Monday, December 29, 2014

लोकलुभावनवाद की ‘घर वापसी’

आक्रामक हिंदुत्व का प्रेत और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी सरकार को सहज व सुरक्षित गवर्नेंस विकल्पों की तरफ ढकेल रही है मोदी सरकार भी संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है.
र्म बदल करने वालों का तो पता नहीं लेकिन मोदी सरकार के आर्थिक प्रबंधन की घर वापसी का ऐलान जरूर हो गया है. भारी सरकारी खर्च, केंद्रीय स्कीमों का राज, सरकार का जनलुभावन शृंगार और भारी घाटे के साथ, मोदी सरकार का आर्थिक दर्शन उसी घर में बसने वाला है जिस पर कांग्रेस ने इन्क्लूसिव ग्रोथ का बोर्ड लगा रखा था. मोदी सरकार इसकी जगह सबका साथ, सबका विकास का पोस्टर लगा देगी. नई सरकार का पहला बजट जल्दबाजी में बना था, जो टीम मोदी के वित्तीय और आर्थिक दर्शन को स्पष्ट नहीं करता था लेकिन धर्मांतरण के हड़बोंग के बीच जारी हुई तिमाही आर्थिक समीक्षा ने मोदी सरकार की आर्थिक रणनीति से परदा हटा दिया है. मोदी सरकार दकियानूसी और लोकलुभावन आर्थिक प्रबंधन की तरफ बढ़ रही है, जिसकी एक बड़ी झलक आने वाले बजट में मिल सकती है.
विकास के लिए सरकारी खर्च का पाइप खोलने की सूझ जिस इलहाम के साथ आई है वह और भी ज्यादा चिंताजनक है. समीक्षा ने स्वीकार किया है कि निजी कंपनियां निवेश को तैयार नहीं हैं. नई सरकार आने के बाद निजी निवेश शुरू होना चाहिए था लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी उपक्रम दो लाख करोड़ रु. की नकदी पर बैठे हैं जबकि निजी कंपनियां करीब 4.6 लाख करोड़ रु. की नकदी पर. इसके बाद निजी निवेश न होना दरअसल मेक इन इंडिया की शुरुआती असफलता पर वित्त मंत्रालय की मुहर जैसा है. केंद्र में सरकार बदलने के बाद सारा दारोमदार निजी कंपनियों के निवेश पर था, जिससे रोजगार और ग्रोथ लौटने की उम्मीद बनती थी. लेकिन सरकार को पहले छह माह में ही यह एहसास हो गया है कि निजी निवेश को बढ़ावा देने की ज्यादा कवायद करने की बजाए सरकारी खर्च के पुराने मॉडल की शरण में जाना बेहतर होगा.
भारी सरकारी खर्च की वापसी उत्साहित नहीं करती बल्कि डराती है क्योंकि केंद्र सरकार के भारी खर्च से उभरी विसंगतियों का दर्दनाक अतीत हमारे पास मौजूद है. सरकार के पास उद्योग, पुल, सड़क, बंदरगाह बनाने लायक न तो संसाधन हैं और न मौके. यह काम तो निजी कंपनियों को ही करना है. आम तौर पर सरकारें जब अच्छी गुणवत्ता की ग्रोथ और रोजगार पैदा नहीं कर पातीं तो अपने खर्च को सब्सिडी और लोकलुभावन स्कीमों में बढ़ाती हैं, जैसा कि हमने यूपीए राज के पहले चरण की कथित इन्क्लूसिव ग्रोथ में देखा था, जो बाद में बजट, ग्रोथ और निवेश को ले डूबी. मोदी सरकार का खर्च रथ भी उसी पथ पर चलेगा. नई-नई स्कीमों को लेकर मोदी का प्रेम जाहिर हो चुका है. योजना आयोग के पुनर्गठन में पुरानी केंद्रीय स्कीमों को बंद करना फिलहाल एजेंडे पर नहीं है इसलिए एनडीए की नई स्कीमों से सजे इस मोदी के रथ पर कांग्रेस सरकार की स्कीमें पहले से सवार होंगी.
केंद्र सरकार का खर्च अभियान एक कांटेदार गोला है जो अपनी कई नुकीली बर्छियों से जगह-जगह छेद करता है. सरकार का राजस्व सीमित है और औद्योगिक मंदी खत्म होने तक राजस्व में तेज बढ़ोतरी की उम्मीद भी नहीं है. सरकार के सामने भारी खर्च का बिल आने वाला है जिसमें सब्सिडी, वित्त आयोग की सिफारिशों के तहत राज्यों के करों में ज्यादा हिस्सा, केंद्रीय बिक्री कर में हिस्सेदारी का राज्यों का भुगतान और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अंतरिम राहत शामिल होंगे. इसलिए अगले बजट में घाटे की ऊंचाई देखने लायक होगी. ब्याज दरों में कमी के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को कोसने से फायदा नहीं है. अब सरकार जमकर कर्ज लेगी, जिससे ब्याज दरों में कमी के विकल्प बेहद सीमित हो सकते हैं. 
मोदी सरकार के सामने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए दो विकल्प थे. एक है सस्ता कर्ज. महंगाई में कमी से इसकी जमीन तैयार हो गई है. बैंकिंग सुधार का साहस और बजट घाटे पर नियंत्रण दो और जरूरतें थीं जो अगर पूरी हो जातीं तो अगले साल से ब्याज दरों में तेज कटौती की शुरुआत हो सकती थी. दूसरा था सरकार का भारी खर्च, जो ऊंचे घाटे, कर्ज व महंगे ब्याज की कीमत पर होगा. अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए सस्ता कर्ज, सरकार के खर्च से बेहतर विकल्प होता है क्योंकि वह निजी उद्यमिता को बढ़ावा देता है, लेकिन मोदी सरकार ने दूसरा विकल्प यानी भारी खर्च का रास्ता चुना है. इससे सरकार का लोकलुभावन मेकअप तो ठीक रहेगा लेकिन घाटे में बढ़ोत्तरी और भ्रष्टाचार व घोटालों का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा. 
मोदी सरकार, वाजपेयी की तरह भगवा ब्रिगेड को आक्रामक सुधारों से जवाब नहीं देना चाहती बल्कि यूपीए की तरह संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है. आक्रामक हिंदुत्व का प्रेत, संसद में गतिरोध और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी मोदी सरकार को सहज और सुरक्षित गवर्नेंस विकल्पों की तरफ ढकेल रही है. आर्थिक समीक्षा इशारा कर रही है कि आने वाला बजट स्कीमों से भरपूर होगा, जो घाटे को नियंत्रित करने का संकल्प नहीं दिखाएगा. उम्मीदों से रची-बुनी, बहुमत की सरकार का इतनी जल्दी ठिठक कर लोकलुभावन हो जाना यकीनन, निराश करता है लेकिन हकीकत यह है कि मोदी सरकार को अपने साहस की सीमाओं का एहसास हो गया है.

