Monday, March 30, 2015

कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है


सरकार से यह उम्मीद कतई न थी विदेश में काला धन रखने वालों के लिए बचने की खिड़की खोल दी जाएगी और इंस्पेक्टर राज से लैस एक कानून थोप दिया जाएगा.
खिर सरकार की नीयत पर लोग शक क्यों न करें? देश जब काले धन पर कुढ़ रहा हो तब ऐसा विधेयक लोकसभा में पेश किया गया है जो विदेश में अवैध पैसा रखने वालों को कानूनी सख्ती से पहले टैक्स और पेनाल्टी देकर बच निकलने का मौका देने जा रहा है. माना कि विदेश से काला धन लाने में विफलता, मोदी सरकार की किरकिरी करा रही है लेकिन इतनी भी क्या बेताबी कि काला धन रोकने की कोशिशों पर संसद में पर्याप्त चर्चा भी न हो सके. विदेश में जमा काला धन पर सख्ती के लिए बीते सप्ताह लोकसभा में पेश विधेयक (अनडिस्क्लोज्ड फॉरेन इनकम ऐंड एसेट्स बिल 2015) दरअसल मनी बिल है, जिस पर देश में तो छोडिय़े, संसद में भी पर्याप्त बहस नहीं होगी, क्योंकि इसे संसदीय समितियों को भी नहीं दिया जा सकता. इतनी जल्दबाजी और पर्दादारी का मकसद क्या हो सकता है?
अनडिस्क्लोज्ड फॉरेन इनकम ऐंड एसेट्स (यूएफआइए) बिल 2015 को पढऩे के बाद टैक्स का कोई सामान्य विशेषज्ञ भी बता देगा कि यह दूरदर्शी या नायाब कानून नहीं है. अगर विदेश में जमा अघोषित संपत्ति पर सख्ती करनी थी तो इसके लिए नया कानून लादने की जरूरत शायद नहीं थी. नए कानून मैक्सिमम गवर्नेंस की पहचान हैं जो दुरुपयोग का खतरा बढ़ाते हैं.
विदेश में जमा काले धन पर शिकंजे के लिए मौजूदा आयकर कानून में कुछ संशोधन हो सकते थे क्योंकि विदेशी संपत्ति सहित कर योग्य संपत्ति छिपाने पर सात साल की सजा का प्रावधान पहले से मौजूद है. नया विधेयक विदेश में धन छिपाने का दोषी पाए जाने पर भारत में संपत्ति जब्त करने, सख्त सजा और कानूनी बचाव के रास्ते सीमित करने से लैस है. ये प्रावधान मौजूदा आयकर कानून में जोड़े जा सकते थे. सिर्फ इतने के लिए आनन-फानन में नया कानून लाने की भला क्या जरूरत आन पड़ी थी?
इस विधेयक के प्रावधानों पर अचरज से ज्यादा शक इसे लाने के तरीके और पारित कराने की रणनीति पर है. यह विधेयक एक मनी बिल है जिसे संविधान की धारा117 और 274 के तहत पेश किया गया है. धारा 117 के तहत, राष्ट्रपति को पूर्व सूचना देकर खास तरह के मनी बिल पेश किए जाते हैं. यह राज्यसभा भी नहीं जाएगा,जहां सरकार अल्पमत में है. मनी बिल होने के नाते इसे संसदीय समितियों के पास भेजने की जरूरत भी नहीं बल्कि लोकसभा को 75 दिन में इसे पारित करना होगा. विदेश में काले धन के खातों पर सख्ती के कानून को लेकर यह पेशबंदी बताती है कि इस पर बहस को सीमित रखने की कोशिश की जा रही है.
