Monday, April 8, 2013

अवसरों का अपहरण





लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सौ परिवारों के पास

मुख्‍यमंत्री ग्रोथ के मॉडल बेच रहे हैं और देश की ग्रोथ का गर्त में है! रोटी, शिक्षा से लेकर सूचना तक, अधिकार बांटने की झड़ी लगी है लेकिन लोग राजपथ घेर लेते हैं! नरेंद्र मोदी के दिलचस्‍प दंभ और राहुल गांधी की दयनीय दार्शनिकता के बीच खड़ा देश अब एक ऐतिहासिक असमंजस में है। दरअसल, भारतीय लोकतंत्र का एक नया संस्‍करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सैकडा परिवारों के पास। इस नायाब तंत्र के ताने बाने, सभी राजनीतिक दलों को आपस में जोडते हैं अर्थात इस हमाम के आइनों में, सबको सब कुछ दिखता है इसलिए राजनीतिक बहसें खोखली और प्रतीकात्‍मक होती जा रही हैं जबकि लोगों के क्षोभ ठोस होने लगे हैं।
यदि ग्रोथ की संख्‍यायें ही सफलता का मॉडल हैं तो गुजरात ही क्‍यों उडीसा, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़, त्रिपुरा, उत्‍तराखंड, सिक्किम भी कामयाब हैं अलबत्‍ता राज्‍यों के आर्थिक आंकड़ों पर हमेशा से शक रहा है। राष्‍ट्रीय ग्रोथ की समग्र तस्‍वीर का राज्‍यों के विपरीत होना आंकड़ों में  संदेह को पुख्‍ता करता है। दरअसल हर राज्‍य में उद्यमिता कुंठित है, निवेश सीमित है, तरक्‍की के अवसर घटे हैं, रोजगार नदारद है और लोग निराश हैं। ग्रोथ के आंकड़े अगर ठीक भी हों तो भी यह सच सामने नहीं आता कि भारत का आर्थिक लोकतंत्र लगभग विकलांग हो गया है। 
उदारीकरण से सबको समान अवसर मिलने थे लेकिन पिछले एक दशक की प्रगति चार-पांच सौ कंपनियों की ग्रोथ में

Monday, April 1, 2013

सर पर टंगा टाइम बम




विदेशी मुद्रा सुरक्षा ही हमारी सबसे कमजोर नस है जो बुरी तरह घायल है। इक्‍यानवे में हम इसी घाट डूबे थे।

भारत अगर डॉलर छाप सकता या आयात का भुगतान रुपये में हो जाता तो सियासत आर्थिक चुनौतियों को किसी भाव नहीं गिनती। शुक्र है कि हम गंजों को ऐसे नाखून नहीं मिले। लेकिन अब तो राजनीति नशा उतरना चाहिए क्‍यों कि भारत विदेशी मुद्रा संकट से बस कुछ कदम दूर है और इस आफत को रुपये छापकर या आंकडों के खेल से रोका नहीं जा सकता। देश के पास महज साढे छह महीने के आयात के लायक विदेशी मुद्रा बची है। विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी का फर्क बताने वाले चालू खाते का घाटा फट पड़ने को है। डॉलर के मुकाबले रुपया तीखी ढलान पर टिका है, जहां नीचे गिरावट की गर्त है। दरअसल, भारत अब विदेशी मुद्रा संकट के टाइम बम पर बैठ गया है और उत्‍तर कोरिया में चमकती मिसाइलों से लेकर दरकते यूरोजोन और खाड़ी की चुनौतियों जैसे तमाम पलीते आसपास ही जल रहे हैं।

Sunday, March 31, 2013

उलटा चलो रे !


 ठसक के साथ रुढि़वादी होने की सुविधा और पिछड़ेपन को ब्रांड बनाने का मौका  राजनीति में ही मिल सकता है। हम फिर साबित करने जा रहे हैं कि हम इतिहास से
यही सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा।

तिहास से बचने और अर्थशास्‍त्र से नजरें चुराने एक सिर्फ एक ही रास्‍ता है कि  सियासत की रेत में सर गड़ा दिया जाए। क्‍यों कि ठसक के साथ रुढि़वादी होने की सुविधा और पिछड़ेपन को ब्रांड बनाने का मौका  राजनीति में ही मिल सकता है। पिछडापन तय करने के नए तरीकों और विशेष राज्‍यों के दर्जे की मांग के साथ भारत में सत्‍तर अस्‍सी का दशक जीवंत हो रहा है जब राज्‍यों के बीच बहसें तरक्‍की को लेकर नहीं बल्कि केंद्रीय मदद में ज्‍यादा हिस्‍सा लेने को लेकर होती थीं जिसमें खुद पिछड़ेपन का बहादुर साबित करना जरुरी था।
राज्‍यों के आर्थिक पिछड़ेपन लेकर भारत में अचछी व बुरी नसीहतों का भरपूर इतिहास मौजूद है जो उदारीकरण व निजी निवेश की रोशनी में ज्‍यादा प्रामाणिक हो गया है। उत्त्‍तर पूर्व का ताजा हाल, भौगोलिक पिछड़ापन दूर करने के लिए विशेष दर्जें वाले राज्‍यों की प्रणाली की असफलता का इश्तिहार है। छोटे राज्‍य बनाने की सूझ भी पूरी तरह कामयाब नहीं हुई। पिछड़े क्षेत्रों के लिए विशेष अनुदानों के बावजूद मेवात, बुंदेलखंड, कालाहांडी की सूरत नहीं बदली जबकि राज्‍यों को केंद्रीय सहायता बांटने का फार्मूला कई बार बदलने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा। यहां तक कि राज्‍यों को किनारे रखकर सीधे पंचायतों तक मदद भेजने की कोशिशें भी अब दागी होकर निढाल पड़ी हैं। 


