांग, निवेश और कर्ज या पूंजी से मिलकर बनी खुराक से बढ़ता है और खुद सरकार के तथ्य यह बता रहे हैं कि मौजूदा सूरते हाल में इस खुराक का कोई जुगाड़ नहंी है। यानी कि नौ दस वाली बात भरी दोपहर की झपकी वाला सपना है, जिसमें किले कंगूरे तो दिखते हैं मगर कमबख्त बुनियाद नजर नहीं आती।
वो मांग कहां से लाएं?
महंगाई में मांग?.. बात ही बेतुकी है लेकिन हम हैं कि नौ फीसदी विकास दर की बारात के लिए सज रहे हैं। सत्रह अठारह फीसदी की दर वाली महंगाई से रोज की छीन झपट के बाद किसमें इतना दम बचता है कि वह कुछ और खरीदने की सोचे। इसलिए ही तो मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.9 फीसदी की दर पर उछल रही विकास दर तीसरी तिमाही में छह फीसदी पर निढाल हो गई। ठीक यही वक्त था जब खरीफ के सूखे ने महंगाई को नये तेवर दिये थे। अर्थात मंदी से उबरने के बाद बाजार में जो उत्साह दिखा था उस पर जल्द ही टनों महंगाई पड़ गई। महंगाई हमेशा मांग की बड़ी दुश्मन रही है और हालत तब और बुरी हो जाती है जब हम यह देखते हैं कि मांग को बढ़ावा देने वाले बुनियादी कारक भी बदहाल हैं। यहां आंकड़ों की रोशनी जरूरी है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की दर 5.3 फीसदी और प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च की दर केवल 2.7 फीसदी? शायद बढ़ी हुई आय महंगाई खा गई? क्योंकि यह आंकड़ा महंगाई यानी वर्तमान बाजार मूल्य को शामिल नहीं करता। सिर्फ यही नहीं आर्थिक विकास दर को अगर मांग के नजरिये से पढ़ें तो सरकारी दस्तावेजों में और भी हैरतअंगेज आंकड़े चमकते हैं। पिछले तीन चार वर्षो में करीब नौ फीसदी की वृद्घि दर दिखा रहा निजी उपभोग अचानक 2009-10 में घटकर चार फीसदी रह गया है जबकि सरकार उपभोग खर्च की वृद्घि दर 16 से आठ फीसदी पर आ गई है। यानी एक तो पहले से मांग कम और ऊपर से महंगाई का ढक्कन। इसके बाद तेज विकास दर की उम्मीद कुछ हजम नहीं होती।
जो निवेश को लुभाये
बाजार में मांग का नृत्य निवेश को लुभाता है। मंदी आई तो सबसे पहले यह उत्सव बंद हुआ। उद्योगों ने अपनी जेब कस कर दबा ली। पिछले करीब डेढ़ साल में देश में नया निवेश अचानक तलहटी पर आ गया है। आंकड़ों की मदद लें तो दिखेगा कि 2008-09 तक देश में नया निवेश करीब 16 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन मंदी की धमक के साथ यह घटकर शून्य से नीचे -2.4 आ गया। आंकड़ों के और भीतर उतरें तो दिखेगा कि नए निवेश का झंडा लेकर चलने वाला उद्योग क्षेत्र तो मानो निढाल है। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में निवेश 2007-08 तक 19.8 फीसदी की दर से बढ़ रहा था लेकिन अब शून्य से नीचे 21 फीसदी गिर गया। गिरावट केवल बड़ी इकाइयों तक ही सीमित नहीं है, असंगठित औद्योगिक क्षेत्र के निवेश में यह गिरावट -42 फीसदी तक है। सिर्फ दूरसंचार क्षेत्र को छोड़कर सभी सेवाओं में निवेश घटा है। यह गिरावट हर पैमाने पर बहुत बड़ी है। मांग की कमी उद्योगों का भरोसा तोड़ती है और उसे लौटाने के लिए बाजार में मांग बढ़ने के ठोस संकेत चाहिए और चाहिए सस्ती पूंजी। यह खुराक मिलने में अभी वक्त लगेगा यानी कि तेज विकास की उम्मीद को साधने के लिए निवेश की बुनियाद भी नहीं है।
मगर पूंजी महंगी होती जाए
