Monday, May 10, 2010

महात्रासदी का ग्रीक कोरस

व धुएं में घिरे एथेंस के मार्फिन बैंक की खिड़की पर एक महिला का शव टंगा है। ..ग्रीस के शहरों में अराजकता दौड़ रही है, दंगे जानलेवा हो चले हैं। . इस देश पर आतंकवाद, युद्ध या प्रकृति का कहर नहीं टूटा है। एक चुनी हुई सरकार भी है, लेकिन लोकतंत्र और ओलंपिक का जन्मदाता देश जल रहा है। सड़कों पर दंगा करती भीड़ को समझ में नहीं आता कि उनके प्यारे फलते-फूलते ग्रीस (यूनान) में अचनाक क्या हो गया है? ..यही बात तो 2001 में ब्यूनस आयर्स (अर्जेटीना) की सड़कों पर मरते-मारते लोग भी समझ नहीं पा रहे थे कि वह नौकरियां गंवाकर अचानक सड़कों पर कचरा क्यों बीनने लगे? ..पूरा विश्व देख रहा है कि देशों का कर्ज संकट में फंसना या देनदारी में चूकना (सावरिन डिफाल्ट) कितनी दर्दनाक विपत्ति है। एक ऐसी आपदा जो गुस्साई प्रकृति, सिरफिरे आतंकी या युद्धखोर राजनेताओं के चलते नहीं, बल्कि सरकारों और स्मार्ट व ज्ञानी गुणी वित्तीय कारोबारियों के चलते आती है। देशों का कर्ज संकट गलतियों का पीड़ादायक दोहराव है, जिसने सिर्फ कुछ महीनों में एक संपन्न देश को वस्तुत: भिखारी बना दिया है। ऊपर से दुनिया यह मान रही है कि ग्रीस दरअसल वित्तीय महात्रासदी का कोरस (ग्रीक रंगमंच की परंपरा में ट्रेजडी से पहले गाया जाने वाला सहगान) मात्र है। इस ट्रेजडी के कई अंक अभी बाकी हैं।
जब देश डूबते हैं..!!
अंतरिक्ष में मानव की पहली उड़ान (अपोलो 8) के कमांडर फ्रैंक बोरमैन मजाक में कहते थे कि नर्क की संकल्पना के बिना जैसे ईसाइयत नहीं रह सकती, ठीक उसी तरह दीवालियेपन के बिना पूंजीवाद भी मुश्किल है। अमेरिकी मानते रहें कि व्यक्ति के लिए दीवालिया होना नई शुरुआत का मौका है, मगर जरा ग्रीस से पूछिए वह किस नई शुरुआत के बारे में सोच रहा है? किसी देश के लिए संप्रभु कर्ज संकट दरअसल घोर नर्क है जो देश की वित्तीय साख, उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति, वित्तीय तंत्र की मजबूती और देश में निवेश की उम्मीदें आदि सब कुछ लील जाता है। दरअसल जब देश डिफाल्टर होते हैं, और वह भी विदेशी बाजारों से लिए गए कर्जो में तो ग्रीस जैसे उदाहरण बनते हैं। एक बार बस बाजार को पता भर चले कि देश की हालत नरम-गरम है तो कर्ज की रेटिंग गिरने लगती है और बात नए कर्जो पर रोक, बैंकों की बर्बादी से होती मुद्रा अवमूल्यन, दीवालियेपन तक तक आ जाती है। अंतत: अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं अनुदान देती हैं और देश संकट की एक लंबी सुरंग में चला जाता है। इस महाव्याधि का इलाज भी कम मारक नहीं होता, लेकिन उस पर चर्चा फिर कभी। फिलहाल तो यह देखें कि ग्रीस ने यह नया इतिहास कैसे बनाया?
ग्रीक व्यथा की अंतर्कथा
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस अपनी क्षमता से अधिक इतिहास बनाता है। संप्रभु दीवालियेपन की शायद सबसे पहली घटना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में ग्रीस में ही घटी थी, जब इसकी दस नगरपालिकाएं कर्ज चुकाने में चूक गई थी। वैसे ग्रीस के ताजा इतिहास में ज्यादा रोमांच है। अमीर देशों में शुमार ग्रीस 2000 से 2007 तक यूरो जोन की सबसे तेज दौड़ती (4.2 फीसदी विकास दर) अर्थव्यवस्थाओं में एक था। मगर 2008 की मंदी ने ग्रीस के दो सबसे बड़े उद्योगों पर्यटन व शिपिंग को तोड़ दिया और सरकार का राजस्व बुरी तरह घट गया। पर इसमें अचरज क्या? यह तो लगभग हर देश के साथ हुआ था, दरअसल ग्रीस में असली लोचा यहीं पर था। घाटा बढ़ने के बावजूद ग्रीस कर्ज लेता रहा और अपना वित्तीय सच दुनिया से छिपाता रहा। पिछले साल के अंत में दुनिया को पता चला कि ग्रीस में घाटे व कर्ज के आंकड़े झूठ हैं। इस मुल्क ने 216 बिलियन यूरो का कर्ज ले रखा है, जो कि उसके जीडीपी का 120 फीसदी है। दुनिया को पता था कि ग्रीस सरकार के बांडों में 70 फीसदी निवेश विदेशी है, इसलिए 2009 के अंत से ग्रीस में महासंकट की उलटी गिनती शुरू हो गई थी। इस साल मार्च में जब ग्रीस की सरकार ने वित्तीय पाबंदियों का कानून बनाकर खतरे का बटन दबाया तो वित्तीय बाजार में ग्रीस के बांडों की रेटिंग जंक यानी कचरा होने लगी और दुनिया समझ गई कि ग्रीस तो अब गया।