इस विधेयक का छठा खंड विवादित होगा और इसे बहस को रोकने की रोशनी में देखा जाएगा. इस खंड के तहत व्यवस्था दी गई है कि इस नए कानून के प्रभावी होने से पहले अगर विदेश में छिपाया धन घोषित करते हुए टैक्स (30 फीसद) और पेनाल्टी (टैक्स का शत प्रतिशत) चुकाई जाती है तो कार्रवाई नहीं होगी. वकीलों से मिलें तो वे 1997 की वीडीआइएस स्कीम के तजुर्बे को आधार बनाकर माफी के प्रावधान पर भी शक करते हुए बताएंगे कि कंपनियां शायद ही इस कानून के तहत काला धन घोषित करने आएं. वजह? वीडीआइएस में गोपनीयता के वादे के बावजूद कई मामलों में कर जांच शुरू हुई थी. यह नया कानून इस तथ्य को भी स्पष्ट नहीं करता कि अगर काली कमाई जरायम से निकली है तो संपत्ति घोषित करने वाले पर कार्रवाई होगी या नहीं.
फिर भी विदेश में जमा काला धन धोने के लिए यह लांड्री नुकसान का सौदा नहीं है. टैक्स हैवेन में पैसा रखने पर एक या दो फीसद का ब्याज मिलता है, दर्जनों जोखिम अलग से. इस नई व्यवस्था में कर और पेनाल्टी चुकाने के बाद भी 100 रु. में से 40 रु. बचेंगे जो साफ-सुथरे होंगे. माफी देने पर विवाद होना तय है क्योंकि कर चोरों को बच निकलने का मौका मिलना ईमानदार करदाताओं के साथ अन्याय है. शायद यही वजह है कि सरकार इस विधेयक पर बड़ी बहस नहीं चाहती, बस किसी तरह संसद की दहलीज पार करा देना चाहती है ताकि कुछ काला धन वापस लाकर दिखाया जा सके और एक अतार्किक चुनावी वादे से मुकरने की कालिख कम की जा सके.
जिस देश में सख्त कानून के बावजूद बलात्कारियों को सजा न हो पाती हो वहां विदेश में जमा काले धन पर आधे-अधूरे कानून के असरदार होने की कोई गारंटी नहीं है. आयकर, सीमा और उत्पाद शुल्क के लंबित अभियोजनों का इतिहास बताता है कि टैक्स प्रशासन कितना बोदा है. कहने को तो प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉड्रिंग कानून2012 भी सख्त है लेकिन अब तक इसमें न तो कोई बड़ा मामला बना और न ही बड़ी रिकवरी हुई. इसलिए नया कथित सख्त कानून सिर्फ एक नए इंस्पेक्टर राज का खतरा पैदा करता है जैसा कि इस प्रजाति के दूसरे कानूनों में है जो सजा तो नहीं दिला पाते अलबत्ता भ्रष्टाचार के नाखून पैने कर देते हैं. कानून को गौर से पढऩे पर इसमें कई और तकनीकी कमजोरियां निकलती हैं जो इसे उदार अर्थव्यवस्था और पारदर्शिता के माफिक साबित नहीं करतीं. इसे व्यावहारिक बनाने के लिए देश और संसद में इस पर पर्याप्त बहस हर तरह से जरूरी है.
विदेश में जमा काला धन काली अर्थव्यवस्था का आधा फीसद भी नहीं है. इस मुद्दे पर चुनावी और न्यायिक सक्रियता के बाद काले धन की पैदावार को सीमित करने,खपत के तौर-तरीकों को रोकने, देश से बाहर लाने-ले जाने के रास्तों और राजनीतिक चंदे सहित विभिन्न आयामों पर समग्र प्रयासों की अपेक्षा की गई थी. सरकार से यह उम्मीद कतई न थी कि काला धन रोकने के उपायों को विदेशी खातों तक सीमित करते हुए विदेश में काला धन रखने वालों के लिए बचने की खिड़की खोल दी जाएगी और इंस्पेक्टर राज से लैस एक कानून थोप दिया जाएगा.
सरकारें अक्सर यह भूल जाती हैं कि आम लोग नीयत पढऩे में चूक नहीं करते. विदेश में जमा कितनी काली कमाई इस कानून के जरिए आएगी, यह तय नहीं है. अलबत्ता इसमें कोई शक नहीं कि इसके प्रावधान और इसे लाने का तरीका, काले धन को लेकर सरकार की नीयत पर उठने वाले सवालों को बड़ा और पैना जरूर कर देंगे.