पूंजी सस्ती हो तो निवेशक लंबे समय की उड़ान भरते हैं यानी कि मांग की उम्मीद में जोखिम उठा लेते हैं लेकिन इस पहलू पर गहरी निराशा है। दरअसल उद्योग अपने बचत और मुनाफे को भी लगाने के मूड में नहीं हैं। आंकड़े यह कलई कायदे से खोलते हैं। 2008-09 में निजी क्षेत्र में बचत की दर जीडीपी के अनुपात में 31.1 फीसदी रही जबकि निवेश की दर केवल 24.9 फीसदी। यानी कि उद्योग अपनी बचत और मुनाफे को रोक कर अभी इंतजार करेंगे। पूंजी के दूसरे स्रोत यानी कर्ज और बाजार मदद नहीं करते बल्कि मुश्किल बढ़ाते हैं। महंगाई से डरा रिजर्व बैंक ठीक उस समय सस्ते कर्ज की दुकाने बंद कर रहा है जबकि इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। जनवरी में आए नए मौद्रिक उपायों के बाद ब्याज दर बढ़ने की शुरुआत हो चुकी है और अप्रैल की शुरुआत में जब उद्योग अपने नए बहीखाते खोल रहे होंगे और निवेश की योजनायें बना रहें होंगे तब बैंकों की ब्याज दर उन्हें निवेश से दूर भगा रही होगी। बल्कि हो सकता है कि उद्योगों की चिंता अपने पुराने कर्ज हों जिन पर बढ़ी हुई ब्याज दर का असर होने वाला है। पूंजी बाजार से पैसे उठाकर नया निवेश करना सबके बस का नहीं है लेकिन जिनके बस का है वह भी सरकारी नवरत्नों को मिले कौडि़यों के भाव यानी सरकारी कंपनियों के आईपीओ की विफलता देखकर आगे आने की हिम्मत नहीं जुटायेंगे।
वित्त मंत्री के साहसी आशावादिता आश्चर्यजनक है, क्योंकि हकीकत, उनके सपनों से बिल्कुल उलटी है। अगर अर्थव्यवस्था को मंदी की गर्त से उचक कर बाहर आना है तो उसे मांग की सीढ़ी, निवेश की रोशनी और पूंजी का सहारा चाहिए। मगर इस समय यह तीनों ही उपलब्ध नहीं हैं। विकास के नौ-दस फीसदी वाले खूबसूरत नृत्य के लिए मांग, पूंजी व निवेश का नौ मन तेल जुटने में अभी एक से डेढ़ साल लग जाएंगे। तब तक वित्त मंत्री से मिली उम्मीदों को इन्ज्वाय कीजिये, महंगाई के चुभन के बीच यह सपने कुछ राहत देंगे। रही बात हकीकत की तो अभी विकास दर के लिए 6 से सात फीसदी की मंजिल ही मुमकिन और भरोसेमंद दिखती है। अलबत्ता यह बात पूरी तरह सच है कि गरीबी हटाने या आय को निर्णायक ढंग से बढ़ाने की क्रांति छह सात फीसदी के विकास दर से नहीं हो सकती। इससे कुछ अमीर, और ज्यादा अमीर हो जाएंगे बस... पिछले दो दशकों का यही तजुर्बा है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Monday, March 8, 2010

वाह! क्या गुस्सा है?

बजट को सुनकर या पेट्रो व खाद कीमतों में वृद्धि को देखकर आपको नहीं लगता कि सरकार कुछ झुंझलाहट या गुस्से में है। सब्सिडी उसे अचानक अखरने लगी है। महंगाई के बावजूद तेल की कीमतों को बेवजह सस्ता रखना उसे समझ में नहीं आता। मोटा आवंटन पचा कर जरा सा विकास उगलने वाली स्कीमों से उसे अब ऊब सी हो रही है। मानो सरकार अपने लोकलुभावन चेहरे को देखकर चिढ़ रही है। बजट और आर्थिक समीक्षा जैसे दस्तावेज एक उकताहट में तैयार किए गए महसूस होते हैं। यह जिद या ऊब उन नीतियों के खिलाफ है, जो बरसों बरस से सरकारों के कथित मानवीय चेहरे का श्रंगार रही हैं। इसी लोकलुभावन मेकअप का बजट इस बार निर्दयता से कटा है और इस कटौती या सख्ती के राजनीतिक नुकसान का खौफ नदारद है। इधर सालाना आर्थिक समीक्षा, सरकार में संसाधनों की बर्बादियों की अजब दास्तां सुनाती है और विकास के मौजूदा निष्कर्षो से शीर्षासन कराती है। लगता है कि जैसे कि सरकार अपने खर्च के लोकलुभावन वर्तमान से विरक्ति की मुद्रा में है। यह श्मशान वैराग्य है या फिर स्थायी विरक्ति? पता नहीं! ..मगर पूरा माहौल सुधारों के अनोखे एजेंडे की तरफ इशारा करता है। अनोखा इसलिए, क्योंकि सुधार हमेशा किसी नई शुरुआत के लिए ही नहीं होते। पुरानी गलतियों को ठीक करना भी तो सुधार है न?