अगले साल भारत को 6 फीसदी के आसपास की विकास दर पर मुतमईन होना पड़ सकता है, जो आज की आबादी और विश्व बाजार से एकीकरण की रोशनी में, सत्तर-अस्सी के दशक की 3.5 फीसद ग्रोथ रेट के बराबर ही है, जिसे हिंदू ग्रोथ रेट कहा जाता था. गवर्नेंस बनाम उग्र हिंदुत्व के विराट असमंजस में बलि तो आर्थिक ग्रोथ की ही चढ़ेगी.

Monday, December 22, 2014

2002 बनाम 2014


मोदी ने उग्र हिंदुत्व को खारिज कर गवर्नेंस के ठोस एजेंडे पर तत्काल अमल शुरू नहीं किया तो उनके परिवार के योगीसाक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे.

रेंद्र मोदी सरकार सिर्फ अच्छी गवर्नेंस की उम्मीदों का मुकुट पहन कर ही सत्ता में नहीं पहुंची थी. सरकार बनते ही बीजेपी परिवार में दो प्रतिस्पर्धाएं एक साथ शुरू हुई हैं. एक तरफ सुशासन का परचम है, तेज आर्थिक प्रगति का उछाह है तो दूसरी तरफ उग्र हिंदुत्व की उम्मीदें भी कम ऊंची नहीं थीं. होड़ यह थी कि इनमें से कौन-सा एजेंडा अपनी धाक व धमक पहले कायम करता है. सरकार के छह माह बीतते-बीतते सुशासन के निर्गुण-निराकार आह्वानों पर उग्र हिंदुत्व का ठोस एजेंडा भारी पड़ता दिखता है. बीजेपी की पीठ पर लदा यह वेताल इतनी जल्दी सामने आ जाएगा, इसका अंदाजा खुद शायद मोदी को भी नहीं था लेकिन उग्र हिंदुत्व के पैरोकारों ने वाजपेयी सरकार के दौरान मिले अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए अपने एजेंडे पर अमल की शुरुआत में देरी नहीं की है जबकि सरकार वाजपेयी की गवर्नेंस के तजुर्बों से सबक नहीं ले पाई. इसलिए, मोदी सरकार अपनी भोर में ही उस उलझन में फंसती दिख रही है, वाजपेयी सरकार अपनी प्रौढ़ावस्था में जिस असमंजस से दो चार हुई थी.
मोदी अच्छी गवर्नेंस दे सकते हैं, इस पर किसी को शक नहीं है. लेकिन यह संदेह वाजिब है कि क्या मोदी, कट्टर हिंदुत्व के वेताल को संभाल सकते हैं जो हमेशा से बीजेपी की पीठ पर सवार है और ग्रोथ का एजेंडा पटरी से उतारने की कुव्वत रखता है? इस अक्तूबर में विहिप की स्वर्ण जयंती तैयारियों को परखते हुए हमें यह एहसास हुआ था कि भगवा समूह अपने लक्ष्यों और कार्यक्रमों को लेकर ज्यादा स्पष्ट है जबकि गवर्नेंस को लेकर मोदी की मंजिलें धुंधली व खोखली हैं. वाजपेयी, अपनी सरकार के शुरुआती दौर में इस उग्र परिवार से निबटने में ज्यादा चतुर नजर आए थे. गठजोड़ की सरकार में सहयोगी दलों के दबाव ने भी उन्हें उग्र हिंदुत्व से बचने का मौका दिया था लेकिन शायद ज्यादा मदद, उन्हें उस न्यूनतम साझा कार्यक्रम से मिली, जो चुनाव से पहले बन गया था. हिंदुत्व और स्वदेशी के जिद्दी आग्रह घोषित तौर पर इस कार्यक्रम से बाहर थे और आर्थिक सुधारों व गवर्नेंस के लक्ष्य निर्धारित थे. इसलिए सत्ता में बैठते ही सरकार ने रफ्तार पकड़ ली और उग्र हिंदुत्व जब तक दस्तक देता, तब तक सुधारों की राह पर कई कदम उठ चुके थे.
