Monday, February 16, 2015

केजरीवाल का डर

मुख्यधारा की राजनीति में केजरीवाल की आमद के बाद देश की राजनीति किस्म-किस्म के प्रतिस्पर्धी डरों से ही गुंथी-बुनी होगीजो कई बदलावों की राह खोलेगा 
ह जीत डराती है, इसे सिर पर मत चढ़ने देना!'' दिल्ली की अद्भुत जीत के बाद अरविंद केजरीवाल ने यह बात सोचकर नहीं कही होगी. यह सहज मध्यवर्गीय प्रतिक्रिया है जो बड़ी सफलता मिलने पर कुछ बिगड़ जाने की आशंका से उपजती है. डर चाहे कितना नकारात्मक हो लेकिन उसकी अपनी ताकत होती है. सियासत की दुनिया में हमेशा कुछ गहरे डर भिदे होते हैं जो रणनीतियों की बुनियाद बनते हैं. केजरीवाल का डर जायज है. उन्हें सिर्फ उनके हिस्से का सकारात्मक जनादेश नहीं मिला है. एक ताजा लहर से ऊब व उफनती उम्मीदों ने उन्हें जोखिम की चोटी पर टांग दिया है. इससे अकेले केजरीवाल ही डरे नहीं हैं, डर दूसरी तरफ भी है. दो साल तक थपेड़े खाने और रगड़ने के बाद अंतत: नई सियासत पूरी ठसक के साथ सत्ता के शिखर तक आ ही गई. पारंपरिक सियासत को इसी का तो डर था. राजनीति की बहसों से परे एक तीसरा डर भी है. लोग अब महसूस करना चाहते हैं कि केजरीवाल, गवर्नेंस व सियासत के भ्रष्ट मॉडल को कितना डरा पाते हैं. दरअसल, डर कितने भी बुरा हों, मुख्यधारा की राजनीति में केजरीवाल की आमद के बाद देश की राजनीति किस्म-किस्म के प्रतिस्पर्धी डरों से ही गुंथी-बुनी होगी, जो कई बदलावों की राह खोलेगा.  
केजरीवाल को क्यों डरना चाहिए? क्योंकि उन्हें सरकार चलानी नहीं बल्कि नई सरकार बनानी है. भारत में सरकारें खूब चलीं लेकिन नई गवर्नेंस का इंतजार खत्म नहीं हुआ. सरकारें, इस चुनाव से उस चुनाव के बीच सिमट गईं इसलिए राजनीति व गवर्नेंस का फर्क धुंधला होता चला गया. केजरीवाल अतीत नहीं पोंछ सकते, वे एक नई गवर्नेंस की उम्मीद के साथ शुरू हुए थे, आंदोलन व सियासत जिसके माध्यम बने. पुरानी राजनीति सत्ता में आने के बाद भी सियासी आग्रहों से मुक्त नहीं हो पाती, ठीक उसी तरह केजरीवाल 49 दिन के पुराने प्रयोग में आंदोलनकारी आग्रहों से मुक्त नहीं हो पाए. उम्मीद है कि वे बदले होंगे. उन्हें मिली नसीहतों में यह सबक भी शामिल होगा कि गवर्नेंस की मौजूदा सीमाओं के भीतर नए तौर-तरीके ईजाद करना कतई मुश्किल नहीं है. आम आदमी पार्टी को डरना चाहिए कि उसका भव्य जनादेश नई व कमजोर जमीन पर टिका है. सियासत अमूर्त है, गवर्नेंस जिंदगी को छूती है. यह जनादेश सियासत करने का नहीं, सरकार चलाने का है. पारंपरिक राजनैतिक दलों की जड़ें विचाराधाराओं, परंपरा, परिवार व भौगोलिक विस्तार से पोषण पाती हैं इसलिए चुनावी पराजयों के बावजूद वे फिर उग आते हैं. केजरीवाल के पास ऐसा कुछ भी नहीं है. वे उम्मीदों के शिखर पर खड़े हैं, ताकतवर व प्रतिस्पर्धी राजनीति से मुकाबिल हैं. केजरीवाल को यह डर वाकई महसूस होना चाहिए कि बस एक गलती हुई तो पुनर्मूषकोभव!