केंद्रीय सहायता में आरक्षण यह नई बहस तब शुरु हो रही है जब राज्‍यों में ग्रोथ के ताजा फार्मूले ने पिछड़ापन के दूर करने के सभी पुराने प्रयोगों की श्रद्धांजलियां प्रकाशित कर दी हैं। पिछले एक दशक में यदि उड़ीसा, राजसथान, मध्‍य प्रदेश जैसे बीमारुओं ने महाराष्‍ट्र, पंजाब या तमिलनाडु को पीछे छोड़ा है तो इसमें केंद्र सरकार की मोहताजी नहीं बलिक सक्षम गर्वनेंस, निजी उद्यमिता को प्रोत्‍साहन और दूरदर्शी सियासत काम आई। इसलिए विशेष दर्जे वाले नए राजयों की मांग के साथ न तो इतिहास खड़ा है और न ही उलटे चलने की इस सूझ को अर्थशास्‍त्र का समर्थन मिल रहा है।
इतिहास का सच
1959 में मिजोरम की पहाडि़यों पर बांस फूला था, जिसे खाने के लिए जुटे चूहे बाद में मिजो किसानों के अनाज का बीज तक खा गये। मिजोरम की पहाडि़यों पर अकाल की मौत नाचने लगी। सेना के हवलदार और बाद में आइजोल में क्‍लर्क की नौकरी करने वाले

Monday, March 25, 2013

साइप्रस का सच



साइप्रस काली कमाई की ग्‍लोबल पनाहगाह है और एक टैक्‍स हैवेन को उदारता से उबारने के लिए यूरोप में कोई तैयार नहीं था। 

नैतिक तकाजे अब राजनीतिक और आर्थिक तकाजों पर कम ही भारी पडते हैं। लेकिन जब भी नैतिकता ताकतवर होती है तो सच को छिपाना मुश्किल हो जाता है। कई व्‍यावहारिक झूठ गढते हुए यूरोप अपने आर्थिक ढांचे के उस सच को छिपाने की कोशिश कर रहा था जिसे दुनिया टैक्‍स हैवेन के नाम से जानती है। साइप्रस के संकट के साथ काली कमाई को छिपाने वाले यूरोपीय अंधेरे खुल गए हैं। यह वही साइप्रस है जिसे यूरोपीय संघ में शामिल कराने के लिए ग्रीस ने 2004 में बाकायदा ब्‍लैकमेल किया था और संघ के विस्‍तार की योजना को वीटो कर दिया था। अंतत: इस टैक्‍स हैवेन को एकल यूरोपीय मुद्रा के चमकते मंच पर बिठा लिया गया। लेकिन अब जब साइप्रस डूबने लगा तो यूरो जोन के नेता इसे बचाने के लिए ग्रीस, इटली या स्‍पेन जैसे दर्दमंद इसलिए नहीं हुए क्‍यों कि नैतिकता भी कोई चीज होती है। साइप्रस काली कमाई की ग्‍लोबल पनाहगाह है और एक टैक्‍स हैवेन को उदारता से उबारने के लिए यूरोप में कोई तैयार नहीं है। इसलिए साइप्रस पर सख्‍त शर्तें लगाई गईं और यूरोपीय संकट में पहली बार यह मौका आया जब यूरोपीय संघ अपनी एकता की कीमत पर साइप्रस को संघ से

Monday, March 18, 2013

पिछड़ने का पुरस्‍कार



विशेष राज्‍य की श्रेणी के लिए बेताब राज्‍य सरकारें अपनी दयनीयता के पोस्‍टर बांटना शुरु  करेंगी और ज्‍यादा संसाधनों के लिए केंद्र सरकार के राजनीतिक अहंकार को सहलायेंगी। 

भारत की आर्थिक राजनीति में एक नए दकियानूसी दौर का आगाज हो गया है। केंद्र सरकार पिछड़े राज्‍य चुनने का पैमाना बदलने वाली है यानी कि राज्‍यों के बीच खुद को दूसरे से ज्‍यादा पिछड़ा और दरिद्र साबित करने की प्रतिस्‍पर्धा शुरु होने वाली है। विशेष राज्‍य की श्रेणी के लिए बेताब राज्‍य सरकारें अब अपनी दयनीयता के पोस्‍टर बांटना शुरु कर करेंगी और ज्‍यादा संसाधनों के लिए केंद्र सरकार के राजनीतिक अहंकार को सहलायेंगी। बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार का अभियान शुरु हो गया है, उड़ीसा व बंगाल को इस जुलूस में बुलाया जा रहा है। हकीकत यह है कि केंद्र से राज्‍यों को संसाधन देने का ढांचा पिछले एक दशक में इस कदर बदला है कि केंद्र अब पिछडेपन का तमगा तो दे सकता है लेकिन ज्‍यादा संसाधन नहीं। उत्‍तर पूर्व की हालत, चार दशक पुरानी विशेष राज्‍य प्रणाली की समग्र असफलता का दस्‍तावेजी प्रमाण हैं। इसलिए नए गठबंधन जुगाड़ने का यह कांग्रेसी पैंतरा अंतत: राज्‍यों की मोहताजी और विभाजक सियासत की नई नुमाइश शुरु करने वाला है।  
भारत में 1969 तक राज्‍यों के बीच आम व खास कोई फर्क नहीं था। पांचवे वित्‍त आयोग ने जटिल भौगोलिक स्थिति, कम व बिखरी जनसंख्‍या, सीमित राजस्‍व और अंतरराष्‍ट्रीय सीमा पर स्थिति को देखते हुए