आदर्श रूप से मोदी को सत्ता में आते ही सुधार और गवर्नेंस के ठोस लक्ष्य तय कर देने चाहिए थे. संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले सुशासन का रोड मैप चर्चा में आ जाना चाहिए था ताकि भगवा विमर्श की आवाज दबी रहती. लेकिन बयानों, फैसलों व कदमों में असंगति ने सरकार की वरीयताएं बुरी तरह गड्डमड्ड कर दी हैं. संस्कृत को तीसरी भाषा बनाने का लक्ष्य पहले जरूरी था या शिक्षा में ठोस बदलावों का? बैंकों की हालत सुधारना जरूरी था या जन धन? बंद पड़े बिजली घरों को कोयला मिलना पहली जरूरत था या पचास स्कीमों से लदे-फदे गांवों पर एक और स्कीम लादना? मोदी सरकार की शुरुआती घोषणाएं हवा में लटकी हैं, संसाधनों की बुनियाद नदारद है. गवर्नेंस में उभरती थकान व यथास्थिति उग्र हिंदुत्व की बहस शुरू करने के माफिक है. प्रधानमंत्री भी अब ऐक्शन मैन की जगह उपदेशक व काउंसलर की भूमिका में आ गए हैं जो सुधारों का एजेंडा नहीं बताता बल्कि नशीली दवाएं छोड़ने की सलाह देता है.
मोदी का चुनाव अभियान अच्छी गवर्नेंस की उम्मीद और उग्र हिंदुत्व के एजेंडे का चतुर सामंजस्य था, जिसके हस्ताक्षर प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार अभियान और नतीजों तक, हर जगह मौजूद थे. सरकार में आने के बाद मोदी कुछ निश्चिंत से हो गए जबकि उग्र हिंदुत्व के पैरोकारों ने अपने लक्ष्यों को साधना शुरू कर दिया. यही वजह है कि सरकार के पहले छह माह में ही लव जेहाद, धर्मांतरण व मंदिर जैसे मुद्दे बीजेपी के मंच व नेताओं के बयानों में नजर आने लगे. इससे न केवल विकास की बहस भटक रही है बल्कि बेतरह कमजोर विपक्ष को संसद रोकने की ताकत भी मिल गई. अगर 300 अरब डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार के बावजूद रुपया कमजोर है, कंपनियां मेक इन इंडियापर भरोसा नहीं कर पा रही हैं, महंगाई घटने के बाद भी उपभोक्ता खर्च नहीं बढ़ रहा है तो उसकी वजहें केवल ग्लोबल नहीं हैं. दरअसल, नई सरकार कुछ बड़ा किए बगैर ही ठिठक गई है और उग्र हिंदुत्व का वेताल बड़ा होने लगा है.

भगवा सेना के सामने मोदी का ताजा असमंजस 2001 के वाजपेयी जैसा है, जब अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर सरकार व विहिप के बीच मोर्चा खुला था. 2002 की शुरुआत होने तक, शिला पूजन को लेकर टकराव बढ़ गया, तनाव का पारा चढ़ा, गोधरा में ट्रेन जली, गुजरात के दंगे हुए और पूरा माहौल विषाक्त हो गया. वाजपेयी ने 2002 और ’03 में आर्थिक सुधारों की भरसक कोशिश की. 2003 के अंत में तीन विधानसभाएं भी जीतीं लेकिन देश को सबसे अच्छी गवर्नेंस व सबसे तेज ग्रोथ देने वाली सरकार 2004 में वापस नहीं लौट सकी. शायद 2002 के तनाव व दंगों से उभरी असुरक्षा, वाजपेयी सरकार की बेजोड़ परफॉर्मेंस पर भारी पड़ी थी. भगवा ब्रिगेड की धमक, ग्रोथ, रोजगार और गवर्नेंस की उम्मीदों के लिए जोखिम भरी है. अगर मोदी ने उग्र हिंदुत्व को खारिज कर गवर्नेंस के ठोस एजेंडे पर तत्काल अमल शुरू नहीं किया तो उनके परिवार के योगी, साक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे.

