Monday, September 23, 2013

जनता की नब्‍ज


पश्चिम में वित्‍तीय पारदर्शिता की निर्णायक मुहिम शुरु हो चुकी है लेकिन भारत में भ्रष्‍टाचार के खिलाफ जनांदोलन से कुछ नहीं बदला। भारतीय सियासत काले धन के प्रयोग का सबसे बड़ा उत्‍सव मनाने जा रही है जिसे आम चुनाव कहते हैं। 
सियासत की चमड़ी मोटी जरुर होती है लेकिन यह पूरी दुनिया में एक जैसी सख्‍त हरगिज नहीं है। कहीं एक दो आवाजें ही राजनीति की कठोर जिल्‍द पर बदलाव की तहरीर छाप देती हैं तो कहीं आंदोलनों की आंधी और जनता के सतत आग्रहों के बावजूद सियासत की छाल पर सिलवटें नहीं आतीं। बदलावों के ताजा आग्रह सिर्फ जनता की बैचैनी ही नहीं बताते बल्कि यह भी जाहिर करते हैं कि किस मुलक की सियासत कितनी जिद्दी और रुढि़वादी या प्रगतिशील व संवेदनशील है। जनता की नब्‍ज समझन में पश्चिम की सियासत एक बार फिर हमसे इक्‍कीस साबित हुई है। यह वित्‍तीय पारदर्शिता को लेकर ग्‍लोबल अपेक्षाओं की जीत ही थी कि सीरिया के संकट के बावजूद बीते पखवारे जी 20 शिखर बैठक में दुनिया के अगुआ देशों ने टैक्‍स हैवेन पर नकेल डॉलने व टैक्‍स पारदर्शिता के अब तक के सबसे बडे अभियान को मंजूरी दे दी। यूरोप के देश व अमेरिका अगले कुछ माह में जब टैक्‍स की विश्‍वव्‍यापी चोरी रोकने के नए कानून लागू कर रहे होंगे तब भारत की मोदियाई और दंगाई राजनीति, काले धन पर रोक व पारदर्शिता के आग्रहों को कोने में टिकाकर चुनावों की दकियानूसी सियासत में लिथड़ रही होगी। 
सेंट पीटर्सबर्ग में जी20 की ताजा जुटान से काली कमाई के जमाघरों यानी टैक्‍स हैवेन के नकाब नोचने की सबसे दूरदर्शी मुहिम शुरु हुई है। यूरोपीय समुदाय सहित करीब पचास देश 2015 से एक स्‍वचालित प्रक्रिया के तहत कर सूचनाओं का आदान प्रदान करेंगे ताकि कर चोरी और टैक्‍स हैवेन में छिपने के रास्‍ते बंद हो सकें। इस सहमति के बाद दुनिया के कई मुल्को में अमेरिका के फॅारेन अकाउंट टैक्‍स कंप्‍लायंस एक्‍ट (एफएटीसीए) जैसे

Monday, September 16, 2013

ग्रोथ की गर्त


यह ग्रोथ के लिए सबसे बुरा वर्ष होने वाला है। हम बुद्धू लौट कर हिंदू ग्रोथ रेट के उसी पुराने घर पर पहुंच गए हैं जहां दो दूनी चार से फिर शुरुआत करनी होगी।

