Monday, June 28, 2010

तौबा, तेरा सुधार !!

अर्थार्थ
चास पार का पेट्रोल और चालीस पार का डीजल खरीदते हुए कैसा लग रहा है? सुधारों की पैकिंग में कांटो भरा तोहफा। पेट्रो उत्पादों के मामले में सरकारें हमेशा से ऐसा करती आई हैं। कीमतें बढ़ाते हुए हमें (सब्सिडी आंकड़ा दिखा कर) सब्सिडीखोर होने की शर्मिदगी से भर दिया जाता है। अंतरराष्ट्रीय कीमतों की रोशनी में तेल कंपनियों की बेचारगी देखकर हम मायूस हो जाते हैं। अंतत: सुधारों का तिलक लगा कर उपभोक्ता यूं बलिदान हो जाते हैं कि मानो कोई दूसरा जिम्मेदार ही न हो। यह सरकारों का आजमाया हुआ इमोशनल अत्याचार है। वैसे चाहें तो ताजा फैसले की रोशनी में इसे पेट्रो मूल्य प्रणाली में नया सुधार भी कह सकते हैं। मगर पेट्रो उत्पादों को दुगने तिगुने टैक्स से निचोड़ती राज्य सरकारों को कुछ मत कहिए। सब्सिडी का डीजल पी रहे जेनसेटों से घरों बाजारों को चमकने दीजिए, बिजली की कमी की शिकायत मत कीजिए। सार्वजनिक परिवहन की मांग मत करिए, क्या ऑटो कंपनियों की प्रगति से जलते हैं? यह सब सुधार के एजेंडे में नहीं आते हैं। ताजा सुधार तेल कंपनियों को सिर्फ पेट्रोल की कीमत तय करने की आजादी देता है। डीजल को लेकर रहस्य और केरोसिन व एलपीजी पर सब्सिडी कायम है। साथ ही सियासत के दखल का शाश्वत रास्ता भी खुला है, जिसके कारण पेट्रो मूल्य प्रणाली में सुधारों का इतिहास बुरी तरह दागदार रहा है।
मांग के बदले महंगाई
मांग तलाश रही अर्थव्यवस्था को सरकार ने महंगाई व ऊंची लागत थमा दी है। नीति निर्माता इस वित्त वर्ष की शुरुआत से ही महंगाई बनाम तेज विकास बनाम घाटे की तितरफा ऊहापोह में घिरे हैं। अब बारी बाजार व निवेशकों के भ्रमित होने की है। महंगे पेट्रो उत्पादों के बाद आने वाले महीनों में मांग बढ़ते रहने की कोई गारंटी नहीं है। अर्थव्यवस्था की हालिया चमक की मजबूती पर दांव लगाना अब जोखिम भरा है। आखिर मंदी से घायल व महंगाई से लदी अर्थव्यवस्था पेट्रो कीमतों की टंगड़ी फंसने के बाद कितना तेज चल पाएगी? बाजार को दिखने लगा है कि खेत से लेकर फैक्ट्री तक पहले से फैली महंगाई मांग को समूचा निगल जाएगी। कच्चे तेल की वायदा कीमतें आने वाले वक्त में पेट्रो उत्पाद और महंगे होने का वादा कर रही हैं। तभी तो रिजर्व बैंक ब्याज दरों में वृद्धि के कागज पत्तर संभालने लगा है। मुद्रास्फीति की आग पर उसे पानी डालना है। चीन के नए मौद्रिक दांव से अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमत बढ़ने वाली है। महंगा ईधन, महंगी पूंजी या कर्ज और महंगा कच्चा माल। महंगाई की मारी और मंदी से उबरती अर्थव्यवस्था को फिलहाल ऐसे सुधार की दरकार नहीं थी।
साफ सियासत, रहस्यमय फार्मूले

कल्पना कीजिए, बिहार (अक्टूबर 2010) या बंगाल (मई 2011) में चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है। तभी ईरान को अमेरिका अचानक परमाणु कार्यक्रम का नया पिन चुभो देता है या फिर इजरायल हाल के फ्लोटिला हमले जैसी कोई कारगुजारी कर बैठता है। दुनिया में तेल की कीमतें सातवें आसमान पर हैं, तब क्या होगा? सरकार तेल कंपनियों से कीमतें तय करने की आजादी तत्काल छीन लेगी। पेट्रो मूल्य प्रणाली के ताजा क्रांतिकारी सुधार में यह प्रावधान शामिल है। यही पेंच पेट्रो मूल्य ढांचे में सुधारों की साख को हमेशा से दागी करते हैं। 2002 में भी सरकार ने पेट्रो मूल्यों के नियंत्रण से तौबा की थी। बजट में ऐलान हुआ भी था लेकिन कीमतें सरकार की जकड़ से कभी आजाद नहीं हुई। बस केरोसिन व एलपीजी का घाटा तेल पूल खाते की जगह बजट में पहुंच गया। सुधारों के नए कार्यक्रम में भी सरकार के हस्तक्षेप की जगह और राजनीतिक ईधनों यानी डीजल, केरोसिन और एलपीजी की कीमतों में पुराना असमंजस बरकरार है। कीमतें कब कैसे कितनी बढ़ेंगी या सरकार कब किस मौके पर कैसे दखल देगी, इसके फार्मूले रहस्य के रवायती आवरण में हैं। ऐसी सूरत में सुधारों पर भरोसा जरा मुश्किल है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि सुधार की रोशनी राज्यों के टैक्स ढांचे तक नहीं पहुंचती जो पेट्रो उत्पादों की कीमत दोगुनी कर देते हैं। महंगी कारों में सस्ते ईधन के खेल, तेल कंपनियों की दक्षता, केरोसिन व डीजल की मिलावट के अर्थशास्त्र, संरक्षण की कोशिशों और वैकल्पिक ईधनों की जरूरत जैसे मुद्दों की तरफ भी सुधारों की नजर नहीं जाती। पेट्रो मूल्यों में सुधार का मतलब सियासत के हिसाब से कीमतों में कतर ब्योंत है बस। और इस पैमाने पर यह वक्त सबसे मुफीद था।