Monday, December 15, 2014

वाजपेयी,गवर्नेंस और मोदी


वाजपेयी की गवर्नेंस की रोशनी में मोदी सरकार को परखनाकीमती निष्कर्ष उपलब्ध कराता है.
ह अक्तूबर 1998 की दोपहर थी. वाजपेयी सरकार की दूसरी पारी को कुछ महीने बीते थे और मेल-मोबाइल से परे उस दौर में सरकार की रणनीति के सूत्रधार प्रमोद महाजन से मिलने के लिए अशोक रोड के बीजेपी दफ्तर में बाट जोहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. कमरे में घुसते ही महाजन मुस्कराए, टेलीकॉम! मैंने तुरंत सवाल दागा कि लाइसेंसों का क्या होगा? महाजन ने कुछ सोचते हुए कहा, ''नई दूरसंचार नीति लाएंगे और क्या?” दूरसंचार के उदारीकरण को पहले दिन से रिपोर्ट कर रहे मेरे जैसे पत्रकार के लिए महाजन की टिप्पणी, सनसनीखेज से कम कुछ भी नहीं थी. नेशनल टेलीकॉम पॉलिसी (1994) को सिर्फ चार साल बीते थे. टेलीकॉम क्षेत्र विवादों का एक्सचेंज बन गया था. ऊंची बोली लगाकर बुरी तरह फंस चुकी कंपनियां लाइसेंस फीस देने की स्थिति में नहीं थीं. इस बीच केंद्र में तीन सरकारें गुजर चुकी थीं और वाजपेयी सरकार की दूसरी पारी में भी दो संचार मंत्री (बूटा सिंह और सुषमा स्वराज) रुखसत हो चुके थे. संचार मंत्रालय तब प्रधानमंत्री के पास था और महाजन उनके सलाहकार थे. मैंने महाजन से पूछा कि अभी तो पिछली नीति ही लागू नहीं हुई है? उन्होंने कहा, ''वाजपेयी जी चाहते हैं विवादों का कीचड़ साफ करने के लिए नई नीति बनाई जाए. हम बजट तक इसे ले आएंगे.मार्च,1999 में नई दूरसंचार नीति लागू हो गई और उसके बाद भारत की टेलीकॉम क्रांति दुनिया के लिए अध्ययन का सबब बन गई.
वाजपेयी की गवर्नेंस की रोशनी में मोदी सरकार को परखना, कीमती निष्कर्ष उपलब्ध कराता है. दूरसंचार निजीकरण के पहले दौर (1995) में लाइसेंसों के लिए ऊंची बोली लगाना कंपनियों की गलती थी. लेकिन गठजोड़ की सरकार के लिए अस्थिर राजनैतिक माहौल में इस फैसले को पलटना, लाइसेंस फीस माफ करना और नई नीति लाना सियासी जोखिम का चरम था क्योंकि 50,000 करोड़ रु. के घोटाले (लाइसेंस फीस माफी) के आरोप सरकार का इंतजार कर रहे थे.
तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने अपनी किताब कन्फेशंस ऑफ अ स्वदेशी रिफॉर्मर में स्वीकार किया कि ''यह फैसला नैतिक रूप से कठिन था.यह संवेदनशील फैसला सिर्फ वाजपेयी के राजनैतिक साहस से निकला था कि दूरसंचार क्षेत्र में तरक्की के लिए कंपनियों का 'बेल आउटजरूरी है. यह फैसला न सिर्फ संसद और अदालत में सही साबित हुआ बल्कि करोड़ों हाथों में मौजूद मोबाइल फोन आज भी इसकी तस्दीक करते हैं.
राजनैतिक साहस का इम्तिहान चुनाव नहीं, सरकारें लेती हैं, जब संकट प्रबंधन की चुनौती मेज पर होती है. मोदी सरकार को दो संकट विरासत में मिले. एक कोयला और प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन और दूसरा डूबते कर्ज से दबे बैंक. इन दोनों को ठीक किए बिना ग्रोथ और नई नौकरियां नामुमकिन हैं. इन संकटों के समाधान के जरिए प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन और बैंकिंग में दूरदर्शी बदलाव हो सकते हैं, जो टेलीकॉम में हुआ था.