फिर भी तो नहीं सीखते !!
2010 का पहला सूरज चढ़ने तक दुनिया यह जान गई थी कि ग्रीस डूबेगा, लेकिन यह अब भी एक रहस्य है कि डूबते ग्रीस के बांड इस साल की शुरुआत में ओवरसब्सक्राइब कैसे हो गए? दरअसल दुनिया ने कभी वक्त पर उस पूर्व चेतावनी तंत्र की नहीं सुनी है, जिसे इतिहास कहा जाता है। वित्तीय बाजार के विस्तार के साथ देशों का कर्ज में चूकना तेजी से बढ़ा है। 1824 से 2006 के बीच दुनिया में संप्रभु दीवालियेपन की 257 घटनाएं हुई थीं, लेकिन अकेले 1981 से 1990 के बीच देशों के कर्ज में चूकने की 74 और 1998 से 2004 के बीच 16 घटनाएं हुई। 1500 से 1900 ईसवी के बीच फ्रांस आठ बार और स्पेन 13 बार दीवालिया हुआ। हालांकि इतना पीछे जाने की जरूरत नहीं है। अर्जेटीना, मेक्सिको, रूस, थाइलैंड इस मर्ज के सबसे ताजे उदाहरण हैं। पिछले करीब 220 साल में छह बार दीवालिया हुआ अर्जेटीना तो दुनिया के अर्थशास्त्रियों के बीच मजाक का विषय है। देशों के दीवालियेपन पर आर्थिक शोध का अंबार लगा है, लेकिन इसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह आर्थिक नर्क जब भी बना है तब बेतहाशा खर्च, राजकोषीय असंतुलन और वित्तीय अपारदर्शिता व विदेशी बाजारों से अंधाधुंध कर्ज इसके मूल में रहे हैं। शोध बताते हैं कि बैंकों व मुद्राओं के संकट अंतत: देशों को दीवालियेपन पर आकर रुके हैं। अर्जेटीना, उरुग्वे, यूक्रेन, इंडोनेशिया और ग्रीस के ताजे संकट इसकी नजीर हैं। जानकार कहेंगे कि ग्रीस तकनीकी तौर पर डिफाल्टर नहीं है, क्योंकि वह आईएमएफ की आक्सीजन पर है, लेकिन बाजार मुतमइन है कि ग्रीस व्यावहारिक रूप से डिफाल्टर है। जैसे ही ग्रीस अपने कर्ज की देनदारी को टालेगा या कर्जो का पुनर्गठन करेगा। उस पर आधिकारिक डिफाल्टर की मुहर लग जाएगी।
ग्रीस की रंगमंचीय परंपरा में दशकों से मार्च अप्रैल के महीनों में थियेटरों में ट्रेजडी का मंचन का होता है। ..ग्रीस ने अपनी यह परंपरा नहीं छोड़ी, इस समय वहां एक सुपर ट्रेजडी का मंचन हो रहा है। यह बात दीगर कि ग्रीस के लोग इस त्रासदी का हिस्सा बनना कतई नहीं चाहते थे, लेकिन वह करें भी क्या? सरकारें हमेशा मनमाना कर गुजरती हैं, बाद में आम जनता मरती व भरती है। ग्रीस जैसे संकट की कल्पना भी किसी देश के लिए डरावनी है, लेकिन हकीकत बड़ी जालिम है। वित्तीय बाजार ग्रीस को महात्रासदी का पहला अध्याय मान रहे हैं। ग्रीस यूरोप में अकेला बीमार नहीं है और जो दूसरे बीमार हैं उन्होंने ही ग्रीस को कर्ज भी दे रखा है। यानी कि त्रासदी के लिए अगले मंच तैयार हो रहे हैं, ऊपर से इस संप्रभु कर्ज संकट का इलाज भी किसी आपदा से कम नहीं है। यूरोप के समृद्ध मुल्क कर्ज के खेल में देशों की बर्बादी को तीसरी दुनिया की आपदा बताते थे, मगर इस अपशकुन ने अब उनका घर भी देख लिया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार कोई अमीर देश इस तरह डूब रहा है। ..मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो, किनारे से टकरा गया था सफीना।
-----------------------------
( विनम्र संदर्भ: इसी स्‍तंभ में आठ दिसंबर 2009 में लिखा गया था कि महासंकट की उलटी गिनती प्रारंभ हो गई है। तब भारत में इसकी चर्चा मुश्किल से सुन पड़ती थी। वह तो बजट के कयास और मंदी खत्‍म होने खूबूसरत ख्‍यालों का मौसम था। ग्रीक की समस्‍या के साथ सॉवरिन डिफाल्‍ट की महात्रासदी शुरु हो गई है। आंच हम तक आ रही है। .............. और मजा देखिये कि आज 10 मई 2010 के अखबारों में सरकार के मुख्‍य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु कह रहे हैं कि यूरोप का संकट भारत के पूंजी बाजार में विदेशी निवेश की बाढ़ लाने वाला है। 12 अप्रैल 2010 को आप पढ़ चुके हैं कि सुरक्षित होने के खतरे सर पर हैं। ..... आमीन.!!!! दोनों स्‍तंभ बायें तरफ आर्काइव में हैं। )

