Thursday, July 8, 2010

चीन को 'यलोकेक' मांगता !!

चाईनीज चेकर (An Artharth E-xclusive)
फ्रांस हार गया !!.... बात फीफा वर्ल्‍ड कप की नहीं है। .. वह तो मैदान का खेल है। हम उस खेल की बात कर रहे हैं‍ जिसमें आज जीतने वाला एक दशक बाद सिकंदर होगा। जंग है दुनिया की सबसे अहम पीली धातु हथियाने की ! .... बिल्‍कुल सही समझे आप, हम सोने की नहीं यूरेनियम ( यूरेनियम को यलोकेक भी कहते हैं। अयस्‍क से पीले रंग का यूरोनियम कंसट्रेट पाउडर बनता है, जिसे बाद में यूरेनियम ईंधन में बदला जाता है) की बात कर रहे हैं। यूरेनियम की होड़ में चीन ने फ्रांस के दांत खट्टे कर दिये हैं और वह भी उसके अपने इलाके में। दुनिया जब अफ्रीका में बुवुजेला बजाने की तैयारी कर रही थी या मैक्सिको की खाड़ी में बीपी का कीचड़ साफ कर रही थी तब चीन ने फ्रांस को उसके अफ्रीकी आंगन में पटक दिया। चीन ने पश्चिम अफ्रीका में फ्रांस के पुराने उपनिवेश नाइजर में यूरेनियम की एक बड़ी खान हथिया ली। यह सौदा फ्रांस को हिला गया है।
नाइजर और पेरिस से दूर बैठे या यूरेनियम को लेकर दुनिया में चल रही होड़ से बेखबर लोग इस सौदे को हल्‍के में ले सकते हैं मगर फ्रांस के लिए यह सीधी हार है। साम दाम दंड भेद की सभी कलाओं में माहिर चीन ने नाइजर में फ्रांस का पूरा खेल ही पलट दिया है। चीन की सिर्फ कुछ वर्ष की मेहनत से चीनी कंपनियां गृह युद्ध के कारण चिथड़ा हो रहे नाइजर के सत्‍ता प्रतिष्‍ठानों की नाक का बाल बन गई हैं। नाइजर की एजिलेक नामक खान को हथियाकर चीन ने दुनिया के दूसरे सबसे बड़े यूरेनियम उत्‍पादक देश नाइजर में फ्रांस और उसकी मशहूर यूरेनियम ऊर्जा कंपनी अरेवा का चालीस साल पुराना एकाधिकार तोड़ दिया है।
नाइजर पर चर्चा बाद में.... पहले एक जायजा, चीन की यूरेनियम भूख का। जिसके कारण वह फ्रांस जैसे पुराने खिलाडि़यों को उनके उपनिवेश में धूल चटा रहा है। चीन अपने भविष्‍य को बहुत नपे तुले ढंग से ऊर्जावान कर रहा है। आणविक हथियारों की बहस से परे पूरी दुनिया जानती है कि आबो हवा को साफ सुथरा रखने वाली ऊर्जा भविष्‍य में यूरेनियम से ही निकलेगी। आणविक ऊर्जा में दुनिया में सबसे बड़ा देश बनना चीन का नया सपना है। चीन अपने डॉलरों की गठरी लेकर पूरी दुनिया में यूरेनियम खोदने, खरीदने व हथियाने निकल पड़ा है। चीन में आणविक ऊर्जा की ताजा क्षमता दस गीगावाट के करीब है। लेकिन 2020 तक यह 40 गीगावाट पहुंच जाएगी। चीन में 11 न्‍यूक्लियर ( भारत में रिएक्‍टर तो 19 हैं मगर चीन भारत से पांच गुना ज्‍यादा नाभिकीय बिजली बनाता है।) रिएक्‍टर काम कर रहे हैं। 24 बन रहे हैं और 150 बनने वाले हैं। इसके बाद दुनिया में सबसे ज्‍यादा रिएक्‍टर चीन के पास होंगे और 2050 तक 1000 गीगावाट की नाभिकीय बिजली बना रहा होगा। चीन को मालूम है कि अगले दो दशक में उसे वर्तमान से दस गुना ज्‍यादा यूरेनियम चाहिए। वर्ल्‍ड न्‍यूक्लियर एसोसिशन इस पर मुहर लगाती है जिसके मुताबिक अगले दो दशक में चीन दुनिया में इस पीली धातु का सबसे अमेरिका के बाद दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्‍ता होगा।
चीन के पास डॉलरों से भरा भंडार है, जिसके बूते वह अफ्रीका से लेकर आस्‍ट्रेलिया तक हाथ मार रहा है। चीन की दोनों नाभिकीय ऊर्जा कं‍पनियां चाइना नेशनल न्‍यूक्लियर पॉवर कार्पोरेशन और चाइना गुआनडांग न्‍यूक्लियर पॉवर कार्पोरेशन पूरी दुनिया में यूरेनियम की खाने बटोरने के अभियान पर निकली हैं। चाइना गुआनडांग, कजाकस्‍तान ( दुनिया का सबसे बड़ा यूरेनियम उत्‍पादक), उज्‍बेकिस्‍तान, आस्‍ट्रेलिया और नामीबिया में यूरेनियम खोद कर चीन का भंडार भर रही हैं तो चाइना नेशनल न्‍यूक्लियर, मंगोलिया व नाइजर में सक्रिय है। चाइना गुआनडांग ने पिछले साल एक यूरेनियम खान हथियाकर आसट्रेलिया के पूरे खनन उद्योग को हैरत में डाल दिया था। चीन की निगाह दक्षिण आस्‍ट्रेलिया में सिथ‍त ओलंपिक के विशाल भंडार ओलंपिक डैम माइन पर भी हैं।
...... मगर चीन की चालों से आस्‍टे्लिया से ज्‍यादा फ्रांस परेशान है। नामीबिया व नाइजर जैसे अपने पुराने गुलाम देशों की जमीन के नीचे भरे यूरेनियम के सहारे फ्रांस की अरेवा दुनिया की सबसे बड़ी यूरेनियम उत्‍पादक बन गई। 1.2 बिलियन डॉलर के कारोबार वाली अरेवा को चीन का मिशन यूरेनियम मुश्किल में डाल रहा है। अरेवा नाइजर की पुरानी बाशिंदा है। उसकी इमोयूरारेन खान तैयार हो रही है जिससे 2013 तक 5000 टन यलोकेक निकलेगा। लेकिन अपने दशकों की मौजूदगी अरेवा चीन की कंपनी को एजिलेक खान लेने से नहीं रोक सकी। दरअसल अफ्रीका की भ्रष्‍ट राजनीति को चीन की दोस्‍ती रास आ रही है। भारी बोनस , नेताओं को हर तरह की सुविधा, देश में सड़कें पुल और गृह युद्ध में जरुरत के मुताबिक मदद.... चीन ने एक तरह से नाइजर को फ्रांस से काट सा दिया है। हिंसा और संघर्ष से भरे पूरी तरह स्‍थलीय (लैंडलॉक्‍ड) नाइजर में चीनी कंपनियां के पास तेल रिफाइनरी है, एक तेल ब्‍लॉक है और ....... यूरेनियम भी है। यानी बात पश्चिम अफ्रीका में फ्रांस के दबदबे पर बन आई है।
गृह युद्धों और हथियारबंद गिरोहों से भरे अधिकांश अफ्रीका में चीन खुलकर खेल रहा है। यूरेनियम हथियाने के लिए वह बोत्‍सवाना में जापान को पीछे धकेल रहा है तो नाइजर में फ्रांस को। ...... इस बेहद संवेदनशील धातु की बिसात पर चीन के पैंतरे बड़े नपे तुले हैं। एक दशक बाद चीन की नाभिकीय उत्‍पादन क्षमता दुनिया के लिए ईर्ष्‍या का सबब बन जाएगी।