बाजार बदला, पैमाने नहीं
सरकार का सस्ता डीजल कहां खप रहा है? सबको पता है कि सस्ता केरोसिन देश में किस काम आता है? पिछले बीस साल में इस देश में ईधन की खपत का पूरा ढांचा बदल गया मगर सरकार के पैमाने नहीं बदले। बुनियादी ढांचे और बुनियादी सेवाओं में कई बुनियादी खामियों की कीमत पेट्रो उत्पाद चुकाते हैं। डीजल दुनिया के लिए ट्रांसपोर्ट फ्यूल है मगर भारत में यह एनर्जी फ्यूल भी है। आवासीय भवनों व शॉपिंग मॉल को रोशन करने वाले दैत्याकार किलोवाटी जनरेटर बिजली कमी से उपजे हैं। शहरों से लेकर गांवों तक अब जरूरत की तिहाई रोशनी डीजल से निकलती है। नए उद्योग सरकारी बिजली भरोसे नहीं बल्कि सस्ते डीजल की बिजली भरोसे आते हैं। पिछले चार साल में डीजल 30 से 40 रुपये प्रति लीटर हो गया लेकिन डीजल की मांग करीब नौ फीसदी सालाना की रिकार्ड दर से बढ़ रही है। देश के ज्यादातर शहर सार्वजनिक परिवहन के मामले में आदिम युग में हैं मगर ऑटो कंपनियां वक्त को पछाड़ रही हैं। कामकाजी आबादी से भरे शहर निजी वाहनों से अटे पड़े हैं और पेट्रोल की मांग 14 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है। बावजूद इसके पेट्रोल चार साल में 43 से 50 रुपये लीटर पर पहुंच गया। सस्ते डीजल और सस्ती बिजली दोनों की तोहमत खेती के नाम है लेकिन खेती में सिंचाई के फिर भी लाले हैं। दरअसल, बढ़ती अर्थव्यवस्था और कमाई ने बिजली, परिवहन सुविधाओं की कमी का इलाज सस्ते पेट्रो उत्पादों में खोज लिया है। इसलिए कीमत बढ़ने से मांग घटने का सिद्धांत यहां सिर के बल खड़ा है।
सरकार ठीक कहती है कि पेट्रो उत्पादों की महंगाई के मामले हम अभी सिंगापुर व थाईलैंड के करीब ही पहुंचे हैं। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस तो बहुत आगे हैं। यह भी सच है कि अरब के कुओं, मैक्सिको की खाड़ी और नार्वे के समुद्र से निकला तेल कीमत के मामले में उपभोक्ताओं के बीच फर्क नहीं करता। लेकिन जरा ठहरिये.. सरकारें चाहें तो फर्क पैदा कर सकती हैं क्योंकि ईधन के मूल्य महंगाई, जनता की आय और अर्थव्यवस्था की स्थिति देखकर ही तय होते हैं। मगर यहां तो सियासत का फार्मूला सब पर भारी है। अब छोड़ भी दीजिये, महंगाई से राहत की उम्मीद का दामन। बेनियाज और बेफिक्र सरकार ने एक नया धारदार सुधार आप पर लाद दिया है। इसलिए .. जोर लगा के हईशा!

बेनियाजी हद से गुजरी, बंदा परवर कब तलक
हम कहेंगे हाले दिल और आप फरमायेंगे क्या
(गालिब )
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Monday, June 21, 2010

मांग के कंधे पर बैठी महंगाई

अर्थार्थ
कदम रुके थे, पैर में बंधा पत्थर तो जस का तस था। महंगाई गई कहां थी? अर्थव्यवस्था मंदी से निढाल होकर बैठ गई थी इसलिए महंगाई का बोझ बिसर गया था। कदम फिर बढ़े हैं तो महंगाई टांग खींचने लगी है। मुद्रास्फीति का प्रेत नई ताकत जुटा कर लौट आया है। मंदी के छोटे से ब्रेक के बीच महंगाई और जिद्दी, जटिल व व्यापक हो गई है। यह खेत व मंडियों से निकल कर फैक्ट्री व मॉल्स तक फैल गई है। मानसून का टोटका इस पर असर नहीं करता। gमौद्रिक जोड़ जुगत इसके सामने बेमानी है। महंगाई ने मांग में बढ़ोतरी से ताकत लेना सीख लिया है। तेज आर्थिक विकास अब इसे कंधे पर उठाए घूमता है। भारत में आर्थिक मंदी का अंधेरा छंट रहा है। उत्पादन के आंकड़े अच्छी खबरें ला रहे हैं लेकिन नामुराद महंगाई इस उजाले को दागदार बनाने के लिए फिर तैयार है।
लंबे हाथ और पैने दांत