Monday, May 3, 2010

ऊंटों के सर पर पहाड़

यूरोपीय बैंकरों के सपने में आज कल राबिन हुड आता है, घोड़े पर सवार, टैक्स का चाबुक फटकारता हुआ!! हेज फंड मैनेजरों को पिछले कुछ महीनों से बार-बार टोबिन टैक्स वाले जेम्स टोबिन (विदेश मुद्रा कारोबार पर टैक्स) की आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं!! नया कर लगाकर ओबामा अमेरिकी बैंकों के लिए उद्धारक की जगह अब मारक हो गए हैं! भारतीय रिजर्व बैंक भी विदेशी निवेशकों को टोबिन टैक्स का खौफ दिखाता है!! और पूरी दुनिया की वित्तीय संस्थाओं के प्रमुख तो अब आईएमएफ का नाम सुनकर सोते से जाग पड़ते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष विश्व के महाकाय वित्तीय कारोबार पर टैक्स की कटार चलाने को तैयार है। ..यह बदलाव हैरतअंगेज है। उदार पूंजी के आजाद परिंदों के लिए पूरी दुनिया मिलकर तरह-तरह के जाल बुनने लगी है। हर कोई मानो वित्तीय संस्थाओं से उनकी गलतियों और संकटों की कीमत वसूलने जा रहा है। वित्तीय बाजार के सम्राट कठघरे में हैं और खुद को भारी जुर्माने व असंख्य पाबंदियों के लिए तैयार कर रहे हैं। यकीनन, एक संकट ने बहुत कुछ बदल दिया है।
और बिल कौन चुकाएगा?
वित्तीय बाजार के ऊंट अब पहाड़ के नीचे हैं। दुनिया के दिग्गज बैंकों व वित्तीय संस्थाओं की पारदर्शिता कसौटी पर है। इनके ढहते समय राजनीतिक नुकसान देखकर सरकारों ने इन्हें जो संजीवनी दी थी, अब उसका बिल वसूलने की बारी है। ताजा हिसाब बताता है कि दुनिया के भर के बैंकों व वित्तीय संस्थाओं ने डेरीवेटिव्स के खेल में करीब 1.5 ट्रिलियन डालर गंवाए हैं। जबकि बैलेंस शीट से बाहर जटिल वित्तीय सौदों का नुकसान दस ट्रिलियन डालर तक आंका जा रहा है। एक आकलन के मुताबिक संकट से पहले तक दुनिया भर बैंकों की शेयर पूंजी दो ट्रिलियन डालर के करीब थी। यानी कि बैंकों के पास घाटा है पूंजी नहीं। वित्तीय विश्लेषक मान रहे हैं कि बैंकों को उबारने पर दुनिया की सरकारें 9 ट्रिलियन डालर तक खर्च कर चुकी हैं। इस रकम को उंगलियों पर गिनना (डालरों के हिसाब में ट्रिलियन बारह शून्य वाली रकम है। रुपये में बदलने के बाद यह और बड़ी हो जाती है) बहुत मुश्किल है। बेचैनी इसलिए है कि बैंकों के साथ देश भी दीवालिया होने लगे हैं। आइसलैंड ढह गया है, संप्रभु कर्जो में डिफाल्टर बर्बाद ग्रीस को यूरोपीय समुदाय और आईएमएफ ने रो झींक कर 60 बिलियन डालर की दवा दी है। सरकारों को यह पता नहीं आगे कितनी और कीमत उन्हें चुकानी होगी। इसलिए वित्तीय खिलाडि़यों या संकट के नायकों पर नजला गिरने वाला है। दिलचस्प है कि जिस अमेरिका ने पिछले साल नवंबर में जी 20 देशों की बैठक में इस टैक्स को खारिज कर दिया था, उसी ने बैंकों पर नया कर थोप कर करीब 90 बिलियन डालर निकाल लिये है। ..अमेरिका को देखकर अब पूरी दुनिया वित्तीय कारोबार पर तरह-तरह के करों का गणित लगाने लगी है।
हमको राबिन हुड मांगता!
यूरोप के लोग वित्तीय संस्थाओं के लिए राबिन हुड छाप इलाज चाहते हैं। अमीरों से छीनकर गरीबों को बांटने वाला इलाज। आक्सफैम जैसे यूरोप के ताकतवर स्वयंसेवी संगठनों ने वित्तीय संस्थाओं पर राबिन हुड टैक्स लगाने की मुहिम चला रखी है। मांग है कि बैंकों व वित्तीय संस्थाओं के आपसी सौदों पर 0.05 फीसदी की दर से कर लगाकर हर साल करीब 400 बिलियन डालर जुटाए जाने चाहिए। पूरे प्रसंग में राबिन हुड का संदर्भ प्रतीकात्मक मगर बेहद अर्थपूर्ण है। दरअसल आंकड़ों वाली वित्तीय दुनिया भी नैतिकता के सवालों में घिरी है। अमेरिकन एक्सप्रेस, सिटीग्रुप, एआईजी, गोल्डमैन, मोरगन, बैंक आफ अमेरिका, वेल्स फार्गो से लेकर यूरोप के आरबीएस, लायड्स और बर्बादी के नए प्रतीक ग्रीस के एप्सिस बैंक तक, पूरी दुनिया का लगभग हर बड़ा बैंक दागदार है और कर्जदार है अपने देश की आम जनता का, जिसके टैक्स की रकम से इन्हें उबारा गया है। मुनाफे तो इनके अपने थे, लेकिन इनकी बर्बादी सार्वजनिक हो गई है। जाहिर है, कोई सरकार आखिर कब तक इनकी गलतियों का बोझ ढोएगी? इसलिए यह सवाल अब बडे़ होने लगे हैं कि बैंक दुनिया में सबसे ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। यहां अन्य उद्योगों की तुलना में प्रति कर्मचारी मुनाफा 26 गुना ज्यादा है। तो फिर इन्हें अपनी बर्बादी से बचाने का बिल चुकाना चाहिए। राबिन हुड टैक्स का आंदोलन चलाने वाले कहते हैं कि यह संकट एक अवसर है। इनके अकूत मुनाफे से कुछ हिस्सा निकलेगा तो भूखे-गरीबों और बिगड़ते पर्यावरण के काम आएगा। ..यह वित्तीय सूरमाओं से प्रायश्चित कराने की कोशिश है।
गलती करने का. तो टैक्स भरने का
वित्तीय अस्थिरता का इलाज निकालने के लिए अधिकृत आईएमएफ ने ताजी रिपोर्ट में अपना फंडा साफ कर दिया है। मतलब यह कि जोगलती करें, वे टैक्स भरें। क्योंकि सरकारों के पास खैरात नहीं है। मुद्राकोष दो तरह के टैक्स लगाने की राय दे रहा है। पहला कर इस मकसद से कि आगे अगर कोई बैंक डूबे तो उसे उबारने के लिए पहले से इंतजाम हो। यह कर बैंकों की कुल देनदारियों पर लगेगा। बकौल आईएमएफ इससे हर देश को अपने जीडीपी आकारके कम से कम दो फीसदी के बराबर की राशि जुटानी होगी। अमेरिका में इससे 300 अरब डालर मिलने का आकलन है। जबकि दूसरा कर वित्तीय कामकाज कर कहा जा रहा है। यह बैंकों के अंधाधुंध मुनाफों और अधिकारियों दिए जाने वाले मोटे बोनस पर लगेगा। इसके अलावा विभिन्न देशों में वित्तीय कारोबार पर कर से लेकर विदेशी मुद्रा वापस ले जाने पर टोबिन टैक्स जैसी कई तरह की चर्चाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कारोबार का आकार (बैंक आफ इंटरनेशनल सेटलमेंट के आंकड़े के अनुसार सालाना 60 ट्रिलियन डालर का शेयर, 900 ट्रिलियन डालर का विदेशी मुद्रा, 2200 ट्रिलियन डालर का डेरीवेटिव्स, 950 ट्रिलियन डालर का ओटीसी डेरीवेटिव्स और स्वैप कारोबार) इतना बड़ा है कि छोटा सा टैक्स भी बहुत बड़ा हो जाता है। हिसाब किताब लगाने वाले कहते हैं कि विश्व का सालाना वित्तीय कारोबार पूरी दुनिया के जीडीपी से 11 गुना ज्यादा है !!! .. एक तो इतना बड़ा कारोबार, ऊपर से खतरे हजार और डूबने पर सरकार से मदद की गुहार... ओबामा लेकर गार्डन ब्राउन और एंजेला मर्केल तक सब कह रहे हैं ..बहुत नाइंसाफी है।
वित्तीय बाजार में ग्रीस की साख जंक यानी कचरा हो गई है। दीवालियेपन की दंतकथाएं बना चुका मशहूर स्पेन फिर आंच महसूस कर रहा है। इसलिए वित्तीय संस्थाएं भले ही कुनमुनाएं लेकिन माहौल उनके हक में नहीं है, क्योंकि देशों का दीवालिया होना बहुत बड़ी आपदा है। मुमकिन है कि एक माह बाद जून में कनाडा में होने वाली बैठक में जी 20 देशों के अगुआ मिलकर वित्तीय जगत के सम्राटों के लिए टैक्स की सजा मुकर्रर कर दें। कोई नहीं जानता कि बैंकों को मिलने वाली सजा बाजारों को उबारेगी या डुबाएगी? पता नहीं बैंक इन करों का कितना बोझ खुद उठायेंगे और कितना उपभोक्ताओं के सर डाल कर बच जाएंगे? ..दो साल पहले तक वित्तीय सौदों पर टैक्स व सख्ती की बात करने गंवार और पिछड़े कहाते थे, मगर आज हर तरफ पाबंदियों की पेशबंदी है। पता नहीं तब का खुलापन सही था या आज की पाबंदी। असमंजस में फंसी दुनिया अपने नाखून चबा रही है। ..बाजार की जबान में सब कुछ बहुत 'वोलेटाइल' है। ..''देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं, पैरों तले जमीन है या आसमान है।''
अन्‍यर्थ .... http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Monday, April 26, 2010