कोयला खदानों का आवंटन रद्द हुए चार माह बीत रहे हैं. हमारे पास सिर्फ एक कामचलाऊ फैसला है जिसके जरिए रद्द की गई खदानें अगले साल मार्च तक आवंटित हो जाएं तो बड़ी बात होगी. समग्र खनन सुधार चर्चा में नहीं है और सड़ती बैंकिंग पर जन-धन का पोस्टर लगा दिया गया है. वाजपेयी के पास मोदी जैसा संख्या बल नहीं था. तेरह माह बाद अप्रैल, 1999 में जयललिता ने समर्थन खींचकर सरकार को कार्यवाहक बना दिया लेकिन नई दूरसंचार नीति सिर्फ तीन माह (दिसंबर,1998-मार्च,1999) में बन गई. एक कमजोर सरकार में गवर्नेंस की यह साहसी रफ्तार हर तरह से अनोखी थी.
सरकारें, सूझ-बूझ, दूरदर्शिता और कालजयी फैसलों से परखी जाती हैं. आर्थिक सुधारों के सूत्रधार डॉ. मनमोहन सिंह के दस साल और नरेंद्र मोदी के छह माह देखने के बाद ऐसा लगता है कि वाजपेयी सरकार मानो, दूरदर्शिता के शून्य से भरे अगले दस साल और छह माह के लिए ही नीतियों का ईंधन जुटा रही थी. घाटे नियंत्रित करने वाला बजट मैनेजमेंट कानून, कम्पीटिशन कानून, स्वदेशी के आग्रहों को नकार कर डब्ल्यूटीओ नियमों के तहत भारतीय बाजार के दरवाजे खोलना, सरकारी उपक्रमों का सबसे बड़ा निजीकरण, फेरा की समाप्ति और नया कानून, पेट्रोलियम सुधार, सड़क परियोजनाएं, कंपनियों को विदेशी कर्ज की छूट, दूरसंचार और सूचना तकनीक सेवाओं में सिलसिलेवार उदारीकरण...साहस और सूझ-बूझ की फेहरिस्त वाकई बड़ी लंबी है.
गठजोड़ की सरकार में वाजपेयी इतना कुछ कैसे कर सके? शायद इसलिए कि उनके पास गवर्नेंस के लक्ष्यों का रोड मैप था और दंभ रहित, जिंदादिल और ठहाकेबाज वाजपेयी ने अपने मंत्रियों को दूर की सोचने तथा फैसले करने की छूट दी थी. जबरदस्त बहुमत वाली मोदी सरकार में इन दोनों की कमी बुरी तरह खलती है. वाजपेयी ऐसा इसलिए भी कर सके क्योंकि उन्होंने प्रचार के कंगूरे नहीं बल्कि गवर्नेंस की बुनियाद गढ़ी थी. चुनाव तब भी होते थे. अलबत्ता वाजपेयी गवर्नेंस के लिए राजनीति कर रहे थे, राजनीति के लिए गवर्नेंस नहीं.
एक वरिष्ठ उद्योगपति ने मई में चुनाव नतीजों के बाद मुझसे कहा था कि वाजपेयी सरकार ने पांच साल में जितना काम किया, अगर मोदी उसका 30 फीसदी भी कर दें तो देश की ग्रोथ को 15 साल का ईंधन मिल जाएगा. अपनी तीसरी पारी के पहले स्वाधीनता दिवस (2000) पर लाल किले से वाजपेयी ने आह्वान किया था कि भारत को अगले एक दशक में अपनी प्रति व्यक्ति आय दोगुनी करनी होगी. 2007-08 में यह लक्ष्य हासिल हो गया. महंगाई को निकाल दें तो भी प्रति व्यक्ति आय 50 फीसदी बढ़ी है जो 125 करोड़ की आबादी के लिए छोटी बात नहीं है. क्या नरेंद्र मोदी के पहले छह महीनों से यह भरोसा मिलता है कि अगले एक दशक में यह करिश्मा दोहराया जाएगा? प्रचार भरे छह माह के साथ मोदी सरकार के कार्यकाल का दस फीसदी हिस्सा गुजर गया है लेकिन सरकार में वह हिम्मत, सूझ और दूरदर्शिता अब तक नदारद है जो वाजपेयी सरकार के पहले हफ्तों में ही नजर आ गई थी.