विरक्ति के सूत्र
सालाना आर्थिक समीक्षा और बजट, सरकार के दो सबसे प्रतिनिधि दस्तावेज हैं। इन दोनों में ही लोकलुभावन नीतियों से विरक्ति के सूत्र बड़े मुखर हैं। अगर बारहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट को भी साथ में जोड़ लिया जाए तो एक त्रयी बनती है और तीनों मिलकर उन समीकरणों को स्पष्ट कर देते हैं, जिनके कारण सरकार को अपने लोकलुभावन मेकअप से चिढ़ हो गई। बड़ी-बड़ी स्कीमें और भीमकाय सब्सिडी !! इन्हीं दो प्रमुख प्रसाधनों ने हमेशा सरकारों के आर्थिक चेहरे का लोकलुभावन श्रंगार किया है और मजा देखिए कि वित्त आयोग व सर्वेक्षण ने इन्हीं दोनों के प्रति सरकार में विरक्ति भर दी है। नतीजे में पिछले एक दशक में सबसे ज्यादा नए कर और खर्च में सबसे कम बढ़ोतरी वाला एक बेहद सख्त बजट सामने आया।
बोरियत वाला जादू
सरकार अपनी स्कीमों के जादू से ऊब सी गई लगती है। लाजिमी भी है। (बकौल सर्वेक्षण) पिछले छह साल में सरकार के कुल खर्च में सामाजिक सेवाओं का हिस्सा 10.46 से बढ़कर 19.46 फीसदी हो गया, लेकिन सामाजिक सेवाओं का चेहरा नहीं बदला। सरकार का अपना विशाल तंत्र ही सामाजिक सेवाओं की बदहाली का आइना लेकर सामने खड़ा है। दुनिया भर के मानव विकास सूचकांक मोटे अक्षरों में लिखते हैं कि भारत के लोग बुनियादी सुविधाओं में श्रीलंका व इंडोनेशिया से भी पीछे हैं। साक्षरता की दर अर्से से 60 फीसदी के आसपास टिकी है। 1000 में से 53 नवजात आज भी मर जाते हैं। 30 फीसदी आबादी को पीने का पानी मयस्सर नहीं। स्कूलों में दाखिले का संयुक्त अनुपात अभी भी 61 फीसदी है। सरकार को दिखता है कि शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास से लेकर कमजोर वर्गो तक स्कीमों से, पिछले छह दशकों में, कोई बड़ा जादू नहीं हुआ। अब इन स्कीमों में भ्रष्टाचार भी आधिकारिक व प्रामाणिक हो चुका है। यह सब देखकर स्कीमों के जादू से ऊब होना स्वाभाविक है। यह बजट इस बदले नजरिए का प्रमाण है। सरकार के चहेते मनरेगा परिवार से लेकर सभी बड़ी स्कीमों काबजट अभूतपूर्व ढंग से छोटा हो गया है।
नहीं सुहाती सब्सिडी
आसानी से भरोसा नहीं होता कि कांग्रेस सब्सिडी से चिढ़ जाएगी। सब्सिडी तो सरकार लोकलुभावन आर्थिक नीतियों का कंठहार है। जो केंद्र से लेकर राज्य तक फैला है और पिछले कुछ वर्षो में लगातार मोटा हुआ है, लेकिन अब सब्सिडी चुभने लगी है। 2002 के बाद पहली बार खाद की कीमत बढ़ी। आर्थिक सर्वेक्षण ने कहा कि सब्सिडी से न तो गरीबों का फायदा हुआ न खेती का और न खजाने का। वित्त आयोग ने तो हर साल सब्सिडी बिल में वृद्धि की सीमा तय कर दी। बात अब इतनी दूर तक चली गई है कि राशन प्रणाली को सीमित कर गरीबों को अनाज के कूपन देने के प्रस्ताव हैं। पेट्रो उत्पादों को सब्सिडी के सहारे सस्ता रखने पर सरकार तैयार नहीं है। सरकार के ये ज्ञान चक्षु सिर्फ खजाने की बीमारी देखकर ही नहीं खुले, बल्कि मोहभंग कहीं भीतर से है क्योंकि तेज विकास और भारी सरकारी खर्च के बाद भी गरीबी नहीं घटी। 37 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा से नीचे है और सरकार के कुछ आकलन तो इसे 50 फीसदी तक बताते हैं। नक्सलवाद जैसी हिंसक और अराजक प्रतिक्रियाएं अब गरीबी उन्मूलन और विकास की स्कीमों की विफलता से जोड़ कर देखी जाने लगी हैं। आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि समावेशी विकास यानी इन्क्लूसिव ग्रोथ के लिए सबसे गरीब बीस फीसदी लोगों के जीवन स्तर में बेहतरी को मापना चाहिए। यह पैमाना अपनाने पर सरकार को सब्सिडी के नुस्खे का बोदापन नजर आ जाता है। इसलिए लोकलुभावन नीतियों की नायक सब्सिडी अचानक सबसे बड़ी खलनायक हो गई है। खाद और पेट्रो उत्पादों की सब्सिडी पर कतरनी चली है, राशन पर चलने वाली है।
..ढेर सारे किंतु परंतु
यह ऊब उपयोगी, तर्कसंगत और सार्थक है। लेकिन इसके टिकाऊ होने पर यकायक भरोसा नहीं होता। पिछले दशकों में एक से अधिक बार सरकार में सब्सिडी व बेकार के खर्च से विरक्ति जागी है, लेकिन स्कीमों का जादू फिर लौट आया और भारी सब्सिडी से बजटों का श्रंगार होने लगा। पांचवे वेतन आयोग को लागू किए जाने के बाद खर्च पर तलवार चली थी, लेकिन बाद के बजटों में खर्च ने रिकार्ड बनाया। आर्थिक तर्क पीछे चले गए और बजट राजनीतिक फायदे के लिए बने। इसीलिए ही तो सब्सिडी पर लंबी बहसों व अध्ययनों के बाद भी सब कुछ जहां का तहां रहा है। लेकिन इस अतीत के बावजूद यह मुहिम अपने पूर्ववर्तियों से कुछ फर्क है क्योंकि यह खर्च, सब्सिडी और लोकलुभावन स्कीमों को सिर्फ बजट के चश्मे से नहीं, बल्कि समावेशी विकास और सेवाओं की डिलीवरी के चश्मे से भी देखती है, जो एक बदलना हुआ नजरिया है।
सरकार अर्थव्यवस्था से खुश है पर अपने हाल से चिढ़ी हुई है। इसलिए यह बजट अर्थव्यवस्था में सुधार की नहीं, बल्कि सरकार की अपनी व्यवस्था में सुधार की बात करता है। बस मुश्किल सिर्फ इतनी है कि सरकार ने अपने इलाज का बिल, लोगों को भारी महंगाई के बीच थमा दिया। कहना मुश्किल है कि यह बदला हुआ नजरिया सिर्फ कुछ महीनों का वैराग्य है या यह परिवर्तन की सुविचारित तैयारी है। गलतियां सुधारने की मुहिम यदि गंभीर है तो इसका बिल चुकाने में कम कष्ट होगा, लेकिन अगर सरकार स्कीमों व सब्सिडी के खोल में वापस घुस गई तो? .. तो हम मान लेंगे एक बार फिर ठगे गए। फिलहाल तो सरकार की यह झुंझलाहट, ऊब और बेखुदी काबिले गौर है, क्योंकि इससे कुछ न कुछ तो निकलेगा ही..