महंगाई अब खेत खलिहान से निकलने वाले खाद्य उत्पादों की बपौती नहीं रही। बीते छह माह में यह उद्योगों तक फैल गई है यानी आर्थिक जबान में जनरलाइज्ड इन्फलेशन। महंगाई मौसमी मेहमान वाली भूमिका छोड़कर घर जमाई वाली भूमिका में आ गई है। उत्पादन का हर क्षेत्र इसके असर में है। कुछ ताजे आंकड़ों की रोशनी में महंगाई के इस नए चेहरे को पहचाना जा सकता है। पिछले साल दिसंबर तक भारत में महंगाई खाद्य उत्पादों की टोकरी तक सीमित थी। गैर खाद्य उत्पाद महज दो ढाई फीसदी की मुद्रास्फीति दिखा रहे थे लेकिन अब सूरत बदल गई है। गैर खाद्य और गैर ईधन (पेट्रोल डीजल) उत्पादों में भी मुद्रास्फीति 8 फीसदी से ऊपर निकल गई है। खाद्य उत्पादों में तो पहले से 11-12 फीसदी की मुद्रास्फीति है। खासतौर पर लोहा व स्टील, कपड़ा, रसायन व लकड़ी उत्पाद के वर्गो में कीमतों में अभूतपूर्व उछाल आया है। यह सभी क्षेत्र कई उद्योगों को कच्चा माल देते हैं इसलिए महंगाई का इन्फेक्शन फैलना तय है। यह महंगाई का नया व जिद्दी चरित्र है। बजट में कर रियायतें वापस हुई तो कीमतें बढ़ाने को तैयार बैठे उद्योगों को बहाना मिल गया। महंगाई का फैक्ट्रियों (मैन्यूफैक्चर्ड उत्पादों) में घर बनाना बेहद खतरनाक है। तभी तो रिजर्व बैंक भी मुद्रास्फीति के बढ़ने को लेकर मुतमइन है। बाजार मान रहा है कि थोक कीमतों वाली महंगाई दहाई के अंकों का चोला फिर पहन सकती है, फुटकर कीमतों की मुद्रास्फीति तो पहले से ही दहाई में हैं। मैन्यूफैक्चर्ड और खाद्य उत्पादों की कीमतें साथ-साथ बढ़ने का मतलब है कि महंगाई के हाथ लंबे और दांत पैने हो गए हैं।
इलाज नहीं खुराक
महंगाई अब मांग के पंखों पर सवारी कर रही है। याद करें कि दो साल पहले 2007-08 की तीसरी तिमाही में जब मुद्रास्फीति ने अपना आमद दर्ज की थी तब भी भारत में आर्थिक विकास दर तेज थी और महंगाई बढ़ने की वजह मांग का बढ़ना बताया गया था। बात घूम कर फिर वहीं आ पहुंची है। आर्थिक वृद्घि का तेज घूमता पहिया महंगाई को उछालने लगा है जबकि आपूर्ति के सहारे महंगाई घटाने की गणित फेल हो गई है। अंतरराष्ट्रीय कारकों के मत्थे तोहमत मढ़ना भी अब नाइंसाफी है। ताजी मंदी के बाद से पिछले कुछ माह में पूरे विश्व के बाजारों में जिंसों यानी कमोडिटीज की कीमतें गिरी हैं लेकिन भारत में कीमतें बढ़ रही हैं। माना कि पिछली खरीफ को सूखा निगल गया था लेकिन रबी तो अच्छी गई। रबी में गेहूं की पैदावार 2009 के रिकॉर्ड उत्पादन 80.68 मिलियन टन से ज्यादा करीब 81 मिलियन टन रही। सरकार ने कहा कि इससे खरीफ का घाटा पूरा हो गया है मगर महंगाई वैसे ही नोचती रही। अंतत: सरकार ने पैंतरा बदला और अब खरीफ पर उम्मीदें टिका दीं। मानसून का आसरा देखा जाने लगा है। दरअसल आर्थिक विकास के पलटी खाते ही मांग बढ़ी है जिसने पूरा गणित उलट दिया। आपूर्ति बढ़ने से महंगाई कुछ हिचकती इससे पहले उसे मांग ने नए सिरे से उकसा दिया है।
सारे तीर अंधेरे में

महंगाई को लेकर सरकार और रिजर्व बैंक के सारे तीर दरअसल अंधेरे में चलते रहे हैं इसलिए महंगाई का इलाज करने के जिम्मेदार भी अब अटकल और अंदाज के सहारे हैं। आंकड़ों में अगर कमी दिखी तो सरकार ने भी ताली बजाई और अगर आंकड़े ने कीमतें बढ़ती बताईं तो सरकार ने भी चिंता की मुद्रा बनाई। सरकार के ं महंगाई नियंत्रण कार्यक्रम में अगला टारगेट दिसंबर है और मानसून ताजा बहाना है। हालांकि अच्छी खरीफ महंगाई का इलाज शायद ही करे। दरअसल पिछले चार फसली मौसमों से जारी महंगाई ने कृषि उपज के बाजार में मूल्य वृद्घि की नींव खोद कर जमा दिया है। खरीफ का समर्थन मूल्य बढ़ाना सियासी मजबूरी थी इसलिए खरीफ में पैदावार के महंगे होने का माहौल पहले से तैयार है। इधर अर्थव्यवस्था में आमतौर पर मांग बढ़ने के साथ ही रबी की बेहतर फसल ने ग्रामीण क्षेत्र में भी उपभोग खर्च बढ़ा दिया है। तभी तो रबी की फसल आते ही उपभोक्ता उत्पादों व दोपहिया वाहनों का बाजार अचानक झूम उठा है। यानी कि अगर बादल कायदे से बरसे तो भी खरीफ की अच्छी फसल महंगाई को डरा नहीं सकेगी। इसके बाद बचती है रिजर्व बैंक की मौद्रिक कीमियागिरी। तो इस मोर्चे पर दिलचस्प उलझने हैं। मंदी से उबरती अर्थव्यवस्था को सस्ते कर्ज का प्रोत्साहन चाहिए और सरकारी उपक्रमों व निजी कंपनियों की ताजी इक्विटी खरीदने के लिए बाजार को भरपूर पैसा चाहिए। इधर यूरोप के बाजारों से जले निवेशक डॉलर यूरो लेकर भारत की तरफ दौड़ रहे हैं। उनके डॉलर आएंगे तो बदले में रुपया बाजार में जाएगा। इसलिए रिजर्व बैंक गवर्नर सुब्बाराव का इशारा समझिये। वह बाजार और उद्योग की नहीं सुनने वाले। उन्हें मालूम है कि बाजार में इस समय पैसा बढ़ाना महंगाई को लाल कपड़ा दिखाना है। अर्थात कर्ज महंगा होकर रहेगा और महंगा कर्ज उद्योगों की लागत बढ़ाकर महंगाई के नाखून और धारदार करेगा।