केजरीवाल से किसे डरना चाहिए? 2011 का दिसंबर याद करिए जब लोकपाल पर संसद में बहस चल रही थी. राजनीति की मुख्यधारा के सूरमा दहाड़ रहे थे कि परिवर्तनों के सभी रास्ते पारंपरिक राजनीति के दालान से गुजरते हैं. जिसे बदलाव चाहिए, उसे दलीय राजनीति के दलदल में उतर कर दो-दो हाथ करने होंगे. केजरीवाल ने दलगत और चुनावी सियासत के जरिए एक नहीं बल्कि दो बार राजनीति के पारंपरिक डिजाइन से इनकार को मुखर कर दिया. केजरीवाल हाल के दशकों में भारत के सबसे तपे हुए नेता हैं जो स्याही की बौछार और जनता से पिटते हुए, जमीनी आंदोलनों की परिपाटी के जरिए अभूतपूर्व जीत तक आए हैं. केजरीवाल की भव्य विजय, भारतीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत और कांग्रेस के अदृश्य होने के बाद की घटना है. इस विराट जीत को मोदी की लोकप्रियता के शोर के बीच बड़ी खामोशी के साथ गढ़ा गया है. पुराने दलों को केजरीवाल से इसलिए डरना चाहिए क्योंकि राजनीति का यह स्टार्ट अप जबरदस्त जन निवेश से शुरू हो रहा है. केजरीवाल के पास सरकार की सीमाओं के भीतर रह कर वह पारदर्शी गवर्नेंस गढ़ने का प्रचंड बहुमत है, पुरानी राजनीति जिसे रोकती रही है. केजरीवाल का यह डर हमेशा बने रहना चाहिए कि वे पारंपरिक राजनीति की लकीर छोटी कर सकते हैं.
केजरीवाल का डर कैसा होना चाहिए? दिल्ली की आम चर्चाएं यह कहती हैं कि केजरीवाल के पहले 49 दिन भ्रष्टाचार को डराने वाले थे. भ्रष्टाचार का प्रकोप घटा था या नहीं, प्रमाण नहीं मिलता लेकिन लोगों के निजी किस्से और तजुर्बे बताते हैं कि भ्रष्टाचार कम होने की ठोस उम्मीद जरूर बनी थी. इसी उम्मीद ने आम आदमी पार्टी को वापसी का आधार दिया. भारत में तमाम उत्पाद सिर्फ इसलिए महंगे हैं क्योंकि उनकी कीमत में कट-कमीशन का खर्च शामिल है. तमाम स्कूल सिर्फ इसलिए मोटी फीस वसूलते हैं क्योंकि उन्हें खोलने व चलाने की एक अवैध लागत है. विकासशील देशों में भ्रष्टाचार परियोजनाओं की लागत 20 फीसद तक बढ़ाता है और महंगाई को ताकत देता है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भ्रष्टाचार रोकने के लिए डर पैदा कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लोगों के गुस्से से डर लगता है. केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ खौफ बना सके तो उनके बहुत से काम अपने आप सध जाएंगे.
जनता माफ करना जानती है इसलिए तो सत्ता छोड़ने के बाद, दिल्ली में मकान तक न देने वाले लोगों ने केजरीवाल को 67 सीटें दे दीं. लेकिन जनता अब झटपट फैसला करती है, वह पांच साल तक इंतजार नहीं करती, पहले मौके पर ही सजा भी सुना देती है. केजरीवाल प्रतिस्पर्धी राजनीति व बेहद बेसब्र वोटर से मुखातिब हैं, जो नेताओं को डरा कर रखना चाहता है ताकि वे हमेशा वह करें जो उन्होंने कहा है. इस वोटर को आप सैडिस्ट या निर्मम कह सकते हैं लेकिन क्या करेंगे, जनता तो जनार्दन है. उसे मूर्ख समझने की बजाए उससे डरते रहने में ही समझदारी है. शुक्र है कि भारतीय नेताओं में यह समझदारी बढ़ने के सबूत मिलने लगे हैं