झूठ के पांव

आईपीएल, ग्रीस, गोल्डमैन सैक्श और आइसलैंड में क्या समानता है? यह सभी बड़े, चमकदार, जटिल और विशाल झूठ व फर्जीवाड़े की ताजी नजीरें हैं जो भारत से लेकर यूरोप व अमेरिका तक फैली हैं। यकीनन इन्हें शानदार कुशलता से गढ़ा गया था, लेकिन मंजिल तक ये भी नहीं पहुंच पाए।.. रास्ते में ही बिखर गए। झूठ का सबसे बड़ा सच यही है कि यह किसी तरह से नहीं छिपता। न राष्ट्रीय झंडे और सरकारी मोहर की ओट में, न बड़े नाम और ऊंची साख की छाया में और न लोकप्रियता और सितारों की चमक में। यहां तक कि आंकड़ों की भूल भुलैया भी झूठ को ढक नहीं पाती। ग्रीस की सरकार ने अपने कर्ज को छिपाने के लिए जो झूठ बोला था, उसने देश को आर्थिक त्रासदी में झोंक दिया है। दुनिया के सबसे बड़े निवेश बैंक गोल्डमैन सैक्श का झूठ वित्तीय बाजारों को नए सिरे से हिला रहा है। आइसलैंड झूठ बोलकर बर्बाद हो चुका है और आईपीएल का झूठ भारत के क्रिकेट धर्म को पाप के पंक में डुबो रहा है। यकीनन यह धतकरम चुनिंदा लोगों ने खातों में खेल, कंपनियों के फर्जीवाड़े, वित्तीय अपारदर्शिता, आंकड़ों के जंजाल के जरिए किया था, लेकिन अब इनके झूठ की कीमत बहुत बड़ी और नतीजा बड़ा शर्मनाक होने वाला है।
सरकारी झूठ की ग्रीकगाथा
सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है। ग्रीस के दीवालियेपन और बदहाली की संकट कथा का निचोड़ यही है। ग्रीस को यूरोमुद्रा अपनाने वाले देशों के संगठन में इस शर्त पर प्रवेश मिला था कि वह घाटे और कर्ज को निर्धारित स्तर पर रखने की शर्ते (ग्रोथ एंड स्टेबिलिटी पैक्ट) पूरी करेगा। ग्रीसने यह सब शर्ते पूरी करने के लिए सच पर पर्दा डाल दिया। ताजा आर्थिक संकट आने के बाद दुनिया को पता चला कि ग्रीस ने खातों में खेल किया था। 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी पाया गया, जबकि सरकार ने अपने पहले आकलन में इसे 3.7 फीसदी माना था। यूरोपीय समुदाय के आधिकारिक आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) ने ग्रीस के इस फरेब को प्रमाणित कर दिया कि वहां की सरकार ने कई तरह के ब्याज भुगतान, कर्जो की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि को अपने नियमित खातों से छिपाया और सब घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से कर्ज उठाया। यह झूठ बहुत बड़ा था, इसलिए अब ग्रीस की साख खत्म हो गई है। देश पूरी तरह दीवालिया है और यूरोजोन के नियामकों का सर शर्म से झुक गया है। ग्रीस की जनता इस झूठ की कीमत नए टैक्स, गरीबी, महंगाई और संकट से ठीक उसी तरह चुकाएगी जैसा कि आइसलैंड में हुआ है। बैंकों के झूठ के कारण दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में एक आइसलैंड देखते-देखते राहत का भिखारी हो गया। पूरे संकट की जांच करने वाले आइसलैंड के ट्रुथ कमीशन की हाल में आई रिपोर्ट बताती है कि केंद्रीय बैंक के पास केवल 1.2 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार था, लेकिन बैंकों ने 14 अरब डालर का विदेशी कर्ज ले डाला। हकीकत खुली तो वित्तीय बाजारों में बैंकों और देश की साख कचरा और प्रतिभूतियां मिट्टी हो गई। इस बर्बादी का बिल देश की जनता टैक्स देकर चुका रही है।
खातों में खेल की ललित कला
क्रिएटिव अकाउंटिंग ???... ग्रीस से लेकर अमेरिका तक इस शब्द का अब एक ही अर्थ है- खातों में खेल और सच पर पर्दा। यूरोप में चर्चा है कि ग्रीस की सरकार को खातों में स्याह सफेद करने की ललित कला गोल्डमैन सैक्श ने सिखाई थी। पता नहीं कि इस प्रतिष्ठित निवेश बैंक ने दुनिया को और क्या-क्या सिखाया है? गोल्डमैन पिछले साल आए वित्तीय संकट पर अपने झूठ को लेकर कठघरे में है। अमेरिकी सरकार और गोल्डमैन सैक्श में ठन चुकी है। अमेरिका में सेबीनुमा और बेहद ताकतवर सरकारी नियामक सिक्योरिटी एक्सचेंज कमीशन ने हाल में गोल्डमैन पर निवेशकों को आने वाले संकट से धोखे में रखकर प्रतिभूतियां बेचने का आरोप लगाया है। ब्रिटेन व जर्मनी के वित्तीय नियामक और अमेरिका की सरकारी बीमा कंपनी एआईजी भी गोल्डमैन को कठघरे में खड़ा करने की तैयारी कर रही है। यह निवेश बैंकिंग उद्योग लिए नए संकट की शुरुआत है। निवेश बैंकों पर उनका झूठ अब भारी पड़ने लगा है। लेकिन निवेश बैंक ही क्यों खातों में खेल निजी कंपनियों का भी पुराना शगल रहा है, बीसीसीआई बैंक, जेराक्स, एनरान, सीआरबी से लेकर सत्यम तक खातों में खेल की कलाओं के तमाम उदारहण हमारे इर्द-गिर्द हैं। आईपीएल भी इसी वित्तीय झूठ का नमूना है, जिसमें क्रिकेट का खेल मैदान में हो रहा था मगर असली खेल पेंचदार कंपनियों, बेनामी निवेश, विदेश में लेन-देन और काले धन के निवेश का था।
पहरेदारों की लंबी नींद
अपनी बेईमानी को स्वाभाविक (बकौल मैकियावेली) मानते हुए आदमी ने ही तमाम नियामक बनाए हैं कि ताकि वे उसकी बेइमानी पकड़ें और पारदर्शिता तय करें, लेकिन इन नियामकों में भी भी तो मैकियावेली वाले आदमी ही हैं न? सो इनकी नींद ही नहीं टूटती। दुनिया में ज्यादातर वित्तीय घोटाले, खातों में गफलत और हिसाब किताब में हेरफेर या तो किसी संकट के बाद सामने आया है या फिर उस खेल और घोटाले में शामिल किसी खिलाड़ी ने ही पर्दा उठाया है। अमेरिका के नियामक ऊंघते रहे और मेरिल लिंच जैसे बैंकर झूठ बेचकर पैसा कूटते रहे। ग्रीस व आइसलैंड जब अपने खाते स्याह सफेद कर रहे थे, तब यूरोपीय नियामक सपनों में तैर रहे थे। वित्तीय फरेब की एनरान व सत्यम जैसी कथाएं प्राइस वाटर हाउस, आर्थर एंडरसन जैसे आडिटरों की निगहबानी में लिखी गई हैं। आयकर विभाग, कंपनी मामलों के मंत्रालय व तमाम नियामकों के सामने आईपीएल ने एक विराट झूठ का संसार रच दिया, जो अब ढह रहा है और वित्तीय धोखेबाजी का हर दांव इसमें चमकता दिख रहा है।
पूरी दुनिया में इस समय बड़े बडे़ झूठ खुलने का मौसम है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। इस समय भी जब आप यह पढ़ रहे हैं, तब भी दुनिया में कहीं न कहीं कोई वित्तीय बाजीगरी, खातों में कोई खेल चल रहा होगा और झूठ अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहा होगा। झूठ रचने वाले हमेशा हिटलर का यह मंत्र साधते हैं कि झूठ बड़ा हो और बार बार कहा जाए तो लोग विश्वास कर लेते हैं। ..हिटलर सच था .. आम लोगों ने बड़े झूठ पर हमेशा भरोसा किया है और बाद में उसकी कीमत भी चुकाई है। .जब ग्रीस चमक रहा था, आइसलैंड अमीरी दिखा रहा था, गोल्डमैन गरज रहा था और आईपीएल झूम रहा था तब लोग कैसे जान पाते कि यह सब वित्तीय झूठ के करिश्मे हैं। ..दरअसल फरेब का फैशन बड़ा मायावी है और आम लोग बहुत भोले हैं। ..वह झूठ बोल रहा था इस कदर करीने से, कि मैं एतबार न करता तो और क्या करता?
---------------------
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच, सातोरी)