भारत की अर्थव्यवस्था ने मंदी की मारी दुनिया में सबसे पहले विकास की अंगड़ाई ली है। अर्थव्यवस्था में कई मोर्चो पर सुखद रोशनी फूट पड़ी है। आर्थिक उत्पादन के ताजे आंकड़े उत्साह भर रहे हैं तो सरकारी घाटे को कम करने के सभी दांव (थ्रीजी व ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम की बिक्री और विनिवेश) भी बिल्कुल सही पड़े हैं। रबी के मौसम में खेतों से भी अच्छे समाचार आए हैं और मानसून आशा बंधा रहा है। लेकिन महंगाई इस पूरे उत्सव में विघ्न डालने को तैयार है। और जिस अर्थव्यवस्था में महंगाई मेहमान की जगह मेजबान यानी कि मौसमी की जगह स्थायी हो जाए वहां कोई भी उजाला टिकाऊ नहीं हो सकता। क्योंकि महंगाई का अंधेरा अंतत: हर रोशनी को निगल जाता है।

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Monday, June 14, 2010

दाग और दुर्गंध की दोस्ती

अर्थार्थ
भारत और अमेरिका में दोस्ती अब बहुत गाढ़ी हो चली है। दोनों शर्मिदगी को साझा कर रहे हैं। पेट्रोल कंपनी बीपी के कुएं से रिस कर मैक्सिको की खाड़ी में बहता तेल व्हाइट हाउस को दागदार करने लगा है, तो भारत सरकार 26 साल बाद 15 हजार मौतों वाले भोपाल गैस हादसे के गुनहगार तलाश रही है और शर्मिंदगी की दुर्गध से बचने के लिए सियासत के पीछे छिप रही है। रसूखदार कंपनियों के बेफिक्र कामकाज और बोदे कानूनों के कारण औद्योगिक हादसे बार-बार होते हैं और घोंघे से होड़ करती न्याय व्यवस्था के कारण पूरी बहस आपराधिक उपेक्षा बनाम भूल-चूक की कानूनी धुंध में गुम हो जाती है। अंतत: पहाड़ जैसी तबाही के बदले राई जैसी राहत पर बात समाप्त हो जाती है। अमेरिकी राज्य लुइसियाना अपने वर्तमान को, भोपाल के ढाई दशक पुराने अतीत के साथ बांट सकता है, क्योंकि भारत और अमेरिका दोनों के पास औद्योगिक हादसों को रोकने के मजबूत कानून नहीं हैं। दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों की यह नई और हैरतअंगेज साझीदारी है। ..क्या कहा आपने? यूनियन कार्बाइड का पूर्व प्रमुख एंडरसन तो अमेरिका में ही है? अब जाने दीजिए, दोस्ती इतनी भी गाढ़ी नहीं है?
हादसों का ‘टॉप किल’
टॉप किल, कॉफर डैम, टॉप हैट? ये अनसुने तकनीकी जुमले लुइसियाना तट से उठकर दुनिया के अखबारों में तैर रहे हैं। ये उन तकनीकी उपायों के नाम हैं, जो बीपी मैक्सिको की खाड़ी में बहते नर्क को रोकने के लिए कर रही है। इसी तरह भोपाल हादसे के बाद मिथाइल आइसोनाइट, गैस स्क्रबर व फ्लेयर टॉवर, आम लोगों की जुबान पर थे। अमेरिका के दक्षिणी तट पर गहरे समुद्र में बीपी का 5,000 फीट गहरा तेल कुआं मैकोंडो पिछले करीब पचास दिनों से रोजाना समुद्र में करीब 19,000 से एक लाख बैरल (30 लाख लीटर से डेढ़ करोड़ लीटर तक) तेल उगल रहा है और पूरी दुनिया बेबसी के साथ टॉप किल (समुद्री तेल कुएं में मिट्टी भरने) जैसी बेहद महंगी तकनीकों की पराजय देख रही है। 20 अप्रैल को बीपी के ऑयल प्लेटफॉर्म में धमाके के बाद से करीब 46 हजार वर्ग मील समुद्री क्षेत्र में मीथेन और कच्चे तेल की मोटी चादर तैर रही है, जो अलबामा और फ्लोरिडा के तटों तक पहुंच चुकी है। कैटरीना से बुरी तरह तबाह लुइसियाना के लिए यह दोहरी मार है। इलाके के मछली व पर्यटन उद्योग को 5.5 अरब डॉलर का नुकसान होना तय है। इस इलाके में दूसरे तेल कुएं भी बंद होंगे, जिससे 20 हजार नौकरियां अलग से जाएंगी। फ्लोरिडा तट की तेज समुद्री धाराएं इस तेल को पूरे अटलांटिक क्षेत्र में फैलाकर अब तक की सबसे बड़ी पर्यावरण त्रासदी बनाने को बेताब हैं। यदि ऐसा हुआ तो उबरने में वर्षो लग जाएंगे जैसे कि कार्बाइड फैक्ट्री में पड़ा 390 टन जहरीला कचरा आज भी भोपाल के भूजल को प्रदूषित कर रहा है।
अपराध या चूक?