Tuesday, March 24, 2015

'जमीन' से कटी सियासत

 नेता हमेशा जनता की नब्ज सही ढंग से नहीं पढ़ते हैं. भूमि अधिग्रहण पर जल्‍दबाजी में मोदी सरकार ने काफी कुछ बिगाड़ लिया है।

भूमि अधिग्रहण पर बीजेपी के कुछ नेताओं की चर्चाओं से बाहर निकल कर आसपास के ग्रामीण इलाकों में भ्रमण किया जाए तो आप खुद से यह सवाल पूछते नजर आएंगे कि क्या इस कानून में बदलाव से पहले बीजेपी ने ग्रामीण राजनीति की जमीन पर अपनी मजबूती परखने की कोशिश की थी? अचरज उस वक्त और बढ़ जाता है जब निजी कंपनियों के कप्तान व निवेशक आंकड़ों के साथ यह बताते हैं कि मंदी अब गंवई व कस्बाई बाजारों में भी पैठ गई है जहां उपभोक्ता उत्पादों, बाइक, जेनसेट, भवन निर्माण सामग्री की मांग लगातार गिर रही है. जब तक शहरी बाजार दुलकी चाल नहीं दिखाते, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को झटका देना ठीक नहीं है. अलबत्ता सबसे ज्यादा विस्मय तब होता है जब राज्यों के अधिकारी यह कहते हैं कि उनकी सरकारें नए कानून के बाद ऊंचे मुआवजे पर किसानों को भूमि देने के लिए राजी करने लगी थीं लेकिन केंद्र सरकार की अध्यादेशी आतुरता के चलते जमीन राजनीति से तपने लगी है.