Tuesday, February 10, 2015

अच्‍छे दिन 'दिखाने' की कला

पिछले दो-तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था सचमुच गहरी मंदी का शिकार थी या हमारी पैमाइश ही गलत थीअथवा नई सरकार ने सत्ता में आने के बाद पैमाइश का तरीका बदल दिया ताकि तस्वीर को बेहतर दिखाया जा सके?
नीमत है कि भारत में आम लोग आंकड़ों को नहीं समझते. राजनीति में कुछ भी कह कर बच निकलना संभव है और झूठ व सच को आंकड़ों में कसना टीवी बहसों का हिस्सा नहीं बना है वरना, आर्थिक विकास दर (जीडीपी) की गणना के नए फॉर्मूले और उससे निकले आंकड़ों के बाद देश का राजनैतिक विमर्श ही बदल गया होता. प्रधानमंत्री अपनी रैलियों में यूपीए के दस साल को कोसते नहीं दिखते. सरकार, यह कहते ही सवालों में घिर जाती कि पंद्रह साल में कुछ नहीं बदला है. सरकार ने जीडीपी गणना के नए पैमाने से देश की इकोनॉमी का ताजा अतीत ही बदल दिया है. इन आंकड़ों के मुताबिक, भारत में पिछले दो साल मंदी व बेकारी के नहीं बल्कि शानदार ग्रोथ के थे. पिछले साल की विकास दर पांच फीसद से कम नहीं बल्कि सात फीसद के करीब थी. यानी कि मंदी और बेकारी के जिस माहौल ने लोकसभा चुनाव में बीजेपी की अभूतपूर्व जीत में केंद्रीय भूमिका निभाई थी वह, इन आंकड़ों के मुताबिक मौजूद ही नहीं था.
पिछले दो-तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था सचमुच गहरी मंदी का शिकार थी या हमारी पैमाइश ही गलत थी? अथवा नई सरकार ने सत्ता में आने के बाद पैमाइश का तरीका बदल दिया ताकि तस्वीर को बेहतर दिखाया जा सके? दोनों ही सवाल दूरगामी हैं और आर्थिक व राजनैतिक रूप से दोहरे नुक्सान-फायदों से लैस हैं. आर्थिक हलकों में इन पर बहस शुरू हो चुकी है, जो दिल्ली चुनाव के बाद सियासत तक पहुंच जाएगी. जीडीपी की ग्रोथ किसी देश की तरक्की का बुनियादी पैमाना है जो निवेश के फैसले और सरकार की नीतियों की दिशा तय करता है. अगर जीडीपी के नए आकंड़े स्वीकृत होते हैं तो आने वाले बजट का परिप्रेक्ष्य ही बदल जाएगा.
भारत में सकल घरेलू उत्पादन (खेती, उद्योग, सेवा) की गणना फिलहाल बुनियादी लागत (बेसिक कॉस्ट) पर होती है यानी जो कीमत निर्माता या उत्पादक को मिलती है. नए फॉर्मूले में उत्पादन लागत का हिसाब लगाने में बेसिक कॉस्ट के साथ अप्रत्यक्ष कर भी शामिल होगा. सरकार ने यह आंकड़ा लागू करने के लिए 2011-12 की कीमतों को आधार बनाया और पांच लाख कंपनियों (पहले सिर्फ 2,500 कंपनियों का सैम्पल) से आंकड़े जुटाए, जिनके बाद 2013-14 में देश की इकोनॉमी 6.9 फीसदी की ऊंचाई पर चढ़ गई, जो पिछले आंकड़ों में 4.7 फीसद थी. वित्तीय वर्ष के बीचोबीच इस तरह के परिवर्तन ने गहरे राजनैतिक व आर्थिक असमंजस पैदा कर दिए हैं. 
भारत में पिछले तीन साल महंगाई, मंदी, बेकारी, ऊंची ब्याज दर, घटते उत्पादन और कंपनियों के खराब प्रदर्शन के थे. इन हालात में तेज ग्रोथ का कोई ताजा उदाहरण दुनिया में नहीं मिलता. नई सरकार का पहला पूर्ण बजट मंदी से जंग पर केंद्रित होने वाला था ताकि रोजगार बढ़ सकें. ब्याज दर घटाने की उम्मीदें भी इसी आकलन पर आधारित थीं. अलबत्ता जीडीपी के नए आंकड़ों के मुताबिक, ग्रोथ, रोजगार और कमाई पहले से बढ़ रही है इसलिए मोदी सरकार का पहला पूर्ण बजट सख्त वित्तीय अनुशासन और दस फीसदी ग्रोथ की तैयारी पर आधारित होना चाहिए न कि मंदी से उबरने के लिए उद्योगों को प्रोत्साहन और कमाई में कमी से परेशान आम लोगों को कर राहत देने पर. ऊहापोह इस कदर है कि रिजर्व बैंक ने इस नए पैमाने को ताजा मौद्रिक समीक्षा में शामिल नहीं किया. वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम भी अचरज में हैं.   
बीजेपी की लोकसभा विजय में कांग्रेसी राज की मंदी और बेकारी से उपजी निराशा की अहम भूमिका थी. बीजेपी को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि इन आंकड़ों से यूपीए के दौर में आर्थिक प्रबंधन की बेहतर तस्वीर ही सामने नहीं आती है बल्कि यूपीए के पूरे शासनकाल में आर्थिक ग्रोथ का चेहरा खासा चमकदार हो जाता है, जिसे लेकर कांग्रेस खुद बेहद शर्मिंदा रही थी. इसके बावजूद पैमाने में बदलाव इसलिए स्वीकार किया गया है  क्योंकि ताजा आंकड़ों  में मोदी सरकार के नौ महीने भी शामिल हो जाते हैं, जिनमें चमकती ग्रोथ दिखाई जा सकती है. 
यदि वित्त मंत्री अरुण जेटली को अपनी सरकार के नौ माह को शानदार बताना है तो उन्हें अपने बजट भाषण की शुरुआत कुछ इसी तरह से करनी होगी कि, ''सभापति महोदय, मुझे बेहद प्रसन्नता है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले साल यानी 2013-14 में शानदार ग्रोथ दर्ज की. दुनियाभर में छाई मंदी, भारी महंगाई, देश में ऊंची ब्याज दरों और मांग में कमी के बावजूद पिछले साल कमाई भी बढ़ी और रोजगार भी. इससे एक साल पहले भी स्थिति बहुत खराब नहीं रही थी.'' जाहिर है, इस भाषण में यूपीए के आर्थिक प्रबंधन की तारीफ भी छिपी होगी. और वित्त मंत्री यदि 'पिछले दस वर्षों में सब बर्बाद' की धारणा पर कायम रहते हैं तो फिर जीडीपी की गणना का नया फॉर्मूला ही खारिज हो जाएगा. आंकड़ों की बिल्ली थैले से बाहर आ चुकी है. एक बड़े ग्लोबल निवेशक का कहना था कि सरकार को बुनियादी आंकड़ों को लेकर साफ-सुथरा होना चाहिए. मंदी की जगह ग्रोथ के आंकड़ों के पीछे चाहे जो राजनीति हो लेकिन इससे अब चौतरफा भ्रम फैलेगा. हम अब तक इस बात पर मुतमईन थे कि भारत को मंदी से उबरने की कोशिश करनी है लेकिन अब तो यह भी तय नहीं है कि अर्थव्यवस्था मंदी में है या ग्रोथ दौड़ रही है. नए पैमाने के आधार पर जीडीपी का सबसे ताजा आंकड़ा दिल्ली चुनाव के नतीजे से ठीक एक दिन पहले आएगा जो भारत में आंकड़ों की गुणवत्ता व इनके राजनैतिक इस्तेमाल पर चीन जैसी बहस शुरू कर सकता है जो मोदी सरकार को असहज करेगी.