यही तो है चाइनीज चेकर !!!!!!
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Monday, July 5, 2010

सियासत के सलीब

अर्थार्थ
दोषियों से दोस्ती भी और पीडि़तों की अगुआई भी। दोनों काम एक साथ। चिढ़ते रहिए आप, मगर यह विशेषाधिकार सिर्फ सियासत और सत्ता को मिला है। माहौल बदलते ही सियासत गलती करने वालों से गलबहियां छोड़कर, मुंसिफ बन जाती है। दुनिया भर की सरकारें आजकल इसी भूमिका में हैं। अमेरिका में व्हाइट हाउस से लेकर लंदन में टेन डाउनिंग स्ट्रीट और ऑस्ट्रेलिया तक सलीबों की सप्लाई अचानक बढ़ गई है। ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने बैंकों को अरबों पौंड के नए टैक्स की सूली पर टांग दिया है। अमेरिका, जर्मनी व फ्रांस भी बैंकों के लिए यही सजा मुकर्रर करने वाले हैं। व्हाइट हाउस ने पेट्रोल कंपनी बीपी को आर्थिक जुर्माने की सलीब पर चढ़ा दिया है। टोयोटा पहले से कठघरे में खड़ी है। दरअसल यह सूलियां सजाने का मौसम है, जिसमें बाजार के बादशाहों के खजाने निशाने पर हैं। मगर अपना मुल्क इस मामले में कुछ अलग है। घोटालों में झुलसे लोगों का दर्द गवाह है कि हम कायदे से सजा भी नहीं दे पाते। 26 साल पुराने भोपाल हादसे का दाग भी अपने ही बजट से धोने जा रहे हैं यानी कि करदाता सूली पर चढ़ेंगे। शर्मिदगी से बचने के लिए हम बस, खुद को सजा दे लेते हैं।
बुरे फंसे बैंक
सरकारें इस समय ताजा वित्तीय संकट के मुजरिम तय करने में जुटी हैं। कोशिश जल्द से जल्द सजा देने की है ताकि अपना दामन बचा रहे। बैंक व वित्तीय संस्थाएं पुराने पापी हैं। सरकारों की निगाह में इनका एडवेंचर दुनिया को महंगा पड़ा है। बैंकों को डूबने से बचाने पर सरकारें नौ ट्रिलियन (सोलह शून्य वाली संख्या) डॉलर तक खर्च चुकी हैं। इसलिए सजा भी माकूल होनी चाहिए। ब्रिटेन की नई सरकार के चांसलर जॉर्ज ऑसबोर्न ने ताजा बजट में बैंकों से दो बिलियन पौंड वसूलने का इंतजाम कर दिया है। जर्मनी व फ्रांस के शिकंजे भी बन चुके हैं। अमेरिका में कानून तैयार है, हालांकि लामबंदी जारी है, मगर टैक्स लगना तय है क्योंकि बैंक व वित्तीय संस्थाएं लामबंदी व रसूख में चाहे जितने मजबूत हों, सियासत में राजनेताओं को नहीं पछाड़ सकते। नेताओं ने बहुत सफाई के साथ टैक्स लगा भी दिया और टैक्स लगाने की सामूहिक (जी 20 की बैठक) तोहमत भी नहीं ली। अंतरराष्ट्रीय मंच से कर लगने का ऐलान शेयर बाजारों को तोड़ कर बैंकों की चीख पुकार को ऊंचा कर देता। इसलिए जी 20 ने बैंक टैक्स पर खुलकर बात ही नहीं की और देशों को टैक्स लगाने के लिए आजाद कर दिया। वैसे भी अमेरिका व यूरोप के प्रमुख देशों में इसकी शुरुआत पहले ही हो चुकी थी। इसके बदले बैंकों पर दूसरा सामूहिक शिकंजा कसा जा रहा है। बैंकिंग के कामकाज को सख्त पाबंदियों में बांधने वाले बेसिल नियमों की तीसरी पीढ़ी तैयार है। टैक्स के बाद बचा हुआ काम ये नियम कर देंगे। इसके बाद बैंक व वित्तीय संस्थाओं के लिए जोखिम लेकर मुनाफा कमाने के रास्ते बहुत संकरे हो जाएंगे।
माफी का मौका नहीं