ह मत समझिये कि रुपये की दुर्दशा, किस्‍म किस्‍म के घाटे और सठियाई राजनीति से घिरा भारत ग्रोथ की ग्‍लोबल बहस से बाहर हो गया है। भारत के इर्द गिर्द एक नई बहस तैयार हो रही है जो दरअसल, भारत में आर्थिक विकास दर की नई गर्त तलाशने की कोशिश है। दिग्‍गज निवेशक, बैंकर और नामचीन विश्‍लेषक किस्‍म किस्‍म के पैमानों के सहारे यह आंकने में जुटे हैं कि भारत में 2013-14 का सूरज 4 फीसद ग्रोथ के साथ डूबेगा या 3.5 फीसद। आक्रामक हताशा वालों को तो ग्रोथ दो फीसद तक गिर जाने की संभावना दिख रही है। इस बहस का इंजन अप्रैल से जून की तिमाही में 4.4 फीसद आर्थिक विकास दर से शुरु हुआ है, जो चार साल की सबसे कमजोर तिमाही है। ग्रोथ के पांच फीसद से नीचे जाने का मतलब है भारत में निवेश का  अकाल और लंबी व गहरी बेकारी। यह आर्थिक उदासी, रुपये की कमजोरी या शेयर बाजारों की तात्‍कालिक उछल कूद से ज्‍यादा बड़ी और कठिन समस्‍या है क्‍यों कि ग्रोथ सबसे बड़ी नेमत है जिसके डूबने से बाकी चुनौतियां तो स्‍वाभाविक हो जाती हैं।
आर्थिक विकास दर का लक्ष्‍य फिलहाल भारत में किसी सरकारी या निजी आर्थिक बहस का विषय नहीं है क्‍यों कि रुपये की मरम्‍मत, आयात पर रोक, पेट्रो ईंधन को महंगा करने की आपा धापी में असली मंजिल

Monday, September 9, 2013

मंदी से बड़ी चुनौती


मध्‍य पूर्व के तेल और अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता, पूरी दुनिया की ऐतिहासिक विवशता है। इनके समाधान के बिना दुनिया के बाजार स्‍वस्‍थ व स्‍वतंत्र नहीं हो सकते।

साहस, समझदारी व सूझबूझ से महामंदी तो टाली जा सकती है लेकिन ऐतिहासिक विवशताओं का समाधान नहीं हो सकता। सीरिया और अमेरिकी मौद्रिक नी‍ति में संभावित बदलावों ने ग्‍लोबल बाजारों को इस हकीकत का अहसास कर दिया है कि अरब देशों का तेल व अमेरिका का डॉलर, मंदी से बड़ी चुनौतियां हैं, और मध्‍य पूर्व के सिरफिरे तानाशाह व दुनिया के शासकों की भूराजनीतिक महत्‍वाकांक्षायें आर्थिक तर्कों की परवाह नहीं करतीं। वित्‍तीय बाजारों को इस ऐतिहासिक बेबसी ने उस समय घेरा है, जब मंदी से उबरने का निर्णायक जोर लगाया जा रहा है। सीरिया का संकट पेट्रो बाजार में फट रहा है जिस ईंधन का फिलहाल कोई विकल्‍प उपलब्‍ध नहीं है जबकि अमेरिकी मौद्रिक नीति में बदलाव वित्‍तीय बाजारों में धमाका करेगा जिनकी किस्‍मत दुनिया की बुनियादी करेंसी यानी अमेरिकी डॉलर से बंधी है। विवशताओं की यह विपदा उभरते बाजारों पर सबसे ज्‍यादा भारी है जिनके पास न तो तेल की महंगाई झेलने की कुव्‍वत है और न ही पूंजी बाजारों से उड़ते डॉलरों को रोकने का बूता है। सस्‍ती अमेरिकी पूंजी की आपूर्ति में कमी और तेल की कीमतें मिलकर उत्‍तर पूर्व के कुछ देशों में 1997 जैसे हालात पैदा कर सकते हैं। भारत के लिए यह 1991 व 1997 की कॉकटेल होगी यानी तेल की महंगाई और कमजोर मुद्रा, दोनों एक साथ।
अमेरिका टॉम हॉक्‍स मिसाइलों को दमिश्‍क में उतारने की योजना पर दुनिया को सहमत नहीं कर पाया। सेंट पीटर्सबर्ग के कांस्‍टेटाइन पैलेस की शिखर बैठक में रुस व अमेरिका के बीच जिस तरह पाले खिंचे वह ग्‍लोबर बाजारों के लिए डरावना है। 1983-84 में सीरियाई शासक असद

Monday, September 2, 2013

बाजार का इंसाफ

बाजार ने भारतीय राजनीति का निर्मम इलाज शुरु कर दिया है। 991 के सुधार भी राजनीतिक सूझबूझ से नहीं बल्कि संकट और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों पर निकले थे। 