बराक ओबामा पिछले दस दिन में तीन बार मैक्सिको खाड़ी तट पर जा चुके हैं। फिर भी यह तेल व्हाइट हाउस तक पहुंच ही गया है। नियमों को तोड़कर तेल कंपनियों को मंजूरी देने के आरोप बड़े हो रहे हैं। तेल खोज से संबंधित अमेरिकी कानून नार्वे से भी लचर पाए गए हैं। ओबामा के मुल्क में भी बड़ी कंपनियां कानून से ऊपर हैं। उनकी किलेबंदी के भीतर जाकर सुरक्षा जांच नहीं होती। चेतावनियां बाहर नहीं आतीं और नसीहतें खो जाती हैं। इसी मैक्सिको खाड़ी में 1979 में पेट्रोलॉस मेक्सिकॉना के आइक्सोटॉक्स वन और 1989 में अलास्का में एक्सॉन के कुएं से भयानक तेल रिसाव हुआ था, लेकिन अमेरिका में कोई सबक नहीं लिया गया। याद कीजिए कि कार्बाइड से भोपाल में 1981 से लेकर 1984 तक गैस रिसने के आधा दर्जन मामले सामने आए थे।कंपनी के अपने विशेषज्ञों ने बड़ा खतरा बताया था, लेकिन यह अमेरिकी दिग्गज तो हर पड़ताल से ऊपर थी और इसलिए बाद में भी कायदे से जांच नहीं हुई। अमेरिका के लोग डरते हैं कि बीपी का रसूख उन्हें इंसाफ नहीं मिलने देगा। औद्योगिक हादसे, आमतौर पर आपराधिक लापरवाही बनाम अनजाने में चूक की, खींचतान में उलझते हैं और फिर भोपाल जैसा एक बड़ा हादसा कानून की निगाह में छोटी सी तकनीकी चूक साबित हो जाता है। पिछले साल छत्तीसगढ़ में एक निजी कंपनी के संयंत्र में चिमनी गिरने से 45 लोगों के मारे जाने की घटना सबसे ताजी है। इसमें कुछ छोटे अधिकारियों की गर्दनें कलम हुई और बात खत्म हो गई। तभी तो यूनियन कार्बाइड की वेबसाइट पर भोपाल त्रासदी आज भी एक सैबोटाज यानी तोड़फोड़ की घटना के तौर पर दर्ज है और बीपी के लिए मैक्सिको का हादसा बस एक मशीन की असफलता है।
कैसे-कैसे नतीजे?
भोपाल को लेकर छब्बीस साल बाद राजनीति के अलावा और क्या हो सकता है? लेकिन मेक्सिको की खाड़ी में बाजार को एक नए तेल संकट के साए दिख रहे हैं। पूरे विश्व में गहरे समुद्र से तेल निकालने पर सख्ती शुरू हो गई है। अमेरिका ने छह माह के लिए मैक्सिको की खाड़ी में तेल की खोज रोक (80 हजार बैरल प्रतिदिन का उत्पादन नुकसान) दी है। नार्वे सहित अन्य तेल उत्पादक देश भी इसी राह पर हैं। जबकि अगले दस साल में आधा समुद्री तेल उत्पादन गहरे सागरों से ही आना है, जिसके लिए चार सालों में 167 बिलियन डॉलर लगाए जाने हैं। लेकिन बीपी की चूक पूरे उद्योग को पटरी से उतार कर तेल की कीमतों को आसमान पर चढ़ा सकती है। वैसे भी गहरे समुद्र में तेल का रिसाव रोकना बहुत मुश्किल है। रूस में, कथित तौर पर, दशकों पहले हुए प्रयोग के सहारे इस कुएं को बंद करने के लिए परमाणु विस्फोट की बात भी चल पड़ी है। विस्फोट हो या न हो, लेकिन बीपी की बैलेंस शीट में भारी नुकसान का धमाका तय है। कंपनी के लिए हादसे की ताजा लागत 1.25 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई है। 80 मिलियन डॉलर का हर्जाना भर चुकी बीपी के सामने मुकदमों की फौज तैयार है। कंपनी को 20 बिलियन डॉलर तक की चपत लग सकती है, जो इसके अस्तित्व पर भारी पड़ेगी। इसलिए अधिग्रहण की चर्चाएं भी शुरू हो गई हैं। भोपाल हादसे के बाद यूनियन कार्बाइड भी बंटती बिखरती अंतत: 1999 में डाउ केमिकल्स में समा गई थी। सियासत अमेरिका में भी कम गरम नहीं है। बीपी अचानक विदेशी कंपनी कही जाने लगी है। इसे जानबूझकर ब्रिटिश पेट्रोलियम (एक दशक पुराना नाम) के नाम से बुलाया रहा है। लंदन की सियासत भी जवाब देने लगी है।
भोपाल की गैस अमेरिका तक नहीं पहुंची थी, मैकोंडो कुएं से निकल कर समुद्र में तैरता तेल भारत नहीं आएगा। इसलिए लुइसियाना व भोपाल के लिए बस संकट का ही साझा है। इसके बादतो पैमाने दोहरे तिहरे हो जाते हैं। भारत अब महसूस कर रहा है कि कार्बाइड सस्ते में छूट गई और एंडरसन का प्रत्यर्पण होना चाहिए। लेकिन अमेरिका बीपी से तगड़ी कीमत वसूलने की तैयारी में है। भोपाल हादसे पर ताजा अदालती फैसले के बाद अमेरिका के लिए दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी की फाइल अब बंद हो गई है, मगर मैक्सिको खाड़ी को देखकर गुस्से में भरे बराक ओबामा बीपी के प्रमुख टोनी हेवार्ड को किक (ताजा विवादित बयान) करना चाहते हैं। ....तीसरी और पहली दुनिया में इतना फर्क तो होता ही है न!
