ग्रोथ की कब्र पर सुधारों का जो नया झंडा लगा है उससे उम्मीद और संतोष नहीं बलिक ऊब होनी चाहिए। अब झुंझलाकर यह पूछने का वक्त है कि आखिर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार इस देश का करना क्या चाहती है। देश की आर्थिक हकीकत को लेकर एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का अंदाजिया अंदाज हद से ज्यादा चकित करने वाला है। यह समझना जरुरी है कि जिन आर्थिक सुधारों के लिए डॉक्टर मनमोहन सिंह शहीद होना चाहते हैं उनके लिए न तो देश का राजनीतिक माहौल माकूल है और दुनिया की आर्थिक सूरत। देश की अर्थव्यवस्था को तो पर्याप्त ऊर्जा, सस्ता कर्ज और थोड़ी सी मांग चाहिए ताकि ग्रोथ को जरा सी सांस मिल सके। पूरी सरकार के पास ग्रोथ लाने को लेकर कोई सूझ नहीं है मगर कुछ अप्रासंगिक सुधारों को लेकर राजनीतिक स्वांग जरुर शुरु हो गया है, जिससे प्रधानमंत्री की साख उबारने का जतन किया जा रहा है।
कौन से सुधार
कथित क्रांतिकारी सुधारों की ताजी कहानी को गौर से पढि़ये इसमें आपको सरकार की राजनीति और आर्थिक सूझ की कॉमेडी नजर आएगी। यह भी दिेखेगा कि अर्थव्यवस्था की नब्ज से सरकार का हाथ फिसल चुका है। एक गंभीर और जरुरी राजनीतिक सूझबूझ मांगने वाला सुधार किस तरह अंतरराष्ट्रीय तमाशा बन सकता है, खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश इसका नमूना है। दुनिया के किस निवेशक को यह नहीं मालूम कि भारत का राजनीतिक माहौल फिलहाल मल्टीब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश के माफिक नहीं है। अपना इकबाल गंवा चुकी एक लुंज पुंज गठबंधन सरकार