कांग्रेस का भूमि अधिग्रहण कानून उद्योगों के हक में नहीं था लेकिन वह एक लंबी राजनैतिक सहमति से निकला था जिसमें बीजेपी सहित सभी दल शामिल थे, जिनकी सरकारें अलग-अलग राज्यों में हैं. जमीन अंततः राज्यों का विषय है इसलिए राज्यों ने नए कानून के तहत अपने तरीके से किसानों को सहमत करने व राज्य के कानून में बदलाव के जरिए उद्योगों की चिंताओं को जगह देने की कवायद शुरू कर दी थी. उत्तर प्रदेश सरकार ने दो साल में करीब 30,000 हेक्टेयर जमीन किसानों से ली. यह एकमुश्त अधिग्रहण नहीं था बल्कि प्रत्येक भूस्वामी से जिलाधिकारियों ने सीधे बात की और उन्हें नए कानून के तहत मुआवजा देकर जमीन की रजिस्ट्री सरकार के नाम कराई. अगर उत्तर प्रदेश सरकार का आंकड़ा सही है तो ऐसी करीब 28,000 रजिस्ट्री हो चुकी हैं. बड़े भूमि अधिग्रहणों में प्रभावितों पर सामाजिक-आर्थिक असर के आकलन और 80 फीसदी भूस्वामियों की सहमति की शर्त बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में देरी की वजह बन सकती है. राजस्थान ने इसका समाधान निकालने के लिए राज्य के भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों को मुआवजे की राशि बढ़ाने का प्रस्ताव दिया. कुछ सुझाव राज्य विधानसभा सेलेक्ट कमेटी ने दिए जिससे कानून कमोबेश संतुलित हो गया. 

पश्चिम और दक्षिण के राज्यों ने लैंड पूलिंग के जरिए भूमि अधिग्रहण को सहज किया. इस प्रक्रिया में जमीन के छोटे-छोटे हिस्सों को किसानों से जुटाकर सरकार बड़ा पैकेज बनाती है और वहां बुनियादी ढांचा विकसित करने के बाद उससे विकास की लागत निकाल कर जमीन वापस भूस्वामियों को दे दी जाती है जिससे भूमि की कीमत बढ़ जाती है और विक्रेताओं को निजी डेवलपर्स से अच्छे दाम मिलते हैं. आंध्र प्रदेश सरकार ने विजयवाड़ा को अपनी नई राजधानी बनाने के लिए, लैंड पूलिंग के जरिए केवल तीन माह में 30,000 एकड़ जमीन किसानों से जुटा ली है. छत्तीसगढ़ सरकार ने नया रायपुर बसाने के लिए लैंड पूलिंग का ठीक उसी तरह सफल प्रयोग किया जैसा कि गुजरात में हुआ. जमीन पर राजनीति की आंधी शुरू होने के बाद आंध्र प्रदेश को अब विजाग एयरपोर्ट के लिए 15,000 एकड़ जमीन जुटाने में मुश्किल होगी और राजधानी दिल्ली में लैंड पूलिंग भी सहज नहीं रहेगी.
जमीन संवेदनशील है. राज्य सरकारें इसके अधिग्रहण को ज्यादा व्यावहारिक तौर पर संभाल सकती हैं. बेहतर होता कि उद्योग की जरूरतों के हिसाब से राज्य अपने कानूनों को बदलते जैसा कि उत्तर प्रदेश और राजस्थान में हुआ या फिर लैंड पूलिंग जैसी कोशिशें करते जो पश्चिम और दक्षिण के राज्यों ने कीं. लेकिन मोदी सरकार ने अति आत्मविश्वास में जमीन की जटिल राजनीति में खुद को उलझा लिया और राज्यों की कोशिशों को भी कमजोर कर दिया है.
एक सजग सरकार को ग्रामीण अर्थव्यव्स्था की ताजा सूरत देखते हुए खेतिहर जमीन पर ठहर कर बढऩा चाहिए था. नई सरकार ने आते ही समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी रोक दी. इससे महंगाई तो नहीं घटी लेकिन खेती से आय जरूर कम हो गई. मॉनसून औसत से खराब रहा. दुनिया में कृषि उत्पादों की कीमतें घटीं जिससे निर्यात भी कम हुआ. ग्रामीण इलाकों में मजदूरी बढऩे की दर अब घट गई है. इस बीच 2014 में  किसानों की आत्महत्या के मामलों में 26 फीसदी के इजाफे से खेती को लेकर बढ़ी चिंताओं की रोशनी में, भूमि अधिग्रहण को उदार करने के लिए राजनैतिक जमीन कतई सक्त हो चुकी है. 