बेखुदी बेसबब नहीं गालिब, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Thursday, March 4, 2010

बुरा न मानो बजट है!!

कंपकंपा दिया वित्त मंत्री ने... पता नहीं किस फ्रिज में घोल कर रखा बजट का यह रंग जो पड़ते ही छील गया। दादा की बजट होली झटका जरूर देगी यह तो पता था, लेकिन उनके गुलाल में इतने कांटे होंगे इसका अंदाज नहीं था। तेल वालों से लेकर बाजार वाले तक सब कीमतें बढ़ाने दौड़ पड़े। महंगाई के मौसम और मंदी की कमजोरी के बीच दादा ने अपने खजाने की सेहत सुधारने का बोझ भी हम पर ही रख दिया। उपभोक्ता, उद्योग और आर्थिक विश्लेषक व निवेशक। हर बजट के यही तीन बड़े ग्राहक होते हैं। उपभोक्ता और उद्योग बजट का तात्कालिक असर देखते हैं, क्योंकि यह उनके जीवन या कारोबार पर असर डालता है, जबकि विश्लेषक और निवेशक इसकी बारीकी पढ़ते हैं और भविष्य की गणित लगाते हैं। तीनों के लिए यह बजट दिलचस्प ढंग से रहस्यमय है। महंगाई से बीमार उपभोक्ताओं को इस बजट में नए करों का ठंडा निर्मम रंग डरा रहा है, जबकि उद्योगों को इस बजट में रखे गए विकास के ऊंचे लक्ष्यों पर भरोसा नहीं (चालू साल की तीसरी तिमाही में विकास दर लुढ़क गई है) हो पा रहा है। लेकिन विश्लेषकों और निवेशकों को इसमें राजकोषीय सुधार का एक नक्शा नजर आ रहा है। पर इन सुधारों को लेकर सरकारों का रिकार्ड जरा ऐसा वैसा ही है। यानी कि सबकी मुद्रा, पता नहीं या वक्त बताएगा.. वाली है।
पक्का रंग महंगाई का
यह बजट के पहले ग्राहक की बात है अर्थात उपभोक्ता की। महंगाई के रंग पर बजट वह रसायन डाल रहा है, जिससे खतरा महंगाई के पक्के होने का है। इस बजट में कई ऐसे काम हुए हैं जो प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर महंगाई में ईधन बनेंगे। उत्पाद शुल्क की बढ़ोतरी को सिर्फ दो फीसदी मत मानिए। कंपनियां इसमें अपना मार्जिन जोड़ कर इसे उपभोक्ताओं को सौंपेंगी। इसके बाद फिर इसमें पेट्रो उत्पादों की मूल्य वृद्घि से बढ़ी हुई लागत मिल जाएगी। ब्याज दर में बढ़ोतरी की लागत और बुनियादी ढांचे से जुड़ी सेवाओं की महंगाई भी इसमें शामिल होगी। सिर्फ इतना ही नहीं तमाम तरह की नई सेवाएं जिन पर कर लगा है या कर का दायरा बढ़ा है, उनका असर भी कीमतों पर नजर आएगा। सरकार के भीतरी आंकड़े रबी की फसल से बहुत उम्मीद नहीं जगाते और अगर बजट उसी सख्त रास्ते पर चला जो प्रणब दा ने बनाया है तो साल के बीच में कुछ और सरकारी सेवाएं महंगी हो सकती हैं। ध्यान रखिए यह सब उस 18 फीसदी की महंगाई के ऊपर होगा जो कि पहले मौजूद है। देश के करोड़ों उपभोक्ताओं में आयकर रियायत पाने वाले भाग्यशाली वेतनभोगी बहुत कम हैं और उनमें औसत को होने वाला फायदा 1000 से 1500 रुपये प्रति माह का है। महंगाई का पक्का रंग इस रियायत की रगड़ से नहीं धुलेगा। ..महंगाई से ज्यादा खतरनाक होता है महंगाई बढ़ने का माहौल। क्योंकि ज्यादातर महंगाई माहौल बनने से बढ़ती है। उपभोक्ताओं के मामले में यह बजट महंगाई की अंतरधारणा को तोड़ नहीं पाया है।
तरक्की का त्योहार
बजट के दूसरे ग्राहक यानी उद्योग, दादा के रंग से बाल-बाल बच गए यानी उन पर कुछ ही छींटे आए हैं। दादा उतने सख्त नहीं दिखे जितनी उम्मीद थी। मगर उद्योग इससे बहुत खुश नहीं हो सकते क्योंकि बजट तेज विकास से रिश्ता बनाता नहीं दिखता। महंगाई के कारण मांग घटने का खतरा पहले से है। ऊपर से सरकार के खर्च में जबर्दस्त कटौती बड़ी परियोजनाओं के लिए मांग घटाएगी। दिलचस्प है कि जब वित्त मंत्री बजट भाषण पढ़ रहे थे, ठीक उसी समय इस वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में आर्थिक विकास दर के आंकड़े सरकार की फाइलों से निकल रहे थे। तीसरी तिमाही में जीडीपी की दर घटकर छह फीसदी रह गई है। यानी कि अब अगर सरकार को मौजूदा वित्त वर्ष में 7.2 फीसदी की विकास दर फीसदी का लक्ष्य हासिल करना है तो फिर साल की चौथी तिमाही 8.8 फीसदी की विकास दर वाली होनी चाहिए। यह कुछ मुश्किल दिखता है। अर्थात बजट और तरक्की की गणित गड़बड़ा गई है। उद्योगों का पूरा ताम झाम सिर्फ इस उम्मीद पर कायम है कि अगर अर्थव्यवस्था तेज गति से दौड़ी तो उन्हें खड़े होने का मौका मिल जाएगा। वरना तो फिलहाल मांग, बाजार और माहौल तेज विकास के बहुत माफिक नहीं है। ध्यान रहे जीडीपी के अनुपात में प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च पिछले एक साल में 5.4 से घटकर 2.7 फीसदी रह गया है, जबकि निजी निवेश पिछले दो साल में 16.1 से घटकर 12.7 फीसदी पर आ गया है। इसमें से एक मांग और दूसरा निवेश का पैमाना है। क्या बजट से मांग और निवेश के उत्साह को मजबूती मिलेगी यानी कि नौ फीसदी की तरक्की का त्योहार जल्द मनाया जाएगा? फिलहाल इसका जवाब नहीं है।
उड़ न जाए रंग?