Monday, February 2, 2015

दिल्ली दिखायेगी राह

आम आदमी पार्टी की नई राजनीति का छोटा-सा सरकारी तजुर्बा कसैला था लेकिन नौ माह पुरानी केंद्र सरकार के खराब प्रदर्शन ने इस कसैलेपन को छिपाने में केजरीवाल की मदद की है
ह पुरानी सियासत की सबसे बड़ी उलझन है कि उसका अतीत उसकी चुगली खाता है. लोगों के पास पारंपरिक राजनीति के खट्टे तजुर्बों का इतना डाटा है कि वह उम्मीदों की जड़ों को जमने नहीं देता. दूसरी तरफ नई सियासत की मुसीबत यह है कि उसके पास ऐसा अतीत नहीं है जो उसके भविष्य को भरोसेमंद बना सके. ऊपर से उसके टटके और अनगढ़ तौर-तरीके सशंकित कर देते हैं.
दिल्ली मेट्रो में सफर करते, सड़कों पर बतकही को सुनते और चुनाव सर्वेक्षणों को धुनते हुए, मुल्क की राजधानी का विराट असमंजस समझना मुश्किल नहीं है. विराट इसलिए क्योंकि दिल्ली देश की विविधता का सबसे बड़ा सैंपल है. दिल्ली की ऊहापोह बिजली-पानी की बहसों से कहीं गहरे पैठी है. एक नई गवर्नेंस की उम्मीदें नौ महीने बाद, टूट कर चुभने लगी हैं तो दूसरी तरफ 49 दिन की एक बदहवास सरकार का तजुर्बा उम्मीदों की बढ़त को बरजता है. संशय, दरअसल, पुरानी सियासत के साथ चलने बनाम नई राजनीति को एक मौका देने के बीच है, जो चुनावी बहसों के भीतर भिद गया है. दिल्ली के लोग इस असमंजस को वैचारिक आग्रहों, किस्सों, मोहभंगों, उम्मीदों व तजुर्बों में सिंझाते हुए, एक आधे-अधूरे राज्य के चुनाव को भारतीय सियासत का सबसे रोमांचक मुकाबला बनाने जा रहे हैं.   
चुनाव के नतीजों पर उतना अचरज नहीं होगा जितना कि दिल्ली की राजनीति में अरविंद केजरीवाल की वापसी को लेकर होना चाहिए. 49 दिन की बिखरी, बौखलाई और नाटकीय सरकार के बाद आम आदमी पार्टी को इतिहास बन जाना चाहिए था. अल्पजीवी सरकारें नई नहीं हैं लेकिन यह कमउम्र सरकार बेतरह बदहवास थी, जो न तो सियासत को दिशा दे सकी और न गवर्नेंस को. लोकतंत्र में आंदोलनों की अपनी एक गरिमा है और गवर्नेंस की अपनी एक संहिता. केजरीवाल 49 दिन के प्रयोग में दोनों को ही नहीं साध सके. उनकी असफल सरकार को गुजरे लंबा समय भी नहीं बीता है लेकिन केजरीवाल का मजबूत मुकाबले में लौटना अनोखा है. चुनाव सर्वेक्षणों के मुताबिक अगर केजरीवाल शिक्षित और आधुनिक दिल्ली की पहली पसंद हैं तो स्वीकार करना चाहिए कि कहीं कुछ और ऐसा है जो उनकी 49 दिन की सरकार की विफलता को धो-पोंछ रहा है. लगता है कि लोकसभा में भव्य व एकतरफा जनादेश के बावजूद, पुरानी राजनीति के विकल्प की उम्मीद अब भी कसमसा रही है और यही उम्मीद दिल्ली में एक बार फिर जूझ जाना चाहती है. 