अमेरिका नामक सबसे उदार बाजार ने पिछले कुछ महीनों में प्रमुख कार कंपनी टोयोटा के अध्यक्ष अकीयो टोयोदा को वस्तुत: आठ आठ आंसू रुला दिए। शेयरधारकों ने बाकायदा बैठक में झिड़का कि टोयोदा महोदय आप सुबकते हुए अच्छे नहीं लगते। टोयोटा की कारों के एक्सीलरेटर पैडल खराब थे। कारें अचानक तेज दौड़ पड़ती थीं। अमेरिका में हादसे हुए तो मामला गरमाया और टोयोदा को अपराधियों की तरह अमेरिकी संसद की समिति के सामने पेश होना पड़ा। पूरी दुनिया में एक करोड़ कारें वापस ली गई। कंपनी मुकदमे लड़ रही है और हर्जाना दे रही है। कमाई को दो बिलियन डॉलर की चपत लग चुकी है। टोयोटा के कर्मचारियों का वेतन दस फीसदी घटाया गया है। मैक्सिको की खाड़ी में बहते तेल में डूब रही बीपी का किस्सा सबको मालूम है। ओबामा ने कंपनी की गर्दन पकड़कर 20 बिलियन डॉलर का चेक ले लिया। बीपी अब लंबी मुकदमेबाजी के लिए तैयार हो रही है। सजा देने का यह मानसून ऑस्ट्रेलिया तक पहुंच चुका है। प्रधानमंत्री केविन रड ने मंदी को देखते हुए देश के सबसे ताकतवर खनन उद्योग पर 40 फीसदी टैक्स लगाया तो कुर्सी खिसक गई। नई प्रधानमंत्री जूलिया गिलार्ड ने कुछ रियायत दी है, मगर टैक्स कायम है। बाजार को याद है कि जब मौका आया तो अमेरिका ने 246 बिलियन डॉलर का हर्जाना वसूल लिया और सिगरेट कंपनियां मिमियाती रह गई।
सजा की सियासत
सिगरेट कंपनियों से वसूली गई मोटी रकम में कितनी लोगों की सेहत सुधारने पर खर्च हुई या बीपी से मिले 20 बिलियन डॉलर कहां जाएंगे, इस पर अमेरिका में भी दर्जनों सवाल हैं। आप बेशक कह सकते हैं कि अमेरिकी सरकार ने पिछले साल एआईजी, फेनी मे और फ्रेडी मैकजैसी कंपनयिों को बचा लिया था। जबकि आज गोल्डमैन सैक्श, बीपी आदि को सजाएं सुनाई जा रही है। जी हां, यही तो सियासत है। वक्त बदला तो दुनिया का सबसे उदार बाजार कंपनियों के लिए सबसे क्रूर हो गया। मगर भारत को तो सजा देते हुए दिखना भी नहीं आता। सबसे ताकतवर राजनीतिक परिवार को लपेट में आता देख हमारी सरकार ने अचकचाकर भोपाल का हर्जाना 26 साल बाद अपने ही गले बांध लिया। कार्बाइड तो गई, अब गलती का बिल (1500 करोड़ रुपये का पैकेज) बजट यानी करदाता चुकाएंगे। उदारीकरण के बाद भारत में एक दर्जन से ज्यादा बड़े घोटालों में हजारों लोगों ने अपने हाथ जलाए हैं, लेकिन हर्जाना दिलाने का यहां कोई रिवाज नहीं है। दूसरी तरफ जमीन मकान के बाजार में फर्जीवाड़ा खुलने और जनता के गुस्साने के बाद ओबामा का प्रशासन सब प्राइम प्रॉपर्टी बाजार में धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ ऑपरेशन स्टोलेन ड्रीम चला रहा है। 191 मामले दर्ज हो चुके हैं और 147 मिलियन डॉलर की रिकवरी हो चुकी है। मतलब यह कि बात जब राजनीति के दामन तक पहुंचे किसी को भी टांगा जा सकता है।
दुनिया में कोई यह कभी नहीं जान पाएगा कि लीमन ब्रदर्स सहित दर्जनों बैंक अपनी गलती से डूबे या सरकारों अर्थात नियामकों की लापरवाही से। बीपी के कुएं से तेल का बहना कंपनी की चूक थी या सरकारी देखभाल की। जनता चाहे कहीं की भी हो, अपनी कमजोर याददाश्त की वजह से सिर्फ हादसे या घोटाले और उनके नतीजे या उपचार याद रख पाती है। यही वजह है कि पश्चिम की सियासत का इंसाफ बीपी, टोयोटा पर जुर्माने या बैंक टैक्स के तौर पर दुनिया को दिख जाता है। जबकि हमारे यहां दोषी नहीं, बल्कि पीडि़त ही सजा पाता है। दरअसल हम जरा कच्चे हैं। भारत की व्यवस्था न तो हादसे या घोटाले रोक पाती है और न ही इंसाफ देती नजर आती है। हमारी सियासत बस पूरे मामले में अपने हाथ काले कर लेती है और बाद में उन्हीं हाथों के पीछे मुंह भी छिपा लेती है। ..हमें कुछ सीखना चाहिए।
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Monday, June 28, 2010

तौबा, तेरा सुधार !!

