आम आदमी पार्टी की नई राजनीति का छोटा-सा सरकारी तजुर्बा कसैला था लेकिन नौ माह पुरानी केंद्र सरकार के खराब प्रदर्शन ने इस कसैलेपन को छिपाने में केजरीवाल की मदद की है
यह पुरानी सियासत की सबसे
बड़ी उलझन है कि उसका अतीत उसकी चुगली खाता है. लोगों के पास पारंपरिक राजनीति के
खट्टे तजुर्बों का इतना डाटा है कि वह उम्मीदों की जड़ों को जमने नहीं देता. दूसरी
तरफ नई सियासत की मुसीबत यह है कि उसके पास ऐसा अतीत नहीं है जो उसके भविष्य को
भरोसेमंद बना सके. ऊपर से उसके टटके और अनगढ़ तौर-तरीके सशंकित कर देते हैं.
दिल्ली मेट्रो में सफर करते, सड़कों पर बतकही को सुनते
और चुनाव सर्वेक्षणों को धुनते हुए, मुल्क की राजधानी का विराट असमंजस समझना मुश्किल नहीं है. विराट
इसलिए क्योंकि दिल्ली देश की विविधता का सबसे बड़ा सैंपल है. दिल्ली की ऊहापोह
बिजली-पानी की बहसों से कहीं गहरे पैठी है. एक नई गवर्नेंस की उम्मीदें नौ महीने
बाद, टूट कर चुभने लगी हैं तो
दूसरी तरफ 49
दिन की एक बदहवास सरकार का
तजुर्बा उम्मीदों की बढ़त को बरजता है. संशय, दरअसल, पुरानी सियासत के साथ चलने
बनाम नई राजनीति को एक मौका देने के बीच है, जो चुनावी बहसों के भीतर भिद गया है. दिल्ली के लोग इस असमंजस को
वैचारिक आग्रहों, किस्सों, मोहभंगों, उम्मीदों व तजुर्बों में सिंझाते हुए, एक आधे-अधूरे राज्य के चुनाव को भारतीय सियासत का
सबसे रोमांचक मुकाबला बनाने जा रहे हैं.
चुनाव के नतीजों पर उतना
अचरज नहीं होगा जितना कि दिल्ली की राजनीति में अरविंद केजरीवाल की वापसी को लेकर
होना चाहिए. 49
दिन की बिखरी, बौखलाई और नाटकीय सरकार के
बाद आम आदमी पार्टी को इतिहास बन जाना चाहिए था. अल्पजीवी सरकारें नई नहीं हैं
लेकिन यह कमउम्र सरकार बेतरह बदहवास थी, जो न तो सियासत को दिशा दे सकी और न गवर्नेंस को. लोकतंत्र में आंदोलनों की
अपनी एक गरिमा है और गवर्नेंस की अपनी एक संहिता. केजरीवाल 49 दिन के प्रयोग में दोनों को
ही नहीं साध सके. उनकी असफल सरकार को गुजरे लंबा समय भी नहीं बीता है लेकिन
केजरीवाल का मजबूत मुकाबले में लौटना अनोखा है. चुनाव सर्वेक्षणों के मुताबिक अगर
केजरीवाल शिक्षित और आधुनिक दिल्ली की पहली पसंद हैं तो स्वीकार करना चाहिए कि
कहीं कुछ और ऐसा है जो उनकी 49 दिन की सरकार की विफलता को धो-पोंछ रहा है. लगता है कि लोकसभा में भव्य
व एकतरफा जनादेश के बावजूद, पुरानी राजनीति के विकल्प की उम्मीद अब भी कसमसा रही है और यही
उम्मीद दिल्ली में एक बार फिर जूझ जाना चाहती है.
