आक्रामक हिंदुत्व का प्रेत और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी सरकार को सहज व सुरक्षित गवर्नेंस विकल्पों की तरफ ढकेल रही है मोदी सरकार भी संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है.
धर्म बदल करने वालों
का तो पता नहीं लेकिन मोदी सरकार के आर्थिक प्रबंधन की घर वापसी का ऐलान जरूर हो
गया है. भारी सरकारी खर्च,
केंद्रीय स्कीमों का राज, सरकार का जनलुभावन शृंगार और भारी घाटे के साथ, मोदी सरकार का आर्थिक
दर्शन उसी घर में बसने वाला है जिस पर कांग्रेस ने इन्क्लूसिव ग्रोथ का बोर्ड लगा
रखा था. मोदी सरकार इसकी जगह ‘सबका साथ, सबका विकास’ का पोस्टर लगा देगी. नई सरकार का पहला बजट
जल्दबाजी में बना था, जो टीम मोदी के
वित्तीय और आर्थिक दर्शन को स्पष्ट नहीं करता था लेकिन धर्मांतरण के हड़बोंग के बीच
जारी हुई तिमाही आर्थिक समीक्षा ने मोदी सरकार की आर्थिक रणनीति से परदा हटा दिया
है. मोदी सरकार दकियानूसी और लोकलुभावन आर्थिक प्रबंधन की तरफ बढ़ रही है, जिसकी एक बड़ी झलक
आने वाले बजट में मिल सकती है.
विकास के लिए
सरकारी खर्च का पाइप खोलने की सूझ जिस इलहाम के साथ आई है वह और भी ज्यादा चिंताजनक
है. समीक्षा ने स्वीकार किया है कि निजी कंपनियां निवेश को तैयार नहीं हैं. नई
सरकार आने के बाद निजी निवेश शुरू होना चाहिए था लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी
उपक्रम दो लाख करोड़ रु. की नकदी पर बैठे हैं जबकि निजी कंपनियां करीब 4.6 लाख करोड़ रु. की
नकदी पर. इसके बाद निजी निवेश न होना दरअसल ‘मेक इन इंडिया’ की शुरुआती असफलता पर वित्त मंत्रालय की मुहर
जैसा है. केंद्र में सरकार बदलने के बाद सारा दारोमदार निजी कंपनियों के निवेश पर
था, जिससे रोजगार और
ग्रोथ लौटने की उम्मीद बनती थी. लेकिन सरकार को पहले छह माह में ही यह एहसास हो
गया है कि निजी निवेश को बढ़ावा देने की ज्यादा कवायद करने की बजाए सरकारी खर्च के
पुराने मॉडल की शरण में जाना बेहतर होगा.
भारी सरकारी खर्च
की वापसी उत्साहित नहीं करती बल्कि डराती है क्योंकि केंद्र सरकार के भारी खर्च से
उभरी विसंगतियों का दर्दनाक अतीत हमारे पास मौजूद है. सरकार के पास उद्योग, पुल, सड़क, बंदरगाह बनाने
लायक न तो संसाधन हैं और न मौके. यह काम तो निजी कंपनियों को ही करना है. आम तौर
पर सरकारें जब अच्छी गुणवत्ता की ग्रोथ और रोजगार पैदा नहीं कर पातीं तो अपने खर्च
को सब्सिडी और लोकलुभावन स्कीमों में बढ़ाती हैं, जैसा कि हमने यूपीए राज के पहले चरण की कथित
इन्क्लूसिव ग्रोथ में देखा था, जो बाद में बजट, ग्रोथ और निवेश को ले डूबी. मोदी सरकार का खर्च
रथ भी उसी पथ पर चलेगा. नई-नई स्कीमों को लेकर मोदी का प्रेम जाहिर हो चुका है.
योजना आयोग के पुनर्गठन में पुरानी केंद्रीय स्कीमों को बंद करना फिलहाल एजेंडे पर
नहीं है इसलिए एनडीए की नई स्कीमों से सजे इस मोदी के रथ पर कांग्रेस सरकार की
स्कीमें पहले से सवार होंगी.
केंद्र सरकार का
खर्च अभियान एक कांटेदार गोला है जो अपनी कई नुकीली बर्छियों से जगह-जगह छेद करता
है. सरकार का राजस्व सीमित है और औद्योगिक मंदी खत्म होने तक राजस्व में तेज
बढ़ोतरी की उम्मीद भी नहीं है. सरकार के सामने भारी खर्च का बिल आने वाला है जिसमें
सब्सिडी, वित्त आयोग की
सिफारिशों के तहत राज्यों के करों में ज्यादा हिस्सा, केंद्रीय बिक्री
कर में हिस्सेदारी का राज्यों का भुगतान और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर
अंतरिम राहत शामिल होंगे. इसलिए अगले बजट में घाटे की ऊंचाई देखने लायक होगी.
ब्याज दरों में कमी के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को कोसने से फायदा
नहीं है. अब सरकार जमकर कर्ज लेगी, जिससे ब्याज दरों में कमी के विकल्प बेहद सीमित
हो सकते हैं.
मोदी सरकार के
सामने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए दो विकल्प थे. एक है सस्ता कर्ज.
महंगाई में कमी से इसकी जमीन तैयार हो गई है. बैंकिंग सुधार का साहस और बजट घाटे
पर नियंत्रण दो और जरूरतें थीं जो अगर पूरी हो जातीं तो अगले साल से ब्याज दरों
में तेज कटौती की शुरुआत हो सकती थी. दूसरा था सरकार का भारी खर्च, जो ऊंचे घाटे, कर्ज व महंगे
ब्याज की कीमत पर होगा. अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए सस्ता कर्ज, सरकार के खर्च से
बेहतर विकल्प होता है क्योंकि वह निजी उद्यमिता को बढ़ावा देता है, लेकिन मोदी सरकार
ने दूसरा विकल्प यानी भारी खर्च का रास्ता चुना है. इससे सरकार का लोकलुभावन मेकअप
तो ठीक रहेगा लेकिन घाटे में बढ़ोत्तरी और भ्रष्टाचार व घोटालों का खतरा कई गुना बढ़
जाएगा.
मोदी सरकार, वाजपेयी की तरह
भगवा ब्रिगेड को आक्रामक सुधारों से जवाब नहीं देना चाहती बल्कि यूपीए की तरह
संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है. आक्रामक
हिंदुत्व का प्रेत, संसद में गतिरोध
और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी मोदी सरकार को सहज और सुरक्षित गवर्नेंस
विकल्पों की तरफ ढकेल रही है. आर्थिक समीक्षा इशारा कर रही है कि आने वाला बजट
स्कीमों से भरपूर होगा, जो घाटे को
नियंत्रित करने का संकल्प नहीं दिखाएगा. उम्मीदों से रची-बुनी, बहुमत की सरकार
का इतनी जल्दी ठिठक कर लोकलुभावन हो जाना यकीनन, निराश करता है लेकिन हकीकत यह है कि मोदी सरकार
को अपने साहस की सीमाओं का एहसास हो गया है.
अगले साल भारत को
6 फीसदी के आसपास
की विकास दर पर मुतमईन होना पड़ सकता है, जो आज की आबादी और विश्व बाजार से एकीकरण की
रोशनी में, सत्तर-अस्सी के
दशक की 3.5 फीसद ग्रोथ रेट
के बराबर ही है, जिसे हिंदू ग्रोथ
रेट कहा जाता था. गवर्नेंस बनाम उग्र हिंदुत्व के विराट असमंजस में बलि तो आर्थिक
ग्रोथ की ही चढ़ेगी.