अर्थार्थ
चास पार का पेट्रोल और चालीस पार का डीजल खरीदते हुए कैसा लग रहा है? सुधारों की पैकिंग में कांटो भरा तोहफा। पेट्रो उत्पादों के मामले में सरकारें हमेशा से ऐसा करती आई हैं। कीमतें बढ़ाते हुए हमें (सब्सिडी आंकड़ा दिखा कर) सब्सिडीखोर होने की शर्मिदगी से भर दिया जाता है। अंतरराष्ट्रीय कीमतों की रोशनी में तेल कंपनियों की बेचारगी देखकर हम मायूस हो जाते हैं। अंतत: सुधारों का तिलक लगा कर उपभोक्ता यूं बलिदान हो जाते हैं कि मानो कोई दूसरा जिम्मेदार ही न हो। यह सरकारों का आजमाया हुआ इमोशनल अत्याचार है। वैसे चाहें तो ताजा फैसले की रोशनी में इसे पेट्रो मूल्य प्रणाली में नया सुधार भी कह सकते हैं। मगर पेट्रो उत्पादों को दुगने तिगुने टैक्स से निचोड़ती राज्य सरकारों को कुछ मत कहिए। सब्सिडी का डीजल पी रहे जेनसेटों से घरों बाजारों को चमकने दीजिए, बिजली की कमी की शिकायत मत कीजिए। सार्वजनिक परिवहन की मांग मत करिए, क्या ऑटो कंपनियों की प्रगति से जलते हैं? यह सब सुधार के एजेंडे में नहीं आते हैं। ताजा सुधार तेल कंपनियों को सिर्फ पेट्रोल की कीमत तय करने की आजादी देता है। डीजल को लेकर रहस्य और केरोसिन व एलपीजी पर सब्सिडी कायम है। साथ ही सियासत के दखल का शाश्वत रास्ता भी खुला है, जिसके कारण पेट्रो मूल्य प्रणाली में सुधारों का इतिहास बुरी तरह दागदार रहा है।
मांग के बदले महंगाई
मांग तलाश रही अर्थव्यवस्था को सरकार ने महंगाई व ऊंची लागत थमा दी है। नीति निर्माता इस वित्त वर्ष की शुरुआत से ही महंगाई बनाम तेज विकास बनाम घाटे की तितरफा ऊहापोह में घिरे हैं। अब बारी बाजार व निवेशकों के भ्रमित होने की है। महंगे पेट्रो उत्पादों के बाद आने वाले महीनों में मांग बढ़ते रहने की कोई गारंटी नहीं है। अर्थव्यवस्था की हालिया चमक की मजबूती पर दांव लगाना अब जोखिम भरा है। आखिर मंदी से घायल व महंगाई से लदी अर्थव्यवस्था पेट्रो कीमतों की टंगड़ी फंसने के बाद कितना तेज चल पाएगी? बाजार को दिखने लगा है कि खेत से लेकर फैक्ट्री तक पहले से फैली महंगाई मांग को समूचा निगल जाएगी। कच्चे तेल की वायदा कीमतें आने वाले वक्त में पेट्रो उत्पाद और महंगे होने का वादा कर रही हैं। तभी तो रिजर्व बैंक ब्याज दरों में वृद्धि के कागज पत्तर संभालने लगा है। मुद्रास्फीति की आग पर उसे पानी डालना है। चीन के नए मौद्रिक दांव से अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमत बढ़ने वाली है। महंगा ईधन, महंगी पूंजी या कर्ज और महंगा कच्चा माल। महंगाई की मारी और मंदी से उबरती अर्थव्यवस्था को फिलहाल ऐसे सुधार की दरकार नहीं थी।
साफ सियासत, रहस्यमय फार्मूले