भारत में दुपहिया वाहन, उपभोक्ता उत्पाद, जेनसेट, सीमेंट व भवन निर्माण सामग्री का बाजार बड़े पैमाने पर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर है. इन उत्पादों की कंपनियों के आंकड़े बिक्री और आय में बड़ी गिरावट दिखा रहे हैं. कंपनियों की चिंता यह है कि शहरी और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में ग्रोथ की रोशनी अभी तक नहीं चमकी है. भूमि अधिग्रहण के बाद अगर गांवों में राजनैतिक माहौल बिगड़ा तो रही सही मांग और चुक जाएगी. भूमि अधिग्रहण पर सिर खपाने का यह सही वक्त नहीं था. आर्थिक ग्रोथ व रोजगार वापस लौटने के बाद इस तरफ मुडऩा बेहतर होता जबकि बीजेपी के नेता भुनभुना रहे हैं कि पार्टी ने चुनाव के दौरान भूमि अधिग्रहण पर मुंह तक नहीं खोला और सत्ता में आने के बाद, अब उन्हें आग का यह गोला किसानों के गले उतारने की जिम्मेदारी दी जा रही है.

भूमि अधिग्रहण को लेकर सियासी व आर्थिक तापमान परखने के बाद यह धारणा चोट खाती है कि नेता हमेशा जनता की नब्ज सही ढंग से पढ़ते हैं. बात केवल इतनी नहीं है कि भूमि अधिग्रहण पर अध्यादेश की जल्दबाजी ने हताश और बिखरे विपक्ष को एकजुट होने का मौका दे दिया है बल्कि इस कानून पर गतिरोध से देश के माहौल में उपजा फील गुड खत्म हो रहा है. भूमि अधिग्रहण में बदलाव जिद के साथ संसद से पारित भी हो जाए तो भी माहौल बेहतर नहीं पाएगा. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लोकसभा में चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर तंज कसा था कि मुझे राजनीति अच्छी तरह से आती है, लेकिन भूमि अधिग्रहण पर बदली सियासत तो कुछ और ही इशारा कर रही है.

Monday, March 16, 2015

कूटनीति का निजीकरण


चीन ने छोटे मुल्कों में जो काम अपनी विशाल सरकारी कंपनियों के जरिए किया, भारत उसे निजी कंपनियों के साथ करना चाहता है.