Monday, December 8, 2014

सियासत के झूठे सच

पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी हैतो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. चुनावों की प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ कर चांद-तारे बांटने लगते हैं

विदेश में जमा काला धन वापस लाने के वादे पर मोदी सरकार की किरकिरी को समझने के लिए खोजी पत्रकार होने की जरूरत नहीं है. कोई भी सर्च इंजन, एक क्लिक पर आपके सामने मोदी के चुनावी भाषणों के दर्जनों वीडियो उगल देगा, जो यह बताते हैं कि काले धन पर तब क्या-क्या कहा गया था और अब क्या फरमाया जा रहा है? गूगल की थोड़ी-सी मदद से अब, नेताओं के झूठ, अर्धसत्य व कुछ भी बोल देने के नमूनों का पिटारा खुल जाता है और सियासत कुछ ज्यादा ही खोखली नजर आने लगती है. राजनीति ही इकलौता पेशा है जिसमें झूठ बोलना, वादे करना और मुकर जाना, कानूनी तौर पर मान्य है. इसलिए अगर तकनीक की मदद न आती तो, सियासत के झूठे सचों पर लगाम के बारे में सोचना भी मुश्किल था. तकनीक, शोध और खोजी पत्रकारिता ने, अमेरिका में सियासी भाषणों और बयानों के झूठ उघाड़कर नेताओं को शर्मिंदा करने का अभियान एक दशक पहले ही शुरू कर दिया था. भारत में नेताओं के मनमाने बयानों की तासीर परखने का प्रचलन इसलिए जड़ें नहीं पकड़ पाया क्योंकि इस हमाम में कपड़े न पहनने की रवायत सभी सियासी दलों ने मिलकर बनाई है. लेकिन अब मौका भी है और साधन भी, जिनके जरिए भारत में भी नेताओं के लिए कुछ भी बोल-बताकर बच निकलने के रास्ते बंद किए जाने चाहिए.
‘‘
धोखा देने और झूठ बोलने के मामले में अव्वल कौन है? मोअम्मर गद्दाफी, होस्नी मुबारक, सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह या जिमी कार्टर, जॉर्ज डब्ल्यू. बुश या बराक ओबामा जैसे लोकतांत्रिक दिग्गज?’’
वाशिंगटन पोस्ट ने यह सवाल, अप्रैल 2011 में एक किताब की समीक्षा में पूछा था. किताब थी व्हाइ लीडर्स लाइ? ट्रूथ अबाउट लाइंग इन इंटरनेशनल पॉलिटिक्स (नेता झूठ क्यों बोलते हैं? अंतरराष्ट्रीय राजनीति में झूठ का सच) शिकागो यूनिवर्सिटी के प्रो. जॉन जे. मर्शेइमर की यह दिलचस्प और अनोखी पुस्तक मानती है कि गलतबयानी करने में लोकतांत्रिक नेता, तानाशाहों से कहीं आगे हैं. राजनीति और खास तौर पर चुनावी सियासत में कुछ भी कह देना या आसमान के सितारे तोडऩे छाप वादे करना गैर-कानूनी नहीं हैं, इसलिए नेताओं के झूठ सियासत का स्वभाव बन गए हैं. बड़े और प्रभावशाली झूठ के उदाहरण जुटाते हुए मर्शेइमर की किताब यह भी बताती है कि नेताओं के झूठ की एक नहीं, कई किस्में हो सकती हैं. ग्रीस (यूनान) का हाल बताता है कि नेताओं के झूठ कितने महंगे पड़ते हैं. ग्रीस ने यूरोपीय संघ का हिस्सा बनने के लिए अपने बजट घाटों को छिपाया और बाद में पूरा देश ही दिवालिया हो गया. यही वजह है कि जैसे ही बयानों व दस्तावेजों को संजोने और वापस तलाशने की तकनीक हाथ आई, दुनिया के कई देशों में जनता नेताई वचनों का सच जांचने के लिए उतावली हो उठी. पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका में सियासी बयानों की फैक्ट चेकिंग एक अभियान बन गई है. अखबारों से लेकर स्वयंसेवी संस्थाएं तक फैक्ट चेकर और ट्रुथ-ओ-मीटर पर सियासी बयानों की सच्चाई नापती हैं, चुनावी वादों का क्रियान्यावन परखती हैं और भाषणों व वादों को ‘‘सफेद झूठ’’, ‘‘आधा सच’’ और ‘‘सच’’ जैसी रेटिंग देती हैं. अमेरिका में चुनावी विज्ञापनों को रोकने पर मजेदार कानूनी लड़ाई शुरू हो चुकी है. चुनावी बयानबाजी के पैरोकार नेताओं के बड़बोले भाषणों को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ रहे हैं जबकि विरोधी इसे जनता के साथ धोखा मानते हैं.
चुनावों की प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं और चांद-तारे तोड़कर बांटने लगते हैं. भारत की सियासत ने भी गरीबी हटाने व हर हाथ को काम जैसे सपने बांटे हैं, तल्ख, धीमी व कठिन गवर्नेंस ने जिन्हें हमेशा झूठा साबित कर दिया है क्योंकि मौजूदा शहरों का इंतजाम ठीक करते हुए ही स्मार्ट सिटी का प्रयोग हो सकता है, ट्रेनों का सुरक्षित चलना तय करने के साथ बुलेट ट्रेन सोची जा सकती है, कमाई का स्तर बढ़ाकर सबके सिर पर छत का सपना संजोया जा सकता है. फिर भी शुक्र है कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है जहां लोग लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में भरोसा करते हैं. विज्ञापन एजेंसी एडलमैन का ग्लोबल ट्रस्ट सर्वे इस साल जनवरी में आया था जो बिजनेस, सरकार, मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं पर, सजग लोगों के भरोसे की पैमाइश करता है. यह सर्वे भारत को उन पांच शीर्ष देशों में रखता है, जो विश्वास से भरपूर हैं, अलबत्ता सरकार पर भरोसा घटने के कारण भारत 2014 में इस रैंकिंग में तीसरे से पांचवें स्थान पर खिसक गया है. सरकार पर विश्वास में यह कमी नेताओं के बड़बोलेपन से उपजी है. चुनाव अभियानों के वादे ढहने से पहले केवल एक निराशा फैलती थी लेकिन अब पढ़ा-लिखा समाज के वादे पूरे न होने के बाद इनके पीछे के षड्यंत्र तलाशता है, ऊबता है और संदेह से भर उठता है. पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. इस झूठ की वजहें खंगालने वाले मर्शेइमर का दिलचस्प निष्कर्ष है कि नेता आपस में एक-दूसरे से उतना झूठ नहीं बोलते जितना कि वे जनता से बोलते हैं. ये झूठ बड़े मिथकों, तरह-तरह के वादों (लिबरल लाइज) और खौफ फैलाने के तरीकों में लपेटे जाते हैं और चुनावों में इनका भरपूर इस्तेमाल होता है. भारत का ताजा लोकसभा चुनाव भी इससे अलग नहीं था. यह चुनाव वादों, घोषणाओं और अपेक्षाओं का सबसे मुखर उत्सव तो था ही लेकिन किस्मत से इस बार तकनीक हर कदम पर साथ थी, अब यही तकनीक हमारे दुलारे नेताओं को उनके बोल-वचन दुरुस्त करने पर मजबूर करेगी. क्योंकि नेता इस चुनाव में जिस आधुनिक समाज से मुखातिब थे वह ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा चिढ़ता है.


