Monday, March 12, 2012

बजट का जनादेश

ग्रोथ भी गई और वोट भी गया! क्‍या खूब भूमिका बनी है बारह के बजट की। आर्थिक नसीहतें तो मौजूद थीं ही अब राजनीतिक सबक का ताजा पर्चा भी वित्‍त मंत्री की मेज पर पहुंच गया है। पांच राज्यों के महाप्रतापी वोटरों ने पारदर्शिता और भ्रष्टाचार से लेकर ग्रोथ तक और स्थिरता से लेकर बदलाव तक हर उस पहलू पर ऐसा बेजोड़ फैसला दिया है जो किसी भी समझदार बजट का कच्चा माल बन सकते हैं। भ्रष्टाचार पर उत्तर प्रदेश का वोटर सत्ता विरोधी हो गया हैं तो ग्रोथ के सबूतों के साथ पंजाब के वोटर बादल को दोबारा आजमाने जा रहे हैं। वित्त मंत्री यदि बजट को इन चुनाव नतीजों को रोशनी में लिखेंगे तो उन्हें तो उन्‍हें केवल आज की नहीं बलिक बीते और आने वाले कल की मुसीबतों के समाधान भी देने होंगे। क्‍यों कि सरकार असफलताओं के सियासी तकाजे शुरु हो गए हैं। कांग्रेस के प्रति वोटरों का यह समग्र इंकार यूपीए सरकार के खाते में जाता है। चुनावी इम्‍तहानो का पूरा कैलेंडर (दो वर्षो में कई राज्‍यों के चुनाव) सामने है इसलिए एक खैराती नहीं बल्कि खरा बजट देश की जरुरत और कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरी बन गया है।
बीते कल का घाटा
अगर वित्‍त मंत्री उत्‍तर प्रदेश के नतीजों को पढ़कर बजट बनायेंगे तो उनका बजट बहुत दम खम के साथ उस घाटे को खत्‍म करने की बात करेगा जिसने उत्‍तर प्रदेश में राहुल गांधी की मेहनत पानी फेर दिया। अगली चुनावी फजीहत से बचने के लिए एक पारदर्शी सरकार का कौल इस बजट की बुनियाद होना चाहिए कयों कि केंद्र सरकार के भ्रष्‍टाचार ने कांग्रेस की राजनीतिक उममीदों का वध कर दिया है। माया राज मे यूपी की ग्रोथ इतनी बुरी नहीं थी। कानून व्‍यवस्‍था भी कमोबेश ठीक ही थी। जातीय गणित भी मजबूत थी लेकिन बहन जी का सर्वजन दरअसल विकट भ्रष्‍टाचार के कारण उखड़ गया। कांग्रेस अपने दंभ में यह भूल

Monday, March 5, 2012

सरकार गारंटी योजना

जट से कुछ महंगा सस्‍ता होता है क्‍या? टैक्‍स में कमी बेशी का रोमांच भी अब कितना बचा है ?  घाटे की खिच खिच भी बेमानी है। बारह का बजट इन पुराने पैमानों का बजट होगा ही नहीं। इस बजट में तो पूरी दुनिया भारत की वह सरकार ढूंढेगी जो पिछले तीन साल में कहीं खो गई है और सब कुछ ठप सा हो गया है। देश में गरीबों की तादाद, उद्योगों के लिए जमीन मिलने में देरी, टैक्‍स हैवेन में रखा पैसा, हसन अलियों का भविष्‍य, हाथ पर हाथ धरे बैठी नौकरशाही, नए कानूनों का टोटा, नियामकों की नाकामी, नीतियों का शून्‍य !!!.. यही नामुराद सवाल ही इस साल का असली बजट हैं। क्‍येां कि हमारी ताजी मुसीबतों की पृष्‍ठभूमि पूरी तरह से गैर बजटीय है। कुछ पुरानी गलतयिां नई चुनौतियों से मिल कर बहुआयामी संकट गढ रही हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ेगा कि यह बजट सरकारी स्‍कीमों में मुंह में कितना चारा रखता है अंतर से बात से पड़ेगा कि वित्‍त मंत्री सरकार (गवर्नेंस) गारंटी योजना कितनी ठोस नीतियो का आवंटन करते हैं। या सरकार के साखकोषीय घाटे के कम करने के लिए क्‍या फार्मूला लाते हैं। यह राजकोष का बजट है ही नहीं यह तो राजकाज यानी नीतियों का बजट है।
साख की मद
हमारी ताजी मुसीबतें बजट के फार्मेट से बाहर पैदा हो रही हैं। कोयले की कमी कारण प्रधानमंत्री के दरबार मे बिजली कंपनियों की गुहार, जमीन अधिग्रहण कानून के कारण लटकी परियोजनायें , पर्यावरण मंजूरी में फंसे निवेश, राज्‍य बिजली बोर्डों को कर्ज देकर डूबते बैंक, फारच्‍यून 500 कंपनी ओनएजीसी के लिए निवेशको का टोटा.............. इनमें से एक भी मुसीबत बजट के किसी घाटे से पैदा नहीं हुईं। 2जी पर अदालत के फैसले के बाद सरकार आवंटन की प्रक्रिया शुरु करनी चाहिए थी मगर सरकार एक साल का वकत मांग रही है यानी एक लंबी अनिश्चितता की बुनियाद रखी जा रही है। भूमि अधिग्रहण, खानों के आवंटन, औद्योगिक पुनर्वास जैसे तमाम कानून अधर में हैं। समझदार निवेशक भारत में कानून के राज पर भरोसा