आम आदमी पार्टी की नई
राजनीति का छोटा-सा सरकारी तजुर्बा कसैला था लेकिन नौ माह पुरानी केंद्र सरकार के
कामकाज ने इस कसैलेपन को छिपाने में केजरीवाल की मदद की है. 2014 का लोकसभा चुनाव सियासत के
पारंपरिक सुल्तानों की ही जंग था, अलबत्ता मतदाता नए थे, इसलिए चुनावी बदलाव, दरअसल गवर्नेंस में बदलाव की उम्मीदों के तौर पर पेश हो गया. नरेंद्र
मोदी भी सियासत के उसी पारंपरिक मॉडल से निकले हैं जिसमें कांग्रेस रची-बसी थी. 2014 का जनादेश
गवर्नेंस के उस कांग्रेसी ढांचे के खिलाफ था जो उम्रदराज हो गया था और कोई नतीजे
नहीं दे पा रहा था. लेकिन भारी-भरकम सरकार, दलबदल और सत्ता को चुनिंदा हाथों में सहेजती बीजेपी, आज कांग्रेस जितनी ही
चर्बीदार है. नई सरकार के पहले नौ माह में गवर्नेंस रत्ती भर नहीं बदली. तभी न तो जमीन पर बदलाव दिख
रहे हैं और न ही दूरगामी सूझ. जाहिर है कि दिल्ली के लोग केंद्र की सरकार के सबसे
निकट पड़ोसी हैं इसलिए मोहभंग का तापमान यहां ज्यादा है जो न केवल 49 दिन के 'केजरीवाली प्रयोग' की नाकामी को भुलाने में
मदद कर रहा है बल्कि नई राजनीति को आजमाने की आकांक्षाओं को ताकत दे रहा है. नई सरकार से उम्मीदों की
हरारत ही कम नहीं हुई है, आम आदमी पार्टी भी 49 दिनों की सरकार के बाद काफी बदल गई है. केजरीवाल तजुर्बों से सीखकर
बीजेपी और कांग्रेस के तौर-तरीकों में ढल रहे हैं. दंभ, दबदबे, अंतर्विरोध, दलबदल जो पुरानी राजनीति की
पहचान थे, अब आम आदमी पार्टी के पास
भी हैं जो इसे राजनीति के पारंपरिक मैदान के माहौल में फिट करते हैं. वे अब स्टिंग ऑपरेशनों, अंबानियों को सूली पर
टांगने और पलक झपकते क्रांति करने की बात नहीं करते बल्कि पुराने लोकलुभावन तरीकों
को नई राजनीति में चतुराई से लपेटने लगे हैं. फिर भी सियासत में उनका नया होना ही
उनकी सबसे बड़ी ताकत है. जरा सोचिए कि भारी जनसमर्थन पर बैठे नरेंद्र मोदी नई
राजनीति के मॉडल का कुछ हिस्सा आजमाते या पारर्दिशता के आग्रहों को मजबूती से लागू
कर पाए होते तो... किसी विशाल देश के इतिहास
में एक राज्य के चुनाव छोटा-सा बदलाव होते हैं लेकिन जब नई और पुरानी राजनीति के
बीच सीधा मुकाबला हो तो बात बदल जाती है. गोलिएथ ने अपनी सारी लड़ाइयां विशाल शरीर, भारी कवच और लंबे भाले की
बदौलत जीती थीं. गुलेलबाज डेविड से कहीं ज्यादा जंग जीतने का तजुर्बा उसके पास था.
इसलिए उसका आत्मविश्वास गलत नहीं था. नियम तो डेविड ने बदल दिए और पासा पलट गया.
नई राजनीति के आग्रह दिल्ली का खेल बदल रहे हैं और बीजेपी की पारंपरिक सियासत बेचैन
दिखाई दे रही है. यकीनन, दिल्ली के चुनाव का नतीजा
केंद्र सरकार पर कोई असर नहीं डालेगा लेकिन इसका नतीजा लोकतंत्र पर बड़ा असर जरूर
छोड़ेगा. इस चुनाव में दिल्ली के लोग केवल नई सरकार ही नहीं चुनेंगे बल्कि यह भी
तय करेंगे कि दिल्ली पूरी तरह पारंपरिक राजनीति के साथ है या फिर नई राजनीति के
किसी छोटे-से स्टार्ट अप में भी, अपने विश्वास का निवेश करना चाहते हैं. दिल्ली का असमंजस निर्णायक
है. दिल्ली की बेखुदी बेसबब नहीं है, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.