भारत की शुतुरमुर्गी सरकार, अहंकारी राजनेता और परजीवी नौकरशाह पहली बार खुले बाजार के उस निर्मम व विकराल चेहरे से मुकाबिल हैं जो गलती होने पर माफ नहीं करता। किस्‍मत ही है कि पिछले दो दशकों में भारत ने बाजार की इस क्रूर ताकत का सामना नहीं किया जो सर्वशक्तिमान व संप्रभु देशों को कुछ हफ्तों दुनिया की मदद का मोहताज बना देती है। वित्‍त मंत्री बजा फरमाते हैं , 68-69 रुपया, अमेरिकी डॉलर की वास्‍तविक कीमत नहीं है लेकिन उनकी सुनने वाला कौन है। 70-75 रुपये के डॉलर और भारतीय शेयर बाजार की नई तलहटी पर  दांव लगा रहे ग्‍लोबल निवेशक तो दरअसल पिछले चार वर्ष के राजकाज को सजा सुनाते हुए भारत में 1997 का थाईलैंड व इंडोनेशिया रच रहे हैं जब इन मुल्‍कों की घटिया नीतियों के कारण इनकी मुद्रायें सटोरियों के ग्‍लोबल चक्रवात में फंस कर तबाह हो गईं थीं। ग्‍लोबल निवेशक पूंजी पलायन से निबटने में भारत की ताकत को तौल रहे हैं इसलिए सात माह की जरुरत का विदेशी मुद्रा भंडार होने के बावजूद अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष से मदद की गारंटी लेने की नौबत आने वाली है। यह गारंटी ही शायद देश की आत्‍मघाती राजनी‍ति को सुधारों की वापसी पर मजबूर करेगी। 
दो जुलाई 1997 को थाइलैंड ने जब अपनी मुद्रा भाट का अवमूल्‍यन किया तब तक सटोरिये सरकार की गलतियों की सजा थाई करेंसी

Monday, August 26, 2013

भरोसे का अवमूल्‍यन


 भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं।

यह कमाई का सुनहरा मौका है। बचत को डॉलर में बदलकर बाहर लाइये। रुपये के और गिरने का इंतजार करिये। 70 रुपये का डॉलर होने पर मुनाफा कमाइये  भारत के नौदौलतियों के बीच विदेशी बैंकरों, ब्रोकरों और वेल्‍थ मैनेजरों के ऐसे ई मेल पिछले कुछ महीनों से तैर रहे हैं। भारतीय कंपनियां भी डॉलर देश से बाहर ले जाने ले जाने के हर संभव मौके का इस्‍तेमाल कर रही हैं। यकीनन भारत लै‍टिन अमेरिकी मुल्‍कों की तरह बनाना रिपब्लिक नहीं है लेकिन इस भगदड़ ने एक विशाल मुल्‍क को बेहद बोदा साबित कर दिया है। यह एक अनोखी असंगति है कि किस्‍म किस्‍म के आर्थिक दुष्चक्रों के बावजूद ग्‍लोबल रे‍टिंग एजेंसियों की निगाह में भारत की साख नहीं गिरी है। भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं। इन्‍हे रोकने के लिए ही डॉलरों को विदेश ले जाने पर पाबंदियां लगाई गईं, जो मुसीबत को बढाने वाली साबित हुईं। इस बेचैनी ने भारत का एक ऐसा चेहरा उघाड़ दिया हैजिस पर अविश्‍वासअवसरवाद व आशंकाओं की छाया तैर रही है।
बहुतों को यह पचाने में मुश्किल हो रही है कि सात माह के विदेशी मुद्रा भंडार, ठीक ठाक सोना रिजर्व और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष से मदद की संभावनाएं रहते हुए भारत को कैपिटल कंट्रोल क्‍यों लागू करने पड़े, जो बाजार के मनोविज्ञान पर खासे भारी पड़े। अभी तो विदेश में बांड जारी करने या अनिवासियों को डॉलर लाने के लिए प्रोत्‍साहन देने के कदम भी नहीं उठाये गए और डॉलर बाहर ले जाने पर पाबंदियां बढ़ा दी गईं,  जो अंतिम विकल्‍प होना चाहिए था। दरअसल भारत से  नए किस्‍म का पूंजी पलायन