Thursday, April 22, 2010

बजट की षटपदी (दो) – खर्च प्रसंग

यह अर्थार्थ स्‍तंभ का हिस्‍सा नहीं है लेकिन इसे एक तरह से अर्थार्थ भी माना जा सकता है। बजट के भीतर कर और खर्च को दो अलग-अलग दिलचस्‍प जगत हैं। बजट के अंतर्जगत की यात्रा पर दैनिक जागरण में दो चरणों मे प्रकाशित छह खबरों को लेकर कई स्‍नेही पाठकों काफी उत्‍सुकता दिखाई थी इसलिए लगा कि बजट की इस दिलचस्‍प दुनिया का ब्‍योरा सबसे बांट लिया जाए। सो बजट की यह षटपदी आप सबके सामने प्रस्‍तुत है। खुद ही देख लीजिये कि हमारी सरकारें कैसे कर लगाती है और कैसे खर्च करती हैं।
खातों में खेल-1
(केंद्र सरकार के खातों में दिलचस्प खेल जारी हैं। सरकार के पास विनिवेश फंड के खर्च का हिसाब- किताब रखने का खाता तक नहीं है।)

विनिवेश की रकम, बजट में गुम
-किस सामाजिक विकास के काम आई सरकारी रत्न बेचकर की गई कमाई?
-बजट में नहीं है विनिवेश की रकम के इस्तेमाल का ब्यौरा
-राष्ट्रीय निवेश फंड के इस्तेमाल का खाता तक नहीं
(अंशुमान तिवारी) सरकारी रत्नों को बेचकर की गई कमाई सरकार ने किस सामाजिक विकास में लगाई? सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से आया पैसा किसके काम आया? विनिवेश का पूरा हिसाब-किताब बजट के भीतर शायद कहीं खो गया है। न सही खाता है न बही। वित्त मंत्रालय को बस विनिवेश से मिली रकम मालूम है। मगर इस रकम का इस्तेमाल कहां और कितना हुआ, यह जानकारी देने वाला खाता या हिसाब-किताब बजट में है ही नहीं।
पूरा मामला सरकारी खातों में गंभीर अपारदर्शिता का है। सरकार ने विनिवेश की रकम को सामाजिक विकास स्कीमों और सरकारी उपक्रमों के सुधार में लगाने का नियम तय किया था। लेकिन सरकारी खातों की ताजी पड़ताल बताती है कि विनिवेश की रकम के इस्तेमाल का ब्यौरा ही उपलब्ध नहीं है। सूत्रों के मुताबिक नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) विनिवेश से मिली राशि को लेकर सरकार के खातों की पड़ताल कर रहा है और वित्त मंत्रालय से मामले की कैफियत भी पूछी गई है। मंत्रालय के अधिकारी इसके आगे कुछ बताने को तैयार नहीं है। बताते चलें कि सरकार ने पिछले वित्त वर्ष 2009-10 में विनिवेश से 25,958 करोड़ रुपये जुटाए हैं और इस साल 40,000 करोड़ रुपये जुटाने का कार्यक्रम है। जब पिछला हिसाब-किताब ही गफलत में है तो इसके इसके निर्धारित इस्तेमाल को लेकर भी संदेह है ।
सरकार ने विनिवेश से मिली रकम को रखने के लिए नेशनल इन्वेस्टमेंट फंड बनाया है। वर्ष 2008-09 के आंकड़े बताते हैं कि इसमें करीब 1,814.45 करोड़ रुपये की रकम है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। भारत की समेकित निधि में इस विनिवेश की राशि से 84.81 करोड़ रुपये की कमाई भी दिखाई गई, लेकिन इसके बाद इस रकम के इस्तेमाल और खर्च का कोई खाता या हिसाब बजट में उपलब्ध नहीं है। जबकि नियमों के तहत इस इस फंड से खर्च और कमाई का हर छोटा-बड़ा ब्यौरा बजट के हिस्से के तौर पर संसद के सामने होना चाहिए।
गौरतलब है कि विनिवेश से आई राशि को शेयर व ऋण बाजार में लगाया जाता है। यूटीआई एसेट मैनेजमेंट कंपनी (एएमसी), एसबीआई फंड्स और जीवन बीमा सहयोग एएमएसी विनिवेश से मिली रकम का निवेश एक पोर्टफोलियो मैनेजमेंट स्कीम के तहत शेयर बाजार में करती हैं। यह स्कीम सेबी के नियंत्रण मे है, लेकिन इस निवेश पर होने वाली कमाई या नुकसान का ब्यौरा भी सरकार के खातों में तलाशने पर नहीं मिलता।
एक जानकार के मुताबिक विनिवेश की राशि तो बजट में ही है, लेकिन इस खर्च का खाता न होने का मतलब है कि शायद इसका इस्तेमाल उन मदों में नहीं हुआ है जहां होना चाहिए था। अर्थात रत्नों की कमाई शायद बजट का घाटा कम करने में ही काम आई है। जिसे टालने के लिए सरकार ने यह तय किया था कि यह रकम स्पष्ट रूप से सामाजिक विकास व सार्वजनिक उपक्रमों के सुधार पर खर्च होगी।
=============
खातों में खेल-2
(सरकार के बजट का 'अन्य' खाता बहुत बड़ा हो गया है। करीब 30 फीसदी खर्च अन्य में डाल कर छिपा लिया जाता है, जो बजट में नजर नहीं आता। )