आम आदमी पार्टी की नई राजनीति का छोटा-सा सरकारी तजुर्बा कसैला था लेकिन नौ माह पुरानी केंद्र सरकार के कामकाज ने इस कसैलेपन को छिपाने में केजरीवाल की मदद की है. 2014 का लोकसभा चुनाव सियासत के पारंपरिक सुल्तानों की ही जंग था, अलबत्ता मतदाता नए थे, इसलिए चुनावी बदलाव, दरअसल गवर्नेंस में बदलाव की उम्मीदों के तौर पर पेश हो गया. नरेंद्र मोदी भी सियासत के उसी पारंपरिक मॉडल से निकले हैं जिसमें कांग्रेस रची-बसी थी. 2014 का जनादेश गवर्नेंस के उस कांग्रेसी ढांचे के खिलाफ था जो उम्रदराज हो गया था और कोई नतीजे नहीं दे पा रहा था. लेकिन भारी-भरकम सरकार, दलबदल और सत्ता को चुनिंदा हाथों में सहेजती बीजेपी, आज कांग्रेस जितनी ही चर्बीदार है. नई सरकार के पहले नौ माह में गवर्नेंस रत्ती भर नहीं बदली. तभी न तो जमीन पर बदलाव दिख रहे हैं और न ही दूरगामी सूझ. जाहिर है कि दिल्ली के लोग केंद्र की सरकार के सबसे निकट पड़ोसी हैं इसलिए मोहभंग का तापमान यहां ज्यादा है जो न केवल 49 दिन के 'केजरीवाली प्रयोग' की नाकामी को भुलाने में मदद कर रहा है बल्कि नई राजनीति को आजमाने की आकांक्षाओं को ताकत दे रहा है. नई सरकार से उम्मीदों की हरारत ही कम नहीं हुई है, आम आदमी पार्टी भी 49 दिनों की सरकार के बाद काफी बदल गई है. केजरीवाल तजुर्बों से सीखकर बीजेपी और कांग्रेस के तौर-तरीकों में ढल रहे हैं. दंभ, दबदबे, अंतर्विरोध, दलबदल जो पुरानी राजनीति की पहचान थे, अब आम आदमी पार्टी के पास भी हैं जो इसे राजनीति के पारंपरिक मैदान के माहौल में फिट करते हैं. वे अब स्टिंग ऑपरेशनों, अंबानियों को सूली पर टांगने और पलक झपकते क्रांति करने की बात नहीं करते बल्कि पुराने लोकलुभावन तरीकों को नई राजनीति में चतुराई से लपेटने लगे हैं. फिर भी सियासत में उनका नया होना ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है. जरा सोचिए कि भारी जनसमर्थन पर बैठे नरेंद्र मोदी नई राजनीति के मॉडल का कुछ हिस्सा आजमाते या पारर्दिशता के आग्रहों को मजबूती से लागू कर पाए होते तो... किसी विशाल देश के इतिहास में एक राज्य के चुनाव छोटा-सा बदलाव होते हैं लेकिन जब नई और पुरानी राजनीति के बीच सीधा मुकाबला हो तो बात बदल जाती है. गोलिएथ ने अपनी सारी लड़ाइयां विशाल शरीर, भारी कवच और लंबे भाले की बदौलत जीती थीं. गुलेलबाज डेविड से कहीं ज्यादा जंग जीतने का तजुर्बा उसके पास था. इसलिए उसका आत्मविश्वास गलत नहीं था. नियम तो डेविड ने बदल दिए और पासा पलट गया. नई राजनीति के आग्रह दिल्ली का खेल बदल रहे हैं और बीजेपी की पारंपरिक सियासत बेचैन दिखाई दे रही है. यकीनन, दिल्ली के चुनाव का नतीजा केंद्र सरकार पर कोई असर नहीं डालेगा लेकिन इसका नतीजा लोकतंत्र पर बड़ा असर जरूर छोड़ेगा. इस चुनाव में दिल्ली के लोग केवल नई सरकार ही नहीं चुनेंगे बल्कि यह भी तय करेंगे कि दिल्ली पूरी तरह पारंपरिक राजनीति के साथ है या फिर नई राजनीति के किसी छोटे-से स्टार्ट अप में भी, अपने विश्वास का निवेश करना चाहते हैं. दिल्ली का असमंजस निर्णायक है. दिल्ली की बेखुदी बेसबब नहीं है, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.