खर्चे में कटौती और सख्त राजकोषीय सुधार इस बजट का सबसे साफ दिखने वाला रंग है। उम्मीद कम थी कि वित्त मंत्री इतनी हिम्मत दिखाएंगे, लेकिन वित्त आयोग की कैंची के सहारे खर्चो को छोटा कर दिया गया। दरअसल यह इसलिए भी हुआ क्योंकि नए वित्त वर्ष से केंद्रीय करों में राज्यों को ज्यादा हिस्सा मिलेगा और इससे केंद्र के खजाने का खेल बिगड़ेगा। लेकिन राजकोषीय सुधारों का अतीत भरोसेमंद नहीं है। बजट आकलन और संशोधित अनुमानों में बहुत फर्क होता है। जब-जब करों से लैस सख्त बजट आए हैं, घाटे ने कम होने में और नखरे दिखाए हैं। दादा के इस दावे पर भरोसा मुश्किल है कि अगले साल सरकार का गैर योजना खर्च केवल चार फीसदी बढ़ेगा जो कि इस साल 16 फीसदी बढ़ा है। वित्त मंत्री सरकार के राजस्व में 15 फीसदी की बढ़ोतरी आंकते हैं जो इस साल केवल 5 फीसदी रही है। खर्च में कम और कमाई में ज्यादा वृद्घि??? भारतीय बजटों को यह गणित कभी रास नहीं आई है। साल के बीच में खर्च बढ़ता है और सारा सुधार हवा हो जाता है। इसलिए घाटे को एक फीसदी से ज्यादा घटाने और कर्ज में बढ़ोतरी रोकने पर तत्काल कोई निष्कर्ष उचित नहीं है। सुधारों के इस रंग का पक्कापन तो वक्त के साथ ही पता चलेगा।
इस बजट के तीन अलग-अलग रंग हैं और तीनों गड्डमड्ड भी हो गए हैं। महंगाई-मांग या खर्च-कमाई, निवेश-विकास या घाटा-सुधार .. एक सूत्र तलाशना मुश्किल है। दरअसल यह कई रंगों से सराबोर पूरी तरह होलियाना बजट है। होली खत्म होने और नहाने धोने के बाद पता चलता है कि कौन सा रंग कितना पक्का था? हम तो चाहेंगे इसका महंगाई वाला रंग जल्दी से जल्दी उतर जाए, जबकि विकास व सुधार वाला रंग और पक्का हो जाए? मगर हमारे आपके चाहने से क्या होता है.. वक्त के पानी में धुलने के बाद ही पता चलेगा है कि कौन सा रंग बचा और कौन सा उड़ गया? अगर अच्छा रंग बचे तो किस्मत और महंगाई बचे तो भी किस्मत। बजट और होली में सब जायज है। ..बुरा न मानो बजट है।
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अन्‍यर्थ के लिए
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Tuesday, February 23, 2010

बीस साल बाद ..!