Monday, December 1, 2014

छह महीने और तीन प्रतीक


सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है. सरकार के छह माह नहीं बीते हैं बल्कि प्रधानमंत्री के पास केवल साढ़े चार साल बचे हैं 

मोदी सरकार के पहले मंत्रिमंडल विस्तार, अडानी की विवादित ऑस्ट्रेलियाई परियोजना को स्टेट बैंक से कर्ज की मंजूरी और ‘‘प्रागैतिहासिक’’ किसान विकास पत्र की वापसी के बीच क्या रिश्ता है? यह तीनों ही नई सरकार और उसके प्रभाव क्षेत्र के सबसे बड़े फैसलों में एक हैं, अलबत्ता इन्हें आपस में जोडऩे वाला तथ्य कुछ दूसरा ही है. इनके जरिए सरकार चलाने का वही दकियानूसी मॉडल वापस लौटता दिख रहा है, जिसे बदलने की उम्मीद और संकल्पों के साथ नई सरकार सत्ता में आई थी और उपरोक्त तीनों फैसले अपने अपने क्षेत्रों में नई बयार का प्रतीक बन सकते थे.
बड़े बदलावों की साख तभी बनती है जब बदलाव करने वाले उस परिवर्तन का हिस्सा बन जाते हैं. मोदी सरकार के पहले मंत्रिमंडल विस्तार ने नई गवर्नेंस में बड़े बदलाव की उम्मीद को छोटा कर दिया. बड़े मंत्रिमंडलों का आविष्कार गठबंधन की राजनीति के लिए हुआ था. महाकाय मंत्रिमंडल न तो सक्षम होते हैं और न ही सुविधाजनक. बस, इनके जरिए सहयोगी दलों के बीच सत्ता को बांटकर सरकार के ढुलकने का खतरा घटाया जाता था. नरेंद्र मोदी गठबंधनों की राजनीति की विदाई के साथ सत्ता में आए थे. उनके सामने न तो, कई दलों को खपाने की अटल बिहारी वाजपेयी जैसी मजबूरियां थीं न ही मनमोहन सिंह जैसी राजनैतिक बाध्यताएं, जब राजनैतिक शक्ति 10 जनपथ में बसती थी. सरकार और पार्टी पर जबरदस्त नियंत्रण से लैस मोदी के पास एक चुस्त और चपल टीम बनाने का पूरा मौका था. 
मनमोहन सिंह कई विभाग और बड़ी नौकरशाही छोड़कर गए थे, मोदी सरकार में भी नए विभागों के जन्म की बधाई बजी है. कुछ विभागों में तो एक मंत्री के लायक भी काम नहीं है जबकि कुछ विभाग चुनिंदा स्कीमें चलाने वाली एजेंसी बन गए हैं. कांग्रेस राज ने मनरेगा, सर्वशिक्षा जैसी स्कीमों से एक नई समानांतर नौकरशाही गढ़ी थी, वह भी जस-की-तस है. दरअसल, स्वच्छता मिशन, आदर्श ग्राम, जनधन जैसी कुछ बड़ी स्कीमें ही सरकार का झंडा लेकर चल रही हैं, ठीक इसी तरह चुनिंदा स्कीमों का राज यूपीए की पहचान था. अब वित्त मंत्री, विभागों के खर्चे काट रहे हैं जबकि प्रधानमंत्री ने सरकार का आकार बढ़ा दिया है. लोग कांग्रेस की ‘‘मैक्सिमम’’ गवर्नेंस को ‘‘मिनिमम’’ होते देखना चाहते थे, एक नई ‘‘मेगा’’ गवर्नेंस तो कतई नहीं.
बीजेपी इतिहास का पुनर्लेखन करना चाहती है, लेकिन इसके लिए हर जगह इतिहास से दुलार जरूरी तो नहीं है? किसान विकास पत्र 1 अप्रैल, 1988 को जन्मा था जब बहुत बड़ी आबादी के पास बैंक खाते नहीं थे और निवेश के विकल्प केवल डाकघर तक सीमित थे. अगर बचतों पर राकेश मोहन समिति की सिफारिशें लागू हो जातीं, तो इसे 2004 में ही विश्राम मिल गया होता. रिजर्व बैंक की डिप्टी गवर्नर श्यामला गोपीनाथ की जिन सिफारिशों पर 2011 में यह स्कीम बंद हुई थी उनमें केवल किसान विकास पत्र के मनी लॉन्ड्रिंग में इस्तेमाल का ही जिक्र नहीं था बल्कि समिति ने यह भी कहा था कि भारत की युवा आबादी को बचत के लिए नए आधुनिक रास्ते चाहिए, प्रागैतिहासिक तरीके नहीं.