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Monday, June 7, 2010

सिद्धांतों का शीर्षासन

अर्थार्थ
नकल्याण के रास्ते अगर आपदा के गर्त में पहुंचा दें तो? एकजुट होने से सुविधा व सुरक्षा के बजाय समस्या व संकट बढ़ने लगे तो? दुनिया के अमीर पहलवान यदि अपनी खुराक के लिए पिद्दी पिछड़ों पर निर्भर हो जाएं तो? तो क्या करेंगे आप? यही न कि, सिद्धांतों को फिर से लिखने की सोचेंगे? जरा गौर से आसपास देखिए, इस समय कई सिद्धांत एक साथ शीर्षासन कर रहे हैं। यूरोप का प्रसिद्ध कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) कर्ज के ढेर में सर के बल खड़ा है। विकासशील चीन की एक करवट वित्तीय बाजार में अब परमाणु ताकतों के घुटने कंपा देती है। दुनिया को जीतने के लिए यूरो करेंसी के जहाज पर सवार हुए यूरोप के मुल्कों का अब यह जजीरा खुद डूबता व उन्हें डुबोता नजर आ रहा है। यह शक्ति संतुलन, आर्थिक एकजुटता और राज्य व्यवस्था से जुड़े सिद्धांतों का बिल्कुल ही नया चेहरा है। स्थापित परिभाषाएं और मान्यताएं बड़ी निर्ममता के साथ बदल रही हैं।
कल्याण की कीमत
मोटे बेकारी भत्ते, तनख्वाह सहित साल भर लंबी छुट्टी, सुरक्षित नौकरी, तरह तरह की सरकारी रियायतें, पचास साल के बाद सेवानिवृत्ति, मोटी पेंशन, मुफ्त चिकित्सा और शानदार व सस्ता रहन सहन! यूरोप के पास दुनिया को जलाने व चिढ़ाने के लिए बहुत कुछ है। यूरोप यूं ही, रोटी व दवा को तरसते अफ्रीका के लिए जन्नत और बेहतर जीवन स्तर के लिए बेकरार एशिया के लिए आदर्श नहीं बन गया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यहां की सरकारों ने अपनी आबादी को मुफ्त शिक्षा, चिकित्सा, मोटी पेंशन जैसी रियायतों व सामाजिक सुरक्षा की छांव में रखा। वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य के पालने में बैठी यूरोप की जनता अपने वर्तमान व भविष्य से इतनी बेफिक्र और बेलौस थी कि अभी हाल तक यूरोप में कल्याणकारी राज्य के नॉर्डिक (डेनमार्क, स्वीडन) कॉन्टीनेंटल (जर्मनी, फ्रांस, ऑस्टि्रया), एंग्लोसैक्सन (ब्रिटेन व आयरलैंड) और मेडीटरेनियन (ग्रीस, इटली, पुर्तगाल) मॉडलों के तहत दी जा रही सुविधाओं के बीच होड़ चलती थी। मसलन जर्मनी में अगर नौकरी जाने के बदले सरकार की तरफ से बेकारी भत्ते के तौर पर 60 फीसदी तनख्वाह मुकर्रर है तो ग्रीस में नौकरी हर हाल में सुरक्षित थी। यूरोप की जनता को अब पता चला कि सरकारों की उदारता का (सरकारों के कुल खर्च का 25 से 40 फीसदी तक जल कल्याण स्कीमों पर) यह करिश्मा कर्ज पर आधारित है। बस एक छोटी सी मंदी और वित्तीय संकट ने इस कल्याणकारी राज्य को कर्ज के गटर में घसीट लिया। यूरोप में पेंशन वेतन घट रहे हैं, नौकरियां जा रही हैं, सरकार कंजूस हो रही है और वेलफेयर स्टेट बिखर रहा है। आशावादी कहते हैं कि 70-80 के दशक की राजकोषीय सख्ती की तरह कुछ नुकसान के साथ यह तूफान भी गुजर जाएगा लेकिन आंकड़े बताते हैं कि बेशुमार कर्ज, कमजोर विकास दर और यूरो की कमजोरी से घिरे वेलफेयर स्टेट का अब फेयरवेल हो सकता है। नतीजा तो वक्त बताएगा, अलबत्ता नसीहतें लेनी हों तो कल्याणकारी राज्य से इस समय यूरोप की सड़कों पर मिला जा सकता है जहां वह जनता का गुस्सा झेल रहा है
संकट बढ़ाने वाली एकता
दक्षेस व आसियान में एकल मुद्रा के पैरोकार आजकल चुप हैं। अगले साल यूरोजोन में शामिल होने की बारात सजाए बैठे आइसलैंड व एस्टोनिया भी सन्नाटा खींच गए हैं। विश्व के देश जिस अनोखी यूरोपीय मौद्रिक एकता को भविष्य का सफल मॉडल माने बैठे थे , वही देश अब इसके पतन की तारीख गिन रहे हैं। यूरो जोन के संकट ने इस सिद्धांत को औंधे मंुह पटक दिया है कि आर्थिक या मौद्रिक एकजुटता संकट से बचाव है। यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं को लगता था कि उनकी साझी मुद्रा उनका कवच बन जाएगी और एक के संकट के समय दूसरे की साख काम आएगी लेकिन यहां तो सबने मिल कर यूरो की साख को ही संकट में डाल दिया। ग्रीस, इटली, पुर्तगाल, स्पेन ने एक दूसरे के बीच कर्ज-कर्ज का खेल खेला था। जर्मनी फ्रांस सहित दूसरे भी इस खेल में शामिल थे। तभी तो ग्रीस कर्ज में यूरोजोन के बैंकों का हिस्सा 150 हिस्सा तक है। इसलिए एक के डूबते ही यूरो के डूबने की नौबत आ जाएगी। बचाव के लिए कोई आजादी नहीं है क्योंकि सबकी मुद्रा एक है। अर्थात कोई नोट छाप कर घाटा नहीं भर सकता। अब यूरोजोन में शामिल होने की नहीं बल्कि इसे छोड़ने की मुहिम शुरू होने वाली है। अफ्रीकी व कैरेबियाई दुनिया से बाहर यह पहली बड़ी व अहम मौद्रिक एकता थी। यूरोजोन के बिखरते ही आर्थिक एकजुटता का सिद्धांत नई व्याख्या मांगने लगेगा।
ताकत की नई परिभाषा
बीते सप्ताह बाजारों में अफवाह दौड़ी कि चीन यूरोजोन के बांडों में 630 बिलियन डॉलर के निवेश पर अपना रुख बदल रहा है और यूरो चार साल के सबसे निचले स्तर पर आ गया। बाजार भरभरा गए। चीन ने अगले दिन इस बात को नकारा तो बाजारों की सांस लौटी लेकिन दो दिन बाद बाजार इस खबर पर फिर कांप गया कि चीन में उत्पादन घट रहा है। 2447 बिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार (विश्व के गैर स्वर्ण विदेशी मुद्रा भंडार का 31 फीसदी) पर बैठे चीन ने दुनिया में आर्थिक ताकत का संतुलन बदल दिया है। चीन की डॉलर तिजोरी दुनिया के विदेशी मुद्रा भंडार में पांच सबसे बड़े देशों के कुल भंडार से भी बड़ी है। इस ताकत के जरिए चीन दुनिया के दोनों बड़े वित्तीय बाजारों, अमेरिका और यूरोप के बीच दिलचस्प ढंग से कूटनीतिक व आर्थिक संतुलन बना रहा है। चीन का जरा सा गर्दन हिलाना इन दोनों बाजारों की धड़कनें बढ़ा देता है। यूरोप को उसने पहले डराया और फिर अभयदान दे दिया। इधर अमेरिकी सरकार के ट्रेजरी बांडों में भी चीन का निवेश 780 बिलियन डॉलर के करीब है। ताकत की इसी नाप तौल के बाद अमेरिका ने चीन की मुद्रा युआन की कमजोरी के खिलाफ अपनी मुहिम फाइलों में बंद कर दी है। यह दुनिया में शक्ति का अनदेखा और अनोखा संतुलन है। बताते चलें कि चीन दुनिया की परिभाषाओं में अभी विकासशील देश है!