Monday, February 27, 2012

सूझ कोषीय घाटा

धाई! हमने अपने बजट की पुरानी मुसीबतों को फिर खोज लिया है। सब्सिडी का वही स्यापा, सरकारी स्कीमों के असफल होने का खानदानी मर्ज, खर्च बेहाथ होने का बहुदशकीय रोना और बेकाबू घाटे का ऐतिहासिक दुष्चक्र। लगता हैं कि हम घूम घाम कर वहीं आ गए हैं करीब बीस साल पहले जहां से चले थे। उदारीकरण के पूर्वज समाजवादी बजटों का दुखदायी अतीत जीवंत हो उठा है। हमें नास्टेल्जिक (अतीतजीवी) होकर इस पर गर्व करना चाहिए। इसके अलावा हम कर भी क्या कर सकते हैं। बजट के पास जब अच्छा राजस्व, राजनीतिक स्थिरता, आम लोगों की बचत, आर्थिक उत्पादन में निजी निवेश आदि सब कुछ था तब हमारे रहनुमा बजट की पुरानी बीमारियों से गाफिल हो गए इसलिए असंतुलित खर्च जस का तस रहा और जड़ो से कटीं व नतीजो में फेल सरकार स्कीमों में कोई नई सूझ नहीं आई । दरअसल हमने तो अपनी ग्रोथ के सबसे अच्छे वर्ष बर्बाद कर दिये और बजट का ढांचा बदलने के लिए कुछ भी नया नहीं किया। हमारे बजट का सूझ-कोषीय घाटा, इसके राजकोषीय घाटे से ज्यादा बड़ा है।
बजट स्कीम फैक्ट्री
बजट में हमेशा से कुछ बड़े और नायाब टैंक रहे हैं। हर नई सरकार इन टैंकों पर अपने राजनीतिक पुरखों के नाम का लेबल लगा कर ताजा पानी भर देती है। यह देखने की फुर्सत किसे है इन टैंकों की तली नदारद है। इन टंकियों को सरकार की स्कीमें कह सकते हैं। बजट में ग्रामीण गरीबी उन्मूलन व रोजगार, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और ग्रामीण आवास को मिलाकर कुल पांच बड़ी टंकियों, माफ कीजिये, स्कीमों का कुनबा है। देश में जन कल्याण की हर स्कीम की तीन पीढिय़ा बदल गईं हैं मगर हर स्कीम असफलता व घोटाले में समाप्त हुई। गरीब उन्‍मूलन और ग्रामीण रोजगार स्कीमें तो असफल प्रयोगों का अद्भुत इतिहास

Monday, February 20, 2012

गफलत का टैक्‍स

टैक्‍स की दुनिया का ताजा और सबेस बड़ा सबक क्‍या है, एक नौसिखुए वकील ने अपने सीनियर से पूछा। कोर्ट कोर्ट का पानी पिये घाघ वरिष्‍ठ अधिवक्‍ता ने अपना मोटा चश्‍मा पोंछते हुए कहा कि डियर, जब सरकार बोदी और सुस्‍त हो और बाजार तेज, तो टैक्‍स की दु‍निया में गफलत कीमत 11000 करोड़ रुपये तक हो सकती है। वोडाफोन जब अदालत में जीत कर भारी राजस्‍व चुग गई तब वित्‍त मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट के सामने फैसला बदलने के लिए पछता और गिड़गिड़ा रहा है। तेजी से बदलते बाजार में टैक्‍स कानूनों को बदलने में देरी विस्‍फोटक और आत्‍मघाती हो चली है। पुराने कर कानूनों की तलवार हमें तीन तरफ से काट रही है कंपनियां अस्थिर टैक्‍स प्रणाली से हलाकान हैं। कानूनों के छेद सरकारी राजसव की जेब काट रहे हैं और टैक्‍स हैवेन से लेकर फर्जी कंपनियों तक, स्‍याह सफेद धंधों वाले हर तरफ चांदी कूट रहे हैं, क्‍यों कि टैक्‍स में सुधार का पूरा एजेंडा (प्रत्‍यक्ष कर कोड और गुड्स एंड सर्विसेज टैक्‍स) बैठकों में घिसट रहा है। इस बजट से यह पता चल जाएगा कि सरकार व सियासत टैक्‍स सुधार को कब तक टालेगी और कितनी कीमत चुकायेगी।
देरी की दर
डायरेक्‍ट टैक्‍स (आयकर, कंपनी आयकर आदि) कोड यानी नया कानून लागू हो गया होता तो वोडाफोन के मुकाबले सरकार की इतनी बडी अदालती हार नहीं होती। डायरेक्‍ट टैक्‍स कोड में यह प्रावधान है कि यदि भारत में काम करने वाली कोई कंपनी अपनी हिस्‍सेदारी (इक्विटी) की खरीद बिक्री विदेश में करती है तो उस पर भारतीय टैकस कानून लागू होगा। मगर कानून अधर में लटका है और लुटा पिटा आयकर विभाग अब डायरैकट टैक्‍स कोड का इंतजार किये बगैर इस साल के बजट में ही यह छेद बंद करने को मजबूर हो गया है। वक्‍त पर कानून बदलने में देरी बहुत महंगी पड़ी है। क्‍यों कि यह फैसला केवल एक वोडाफोन हच इक्विटी सौदे पर नहीं बलिक इसी तरह के कई और लेन देन को प्रभावित करेगा। दो साल से तैयार डायरेक्‍ट टैकस कोड जिस तरह केंद्र सरकार में नीतिगत फैसलों के शून्‍य का शिकार हुआ हुआ है ठीक उसी तरह अप्रत्‍यक्ष करो में सुधार का अगला चरण यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्‍स कमजोर केंद्र और ताकतवर राज्‍यों की राजनीति