किसान विकास पत्र से काले धन की जमाखोरी बढ़ेगी या नहीं, यह बात फिर कभी, फिलहाल तो इस 26 साल पुराने प्रयोग की वापसी सरकार में नई सूझ की जबरदस्त कमी का प्रतीक बनकर उभरी है. नए नए वित्तीय उपकरणों के इस दौर में वित्त मंत्रालय, रिजर्व बैंक और तमाम विशेषज्ञ मिलकर एक आधुनिक बचत स्कीम का आविष्कार तक नहीं कर सके. बचत को बढ़ावा देने के लिए उन्हें उस उपकरण को वापस अमल में लाना पड़ा जिसे हर तरह से इतिहास का हिस्सा होना चाहिए था क्योंकि यह उन लोगों के लिए बना था जिनके पास बैंक खाते नहीं थे. अब तो लोगों के पास जन धन के खाते हैं न?
‘‘भारत का सिस्टम बड़ी कंपनियों के हक में है. मंदी के दौरान किस बड़े कॉर्पोरेट को अपना घर बेचना पड़ा?’’ वर्गीज कुरियन लेक्चर (रूरल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट, आणंद-25 नवंबर) में रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन की बेबाकी उस पुरानी बैंकिंग की तरफ संकेत था, जहां से अडानी की ऑस्ट्रेलियाई कोयला खदान परियोजना को कर्ज की मंजूरी निकली थी. इस परियोजना को कर्ज देने के लिए स्टेट बैंक का अपना आकलन हो सकता है तो दूसरी तरफ उन छह ग्लोबल बैंकों के भी आकलन हैं जो इसे कर्ज देने को जोखिम भरा मानते हैं.
वित्तीय बहस से परे, सवाल बैंकिंग में कामकाज के उन अपारदर्शी तौर तरीकों का है जिसके कारण रिजर्व बैंक को यह कहना पड़ा कि बैंक फंसे हुए कर्जे छिपाते हैं, बड़े कर्जदारों पर कोई कार्रवाई नहीं होती जबकि छोटा कर्जदार पिस जाता है. भारत की बैंकिंग गंभीर संकट में है, इसे अपारदर्शिता और कॉर्पोरेट बैंकर गठजोड़ ने पैदा किया है, जो बैंकों को डुबाने की कगार पर ले आया है. ग्रोथ के लिए सस्ता कर्ज चाहिए, जिसके लिए पारदर्शी और सेहतमंद बैंक अनिवार्य हैं. मोदी सरकार ने पहले छह माह में भारतीय बैंकिंग में परिवर्तन का कौल नहीं दिखाया, अलबत्ता देश के सबसे बड़े बैंक ने विवादित बैंकिंग को जारी रखने का संकल्प जरूर जाहिर कर दिया.

मोदी पिछले तीन दशक में भारत के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनके पास किसी भी परिवर्तन को साकार करने का समर्थन उपलब्ध है लेकिन बदलाव के बड़े मौकों पर परंपरा और यथास्थितिवाद का लौट आना निराशाजनक है. मोदी प्रतीकों के महारथी हैं. उनके पहले छह माह प्रभावी प्रतीक गढऩे में ही बीते हैं लेकिन नई गवर्नेंस, फैसलों की सूझ और पारदर्शिता का भरोसा जगाने वाले ठोस प्रतीकों का इंतजार अभी तक बना हुआ है. सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है. सरकार के छह माह नहीं बीते हैं बल्कि प्रधानमंत्री के पास केवल साढ़े चार साल बचे हैं और वक्त की रफ्तार उम्मीदों का ईंधन तेजी से खत्म कर रही है.
http://aajtak.intoday.in/story/six-months-and-three-symbols-1-789686.html