यहां अब भी बहुत कुछ ऐसा घटता रहता है जो अबूझ, अजब और (आर्थिक) तर्को से परे है। अर्थव्यवस्था की इस इमारत से लाइसेंस परमिट राज का ताला खुले बीस साल बीत चुके हैं। कुछ हिस्सों में उदारीकरण की झक साफ रोशनी भी फैली है, मगर कई अंधेरे कोनों का रहस्य, बीस साल बाद भी खत्म नहीं हुआ है। कोई समझ नहीं पाता आखिर खेतों से हर दूसरे तीसरे साल बुरी खबर ही क्यों आती है। सब्सिडी के जाले साल दर साल घने ही क्यों होते जाते हैं। बढ़ते खर्च का खौफ बीस साल बाद भी वैसे का वैसा है और पेट्रो उत्पादों की कीमतों व बिजली दरों का पूरा तंत्र इतना रहस्यमय क्यों है। दरअसल खेती का हाल, बजट का खर्च और ऊर्जा की नीतियां पिछले बीस साल के सबसे जटिल रहस्य हैं। नए दशक के पहले बजट में इन पुरानी समस्याओं के समाधान की अपेक्षा लाजिमी है। देश यह जरूर जानना चाहेगा कि इन अंधेरों का क्या इलाज है और उत्सुकता यह भी रहेगी कि उदारीकरण की तमाम दुहाई के बावजूद बहुत जरूरी मौकों पर आखिर आर्थिक तर्को की रोशनी यकायक गुल क्यों हो जाती है।
खेती का अपशकुन
खेती पर अपशकुनों का साया बीस साल बाद भी, पहले जितना ही गहरा है। हर दूसरे तीसरे साल खेती में पैदावार गिरने की चीख पुकार उभरती है और महंगाई मंडराने लगती है। बीस साल में खेती के लिए चार कदम (चार फीसदी की वृद्धि दर) चलना भी मुश्किल हो गया है। खेती का अपशकुन कई रहस्यों से जन्मा है। कोई नहीं जानता कि आखिर हर बजट नेता नामधन्य ग्रामीण रोजगार व विकास की स्कीमों को जितना पैसा देते हैं, उसका आधा भी खेती को क्यों नहीं मिलता? हाल के कुछ बजटों में गांव के विकास को मिली बजटीय खुराक, खेती को बजट में हुए आवंटन के मुकाबले सात गुनी तक थी। 1999-2000 के बजट ने ग्रामीण रोजगार व गरीबी उन्मूलन को 8,182 करोड़ रुपये दिए तो खेती व सिंचाई को करीब 4,200 करोड़। लेकिन मार्च में पुराने हो रहे बजट में ग्रामीण विकास को मिलने वाली रकम 72,000 करोड़ रुपये पर पहुंच गई और खेती को मिले केवल 11,000 करोड़। भारत की आर्थिक इमारत में यह सवाल हमेशा तैरता है कि आखिर खेतों से दूर सरकार कौन से गांव विकसित कर रही है और खेती के बिना किन गरीबों को रोजगार दे रही है। वैसे इस इमारत के खेती वाले हिस्से में और भी रहस्यमय दरवाजे हैं। दस साल में खेती को उर्वरक के नाम पर करीब 2,71,736 करोड़ रुपये की सब्सिडी पिलाई जा चुकी है। यानी खेती के पूरे तंत्र के एक अदना से हिस्से के लिए हर साल करीब 27,000 करोड़ रुपये की रकम। मगर पूरी खेती के लिए इसका आधा भी नहीं। सिंचाई, बीजों, शोध, बाजार, बुनियादी ढांचे के लिए चीखती खेती में पिछले बीस साल के दौरान विकास दर करीब छह बार शून्य या शून्य से नीचे गई है, लेकिन सरकार उसे सस्ती खाद चटाती रही है। ..उदारीकरण की रोशनी में खेती और अंधेरी हो गई है।
खर्च का खौफ
यह रास्ता बीस साल पुराना है, मगर उतना ही अबूझ और अनजाना है। क्या आपको याद है कि कांग्रेस ने 1991 में अपने चुनाव घोषणापत्र में बजट के गैर योजना खर्च को दस फीसदी घटाने का वादा किया था ???? बाद में सुधारों वाले एतिहासिक बजट भाषण में मनमोहन सिंह ने यह वादा दोहराया था। तब से आज तक खर्च घटाने की कोशिश करते कई सरकारें, समितियां और रिपोर्टे (खर्च घटाने की रंगराजन समिति की ताजी सिफारिश तक) खर्च हो चुकी हैं। मगर हर वित्त मंत्री खर्च के दरवाजे में झांकने से डरता रहा है, तभी तो पिछले दस साल में केवल राशन, खाद और पेट्रोलियम पर बजट से करीब 5,80,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी बांटी जा चुकी है। इसमें करीब 2.79 लाख करोड़ की सब्सिडी उस राशन प्रणाली पर दी गई, जिसे बीस साल में दो बार बदला गया और फिर भी उसे प्रधानमंत्री ने हाल में निराशाजनक व असफल कहा है। खाद सब्सिडी से उबरने की ताजी जद्दोजहद का भविष्य अभी अंधेरे में है। 91-92 के सुधार बजट में मनमोहन सिंह ने खाद की कीमत बढ़ाते हुए सब्सिडी व खर्च कम करने की बहस शुरू की थी। सरकारी रिपोर्टो और चर्चाओं से गुजरती हुई यह बहस छोटी होती गई और सब्सिडी बड़ी। राजकोषीय घाटा पिछले एक दशक में 5.6 फीसदी से शुरू होकर वापस सात फीसदी (चालू वर्ष में अनुमानित) पर आ गया है और बीस साल बाद भी खर्च का खौफ वित्त मंत्रियों की धड़कन बढ़ा रहा है। ..खर्च के जाले और सब्सिडी के झाड़ झंखाड़ बजट की शोभा बन चुके हैं
ऊर्जा का सस्पेंस