Tuesday, January 27, 2015

जिनपिंग का स्वच्छता मिशन

जिनपिंग का शुद्धिकरण अभियानग्लोबल कूटनीति को गहरे रोमांच से भर रहा है.
शी जिनपिंग को क्या हो गया है? ग्रोथ को किनारे लगाकर भ्रष्टाचार के पीछे क्यों पड़ गए हैं? यह झुंझलाहट एक बड़े विदेशी निवेशक की थी जो हाल में बीजिंग से लौटा था और चीन के नए आर्थिक सुधारों पर बुरी तरह पसोपेश में था. कोई सरकार अपनी ही पार्टी के 1.82 लाख पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार को लेकर कार्रवाई कर चुकी हो, यह किसी भी देश के लिए सामान्य बात नहीं है. उस पर भी अगर चीन की सरकार अपनी कद्दावर कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं व सेना अधिकारियों के भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वच्छता अभियान चला रही हो तो अचरज कई गुना बढ़ जाता है, क्योंकि भ्रष्टाचार चीन की विशाल आर्थिक मशीन का तेल-पानी है.
निवेशकों के लिए यह कतई अस्वाभाविक है कि चीन बाजार में एकाधिकार रोकने व पारदर्शिता बढ़ाने के लिए बड़े जतन से हासिल की गई ग्रोथ को न केवल 24 साल के सबसे कम स्तर पर ला रहा है बल्कि इसे सामान्य (न्यू नॉर्मल) भी मान रहा है. यकीनन, भारतीय प्रधानमंत्री की कूटनीतिक करवट दूरगामी है. अमेरिका व भारत के रिश्तों की गर्मजोशी नए फलसफे लिख रही है, अलबत्ता ग्रोथ की तरफ लौटता अमेरिका दुनिया में उतनी उत्सुकता नहीं जगा रहा है जितना कौतूहल, पारदर्शिता के लिए ग्रोथ को रोकते चीन को लेकर है. चीन की महाशक्ति वाली महत्वाकांक्षाएं रहस्य नहीं हैं, हालांकि सुपर पावर बनने के लिए जिनपिंग का भीतरी शुद्धिकरण अभियान, ग्लोबल कूटनीति को गहरे रोमांच से भर रहा है.
चीन में भ्रष्टाचार मिथकीय है. बीते मार्च में जब चाइना पीपल्स आर्मी के कद्दावर जनरल ग्यु जुनशान को भ्रष्टाचार में धरा गया तो चीन को निओहुलु होशेन (1799) याद आ गया. सम्राट क्विएनलांग का यह आला अफसर इतना भ्रष्ट था कि उसके यहां छापा पड़ा तो चांदी के 80 करोड़ सिक्के मिले जो सरकार के दस साल के राजस्व के बराबर थे, 53 साल की उम्र में उसे मौत की सजा हुई. चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक, जनरल ग्यु जुनशान के यहां 9.8 करोड़ डॉलर की संपत्ति मिली और अगर पश्चिमी मीडिया की खबरें ठीक हैं तो जुनशान के घर से बरामद नकदी, शराब, सोने की नौका और माओ की स्वर्ण मूर्ति को ढोने के लिए चार ट्रक लगाए गए थे.
मुहावरा प्रिय भारतीयों की तरह, 2013 में शी जिनपिंग ने कहा था कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान सिर्फ मक्खियों (छोटे कारकुनों) के खिलाफ नहीं चलेगा बल्कि यह शेरों (बड़े नेताओं-अफसरों) को भी पकड़ेगा. जाहिर है, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता, सरकारी मंत्री, सेना और सार्वजनिक कंपनियों के प्रमुख विशाल भ्रष्ट तंत्र के संरक्षक जो हैं. बड़े रिश्वतखोरों को पकड़ता और नेताओं को सजा देता, सेंट्रल कमिशन फॉर डिसिप्लनरी ऐक्शन (सीसीडीआइ) पूरे चीन में खौफ का नया नाम है. इसने चीनी राजनीति के तीन बड़े गुटों—'पेट्रोलियम गैंग’, 'सिक्योरिटी गैंग और 'शांक्सी