कल्पना कीजिए, बिहार (अक्टूबर 2010) या बंगाल (मई 2011) में चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है। तभी ईरान को अमेरिका अचानक परमाणु कार्यक्रम का नया पिन चुभो देता है या फिर इजरायल हाल के फ्लोटिला हमले जैसी कोई कारगुजारी कर बैठता है। दुनिया में तेल की कीमतें सातवें आसमान पर हैं, तब क्या होगा? सरकार तेल कंपनियों से कीमतें तय करने की आजादी तत्काल छीन लेगी। पेट्रो मूल्य प्रणाली के ताजा क्रांतिकारी सुधार में यह प्रावधान शामिल है। यही पेंच पेट्रो मूल्य ढांचे में सुधारों की साख को हमेशा से दागी करते हैं। 2002 में भी सरकार ने पेट्रो मूल्यों के नियंत्रण से तौबा की थी। बजट में ऐलान हुआ भी था लेकिन कीमतें सरकार की जकड़ से कभी आजाद नहीं हुई। बस केरोसिन व एलपीजी का घाटा तेल पूल खाते की जगह बजट में पहुंच गया। सुधारों के नए कार्यक्रम में भी सरकार के हस्तक्षेप की जगह और राजनीतिक ईधनों यानी डीजल, केरोसिन और एलपीजी की कीमतों में पुराना असमंजस बरकरार है। कीमतें कब कैसे कितनी बढ़ेंगी या सरकार कब किस मौके पर कैसे दखल देगी, इसके फार्मूले रहस्य के रवायती आवरण में हैं। ऐसी सूरत में सुधारों पर भरोसा जरा मुश्किल है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि सुधार की रोशनी राज्यों के टैक्स ढांचे तक नहीं पहुंचती जो पेट्रो उत्पादों की कीमत दोगुनी कर देते हैं। महंगी कारों में सस्ते ईधन के खेल, तेल कंपनियों की दक्षता, केरोसिन व डीजल की मिलावट के अर्थशास्त्र, संरक्षण की कोशिशों और वैकल्पिक ईधनों की जरूरत जैसे मुद्दों की तरफ भी सुधारों की नजर नहीं जाती। पेट्रो मूल्यों में सुधार का मतलब सियासत के हिसाब से कीमतों में कतर ब्योंत है बस। और इस पैमाने पर यह वक्त सबसे मुफीद था।
बाजार बदला, पैमाने नहीं
सरकार का सस्ता डीजल कहां खप रहा है? सबको पता है कि सस्ता केरोसिन देश में किस काम आता है? पिछले बीस साल में इस देश में ईधन की खपत का पूरा ढांचा बदल गया मगर सरकार के पैमाने नहीं बदले। बुनियादी ढांचे और बुनियादी सेवाओं में कई बुनियादी खामियों की कीमत पेट्रो उत्पाद चुकाते हैं। डीजल दुनिया के लिए ट्रांसपोर्ट फ्यूल है मगर भारत में यह एनर्जी फ्यूल भी है। आवासीय भवनों व शॉपिंग मॉल को रोशन करने वाले दैत्याकार किलोवाटी जनरेटर बिजली कमी से उपजे हैं। शहरों से लेकर गांवों तक अब जरूरत की तिहाई रोशनी डीजल से निकलती है। नए उद्योग सरकारी बिजली भरोसे नहीं बल्कि सस्ते डीजल की बिजली भरोसे आते हैं। पिछले चार साल में डीजल 30 से 40 रुपये प्रति लीटर हो गया लेकिन डीजल की मांग करीब नौ फीसदी सालाना की रिकार्ड दर से बढ़ रही है। देश के ज्यादातर शहर सार्वजनिक परिवहन के मामले में आदिम युग में हैं मगर ऑटो कंपनियां वक्त को पछाड़ रही हैं। कामकाजी आबादी से भरे शहर निजी वाहनों से अटे पड़े हैं और पेट्रोल की मांग 14 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है। बावजूद इसके पेट्रोल चार साल में 43 से 50 रुपये लीटर पर पहुंच गया। सस्ते डीजल और सस्ती बिजली दोनों की तोहमत खेती के नाम है लेकिन खेती में सिंचाई के फिर भी लाले हैं। दरअसल, बढ़ती अर्थव्यवस्था और कमाई ने बिजली, परिवहन सुविधाओं की कमी का इलाज सस्ते पेट्रो उत्पादों में खोज लिया है। इसलिए कीमत बढ़ने से मांग घटने का सिद्धांत यहां सिर के बल खड़ा है।
सरकार ठीक कहती है कि पेट्रो उत्पादों की महंगाई के मामले हम अभी सिंगापुर व थाईलैंड के करीब ही पहुंचे हैं। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस तो बहुत आगे हैं। यह भी सच है कि अरब के कुओं, मैक्सिको की खाड़ी और नार्वे के समुद्र से निकला तेल कीमत के मामले में उपभोक्ताओं के बीच फर्क नहीं करता। लेकिन जरा ठहरिये.. सरकारें चाहें तो फर्क पैदा कर सकती हैं क्योंकि ईधन के मूल्य महंगाई, जनता की आय और अर्थव्यवस्था की स्थिति देखकर ही तय होते हैं। मगर यहां तो सियासत का फार्मूला सब पर भारी है। अब छोड़ भी दीजिये, महंगाई से राहत की उम्मीद का दामन। बेनियाज और बेफिक्र सरकार ने एक नया धारदार सुधार आप पर लाद दिया है। इसलिए .. जोर लगा के हईशा!

बेनियाजी हद से गुजरी, बंदा परवर कब तलक
हम कहेंगे हाले दिल और आप फरमायेंगे क्या
(गालिब )
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Monday, June 21, 2010