आर्थिक इमारत का यह हिस्सा सबसे खतरनाक और अंधेरा है। यहां से आवाजें भी नहीं आतीं और बहुत कुछ बदल जाता है। बीस साल बीत गए, मगर देश को ऊर्जा नीति की ऊहापोह से छुटकारा नहीं मिला। इस सवाल का जवाब इस इमारत में किसी के पास नहीं है कि तेल मूल्यों को बाजार आधारित करने का कौल कई-कई बार उठाने के बाद भी तेल की कीमतें राजनीति के अंधेरे में ही क्यों तय होती हैं? कमेटी और फार्मूले सब कुछ सियासत के दरवाजे के बाहर ही पड़े रह जाते हैं। यहां सस्पेंस दरअसल तेल नहीं, बल्कि ऊर्जा देने वाली दूसरी चीजों को लेकर भी है। कहीं कोई राज्य कभी बिजली की दर बढ़ा देता है तो कभी कोई मुफ्त बिजली देकर सांता क्लाज हो जाता है। बिजली कीमतें तय करने के लिए उत्पादन लागत नहीं, बल्कि वोटों की लागत का हिसाब लगता है। इसलिए वाहनों के वास्ते सस्ते किए गए डीजल से उद्योगों की मशीने दौड़ती हैं और शापिंग माल चमकते हैं। बिजली उत्पादन का लक्ष्य पंचवर्षीय योजनाओं का सबसे बड़ा मजाक बन गया है। बीस साल बाद अब बिजली क्षेत्र के सुधार आर्थिक चर्चाओं के फैशन से बाहर हैं। .. ऊर्जा नीति का अंधेरा पिछले बीस साल की सबसे रहस्यमय शर्मिदगी है।
उदारीकरण के बीस वर्षो में बहुत कुछ बदला है। बेसिक फोन के कनेक्शन के लिए जुगाड़ लगाने वाले लोग अब मोबाइल फोन से चिढ़ने लगे हैं। स्कूटरों की वेटिंग लिस्ट देखने वाला देश कारों की भीड़ से बेचैन है। बैंक खुद चलकर दरवाजे तक आते हैं और टीवी व फ्रिज कुछ वर्षो में रिटायर हो जाते हैं। नया बजट उदारीकरण के तीसरे दशक का पहला बजट है। इसलिए ... वित्त मंत्री जी .. यह सवाल तो बनता है कि जब कई क्षेत्रों में उजाला हुआ है तो बीस साल बाद भी खेती, खर्च और ऊर्जा जैसे कोने अंधेरे और रहस्यमय क्यों हैं? यह साजिशन है या गैर इरादतन? .. चली तो ठीक थी किरन, मगर कहीं भटक गई, वो मंजिलों के आसपास ही कहीं अटक गई, यह किसका इंतजाम है? कोई हमें जवाब दे? ... विश यू ए हैप्पी बजट!!!!
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Wednesday, February 17, 2010

बजट में जादू है !!

बगैर तली वाले बर्तन में पानी भरने का अपना ही रोमांच है..जादू जैसा? बर्तन में पानी जाता हुआ तो दिखता है मगर अचानक गायब। वित्त मंत्री हर बजट में यह जादू करते हैं। हर बजट में खर्च के कुछ बड़े आंकड़े वित्त मंत्रियों के मुंह से झरते हैं और फिर मेजों की थपथपाहट के बीच लोकसभा की वर्तुलाकार दीवारों में खो जाते हैं। पलट कर कौन पूछता है कि आखिर खर्च की इन चलनियों में कब कितना दूध भरा गया, वह दूध कहां गया और उसे लगातार भरते रहने का क्या तुक था? वित्त मंत्री ने पिछले साल दस लाख करोड़ रुपये का जादू दिखाया था और खर्च के तमाम अंध कूपों में अरबों रुपये डाल दिए थे। इस साल उनका जादू बारह लाख करोड़ रुपये का हो सकता है या शायद और ज्यादा का?
तिलिस्मी सुरंग में अंधे कुएं
खर्च बजट की तिलिस्मी सुरंग है। कोई वित्त मंत्री इसमें आगे नहीं जाता। खो जाने का पूरा खतरा है। खर्च का खेल सिर्फ बड़े आंकड़ों को कायदे से कहने का खेल है। पिछले दस साल में सरकार का खर्च पांच गुना बढ़ा है। 1999-2000 में यह 2 लाख 68 हजार करोड़ रुपये पर था मगर बीते बजट में यह दस लाख करोड़ रुपये हो गया। कभी आपको यह पता चला कि आखिर सरकार ने इतना खर्च कहां किया? बताते तो यह हैं कि पिछले एक दशक के दौरान सरकार अपनी कई बड़ी जिम्मेदारियां निजी क्षेत्र को सौंप कर उदारीकरण के कुंभ में नहा रही है। दरअसल खर्च में पांच गुना वृद्घि को जायज ठहराने के लिए सरकार के पास बहुत तर्क नहीं हैं। यह खर्च कुछ ऐसे अंधे कुओं में जा रहा है, जो गलतियों के कारण खोद दिए गए मगर अब उनमें यह दान डालना अनिवार्य हो गया है। दस साल पहले केंद्र सरकार 88 हजार करोड़ रुपये का ब्याज दे रही थी मगर आज ब्याज भुगतान 2 लाख 25 हजार करोड़ रुपये का है। यानी कि दस लाख करोड़ के खर्च का करीब 22 फीसदी हिस्सा छू मंतर। दूसरा ग्राहक सब्सिडी है। दस साल पहले सब्सिडी थी 22 हजार करोड़ रुपये की और आज है एक लाख 11 हजार करोड़ रुपये की। यानी बजट का करीब 11 फीसदी हिस्सा गायब। ब्याज और सब्सिडी मिलकर सरकार के उदार खर्च का 30-31 फीसदी हिस्सा पी जाते हैं। मगर जादू सिर्फ यही नहंी है और भी कुछ ऐसे तवे हैं जिन पर खर्च का पानी पड़ते ही गायब हो जाता है। तभी तो कुल बजट में करीब सात लाख करोड़ रुपये का खर्च वह है जिसके बारे में खुद सरकार यह मानती है कि इससे अर्थव्यवस्था की सेहत नहीं ठीक होती मगर फिर भी यह रकम अप्रैल से लेकर मार्च तक खर्च की तिलिस्मी सुरंग में गुम हो जाती है। सरकार के मुताबिक उसके बजट का महज 30 से 32 फीसदी हिस्सा ऐसा है जो विकास के काम का है। आइये अब जरा इस काम वाले खर्च की स्थिति देखें।