टैक्स व महंगाई की खिच-खिच के बीच कम ही लोगों का ध्यान बजट की इस घोषणा पर गया होगा कि सरकार एक नई प्रोजेक्ट डेवलपमेंट कंपनी बनाने वाली है जो दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों कंबोडिया, म्यांमार, लाओस और विएतनाम (सीएमएलवी) में भारतीय निजी कंपनियों के निवेश का रास्ता तैयार करेगी. बजट का यह प्रस्ताव संकेत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी घरेलू मोर्चे पर भले ही उलझ रहे हों लेकिन ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं को लेकर उनकी तैयारियां चाक-चौबंद हैं. निजी निवेश की पीठ पर विदेश नीति को बिठाना और इस मकसद से एक सार्वजनिक कंपनी का गठन, दरअसल कूटनीति का पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल है, जो भारतीय अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नया आयाम दे सकता है. कूटनीति की यह नई करवट हिंद महासागर के द्वीपीय देशों में प्रधानमंत्री की ताजा यात्रा की रोशनी में खासी महत्वपूर्ण हो गई है.
भारत की कूटनीतिक रणनीति का नया स्वरूप मोदी के ताजा ग्लोबल अभियानों की नसीहतों से निकला है. प्रधानमंत्री को भावुक भारतीयता और भारतवंशियों से जुड़ाव की सीमाओं का एहसास होने लगा है. ग्लोबल सुरक्षा और एकजुटता के रणनीतिक विमर्श बड़े देशों को जोड़ सकते हैं लेकिन छोटे देशों से रिश्तों में महाशक्तियों से संबंधों जैसी भव्यता नहीं भरी जा सकती. इन्हें तो ठोस आर्थिक लेन-देन की जमीन पर टिकाना होता है जिसका कोई मजबूत मॉडल भारत के पास नहीं है. मोदी विदेश नीति में बड़े और छोटे देशों से रिश्तों का अलग-अलग प्रारूप तय करना चाहते हैं ताकि ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं को समग्र रूप से साधा जा सके. सेशेल्स, मॉरिशस और श्रीलंका जैसे छोटे देशों से उनके पहले संवाद के नतीजे इस रणनीति के लिए काफी अहम होंगे. 
ग्लोबल बिसात पर प्रशांत व अटलांटिक महासागरीय क्षेत्रों के दबदबे के कारण हिंद महासागर, न केवल चर्चाओं से लगभग बाहर है बल्कि यह क्षेत्र पिछले 25 वर्ष में निष्क्रिय कूटनीतिक प्रयोगों का अजायबघर भी बन गया  है. करीब 1.5 अरब लोगों की आबादी को जोडऩे वाला दक्षेस, 1985 से अब तक दो दर्जन से अधिक शिखर बैठकों के बावजूद बड़ी संधियां तो दूर, संवाद का एक गतिमान ढांचा तक नहीं बना पाया. 1997 में थाईलैंड की अगुआई में बना सात देशों का बिक्वसटेक-ईसी (बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर मल्टी सेक्टोरल टेक्निकल ऐंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन) को एक सचिवालय बनाने में 17 साल लग गए. 2000 में बना मेकांग गंगा कोऑपरेशन भी 15 साल में कुछ बयानों से आगे नहीं बढ़ा. ऑस्ट्रेलिया, भारत, दक्षिण अफ्रीका व ईरान सहित 20 देशों की सदस्यता वाला इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन (1995) इस क्षेत्र का सबसे महत्वाकांक्षी अभियान था लेकिन यह भी जहां का तहां खड़ा है.
नरेंद्र मोदी जब इस क्षेत्र में नई शुरुआत कर रहे हैं तो उनकी पीठ पर इन बड़े कूटनीतिक प्रयोगों की असफलता भी लदी है. ये विफलताएं भारत के खाते में सिर्फ इसलिए नहीं चमकती हैं कि वह हिंद महासागर के किनारे मौजूद सबसे बड़ा मुल्क है बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि हिंद महासागर व शेष विश्व में छोटे मुल्कों से संबंधों का कोई ठोस प्रारूप भारत के पास नहीं है. भारतीय कूटनीति इन छोटे देशों से रिश्तों में छात्रों को वजीफे, पर्यटन और लाइन ऑफ क्रेडिट से आगे नहीं बढ़ पाई. सांस्कृतिक संबंधों की दुहाई भी एक सीमा तक काम आती है.
छोटे मुल्कों के लिए दोस्ती का मतलब उनकी तरक्की में सीधी भागीदारी है. यही वजह थी कि चीन की  कूटनीति निवेश की पीठ पर बैठ कर आगे बढ़ी. चीन ने विदेशी मुद्रा भंडार व भीमकाय सरकारी कंपनियों के जरिए हिंद महासागर से लेकर अफ्रीका व यूरोप तक कई छोटे देशों के आर्थिक हितों को सीधे तौर पर प्रभावित किया है. भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार की ताकत नहीं है जिसके जरिए छोटे देशों में निवेश किया जा सके. सरकारें कारोबार में सीमित हिस्सा रखती हैं, इसलिए हिंद महासागर क्षेत्र में सरकारों के बीच सहयोग की कोशिशें बहुत परवान नहीं चढ़ीं. यही वजह है कि मोदी अपनी कूटनीतिक सफलता के लिए भारत की निजी कंपनियों की तरफ मुखातिब हैं.
हिंद महासागर की यात्रा से पहले पूर्वी एशिया में निवेश का रास्ता बनाने वाली नई कंपनी का ऐलान यह बताने की कोशिश है कि चीन ने छोटे मुल्कों में जो काम अपनी विशाल सरकारी कंपनियों के जरिए किया, भारत उसे निजी कंपनियों के साथ करना चाहता है. नरेंद्र मोदी ने सेशेल्स, मॉरिशस व श्रीलंका की बैठकों में इस नई पहल का जिक्र जरूर किया होगा, क्योंकि प्रधानमंत्री के श्रीलंका पहुंचने से पहले ही भारतीय उद्योग के कप्तानों की एक टीम कोलंबो पहुंच गई थी.हाल के वर्षों में किसी छोटे देश में भारतीय कंपनियों के अधिकारियों का यह सबसे बड़ा जमावड़ा था. निजी निवेश को कूटनीति से जोडऩे का यह प्रयोग केवल पूर्वी एशिया तक सीमित नहीं रहेगा. मोदी यही प्रयोग हिंद महासागर के लिए करेंगे और उनकी अफ्रीका यात्रा में भी ऐसी कोशिश नजर आएगी.
भारत की निजी कंपनियां और विदेश में बसे भारतवंशी, मोदी के ग्लोबल अभियान का आधार बनते दिख रहे हैं. चुनौती यह है कि भारत की निजी कंपनियां ग्लोबल पैमाने पर बहुत छोटी हैं. मोदी की कूटनीतिक योजनाओं में मदद के लिए उन्हें ग्लोबल साख, ताकत, पारदर्शिता और बड़ा आकार चाहिए, ताकि लाओस, कंबोडिया से लेकर मॉरिशस और सेशेल्स तक कारोबारी जोखिम लिये जा सकें. दूसरी तरफ अनिवासी भारतीय केवल चमकते भारत को और चमका सकते हैं, विदेश में बसे समृद्ध चीनियों जैसा निवेश नहीं कर सकते.
प्रधानमंत्री विदेशी मंचों से चाहे जितने भावुक आह्वान करें लेकिन हिंद महासागर भ्रमण के बाद उन्हें इस हकीकत का एहसास भी हो जाएगा कि उनकी ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं को भारत में अच्छी गवर्नेंस और तेज ग्रोथ की बुनियाद चाहिए. इसके बिना न निजी कंपनियां सक्रिय होंगी और न उनके मुरीद भारतवंशी सक्रिय रह पाएंगे. विदेशी मंच से भारत को संबोधन बहुत हुआ, अब मोदी को देश की जमीन से विदेश को संबोधित करना होगा.