पूरी-पूरी स्कीमें निगल जाता है बजट का 'बेनामी' खाता
-अन्य खर्चो की छोटी सी मद हुई बहुत बड़ी
-हज सब्सिडी से लेकर इंदिरा आवास योजना तक अन्य खर्च में
-बड़ी मदों का आधा खर्च अन्य के खाते में
(अंशुमान तिवारी) बजट के खातों की खर्च की सबसे उपेक्षित और छोटी मद खर्च 'छिपाने' की शायद सबसे बड़ी मद बन चुकी है। बजट की खर्च सूची में सबसे नीचे छिपा नामालूम सा 'अन्य खर्च' पूरी-पूरी स्कीमें, भारी भरकम अनुदान और मोटी सब्सिडी तक निगल जाता है। पिछले कुछ वर्षो दौरान बजट में 'अदर एक्सपेंडीचर' दरअसल एक ब्लैक होल बन गया है। जिसमें हज सब्सिडी और इंदिरा आवास योजना जैसे बड़े-बड़े खर्चे भी गुम हो जाते हैं। और ऊपर से तुर्रा यह कि इस भीमकाय अन्य खर्च का कोई ब्यौरा बजट के जरिए देश को बताया भी नहीं जाता।
सरकार के खातों में इतने बड़े-बड़े गुन हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। ताजा बजट 7,35,657 करोड़ रुपये के गैर योजना खर्च में 2,07,544 करोड़ रुपये अर्थात करीब 30 फीसदी खर्च अन्य के खाते में डाल कर निकल गया है। इस अन्य में राज्यों की पुलिस को चुस्त करने के लिए अनुदान जैसे अहम खर्च भी हैं। सूत्रों के मुताबिक सीएजी यानी नियंत्रक व महालेखा परीक्षक पिछले साल से इस अन्य के रहस्य से जूझ रहा है। पिछले साल आई सीएजी की रिपोर्ट में इस पर सरकार से जवाब मांगा गया था, लेकिन वित्त मंत्रालय सवालों से किनारा कर रहा है।
वर्ष 2007-08 और 08-09 में सरकारी खर्च की गहरी पड़ताल बताती है कि 29 प्रमुख खर्चो के मामले में क्रमश: करीब 20,000 करोड़ रुपये और 28,000 करोड़ रुपये का खर्च अन्य की छोटी मद में दिखा दिया गया। सूत्रों के मुताबिक वर्ष 2008-09 के बजट में 8,799 करोड़ रुपये की इंदिरा आवास योजना, 620 करोड़ रुपये की हज सब्सिडी और सफाई कर्मियों के लिए 100 करोड़ रुपये की योजना जैसे खर्च अन्य के अंधे कुएं में खो गए। वर्ष 2007-08 के बजट में हज सब्सिडी के अलावा गांवों में गोदाम बनाने और अनुसूचित जातियों के कल्याण की स्कीम भी अन्य खर्चो का हिस्सा बन गई।
अपारदर्शी हिसाब-किताब की यह बीमारी ग्रामीण विकास, आवास, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण, नागरिक विमानन और कृषि जैसे बड़े मंत्रालयों के खर्च में और बढ़ी है। आकलन बताता है कि 29 बड़ी मदों में कुल खर्च का आधा से ज्यादा हिस्सा अन्य खर्च में खो गया है। दरअसल सरकार अन्य खर्चो के हिसाब को बजट के जरिए देश को नहीं बताती। इसलिए यह पता भी नहीं चलता कि इस अन्य की मद में क्या-क्या छिपा है। केंद्र के बजट में खर्च को कुछ बड़ी मदें (मेजर हेड) और एक छोटी मद (माइनर हेड) में बांटा जाता है। अन्य खर्च बजट की छोटी मद है। सिर्फ बड़ी मदों का खर्च बजट के जरिए संसद और देश के सामने रखा जाता है। छोटी मदों के खर्च को सरकारी खातों के नियंत्रक (सीजीए) अलग से हिसाब लगाकर फाइलों में दाखिल दफ्तर कर देते हैं। अन्य खर्चो की यह छोटी सी मद हर मंत्रालय के खर्च के साथ चिपकी रहती है और जाहिर है कि अब सरकार के लिए बड़े काम की साबित हो रही है।
--------------------
खातों में खेल (अंतिम)
केंद्र सरकार अब पंचायती राज संस्थाओं व स्थानीय निकायों को पैसा दे रही है। बजट का एक मोटा हिस्सा इन्हें सीधे मिलता है, लेकिन इन तक नहीं पहुंचती आडिट की रोशनी।

खर्च के अधिकार, हिसाब पर अंधकार
-स्वायत्त संस्थाओं को सीधे मिलने वाले हजारों करोड़ सरकार के राडार से बाहर
-मनरेगा, ग्राम सड़क सहित कुल योजना खर्च का 40 फीसदी आवंटन निचले निकायों व स्वायत्त संस्थाओं को
(अंशुमान तिवारी) प्रदेश व जिलों में स्वायत्त संस्थाओं, सोसाइटी और स्वयंसेवी संस्थाओं को सीधा आवंटन सरकार के बजट का अंधा कोना बन गया है। इन संस्थाओं को खर्च के अधिकार तो मिल गए हैं, लेकिन हिसाब को लेकर अंधेरा है। आवंटन होने के बाद खर्च और इनके खातों में बचत को जांचने का कोई तंत्र नहीं है, क्योंकि इन्हें मिला पैसा सरकारी खातों के राडार से बाहर हो जाता है। मनरेगा, ग्रामीण पेयजल, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसी हाई प्रोफाइल स्कीमों सहित केंद्र के योजना खर्च का करीब 40 फीसदी हिस्सा इसे 'अंधेरे' में डूबा है।
सरकारी स्कीमों पर अमल की प्रणाली पिछले दशक में आमूलचूल बदल गई है। केंद्र की बड़ी-बड़ी सामाजिक विकास स्कीमें कभी राज्य सरकारें लागू करती थीं, लेकिन अमल सुनिश्चित कराने के लिए केंद्र प्रदेशों में स्वायत्त संस्थाओं और स्वयंसेवी संगठनों को सीधे पैसा देता है। इन संस्थाओं को बजट से सीधे मिलने वाला धन बढ़ते-बढ़ते ताजे बजट में 1,07,551.53 करोड़ रुपये पर जा पहुंचा है। लेकिन आवंटन के बाद इस खर्च की गली बंद हो जाती है। इन के खर्च मामले में सीएजी के भी हाथ बंधे हैं, क्योंकि इन स्वायत्त संस्थाओं के संचालन सरकारी खातों का हिस्सा नहीं हैं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी इस मामले में सरकार से जवाब-तलब कर रहा है।
सीधे आवंटन की यह प्रणाली जबर्दस्त असंगति और अपारदर्शिता का शिकार हो गई है। स्थानीय संस्थाओं को वित्तीय ताकत देते हुए केंद्र यह सुनिश्चित नहीं कर पाया कि इनके खाते सरकार की निगाह में रहने चाहिए। सूत्रों के मुताबिक स्वायत्त संस्थाओं को दी गई राशि आवंटन के बाद सरकारी खातों से निकलकर इन संस्थाओं के अपने अकाउंट में चली जाती है। निश्चित तौर पर पूरा आवंटन उसी वर्ष खर्च नहीं होता और इनके खातों में पड़ा रहता है। जबकि सरकार का बजट उसे खर्च मान लेता है और अगले साल संस्थाओं को नया आवंटन हो जाता है।
इन संस्थाओं को दिया जाने वाला यह पैसा केंद्र प्रायोजित स्कीमों का है जो कि विभिन्न मंत्रालय चलाते हैं। करीब 40,000 करोड़ रुपये के बजट वाली मनरेगा पूरी तरह इन संस्थाओं के हवाले है। 9,000 करोड़ रुपये इंदिरा आवास योजना, इतनी ही राशि वाले ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम, 12,000 करोड़ की ग्राम सड़क योजनाओं का 90 फीसदी आवंटन सीधे निचली संस्थाओं को होता है। इसी तरह स्कूली शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि की कई स्कीमों में भी बड़ा हिस्सा अब इन्हीं संस्थाओं के जरिए खर्च होता है।
इस सीधे आवंटन की राशि वित्त वर्ष 2007-08 में करीब 51,000 करोड़ रुपये थी, जो कि वर्ष 08-09 में बढ़कर 83,000 करोड़ रुपये और 09-10 में 95,000 करोड़ रुपये हो गई है। निचली संस्थाओं को सीधे आवंटन की प्रणाली एक नए तरह की वित्तीय विसंगति की वजह बन रही है और खर्च के एक बहुत बडे़ हिस्से को स्थापित मानीटरिंग प्रक्रिया से बाहर निकाल रही है।
----------------------------

बजट की षटपदी (एक) : कर कथा

यह अर्थार्थ स्‍तंभ का हिस्‍सा नहीं है लेकिन इसे एक तरह से अर्थार्थ भी माना जा सकता है। बजट के भीतर कर और खर्च के दो अलग-अलग दिलचस्‍प जगत हैं। बजट की इस अंतर्जगत की यात्रा पर दैनिक जागरण में दो चरणों मे प्रकाशित छह खबरों को लेकर कई स्‍नेही पाठकों काफी उत्‍सुकता दिखाई थी इसलिए लगा कि बजट की इस दिलचस्‍प दुनिया का ब्‍योरा सबसे बांट लिया जाए। सो बजट की यह षटपदी आप सबके सामने प्रस्‍तुत है। खुद ही देख लीजिये कि हमारी सरकारें कैसे कर लगाती है और कैसे खर्च करती हैं।