मांग के कंधे पर बैठी महंगाई

अर्थार्थ
कदम रुके थे, पैर में बंधा पत्थर तो जस का तस था। महंगाई गई कहां थी? अर्थव्यवस्था मंदी से निढाल होकर बैठ गई थी इसलिए महंगाई का बोझ बिसर गया था। कदम फिर बढ़े हैं तो महंगाई टांग खींचने लगी है। मुद्रास्फीति का प्रेत नई ताकत जुटा कर लौट आया है। मंदी के छोटे से ब्रेक के बीच महंगाई और जिद्दी, जटिल व व्यापक हो गई है। यह खेत व मंडियों से निकल कर फैक्ट्री व मॉल्स तक फैल गई है। मानसून का टोटका इस पर असर नहीं करता। gमौद्रिक जोड़ जुगत इसके सामने बेमानी है। महंगाई ने मांग में बढ़ोतरी से ताकत लेना सीख लिया है। तेज आर्थिक विकास अब इसे कंधे पर उठाए घूमता है। भारत में आर्थिक मंदी का अंधेरा छंट रहा है। उत्पादन के आंकड़े अच्छी खबरें ला रहे हैं लेकिन नामुराद महंगाई इस उजाले को दागदार बनाने के लिए फिर तैयार है।
लंबे हाथ और पैने दांत
महंगाई अब खेत खलिहान से निकलने वाले खाद्य उत्पादों की बपौती नहीं रही। बीते छह माह में यह उद्योगों तक फैल गई है यानी आर्थिक जबान में जनरलाइज्ड इन्फलेशन। महंगाई मौसमी मेहमान वाली भूमिका छोड़कर घर जमाई वाली भूमिका में आ गई है। उत्पादन का हर क्षेत्र इसके असर में है। कुछ ताजे आंकड़ों की रोशनी में महंगाई के इस नए चेहरे को पहचाना जा सकता है। पिछले साल दिसंबर तक भारत में महंगाई खाद्य उत्पादों की टोकरी तक सीमित थी। गैर खाद्य उत्पाद महज दो ढाई फीसदी की मुद्रास्फीति दिखा रहे थे लेकिन अब सूरत बदल गई है। गैर खाद्य और गैर ईधन (पेट्रोल डीजल) उत्पादों में भी मुद्रास्फीति 8 फीसदी से ऊपर निकल गई है। खाद्य उत्पादों में तो पहले से 11-12 फीसदी की मुद्रास्फीति है। खासतौर पर लोहा व स्टील, कपड़ा, रसायन व लकड़ी उत्पाद के वर्गो में कीमतों में अभूतपूर्व उछाल आया है। यह सभी क्षेत्र कई उद्योगों को कच्चा माल देते हैं इसलिए महंगाई का इन्फेक्शन फैलना तय है। यह महंगाई का नया व जिद्दी चरित्र है। बजट में कर रियायतें वापस हुई तो कीमतें बढ़ाने को तैयार बैठे उद्योगों को बहाना मिल गया। महंगाई का फैक्ट्रियों (मैन्यूफैक्चर्ड उत्पादों) में घर बनाना बेहद खतरनाक है। तभी तो रिजर्व बैंक भी मुद्रास्फीति के बढ़ने को लेकर मुतमइन है। बाजार मान रहा है कि थोक कीमतों वाली महंगाई दहाई के अंकों का चोला फिर पहन सकती है, फुटकर कीमतों की मुद्रास्फीति तो पहले से ही दहाई में हैं। मैन्यूफैक्चर्ड और खाद्य उत्पादों की कीमतें साथ-साथ बढ़ने का मतलब है कि महंगाई के हाथ लंबे और दांत पैने हो गए हैं।
इलाज नहीं खुराक
महंगाई अब मांग के पंखों पर सवारी कर रही है। याद करें कि दो साल पहले 2007-08 की तीसरी तिमाही में जब मुद्रास्फीति ने अपना आमद दर्ज की थी तब भी भारत में आर्थिक विकास दर तेज थी और महंगाई बढ़ने की वजह मांग का बढ़ना बताया गया था। बात घूम कर फिर वहीं आ पहुंची है। आर्थिक वृद्घि का तेज घूमता पहिया महंगाई को उछालने लगा है जबकि आपूर्ति के सहारे महंगाई घटाने की गणित फेल हो गई है। अंतरराष्ट्रीय कारकों के मत्थे तोहमत मढ़ना भी अब नाइंसाफी है। ताजी मंदी के बाद से पिछले कुछ माह में पूरे विश्व के बाजारों में जिंसों यानी कमोडिटीज की कीमतें गिरी हैं लेकिन भारत में कीमतें बढ़ रही हैं। माना कि पिछली खरीफ को सूखा निगल गया था लेकिन रबी तो अच्छी गई। रबी में गेहूं की पैदावार 2009 के रिकॉर्ड उत्पादन 80.68 मिलियन टन से ज्यादा करीब 81 मिलियन टन रही। सरकार ने कहा कि इससे खरीफ का घाटा पूरा हो गया है मगर महंगाई वैसे ही नोचती रही। अंतत: सरकार ने पैंतरा बदला और अब खरीफ पर उम्मीदें टिका दीं। मानसून का आसरा देखा जाने लगा है। दरअसल आर्थिक विकास के पलटी खाते ही मांग बढ़ी है जिसने पूरा गणित उलट दिया। आपूर्ति बढ़ने से महंगाई कुछ हिचकती इससे पहले उसे मांग ने नए सिरे से उकसा दिया है।
सारे तीर अंधेरे में

महंगाई को लेकर सरकार और रिजर्व बैंक के सारे तीर दरअसल अंधेरे में चलते रहे हैं इसलिए महंगाई का इलाज करने के जिम्मेदार भी अब अटकल और अंदाज के सहारे हैं। आंकड़ों में अगर कमी दिखी तो सरकार ने भी ताली बजाई और अगर आंकड़े ने कीमतें बढ़ती बताईं तो सरकार ने भी चिंता की मुद्रा बनाई। सरकार के ं महंगाई नियंत्रण कार्यक्रम में अगला टारगेट दिसंबर है और मानसून ताजा बहाना है। हालांकि अच्छी खरीफ महंगाई का इलाज शायद ही करे। दरअसल पिछले चार फसली मौसमों से जारी महंगाई ने कृषि उपज के बाजार में मूल्य वृद्घि की नींव खोद कर जमा दिया है। खरीफ का समर्थन मूल्य बढ़ाना सियासी मजबूरी थी इसलिए खरीफ में पैदावार के महंगे होने का माहौल पहले से तैयार है। इधर अर्थव्यवस्था में आमतौर पर मांग बढ़ने के साथ ही रबी की बेहतर फसल ने ग्रामीण क्षेत्र में भी उपभोग खर्च बढ़ा दिया है। तभी तो रबी की फसल आते ही उपभोक्ता उत्पादों व दोपहिया वाहनों का बाजार अचानक झूम उठा है। यानी कि अगर बादल कायदे से बरसे तो भी खरीफ की अच्छी फसल महंगाई को डरा नहीं सकेगी। इसके बाद बचती है रिजर्व बैंक की मौद्रिक कीमियागिरी। तो इस मोर्चे पर दिलचस्प उलझने हैं। मंदी से उबरती अर्थव्यवस्था को सस्ते कर्ज का प्रोत्साहन चाहिए और सरकारी उपक्रमों व निजी कंपनियों की ताजी इक्विटी खरीदने के लिए बाजार को भरपूर पैसा चाहिए। इधर यूरोप के बाजारों से जले निवेशक डॉलर यूरो लेकर भारत की तरफ दौड़ रहे हैं। उनके डॉलर आएंगे तो बदले में रुपया बाजार में जाएगा। इसलिए रिजर्व बैंक गवर्नर सुब्बाराव का इशारा समझिये। वह बाजार और उद्योग की नहीं सुनने वाले। उन्हें मालूम है कि बाजार में इस समय पैसा बढ़ाना महंगाई को लाल कपड़ा दिखाना है। अर्थात कर्ज महंगा होकर रहेगा और महंगा कर्ज उद्योगों की लागत बढ़ाकर महंगाई के नाखून और धारदार करेगा।
भारत की अर्थव्यवस्था ने मंदी की मारी दुनिया में सबसे पहले विकास की अंगड़ाई ली है। अर्थव्यवस्था में कई मोर्चो पर सुखद रोशनी फूट पड़ी है। आर्थिक उत्पादन के ताजे आंकड़े उत्साह भर रहे हैं तो सरकारी घाटे को कम करने के सभी दांव (थ्रीजी व ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम की बिक्री और विनिवेश) भी बिल्कुल सही पड़े हैं। रबी के मौसम में खेतों से भी अच्छे समाचार आए हैं और मानसून आशा बंधा रहा है। लेकिन महंगाई इस पूरे उत्सव में विघ्न डालने को तैयार है। और जिस अर्थव्यवस्था में महंगाई मेहमान की जगह मेजबान यानी कि मौसमी की जगह स्थायी हो जाए वहां कोई भी उजाला टिकाऊ नहीं हो सकता। क्योंकि महंगाई का अंधेरा अंतत: हर रोशनी को निगल जाता है।