Monday, February 13, 2012

चूके तो, चुक जाएंगे

स्‍तूर तो यही है कि बजट को नीतियों से सुसज्जित, दूरदर्शी और साहसी होना चाहिए। दस्‍तूर यह भी है कि जब अर्थव्‍यवस्‍था लड़खड़ाये तो बजट को सुधारों की खुराक के जरिये ताकत देनी चाहिए और दस्‍तूर यह भी कहता है कि पूरी दुनिया में सरकारें अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं को मंदी और यूरोप की मुसीबत से बचाने हर संभव कदम उठाने लगी हैं, तो हमें भी अंगड़ाई लेनी चाहिए। मगर इस सरकार ने तो पिछले तीन साल फजीहत और अफरा तफरी में बिता दिये और देखिये वह रहे बड़े (लोक सभा 2014) चुनाव। 2012 के बजट को सालाना आम फहम बजट मत समझिये, यह बड़े और आखिरी मौके का बहुत बडा बजट है क्‍यों कि अगला बजट (2013) चुनावी भाषण बन कर आएगा और 2014 का बजट नई सरकार बनायेगी। मंदी के अंधेरे, दुनियावी संकटों की आंधी और देश के भीतर अगले तीन साल तक चलने वाली चुनावी राजनीति बीच यह अर्थव्‍यव‍स्‍था के लिए आर या पार का बजट है यानी कि ग्रोथ,साख और उम्‍मीदों को उबारने का अंतिम अवसर। इस बार चूके तो दो साल के लिए चुक जाएंगे।
उम्‍मीदों की उम्‍मीद
चलिये पहले कुछ उम्‍मीदें तलाशते हैं, जिन्‍हें अगर बजट का सहारा मिल जाए तो शायद सूरत कुछ बदल जाएगी। पिछले चार साल से मार रही महंगाई, अपने नाखून सिकोड़ने लगी है। यह छोटी बात नहीं है, इस महंगाई ने मांग चबा डाली, उपभोक्‍ताओं को बेदम कर दिया और रिजर्व बैंक ने ब्‍याज दरें बढ़ाईं की ग्रोथ घिसटने लगी। दिसंबर के अंत में थोक कीमतों वाली मुद्रास्‍फीति बमुश्मिल तमाम 7.40 फीसदी पर आई है। महंगाई में यह गिरावट एक निरंतरता दिखाती है, जो खाद्य उत्‍पाद सस्‍ते होने के कारण आई जो और भी सकारात्‍मक है। महंगाई घटने की उम्‍मीद के सहारे रिजर्व बैंक ने ब्‍याज दरों की कमान भी खींची है। उम्‍मीद की एक किरण विदेशी मुद्रा बाजार से भी निकली है। 2011 की बदहाली के विपरीत सभी उभरते बाजारों में मुद्रायें झूमकर उठ खडी हुई हैं। रुपया, पिछले साल की सबसे बुरी कहानी थी मगर जनवरी में डॉलर के मुकाबले रुपया चौंकाने वाली गति से मजबूत हुआ है। यूरोप को छोड़ बाकी दुनिया की अर्थव्‍यव्‍स्‍थाओं ने मंदी से जूझने में जो साहस‍ दिखाया, उसे खुश होकर निवेशक भारतीय शेयर बाजारों की तरफ लौट पडे। जनवरी में विदेशी निवेशकों ने करीब 5 अरब डॉलर भारतीय बाजार में डाले जो 16 माह का सर्वोच्‍च स्‍तर है। जनवरी में निर्यात की संतोषजनक तस्‍वीर ने चालू खाते के घाटे और रुपये मोर्चे पर उम्‍मीदों को मजबूत किया है। उम्‍मीद की एक खबर खेती से भी