गैंग’ (बड़े राजनैतिक नेताओं का गुट) पर हाथ डाला है, जो बकौल शिन्हुआ 'टाइगर्स कहे जाते हैं. दिलचस्प है कि जिनपिंग के करीबी वैंग क्विशान के नेतृत्व में सीसीडीआइ का अभियान गोपनीय नहीं है बल्कि खौफ पैदा करने के लिए यह अपने ऐक्शन का खूब प्रचार कर रहा है और भ्रष्टाचार को लेकर डरावनी चेतावनियां जारी कर रहा है. ग्लोबल निवेशकों की उलझन यह है कि जिनपिंग, निर्यात आधारित ग्रोथ मॉडल को जारी रखने को तैयार नहीं हैं. वे अर्थव्यवस्था से कालिख की सफाई को सुधारों के केंद्र में लाते हैं. पिछले नवंबर में जी20 शिखर बैठक के बाद बीजिंग लौटते ही जिनपिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल इकोनॉमिक वर्क कॉन्फ्रेंस में नया आर्थिक सुधार कार्यक्रम तय किया था, जो कंपनियों का एकाधिकार खत्म करने, सही कीमतें तय करने, पूंजी व वित्तीय बाजारों के उदारीकरण, निजीकरण और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता पर केंद्रित होगा.
मंदी से उबरने की जद्दोजहद में जुटी दुनिया के लिए चीन के ये शुद्धतावादी आग्रह मुश्किल बन रहे हैं. चीन दुनिया की सबसे बड़ी फैक्ट्री है जो ग्लोबल ग्रोथ को अपने कंधे पर लेकर चलती है और इस समय दुनिया में मांग व तेज विकास की वापसी का बड़ा दारोमदार चीन पर ही है. जबकि मूडीज के मुताबिक पारदर्शिता की इस मुहिम से शुरुआती तौर पर चीन में खपत, निवेश व बचत घटेगी. महंगे रेस्तरांओं की बिक्री गिर रही है, बैंकों में सरकारी कंपनियों का जमा कम हुआ है और अचल संपत्ति में निवेश घटा है. चीनी मीडिया में राष्ट्रपति की ऐसी टिप्पणियां कभी नहीं दिखीं कि वे 'भ्रष्टाचार की सेना’ से लडऩे को तैयार हैं और इसमें 'किसी व्यक्ति को जिंदगी-मौत अथवा यश-अपयश की फिक्र’ नहीं होनी चाहिए. लेकिन जिनपिंग की टिप्पणियों (भ्रष्टाचार पर उनके भाषणों का नया संग्रह इसी माह जारी) को देखकर यह समझा जा सकता है कि चीन के राष्ट्रपति इस तथ्य से पूरी तरह वाकिफ हैं कि भ्रष्टाचार महंगाई बढ़ाता है और अवसर सीमित करता है, इसलिए आर्थिक तरक्की का अगला दौर इसी स्वच्छता से निकलेगा और इसी राह पर चलकर चीन को महाशक्ति बनाया जा सकता है.
भ्रष्टाचार उन्मूलन अभियान, जिनपिंग की सबसे बड़ी ग्लोबल पहचान बन रहा है जैसे कि देंग श्याओ पेंग आर्थिक उदारीकरण से पहचाने गए थे. हू जिंताओ ने राष्ट्रपति के तौर पर अपने अंतिम भाषणों में चेताया था कि लोगों के गुस्से की सबसे बड़ी वजह सरकारी लूट है. जिनपिंग को पता है कि यह लूट रोककर न केवल ग्रोथ लाई जा सकती है बल्कि अकूत सियासी ताकत भी मिलेगी.
ग्लोबल कूटनीति और निवेश के संदर्भ में नरेंद्र मोदी का भारत और जिनपिंग का चीन कई मायनों में एक जैसी उम्मीदों व अंदेशों से लबरेज है. ओबामा ग्लोबल राजनीति से विदा होने वाले हैं, दुनिया की निगाहें अब मोदी और जिनपिंग पर हैं. आकाश छूती अपेक्षाओं के शिखर पर सवार मोदी, क्या पिछले नौ माह में ऐसा कुछ कर सके हैं, जो उन्हें बड़ा फर्क पैदा करने वाला नेता बना सके? दूरदर्शी नेता हमेशा युगांतरकारी लक्ष्य चुनते हैं. मोदी को अपने लक्ष्यों का चुनाव करने में अब देर नहीं करनी चाहिए.