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Monday, June 14, 2010

दाग और दुर्गंध की दोस्ती

अर्थार्थ
भारत और अमेरिका में दोस्ती अब बहुत गाढ़ी हो चली है। दोनों शर्मिदगी को साझा कर रहे हैं। पेट्रोल कंपनी बीपी के कुएं से रिस कर मैक्सिको की खाड़ी में बहता तेल व्हाइट हाउस को दागदार करने लगा है, तो भारत सरकार 26 साल बाद 15 हजार मौतों वाले भोपाल गैस हादसे के गुनहगार तलाश रही है और शर्मिंदगी की दुर्गध से बचने के लिए सियासत के पीछे छिप रही है। रसूखदार कंपनियों के बेफिक्र कामकाज और बोदे कानूनों के कारण औद्योगिक हादसे बार-बार होते हैं और घोंघे से होड़ करती न्याय व्यवस्था के कारण पूरी बहस आपराधिक उपेक्षा बनाम भूल-चूक की कानूनी धुंध में गुम हो जाती है। अंतत: पहाड़ जैसी तबाही के बदले राई जैसी राहत पर बात समाप्त हो जाती है। अमेरिकी राज्य लुइसियाना अपने वर्तमान को, भोपाल के ढाई दशक पुराने अतीत के साथ बांट सकता है, क्योंकि भारत और अमेरिका दोनों के पास औद्योगिक हादसों को रोकने के मजबूत कानून नहीं हैं। दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों की यह नई और हैरतअंगेज साझीदारी है। ..क्या कहा आपने? यूनियन कार्बाइड का पूर्व प्रमुख एंडरसन तो अमेरिका में ही है? अब जाने दीजिए, दोस्ती इतनी भी गाढ़ी नहीं है?
हादसों का ‘टॉप किल’
टॉप किल, कॉफर डैम, टॉप हैट? ये अनसुने तकनीकी जुमले लुइसियाना तट से उठकर दुनिया के अखबारों में तैर रहे हैं। ये उन तकनीकी उपायों के नाम हैं, जो बीपी मैक्सिको की खाड़ी में बहते नर्क को रोकने के लिए कर रही है। इसी तरह भोपाल हादसे के बाद मिथाइल आइसोनाइट, गैस स्क्रबर व फ्लेयर टॉवर, आम लोगों की जुबान पर थे। अमेरिका के दक्षिणी तट पर गहरे समुद्र में बीपी का 5,000 फीट गहरा तेल कुआं मैकोंडो पिछले करीब पचास दिनों से रोजाना समुद्र में करीब 19,000 से एक लाख बैरल (30 लाख लीटर से डेढ़ करोड़ लीटर तक) तेल उगल रहा है और पूरी दुनिया बेबसी के साथ टॉप किल (समुद्री तेल कुएं में मिट्टी भरने) जैसी बेहद महंगी तकनीकों की पराजय देख रही है। 20 अप्रैल को बीपी के ऑयल प्लेटफॉर्म में धमाके के बाद से करीब 46 हजार वर्ग मील समुद्री क्षेत्र में मीथेन और कच्चे तेल की मोटी चादर तैर रही है, जो अलबामा और फ्लोरिडा के तटों तक पहुंच चुकी है। कैटरीना से बुरी तरह तबाह लुइसियाना के लिए यह दोहरी मार है। इलाके के मछली व पर्यटन उद्योग को 5.5 अरब डॉलर का नुकसान होना तय है। इस इलाके में दूसरे तेल कुएं भी बंद होंगे, जिससे 20 हजार नौकरियां अलग से जाएंगी। फ्लोरिडा तट की तेज समुद्री धाराएं इस तेल को पूरे अटलांटिक क्षेत्र में फैलाकर अब तक की सबसे बड़ी पर्यावरण त्रासदी बनाने को बेताब हैं। यदि ऐसा हुआ तो उबरने में वर्षो लग जाएंगे जैसे कि कार्बाइड फैक्ट्री में पड़ा 390 टन जहरीला कचरा आज भी भोपाल के भूजल को प्रदूषित कर रहा है।
अपराध या चूक?
बराक ओबामा पिछले दस दिन में तीन बार मैक्सिको खाड़ी तट पर जा चुके हैं। फिर भी यह तेल व्हाइट हाउस तक पहुंच ही गया है। नियमों को तोड़कर तेल कंपनियों को मंजूरी देने के आरोप बड़े हो रहे हैं। तेल खोज से संबंधित अमेरिकी कानून नार्वे से भी लचर पाए गए हैं। ओबामा के मुल्क में भी बड़ी कंपनियां कानून से ऊपर हैं। उनकी किलेबंदी के भीतर जाकर सुरक्षा जांच नहीं होती। चेतावनियां बाहर नहीं आतीं और नसीहतें खो जाती हैं। इसी मैक्सिको खाड़ी में 1979 में पेट्रोलॉस मेक्सिकॉना के आइक्सोटॉक्स वन और 1989 में अलास्का में एक्सॉन के कुएं से भयानक तेल रिसाव हुआ था, लेकिन अमेरिका में कोई सबक नहीं लिया गया। याद कीजिए कि कार्बाइड से भोपाल में 1981 से लेकर 1984 तक गैस रिसने के आधा दर्जन मामले सामने आए थे।