चलनियों का चक्कर
देश मे करीब 35 करोड़ ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। एक दशक पहले भी इतने ही लोग गरीब थे। (जनसंख्या के अनुपात में कमी के आंकड़े से धोखा न खाइये, गरीबों की वास्तविक संख्या हर पैमाने पर बढ़ी है।) अभी भी दो लाख बस्तियों में कायदे का पेयजल नहीं है। इसे आप पुराना स्यापा मत समझिये, बल्कि यह देखिये कि सरकार ने पिछले एक दशक में सिर्फ गांव में गरीबी मिटाने की स्कीमों पर 78 हजार करोड़ रुपये खर्च किये हैं और गांवों को पीने का पानी देने की योजनाओं पर कुल 36 हजार करोड़। यानी दोनों पर करीब 11 हजार करोड़ रुपये हर साल। ... दरअसल यह कुछ नमूने हैं उन चलनियों के, जिनमें सरकार अपने योजना बजट का दूध भरती है। इन पर गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव जैसे बड़े नाम चिपके हैं, इसलिए सिर्फ नाम दिखते हैं काम नहीं। पिछले एक दशक में गरीबी उन्मूलन की स्कीमों में खर्च को लेकर जितने सवाल उठे हैं, उनमें आवंटन उतना ही बढ़ गया है। स्कीमों का नरेगा मनरेगा परिवार इस समय सरकार के स्कीम बजट का सरदार है। वैसे चाहे वह पढ़ाने लिखाने वाली स्कीमों का कुनबा हो या सेहतमंद बनाने वाली स्कीमों का, यह देखने की सुध किसे है कि 200 के करीब सरकारी स्कीमों की चलनियों में जाने वाला दूध नीचे कौन समेट रहा है? सीएजी से लेकर खुद केंद्रीय मंत्रालयों तक को इनकी सफलता पर शक है। लेकिन हर बजट में वित्त मंत्री इन्हें पैसा देते हैं तालियां बटोरते हैं। बेहद महंगे पैसे के आपराधिक अपव्यय से भरपूर यह स्कीमें सरकारी भ्रष्टाचार का जीवंत इतिहास बन चुकी हैं मगर यही तो इस बजट का रोमांच है।
थैले की करामात
बजट का अर्थ ही है थैला। मगर असल में यह कर्ज का थैला है। सरकार देश में कर्जो की सबसे बड़ी ग्राहक है और सबसे बड़ी कर्जदार भी। वह तो सरकार है इसलिए उसे कर्ज मिलता है नहीं तो शायद इतनी खराब साख के बाद किसी आम आदमी को तो बैंक अपनी सीढि़यां भी न चढ़ने दें। बजट के थैले से स्कीमें निकलती दिखतीं हैं, खर्च के आंकड़े हवा में उड़ते हैं मगर थैले में एक दूसरे छेद से कर्ज घुसता है। इस थैले की करामात यही है कि सरकार हमसे ही कर्ज लेकर हमें ही बहादुरी दिखाती है। सरकार के पास दर्जनों क्रेडिट कार्ड हैं यह बांड, वह ट्रेजरी बिल, यह बचत स्कीम, वह निवेश योजना। पैसा बैंक देते हैं क्योंकि हमसे जमा किये गए पैसे का और वे करें भी क्या? मगर इस थैले का खेल अब बिगड़ गया है। सरकार का कर्ज कुल आर्थिक उत्पादन यानी जीडीपी का आधा हो गया है। अगले साल से सरकार के दरवाजे पर बैंकों के भारी तकाजे आने वाले हैं। यह उन कर्जो के लिए होंगे जो पिछले एक दशक में उठाये गए थे। ऐसी स्थिति में हर वित्त मंत्री अपना सबसे बड़ा मंत्र चलाता है। वह है नोट छापने की मशीन जो रुपये छाप कर घाटा पूरा करने लगती है। कुछ वर्ष पहले तक यह खूब होता रहा है। हमें तो बस यह देखना है कि इस बजट में यह मंतर आजमाया जाएगा या नहीं?
सरकार के खर्च में वृद्घि से ईष्र्या होती है। काश देश के अधिकांश लोगों की आय भी इसी तरह बढ़ती, सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता भी इसी तर्ज पर बढ़ जाती। बुनियादी सुविधायें भी इतनी नहंी तो कम से कम थोड़ी भी बढ़ जातीं, तो मजा आ जाता। लेकिन वहां सब कुछ पहले जैसा है या बेहतरी नगण्य है। इधर बजट में खर्च फूल कर गुब्बारा होता जा रहा है और सरकार का कर्ज बैंकों की जान सुखा रहा है लेकिन इन चिंताओं से फायदा भी क्या है? बजट तो खाली खजाने से खरबों के खर्च का जादू है और जादू में सवालों की जगह कहां होती है? वहां तो सिर्फ तालियों सीटियों की दरकार होती है, इसलिए बजट देखिये या सुनिये मगर गालिब की इस सलाह के साथ कि .. हां, खाइयो मत, फरेब -ए- हस्ती / हरचंद कहें, कि है, नहीं है।
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अन्‍यर्थ के लिए
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