Monday, March 9, 2015

साहस का हिसाब-किताब

 यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
साहसी होना ताकत व माहौल पर निर्भर नहीं होता इसके लिए नीयत और मंशा ज्यादा जरूरी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस राजनैतिक साहस के साथ कश्मीर में 'परिवारवादी' और अलगाववादी लोगों (सज्जाद लोन) के साथ सरकार बना ली, वही हिम्मत बजट में नजर क्यों नहीं आई? कश्मीर में बीजेपी के राजनैतिक दर्शन से इतर जाने का फैसला जिस इच्छा शक्ति से निकला था, क्रांतिकारी सुधारों भरे बजट के लिए ठीक ऐसे ही संकल्प की दरकार थी. मोदी सरकार के नौ माह बीतने और बेहद महत्वपूर्ण बजटों (रेल व आम बजट) के औसत होने के बाद अब यह सवाल उठना लाजमी है कि सरकार गवर्नेंस में कोई बड़ा परिवर्तन करने की नीयत रखती भी है या बिग आइडिया की पुकार और बदलाव के कौल केवल चुनावी जबानी जमा खर्च थे? उपभोक्ताओं, किसानों, रोजगार तलाशते युवाओं से लेकर कंपनियां और विदेशी रेटिंग एजेंसियां (फिच, स्टैंडर्ड ऐंड पुअर) भी इस बजट के असर को लेकर मुतमईन नहीं हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
रेलवे व आम बजट में क्या मिला, यह सबको पता है. मगर यह जानना बेहतर होगा कि ऐेसा क्या हो सकता था जो इन्हें 1991 के बाद के सबसे परिवर्तनकारी बजटों में बदल देता. बीजेपी ने जिस ठसक के साथ झारखंड में दल बदल के जरिए सरकार बना ली, लगभग उसी तरह के राजनैतिक साहस के आधार पर सुरेश प्रभु यह ऐलान कर सकते थे कि रेलवे अब सिर्फ  रेल चलाएगी. रेल नीर की बोतलें भरना, पहिए-स्लीपर बनाना, इंजन-डिब्बे गढ़ना रेलवे का काम नहीं है. इन कारखानों में सरकार का हिस्सा बेचकर मिले संसाधनों को रेल नेटवर्क  में लगाया जा सकता था. यह रेलवे का मेक इन इंडिया हो सकता था. रेलवे को इस तरह के बिग आइडिया की ही जरूरत थी जो एकमुश्त बदलाव की राह खोलता. अब अगर एक साल बाद भी रेलवे जस की तस रहे तो चौंकिएगा नहीं, क्योंकि रेल नेटवर्क  के लिए पांच साल में 8.5 लाख करोड़ रु. कहां से आएंगे, यह खुद 'प्रभु' भी नहीं बता सकते.
जिस जिद के साथ भूमि अधिग्रहण कानून पर राजनैतिक करवट बदली गई, ठीक वैसा ही साहस खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश खोलने के फैसले पर क्यों नहीं दिखाया जा सकता? सरकार के भीतर यह सबको मालूम है कि 2018 तक करीब 950 अरब डॉलर पर पहुंचने वाला देश का खुदरा बाजार रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हो सकता है. इस 'ट्रेड इन इंडिया' में खेती समेत तमाम क्षेत्रों के लिए संभावनाएं छिपी हैं जो कैश ट्रांसफर के साथ बढ़ने वाले उपभोक्ता खर्च के माफिक है. खुदरा में विदेशी निवेश को लेकर बीजेपी को सिर्फ  अपने स्वदेशी कुनबे को मनाना था, जो भूमि अधिग्रहण की कंटीली राह से ज्यादा आसान होता. सरकार को कारोबार से बाहर निकलने और गवर्नेंस करने की सलाह देने वाले प्रधानमंत्री अगर एअर इंडिया, भारत संचार निगम, बीमा निगम जैसी कंपनियों के विनिवेश का ऐलान नहीं कर पाए तो यह सिर्फ  कमजोर इच्छा शक्तिका नमूना है.
बजट के आंकड़े मोदी सरकार से की गई उम्मीदों की चुगली खाते हैं. मुफ्तखोरी पर बाहें फटकारने के विपरीत बजट में गैर पेट्रो सब्सिडी का बिल जस का तस है. सरकार उन्हीं पुरानी समाजिक सुरक्षा स्कीमों पर लौट आई, जिनकी विफलता प्रामाणिक है. खर्च तो शिक्षा व स्वास्थ्य पर कम हुआ है जो आम जनता के लिए मोदी की 'मन की बातों' का ठीक उलटा है. राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण के नए मॉडल से सहमत होने के लिए साधुवाद, अलबत्ता वित्त आयोग की सिफारिशें इस बदलाव का जरिया बनी हैं जिन्हें कोई भी सरकार स्वीकार करती.   
रियायतों के बावजूद कंपनियां और विदेशी एजेंसियां अगर बजट पर मुतमईन नहीं हो पा रही हैं तो वजह यही है कि मोदी-अरुण जेटली आर्थिक सुधारों के अगले चरण का वादा करते हुए आए थे, न कि एक कामचलाऊ और कतरब्योंत वाले बजट का. मोदी-जेटली को यह याद रखना होगा कि टुकड़ों-टुकड़ों में बदलावों पर शक-शुबहे होते हैं लेकिन बड़े व एकमुश्त सुधार सरकार को साहसी साबित करते हैं. यूपीए सरकार के डायरेक्ट कैश ट्रांसफर या आधार स्कीमों को स्वीकारना उदारता का प्रमाण है लेकिन इनसेआगे न बढ़ पाना इस बात का प्रमाण भी है कि नई सरकार यथास्थिति को बेहतर करने से ज्यादा का साहस नहीं जुटा सकी. यही वजह है कि बजट की सामाजिक स्कीमों के अमल पर ठीक वैसे ही शक हैं जैसे कि यूपीए के साथ थे और बजट के आंकड़ों में ठीक वैसा ही लोचा है जैसा कि हमेशा से होता आया है.
चिंता यह नहीं है कि बजट औसत है बल्कि निराशा इस बात की है कि मोदी सरकार जिस नई और बड़ी सूझ का भरोसा देकर सत्ता में आई थी वह नौ माह में कहीं नहीं दिखी. पिछले साल दिसंबर में हमने इस स्तंभ में लिखा था कि सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है, क्योंकि पांच साल का समय बहुत ज्यादा नहीं होता. मोदी सरकार के पास अब केवल दो बजट बचे हैं. दो कीमती बजट यूं ही गुजर गए. जुलाई के बजट में सरकार का एजेंडा आना चाहिए था और इस बजट में ऐक्शन प्लान. 2016 के बजट में सुधारों का असर आंक कर संतुलन की कोशिश होती और 2017 में नए कदम उठाए जाने चाहिए थे क्योंकि 2018 का बजट चुनावी होगा और 2019 का बजट नई सरकार पेश करेगी. लोगों ने मोदी सरकार से तारे तोड़ने की अपेक्षा नहीं जोड़ी थी. उम्मीद सिर्फ  यही थी कि कारोबार और जिंदगी की सूरत बदलनी चाहिए. अब चाह कर भी बहुत कुछ करने का वक्त नहीं है क्योंकि अगले दो बजट तो बस गलतियां सुधारते ही बीत जाएंगे