यह स्तंभ लिखते-लिखते हंगरी में कर्ज संकट और डिफॉल्ट के खतरे की खबर भी आ गई। ग्रीक त्रासदी पूर्वी यूरोप तक पहुंच गई है। पूर्वी यूरोप को मदद देने वाले वैसे भी कम हैं। यूरोप का वर्तमान देख कर तीसरी दुनिया को सबसे ज्यादा डरना चाहिए। जहां अभी कल्याणकारी राज्य की कायदे से शुरुआत भी नहीं हुई है, और बाजार इसकी ऊंची लागत को अस्वीकृत करने लगा है। इन मुल्कों की गरीब आबादी को इज्जत की जिंदगी देने की ऊंची लागत बड़ी उलझन बनने वाली है। अगर यूरोजोन ढहा तो छोटे मुल्कों के आर्थिक भविष्य और दुनिया की व्यापारिक एकजुटता के सवाल और बडे़ हो जाएंगे। रही बात चीन को तो इसे अब बहुत गौर से देखने की जरूरत है। हमारा यह पड़ोसी आने वाले एक दशक में दुनिया में बहुत कुछ बदलने की कुव्वत रखता है।
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Monday, May 31, 2010

पछतावे की परियोजनायें

अर्थार्थ......
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रबूजा हमेशा से बदकिस्मत है। कभी तो वह खुद चाकू पर टपक जाता है, तो कभी चाकू को उस पर प्यार आ जाता है। लेकिन इससे नतीजे में कोई फर्क नहीं पड़ता। कटता खरबूजा ही है, ठीक उस तरह जैसे कि आर्थिक संकट में फंसे देशों के आम लोग कटते हैं। पहले वित्तीय आपदाएं जनता को झुलसाती हैं और फिर इन संकटों के इलाज या प्रायश्चित खाल उतार लेते हैं। यूरोजोन में वित्तीय कंजूसी और टैक्स बढ़ाने की अभूतपूर्व मुहिम शुरू हो चुकी है। अमेरिका व शेष दुनिया भी इस पाठ को दोहराने वाली है। सरकारें ताजा संकट पर प्रायश्चित कर रही हैं, मगर पछतावे की ये परियोजनाएं जनता की पीठ पर लाद दी गई हैं। मंदी की मारी जनता के जख्मों पर करों में बढ़ोतरी और वेतन-पेंशन में कटौती की तीखी मिर्च मली जा रही है। बुढ़ाते यूरोप के लिए तो यह एक ऐसा दर्दनाक इलाज है, जिसके सफल होने की कोई शर्तिया गारंटी भी नहीं है। इधर मंदी से घुटने तुड़वा चुकी दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए भी यह सबसे चिकने रास्ते के जरिए पहाड़ चढ़ने जैसा है। इस सफर में प्रोत्साहनों, सस्ते कर्ज, अच्छी खपत जैसी सुविधाओं पर सख्त पाबंदी है।
चादर तो बढ़ने से रही
कर्ज संकट में फंसे देशों का इलाज सिर्फ शायलाकों के साथ सौदेबाजी यानी कर्ज पुनर्गठन से ही नहीं हो जाता। इस सौदेबाजी की साख के लिए उन्हें जनता पर नए टैक्स लादने होते हैं और वेतन-पेंशन जैसे खर्चो को क्रूरता के साथ घटाना होता है। दरअसल कर्ज संकट चादरें छोटी होने और पैर बाहर होने का ही नतीजा है। बस एक बार यह पता भर चल जाए कि अमुक देश में खर्च और कमाई का हिसाब-किताब ध्वस्त हो गया और कर्ज चुकाने के लाले हैं तो सरकारों के लिए संसाधनों के स्रोत सबसे पहले सूखते हैं। साख गिरते ही वित्तीय बाजार को उस देश से घिन आने लगती है। अपने ही बैंक सरकार को नखरे दिखाते हैं यानी कि कर्ज मिलना मुश्किल हो जाता है। ग्रीस, स्पेन, पुर्तगाल इसके वर्तमान और अर्जेटीना, रूस, पाकिस्तान, उरुग्वे हाल के ताजे उदाहरण हैं। जाहिर है कि संसाधन न मिलें तो सरकारी मशीनरी बंद हो जाएगी। इसलिए कर्ज संकट आते ही एक पीड़ादायक प्रायश्चित शुरू हो जाता है। नए और मोटे टैक्स लगाकर राजस्व जुटाया जाता है, वेतन, पेंशन काटे जाते हैं, सामाजिक सेवाओं पर खर्च घटता है। घाटा कम करने के आक्रामक लक्ष्य रखे जाते हैं। यह सब इसलिए होता है कि अब कम से कम चादर और तो न सिकुड़े और बाजार को यह भरोसा रहे कि पछतावा शुरू हो गया है।
..तो पैर छोटे करो