बेदर्द बजट -1

वही पीठ और वही चाबुक, बार-बार.. लगातार
· -आजमाई हुई सूइयां : दस साल में पांच सरचार्ज और पांच सेस
· उत्पाद शुल्क दरें यानी पहाड़ का मौसम
· -एफबीटी और मैट नए हथियार
(अंशुमान तिवारी) अगर दुनिया में टैक्स से बड़ी कोई सचाई नहीं है!! (बकौल चा‌र्ल्स डिकेंस) तो सच यह भी है कि भारत में न तो करों के चाबुक बदले हैं और न उन्हें सहने वाली पीठ। बदलते रहे हैं तो सिर्फ बजट व वित्त मंत्री। सरचार्ज और सेस वित्त मंत्रियों की पसंदीदा सूइयां हैं, जिन्हें पिछले दस बजटों में चार बार घोंपकर अर्थव्यवस्था से अचानक राजस्व निकाला गया है। पेट्रोल-डीजल से तीन बार नया सेस वसूला गया है। और उत्पाद शुल्क तो वित्त मंत्रियों के हाथ का खिलौना हैं। जिस वित्त मंत्री ने जब जैसे चाहा इन्हें निचोड़ लिया। पिछले एक दशक में सिर्फ मैट और एफबीटी करों के दो नए चाबुक थे, जिन्होंने बहुतों को लहूलुहान किया है।
बजट भाषणों में अक्सर होने वाली कर दरों की निरंतरता की वकालत अक्सर होती है, लेकिन पछले दस बजटों को एक साथ देखें तो समझ में आ जाता है कि कर ढांचे में और कुछ हो या न हो मगर निरंतरता तो कतई नहीं है। सिर्फ सरचार्ज और सेस ही नहीं, बल्कि लाभांश वितरण कर और मैट की दरें भी एक से अधिक बार बदली गई हैं।
उत्पाद शुल्क का खिलौना
बजट उत्पाद शुल्क के कारण इतने रोमांचक होते हैं। कोई नहीं जानता कि एक्साइज ड्यूटी में अगले साल क्या होने वाला है। सिर्फ वर्ष 1999 से लेकर 2003-04 तक उत्पाद शुल्क का ढांचा दो बार पूरी तरह उलट गया। तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा वर्ष 1999-2000 में उत्पाद शुल्क की तीन मूल्यानुसार दरों (8,16,24) से शुरू हुए। अगले साल तीनों का विलय कर 16 फीसदी की एक सेनवैट दर बन गई, लेकिन साथ ही विशेष उत्पाद शुल्क की तीन (8,16,24) दरें पैदा हो गई। अगले साल तीनों विशेष दरें भी 16 फीसदी की एक दर में समा गई। और जब राजग सरकार का आखिरी बजट आया तो तीनों पुरानी दरें एक बार फिर बहाल हो गई। इसे देखने के बाद भारत में निवेश करने वाला लंबी योजना बनाए भी तो कैसे?
सर पर चढ़ कर चार्ज
वह वित्त मंत्री ही क्या जो सरचार्ज न लगाए? पिछले दस साल में यह इंजेक्शन चार बार लगा है और खासी ताकत के साथ। राजग सरकार का पहला बजट व्यक्तिगत व कंपनी आयकर पर 10 फीसदी और सीमा शुल्क पर भी इतना ही सरचार्ज लेकर आया। अगले साल ऊंची आय वालों के लिए सरचार्ज को 15 फीसदी कर दिया गया। वर्ष 2001-02 में सरचार्ज वापस हो गया, लेकिन अगले ही साल राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता करते हुए बजट ने 5 फीसदी सरचार्ज की सूई फिर लगा दी गई। अपने अंतिम बजट में राजग सरकार ने आठ लाख से ऊपर की आय वालों पर 10 फीसदी का सरचार्ज लगाकर अपनी पारी पूरी की।
तेल का तेल
पेट्रोल-डीजल है तो राजस्व की क्या चिंता। पिछले दस सालों में वित्त मंत्रियों ने तीन बार पेट्रोल, डीजल आदि पर उपकर (सेस) लगाए हैं। यह जानते हुए भी कि इनकी बढ़ी कीमतें महंगाई बढ़ाती हैं। सिन्हा ने पहले बजट में डीजल पर एक रुपये प्रति लीटर का सेस लगाया था। दो साल बाद कच्चे तेल पर सेस बढ़ा और पेट्रोल पर भी सरचार्ज लग गया। वर्ष 2005-06 में चिदंबरम ने भी पेट्रोल-डीजल पर 50 पैसे प्रति लीटर का सेस लगाया था।
कर बिना लाभांश कैसा?
यह भी वित्त मंत्रियों का पसंदीदा कर रहा है। पिछले दस बजटों में चार बार इसका इस्तेमाल हुआ। एक बार सिन्हा ने इसे 10 से बढ़ाकर 20 फीसदी किया, मगर अगले ही साल घटाकर 10 फीसदी कर दिया तो चिदंबरम ने एक बार इसे 12.5 फीसदी किया और दूसरी बार 15 फीसदी कर दिया गया।
सिर्फ यही नहीं पिछले दस बजटों में दो बार शिक्षा उपकर लगा है। जबकि जीरो टैक्स कंपनियों पर मैट लगाकर और मैट बढ़ाकर वित्त मंत्रियों ने खजाने की सूरत संभाली है।
-----------------------
बेदर्द बजट -2
किसी ने नहीं छोड़ा, मगर सिन्हा जी ने ज्यादा निचोड़ा
· -टैक्स के मामले में सिन्हा के चार बजट, चिदंबरम के पांच बजटों पर दोगुने भारी
· -पिछले दस बजटों में लगे कुल 50 हजार करोड़ रुपये के नए कर
(अंशुमान तिवारी) अगर टैक्स किसी सभ्य समाज का सदस्य होने की फीस (बकौल फ्रेंकलिन रूजवेल्ट) है तो अपनी पीठ ठोंकिए, क्योंकि पिछली दो सरकारों ने आपसे यह फीस बखूबी वसूली है। पिछले दस बजटों में लगे नए टैक्सों का गणित औसतन पांच हजार करोड़ रुपये प्रति वर्ष बैठता है। करीब एक दशक में दो अलग-अलग सरकारों के वित्त मंत्रियों ने नए टैक्स लगाकर या कर दरें बढ़ाकर हमारी आपकी जेब से करीब 50 हजार करोड़ रुपये निकाले हैं। बात अगर निकली है तो यह भी बताते चलें कि सबसे ज्यादा कर लगाने का तमगा राजग और उसके वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के नाम है। उनकी सरमायेदारी में आए बजटों में कर लगे नहीं, बल्कि बरसे हैं। नए करों के पैमाने पर यशवंत सिन्हा के चार बजट, पी. चिंदबरम के पांच बजटों पर दोगुना से ज्यादा भारी हैं।
टैक्स बजट का असली दर्द हैं। कम ज्यादा हो सकता है, लेकिन यह भेंट देने में कोई वित्त मंत्री नहीं चूकता। पिछले दस साल के बजटों का एक दिलचस्प हिसाब- किताब उस पुरानी यहूदी कहावत के माफिक है, कर बगैर बारिश के बढ़ते हैं। ध्यान रहे कि यह बात उन नए या अतिरिक्त करों की है, जो किसी बजट में पुराने करों के अलावा लगाए जाते हैं।