Monday, January 19, 2015

भूमिहीन मेक इन इंडिया

जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिएनिरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को?
दि आप मामूली यूएसबी ड्राइव बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते हैं, जो चीन से इस कदर आयात होती हैं कि सरकार के मेक इन इंडिया का ब्योरा भी पत्रकारों को चीन में बनी पेन ड्राइव में दिया गया था, तो जमीन हासिल करने के लिए आपको कांग्रेसी राज के उसी कानून से जूझना होगा, जो वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इक्कीसवीं सदी की जरूरतों के माफिक नहीं है. अलबत्ता अगर आप सरकार के साथ मिलकर एक्सप्रेस-वे, इंडस्ट्रियल पार्क अथवा लग्जरी होटल-हॉस्पिटल बनाना चाहते हैं तो नए अध्यादेश के मुताबिक, आपको किसानों की सहमति या परियोजना के जीविका पर असर को आंकने की शर्तों से माफी मिल जाएगी. यह उस बहस की बानगी है जो वाइब्रेंट गुजरात और बंगाल के भव्य आयोजनों के हाशिए से उठी है और निवेश के काल्पनिक आंकड़ों में दबने को तैयार नहीं है. इसे मैन्युफैक्चरिंग बनाम इन्फ्रास्ट्रक्चर की बहस समझने की गलती मत कीजिए, क्योंकि भारत को दोनों ही चाहिए. सवाल यह है कि जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिए, निरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को? मेक इन इंडिया के तहत तकनीक, इनोवेशन लाने वाली मैन्युफैक्चरिंग को या टोल रोड बनाते हुए, कॉलोनियां काट देने वाले डेवलपर को?
जमीनें जटिल संसाधन हैं. एक के लिए यह विशुद्ध जीविका है तो दूसरे के लिए परियोजना का कच्चा माल है जबकि किसी तीसरे के लिए जमीनें मुनाफे का बुनियादी फॉर्मूला बन जाती हैं. जमीन अधिग्रहण के नए कानून और उसमें ताबड़तोड़ बदलावों ने इन तीनों हितों का संतुलन बिगाड़ दिया है. पुराने कानून (1894) के तहत मनमाने अधिग्रहण होते थे जिनमें किसानों को पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिलता था. पिछली सरकार ने विपह्न की सहमति से नए कानून में 21वीं सदी का मुआवजा तो सुनिश्चित कर दिया लेकिन नया कानून किसानों की सियासत पर केंद्रित था इसलिए विकास के लिए जमीन की सप्लाई थम गई. बीजेपी ने अध्यादेशी बदलावों से कानून को जिस तरह उदार किया है उससे फायदे चुनिंदा निवेशकों की ओर मुखातिब हो रहे हैं, जिससे जटिलताओं की जमीन और कडिय़ल हो जाएगी. 
खेती के अलावा, जमीन के उत्पादक इस्तेमाल के दो मॉडल हैं. एक बुनियादी ढांचा परियोजनाएं है जहां जमीन ही कारोबार व मुनाफे का बुनियादी आधार है. दूसरा ग्राहक मैन्युफैक्चरिंग है जहां निवेशकों के लिए भूमि, परियोजना की लागत का हिस्सा है, क्योंकि फैक्ट्री का मुनाफा तकनीक और प्रतिस्पर्धा पर निर्भर है. सड़क, बिजली, आवास, एयरपोर्ट की बुनियादी भूमिका और जरूरत पर कोई विवाद नहीं हो सकता लेकिन स्वीकार करना होगा कि सरकारी नीतियां इन्फ्रास्ट्रक्चर ग्रंथि की शिकार भी हैं. आर्थिक विकास की अधिकांश बहसें बुनियादी ढांचे की कमी से शुरू होती हैं. रियायतों, कर्ज सुविधाओं और परियोजनाओं में सरकार की सीधी भागीदारी (पीपीपी-सरकारी गारंटी जैसा है) का दुलार भी महज एक दर्जन उद्योग या सेवाओं को मिलता है. सरकार की वरीयता बैंकों की भी वरीयता है इसलिए, इन्फ्रास्ट्रक्चर और पीपीपी परियोजनाओं में भारी कर्ज फंसा है.
संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून से जमीन की सप्लाई में आसानी होगी लेकिन सिर्फ इन्फ्रास्ट्रक्चर उद्योगों के लिए. इन उद्योगों में चार गुना कीमत देकर खरीदी गई जमीन से भी मुनाफा कमाना संभव है क्योंकि मकान, एयरपोर्ट और एक्सप्रेस-वे इत्यादि बनाने में जमीन के कारोबारी इस्तेमाल की अनंत संभावनाएं हैं. अलबत्ता मैन्युफैक्चरिंग उद्योग के लिए सस्ती जमीन तो दूर, उन्हें वह सभी शर्तें माननी होंगी, जिनसे इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपर को मुक्ति मिल गई है. इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए सुविधाएं और रियायतें पहले से हैं, मैन्युफैक्चरिंग को लेकर उत्साह, मोदी के मेक इन इंडिया अभियान के बाद बढ़ा है. मैन्युफैक्चरिंग स्थायी और प्रशिक्षित रोजगार लाती है जबकि कंस्ट्रक्शन उद्योग दैनिक और अकुशल श्रमिक खपाता है. निवेशक यह समझ रहे थे कि सरकार स्थायी नौकरियों को लेकर गंभीर है इसलिए मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलेगा. ध्यान रखना जरूरी है कि मैन्युफैक्चरिंग के दायरे में सैकड़ों उद्योग आते हैं जबकि जिन उद्योगों के लिए कानून उदार हुआ है, वहां मुट्ठी भर बड़ी कंपनियां ही हैं. इसलिए बदलावों का फायदा चुनिंदा उद्योगों और कंपनियों के हक में जाने के आरोप बढ़ते जाएंगे.

बीजेपी की मुश्किल यह है कि पिछले भूमि अधिग्रहण कानून में कई बदलाव सुमित्रा महाजन, वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष, के नेतृत्व वाली संसदीय समिति की सिफारिश से हुए थे. सर्वदलीय बैठकों से लेकर संसद तक बीजेपी ने बेहद सक्रियता के साथ जिस नए भूमि अधिग्रहण कानून की पैरवी की, नए संशोधन उसके विपरीत हैं. कांग्रेस सरकार ने नए कानून पर सर्वदलीय सहमति बनाई थी, बीजेपी ने तो इन संवेदनशील बदलावों से पहले सियासी तापमान परखने की जरूरत भी नहीं समझी. दरअसल, मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून को तर्कसंगत बनाने का मौका चूक गई है. मैन्युफैक्चरिंग सहित अन्य उद्योगों को इसमें शामिल कर कानून को व्यावहारिक बनाया जा सकता था ताकि रोजगारपरक निवेश को प्रोत्साहन मिलता. वैसे भी इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जमीन का  व्यापक और एकमुश्त अधिग्रहण चाहिए जिनमें समय लगता है. मैन्युफैक्चरिंग के लिए जमीन की आपूर्ति बढ़ाकर रोजगार सृजन के सहारे विरोध के मौके कम किए जा सकते थे. कांग्रेस ने नया कानून बनाते हुए और बीजेपी ने इसे बदलते हुए इस तथ्य की अनदेखी की है कि जमीन का अधिकतम उत्पादक इस्तेमाल बेहद जरूरी है. कांग्रेस का भूमि अधिग्रहण कानून, विकास की जरूरतों के माफिक नहीं था लेकिन बीजेपी के बदलावों के बाद यह न तो मेक इन इंडिया के माफिक रहा है और न किसानों के. भूमि अधिग्रहण कानून 21वीं सदी का तो है मगर न किसान इसके साथ हैं और न बहुसंख्यक उद्योग. अब आने वाले महीनों में जमीनें विकास और रोजगार नहीं, सिर्फ राजनीति की फसल पैदा करेंगी.