ब्रिटेन के मंत्री अब पैदल या बस से दफ्तर जाएंगे! देश की सरकार बच्चों को तोहफे नहीं देगी! सरकारी यात्राओं में कटौती होगी! आदि आदि। करीब 6.2 बिलियन पाउंड बचाने के लिए ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री डेविड कैमरून के इस नुस्खे पर आप बेशक मुस्करा सकते हैं, लेकिन इस तथ्य पर हंसना शायद मुश्किल है कि ग्रीस ने अपने यहां अगले तीन साल के लिए पेंशन-तनख्वाहें और त्यौहारी बोनस व अन्य भत्त्‍‌ो रोक या घटा दिए हैं। यूरोजोन में सरकारी भर्तियों पर पाबंदी लग गई है। पुर्तगाल, स्पेन व आयरलैंड सरकारी कर्मचारियों के वेतन घटा रहे हैं। फ्रांस दस फीसदी खर्च कम करने की तैयारी में है तो पुर्तगाल सरकारी उपक्रम बेचकर पैसा कमाने की जुगाड़ में है। पर जरा ठहरिए! इस तलवार की दूसरी धार और भी तीखी है। कर्ज चुकाने के लिए संसाधन तलाश रहे यूरो जोन में नए टैक्सों की बाढ़ सी आ गई है। पुर्तगाल, ग्रीस, स्पेन आदि ने सभी तरह के कर बढ़ा दिए हैं। ग्रीस कंपनियों पर नया कर थोप रहा है, तो स्पेन ऊंची आय वालों पर टैक्स बढ़ा रहा है। पूरे यूरोजोन में सभी मौजूदा करों की दरें बढ़ गई हैं। वित्तीय कंजूसी और घाटे कम करने के नए लक्ष्य तय किए गए हैं। ब्रिटेन, फ्रांस सहित सभी प्रमुख देशों को अगले दो साल में अपने घाटे तीन से पांच फीसदी तक घटाकर इस इलाज की सफलता साबित करनी है। यह बात दीगर है कि यूरोप के लोग सरकारों की गलतियों का बिल भरने को तैयार नहीं है। पेंशन, वेतन कटने और टैक्स बढ़ने से खफा लोग ग्रीस में लाखों की संख्या में सड़कों पर हैं। इटली व पुर्तगाल के सबसे बडे़ श्रमिक संगठनों ने हड़ताल की धमकी दे दी है। पूरे यूरोप में श्रम आंदोलनों का एक नया दौर शुरू हो रहा है।
गारंटी फिर भी नहीं
यूरोप के इन नाराज लोगों को लाटविया और आयरलैंड के ताजे उदाहरण दिख रहे हैं। जिनका मर्ज करों में बढ़ोत्तरी और खर्च में कटौती की तगड़ी सर्जरी के बाद भी ठीक नहीं हुआ। आयरलैंड ने 2008 में वित्तीय कंजूसी शुरू की, लेकिन इसके बावजूद घाटा दो गुना हो गया। यानी कि मुर्गी जान से गई और बात फिर भी नहीं बनी। यूरोप की चिंताएं शेष दुनिया से कुछ फर्क हैं। यूरोप बुजुर्ग हो रहा है। जहां 39 फीसदी आबादी 50 साल से ऊपर की उम्र वाली हो, उसके लिए पेंशन में कटौती और करों का बोझ बुढ़ापे में बड़ी बीमारी से कम नहीं है। विशाल बुजुर्ग आबादी वाले इटली जैसे मुल्कों के लिए तो यह संकट बहुत बड़ा है। इस पर तुर्रा यह कि आम जनता की यह कुर्बानी तेज विकास की गारंटी नहीं है। यूरोप के परेशान हाल मुल्कों में अगले दो साल के दौरान विकास दर शून्य से नीचे ही रहनी है। जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे बड़े मुल्कों सहित पूरे यूरोप में अगले दो साल के लिए आर्थिक विकास दर के आकलन 1.2 फीसदी से ऊपर नहीं जा रहे। यूरोप के देश जिन बांड निवेशकों को मनाने के लिए यह कठिन योग साध रहे हैं, उन देवताओं को भी भरोसा नहीं कि इलाज कारगर होगा। बल्कि उनकी राय में यूरोजोन की साख और कमजोर हो सकती है। अर्जेटीना, यूक्रेन, रूस आदि के ताजे अतीत गवाह हैं कि कर्ज, मुद्रा और बैंकिंग संकटों का यह मिला-जुला महामर्ज तीन से पांच साल तक सताता है। कुछ मामलों में यह आठ साल तक गया है। ..यूरोप की आबादी मोटी पेंशन, सस्ती चिकित्सा और ढेर सारी दूसरी रियायतों के साथ कल्याणकारी राज्य का भरपूर आनंद ले रही थी कि अचानक मेला उखड़ गया है।
मंदी और वित्तीय संकट जितनी तेजी से फैलते हैं, उनके इलाज भी उतनी ही तेजी से अपनाए जाते हैं। दुनिया भर की सरकारें अपनी लाड़ली जनता के लिए नए करों की कटारें तैयार कर रही हैं। अमेरिका का केंद्रीय बैंक फेड रिजर्व लोगों को करों के बोझ व खर्चो में कमी को सहने के लिए सतर्क कर रहा है। वहां के डिफाल्टर राज्यों में टैक्स बढ़ने लगे हैं। भारत का ताजा कठोर बजट भी इसी तर्ज पर बना था। मंदी से कमजोर हुई अपनी अर्थव्यवस्थाओं को प्रोत्साहन का टानिक देते-देते सरकारें अचानक जनता से रक्तदान मांगने लगी हैं। एक साल पहले तक लोग मंदी के कारण नौकरियां गंवा रहे थे, अब वे वित्तीय बाजारों में अपनी सरकारों की साख को बचाने के लिए वेतन और पेंशन गंवाएंगे। ..सजा हर हाल में आम लोगों के लिए ही मुकर्रर है।
हमको सितम अजीज, सितमगर को हम अजीज
ना मेहरबां नहीं हैं, अगर मेहरबां नहीं
---गालिब
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