कंपनी के अपने विशेषज्ञों ने बड़ा खतरा बताया था, लेकिन यह अमेरिकी दिग्गज तो हर पड़ताल से ऊपर थी और इसलिए बाद में भी कायदे से जांच नहीं हुई। अमेरिका के लोग डरते हैं कि बीपी का रसूख उन्हें इंसाफ नहीं मिलने देगा। औद्योगिक हादसे, आमतौर पर आपराधिक लापरवाही बनाम अनजाने में चूक की, खींचतान में उलझते हैं और फिर भोपाल जैसा एक बड़ा हादसा कानून की निगाह में छोटी सी तकनीकी चूक साबित हो जाता है। पिछले साल छत्तीसगढ़ में एक निजी कंपनी के संयंत्र में चिमनी गिरने से 45 लोगों के मारे जाने की घटना सबसे ताजी है। इसमें कुछ छोटे अधिकारियों की गर्दनें कलम हुई और बात खत्म हो गई। तभी तो यूनियन कार्बाइड की वेबसाइट पर भोपाल त्रासदी आज भी एक सैबोटाज यानी तोड़फोड़ की घटना के तौर पर दर्ज है और बीपी के लिए मैक्सिको का हादसा बस एक मशीन की असफलता है।
कैसे-कैसे नतीजे?
भोपाल को लेकर छब्बीस साल बाद राजनीति के अलावा और क्या हो सकता है? लेकिन मेक्सिको की खाड़ी में बाजार को एक नए तेल संकट के साए दिख रहे हैं। पूरे विश्व में गहरे समुद्र से तेल निकालने पर सख्ती शुरू हो गई है। अमेरिका ने छह माह के लिए मैक्सिको की खाड़ी में तेल की खोज रोक (80 हजार बैरल प्रतिदिन का उत्पादन नुकसान) दी है। नार्वे सहित अन्य तेल उत्पादक देश भी इसी राह पर हैं। जबकि अगले दस साल में आधा समुद्री तेल उत्पादन गहरे सागरों से ही आना है, जिसके लिए चार सालों में 167 बिलियन डॉलर लगाए जाने हैं। लेकिन बीपी की चूक पूरे उद्योग को पटरी से उतार कर तेल की कीमतों को आसमान पर चढ़ा सकती है। वैसे भी गहरे समुद्र में तेल का रिसाव रोकना बहुत मुश्किल है। रूस में, कथित तौर पर, दशकों पहले हुए प्रयोग के सहारे इस कुएं को बंद करने के लिए परमाणु विस्फोट की बात भी चल पड़ी है। विस्फोट हो या न हो, लेकिन बीपी की बैलेंस शीट में भारी नुकसान का धमाका तय है। कंपनी के लिए हादसे की ताजा लागत 1.25 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई है। 80 मिलियन डॉलर का हर्जाना भर चुकी बीपी के सामने मुकदमों की फौज तैयार है। कंपनी को 20 बिलियन डॉलर तक की चपत लग सकती है, जो इसके अस्तित्व पर भारी पड़ेगी। इसलिए अधिग्रहण की चर्चाएं भी शुरू हो गई हैं। भोपाल हादसे के बाद यूनियन कार्बाइड भी बंटती बिखरती अंतत: 1999 में डाउ केमिकल्स में समा गई थी। सियासत अमेरिका में भी कम गरम नहीं है। बीपी अचानक विदेशी कंपनी कही जाने लगी है। इसे जानबूझकर ब्रिटिश पेट्रोलियम (एक दशक पुराना नाम) के नाम से बुलाया रहा है। लंदन की सियासत भी जवाब देने लगी है।
भोपाल की गैस अमेरिका तक नहीं पहुंची थी, मैकोंडो कुएं से निकल कर समुद्र में तैरता तेल भारत नहीं आएगा। इसलिए लुइसियाना व भोपाल के लिए बस संकट का ही साझा है। इसके बादतो पैमाने दोहरे तिहरे हो जाते हैं। भारत अब महसूस कर रहा है कि कार्बाइड सस्ते में छूट गई और एंडरसन का प्रत्यर्पण होना चाहिए। लेकिन अमेरिका बीपी से तगड़ी कीमत वसूलने की तैयारी में है। भोपाल हादसे पर ताजा अदालती फैसले के बाद अमेरिका के लिए दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी की फाइल अब बंद हो गई है, मगर मैक्सिको खाड़ी को देखकर गुस्से में भरे बराक ओबामा बीपी के प्रमुख टोनी हेवार्ड को किक (ताजा विवादित बयान) करना चाहते हैं। ....तीसरी और पहली दुनिया में इतना फर्क तो होता ही है न!
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