राजग सरकार के वित्त मंत्री के तौर पर यशवंत सिन्हा ने अपने चार बजटों में 33 हजार 400 करोड़ रुपये के नए टैक्स लगाए, जबकि चिदंबरम के खाते में पांच बजटों में 17 हजार करोड़ रुपये के टैक्स दर्ज हैं। यह आंकड़ा वित्त मंत्रियों के बजट भाषणों पर आधारित है, जिसमें वह बताते हैं कि उनके कर प्रस्तावों से कितनी अतिरिक्त राशि खजाने को मिलने जा रही है।
वर्ष 1999-2000 से लेकर 2003-04 अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार के पांच बजटों में चार यशवंत सिन्हा ने पेश किए थे, जबकि अगले पांच बजट संप्रग के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने। राजग के कार्यकाल का आखिरी बजट जसवंत सिंह लाए थे। राजग के सभी बजटों को यदि एक कतार में रखा जाए तो वह करीब 36 हजार 694 करोड़ रुपये के टैक्स की सरकार थी। राजग की सरकार ने तो चुनाव से पहले के आखिरी पूर्ण बजट यानी 2003-04 में भी 3 हजार 294 करोड़ रुपये के कर लगाए थे।
राजग के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा निर्विवाद रूप से कर लगाने की मुहिम में चैम्पियन हैं। बात वर्ष 2002-03 के बजट की है। यह पिछले एक दशक में सबसे अधिक टैक्स वाला बजट था। इसमें 12 हजार 700 करोड़ रुपये के कर लगाए गए। उनके चार बजटों में सबसे कम टैक्स वाला बजट 2001-02 का था, मगर उस बजट में भी 4 हजार 677 करोड़ रुपये का कर लगा था। खास बात यह है कि राजग सरकार के बजट में अप्रत्यक्ष व प्रत्यक्ष दोनों कर बढ़े थे। इसमें भी प्रत्यक्ष करों यानी आयकर का बोझ कुछ ज्यादा था।
चिदंबरम की बजट मशीन ने करदाताओं का तेल अपेक्षाकृत कुछ कम निकाला है, लेकिन बख्शा उन्होंने भी नहीं। उन्होंने वर्ष 2005-06 और 2006-07 में हर साल 6 हजार करोड़ रुपये के कर लगाए। चिदंबरम ने आखिरी बजट को करों के बोझ से मुक्त कर दिया था, अलबत्ता संप्रग की दूसरी पारी के पहले बजट में इस साल जुलाई में प्रणब दादा ने 2 हजार करोड़ रुपये के अतिक्ति टैक्स लगाने का इंतजाम किया था।
--------------------
यशवंत सिन्हा : 'बजट आर्थिक नीतियों व आय व्यय का सालाना दस्तावेज होता है, जो उस समय की परिस्थितियों को देखकर बनाया जाता है। .. हमारे बजटों को भारी कर वाले बजट कहना ठीक नहीं होगा। दरअसल उन पर टैक्स बढ़ा जो छूट ले रहे थे या कम दरों पर कर दे रहे थे। सबसे जरूरी है- बजट का संतुलन, जो हमने किया था। एक असंतुलित बजट का खामियाजा देश व लोगों को भुगतना पड़ता है।'
-----------------
बेदर्द बजट -2
टैक्स ने जितना काटा, उतना बढ़ा घाटा
-भारी टैक्स वाले बजटों को लगी करधारकों की बद्दुआ, कर बढ़े तो बढ़ा घाटा भी
-मगर जब अर्थव्यवस्था हुई खुशहाल तो खजाना भी मालामाल
(अंशुमान तिवारी) यह टैक्स के कोड़े खाने वालों की बद्दुआ है या फिर वित्त मंत्रियों की अंधी गणित, लेकिन करों की कैंची से बजटों का घाटा कम नहीं हुआ है। पिछले दस बजटों में अधिकांश बार ऐसा हुआ है कि जब-जब कर बढ़े हैं, घाटा भी बढ़ गया है। घाटा दरअसल तेज आर्थिक विकास दर के सहारे ही कम हुआ है यानी अगर अर्थव्यवस्था खुशहाल तो सरकार की तिजोरी भी मालामाल।
वित्त मंत्री नए कर सिर्फ इसलिए लगाते हैं ताकि घाटा कम हो सके। पिछले एक दशक के सभी बजट भाषण पढ़ जाइए, हर वित्त मंत्री ने नए कर लगाते हुए यही सफाई दी है कि इससे घाटा कम किया जाएगा, लेकिन अगर आंकड़ों के भीतर उतर कर देखा जाए तो तस्वीर कुछ जुदा ही दिखती है। जिस साल भी नए कर लगाकर घाटा कम करने की जुगत भिड़ाई गई है, उसी साल के संशोधित आंकड़ों में घाटा बजट अनुमानों को चिढ़ाता हुआ नजर आया है।
वर्ष 1999-2000 से 2003-04 तक के सभी बजट जबर्दस्त टैक्स के बजट थे, लेकिन अचरज होता है कि यही बजट भारी घाटे के भी थे। इन पांच बजटों में पहले चार में (जीडीपी के अनुपात) में राजकोषीय घाटा 5.1 फीसदी से 5.9 फीसदी तक रहा, जो कि कर लगाने वाले वित्त मंत्रियों के अपने बजट अनुमानों को सर के बल खड़ा कर रहा था। सिर्फ 2003-2004 के बजट में यह पांच फीसदी से मामूली नीचे आया। इधर बाद के पांच बजट अपेक्षाकृत सीमित टैक्स के थे और इस दौरान घाटा 3.1 से 4.5 फीसदी के बीच रहा। पिछले वित्त मंत्री चिदंबरम का गणित आखिरी साल बिगड़ा जब राजकोषीय घाटा अचानक छह फीसदी हो गया।
नए करों का बोझ और घाटे का रिश्ता पिछले कई बजटों की कलई खोल देता है। राजग के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने वर्ष 2002-03 के बजट में 12 हजार 700 करोड़ रुपये के नए टैक्स लगाए थे, लेकिन उस बजट में राजकोषीय घाटा रहा 5.9 फीसदी पर। जबकि कर लगाते हुए सिन्हा ने 5.3 फीसदी का लक्ष्य तय किया था। इससे बुरा हाल हुआ वर्ष 1999-2000 के बजट का, जब भारी टैक्सों के बावजूद घाटा जीडीपी के अनुपात में चार फीसदी के मुकाबले 5.6 फीसदी रहा। सिर्फ जिस एक वर्ष (2003-04) में घाटा बजट अनुमान से नीचे रहा है, वह वर्ष 8.5 फीसदी की तेज आर्थिक विकास दर का था।
यहीं बजट का दूसरा दिलचस्प पहलू सामने आता है कि खजाने की हालत कर लगाने से नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था के बेहतर होने से सुधरी है। पिछले एक दशक के दूसरे पांच बजट इसकी नजीर हैं। इन पांचों बजटों में दिलचस्प यह है कि चिदंबरम ने लगातार दो साल (2005-06, 2006-07) में प्रति वर्ष 6 हजार करोड़ रुपये के अतिरिक्त कर लगाए, लेकिन दोनों वर्षो में राजकोषीय घाटा बजट अनुमान से नीचे रहा। यह दोनों वर्ष दरअसल पिछले एक दशक में सबसे तेज आर्थिक विकास दर यानी 9.5 और 9.7 फीसदी के थे।
------------------