Monday, March 2, 2015

29 बजटों की ताकत


राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी।
बीते सप्ताह जब उद्योग और सियासत मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के इंतजार में नाखून चबा रहे थे, तब देश में कई और बजट भी पेश हो रहे थे. भारत एक बजट का नहीं बल्कि 29 बजटों का देश है और राज्यों के इन 29 बजटों को बेहद गंभीरता से लेने का वक्त आ गया है. अगले एक साल में भारत के राज्य उस वित्तीय ताकत से लैस हो चुके होंगे, जो देश में आर्थिक नीतियों का ही नहीं बल्कि राजनीति का चेहरा भी बदल देगी. फ्रांसीसी लेखक विक्टर ह्यूगो कहते थे, उस विचार को कोई नहीं रोक सकता जिसका समय आ गया हो. राज्यों को आर्थिक फैसलों की आजादी और संसाधन देने का समय आ गया था इसलिए इसे रोका नहीं जा सका. इसे आप भारत का सबसे दूरगामी आर्थिक सुधार कह सकते हैं जो पिछले एक दशक की सियासी चिल्लपों के बीच चुपचाप आ जमा है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले वित्त आयोग ने राज्यों के वित्तीय अधिकार बढ़ाने का सफर शुरू कर दिया था, मोदी ने योजना आयोग को खत्म करते हुए इसे मंजिल तक पहुंचा दिया. मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के साथ भारत में संघवाद का एक नया खाका उभर रहा है, जिसमें शक्ति संपन्न केंद्र अब कमजोर होगा जबकि राज्य वित्तीय मामलों में नई ताकत बनेंगे और विकास का तकाजा अब केवल दिल्ली से नहीं बल्कि जयपुर, भोपाल, लखनऊ, चेन्नै, बेंगलुरू, कोलकाता से भी होगा, जिन्हें इस नई वित्तीय ताकत व आजादी को संभालने की क्षमताएं विकसित करनी हैं.
योजना आयोग को खत्म करते हुए नरेंद्र मोदी विकेंद्रीकृत आर्थिक नीति नियोजन का नया खाका भले ही स्पष्ट न कर पाए हों लेकिन उन्होंने आर्थिक संसाधनों के बंटवारे में केंद्र के दबदबे को जरूर खत्म कर दिया. बचा हुआ काम चौदहवें वित्त आयोग ने कर दिया है. बजट से पहले इसकी जो रिपोर्ट सरकार ने स्वीकार की है वह केंद्र व राज्यों के वित्तीय रिश्तों का नक्शा बदलने जा रही है. राज्यों को केंद्रीय करों में अब 42 फीसदी हिस्सा मिलेगा यानी पिछले फॉर्मूले से 10 फीसदी ज्यादा. केंद्र सरकार उन्हें शर्तों में लपेटे बिना फंड देगी और यही नहीं, केंद्र राज्य के संसाधनों के हिस्से बांटने का नया फॉर्मूला भी लागू होगा जो आधुनिक जरूरतों को देखकर बना है. केंद्रीय करों में मिलने वाला हिस्सा 2016 के बाद करीब 1.76 खरब रु. बढ़ जाएगा. कोयला खदानों के आवंटन से राज्यों  को एक लाख करोड़ रु. मिल रहे हैं. योजना आयोग से मिलने वाले अनुदान व फंड भी बढ़ेंगे और जीएसटी भी राज्यों की कमाई में इजाफा करेगा.
बात सिर्फ वित्तीय संसाधनों की सप्लाई की नहीं है. योजना आयोग की विदाई और वित्त आयोग की सिफारिशों की रोशनी में राज्यों को इन संसाधनों को खर्च करने की पर्याप्त आजादी भी मिल रही है, जो एक बड़ी चुनौती भी है. अधिकांश राज्यों का वित्तीय प्रबंधन बदहाल और प्रागैतिहासिक है. बजटों की प्रक्रिया कामचलाऊ है. कर्ज, नकदी और वित्तीय लेन-देन प्रबंधन की आधुनिक क्षमताएं नहीं हैं. टैक्स मशीनरी जंग खा रही है. राज्यों को योजना, नीति निर्माण और मॉनिटरिंग के उन सभी तरीकों की शायद ज्यादा जरूरत है जो उदार बाजार के बाद केंद्र सरकार के लिए बेमानी हो गए थे. राज्यों को अब पारदर्शी व आधुनिक वित्तीय ढांचा बनाना होगा, जो संसाधनों की इस आपूर्ति को संभाल सके. वित्त आयोग की सिफारिश, मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट और निवेश के माहौल को देखते हुए जो तस्वीर बन रही है, उसमें विकास का बड़ा खर्च राज्यों के माध्यम से होगा अर्थात् बड़े आर्थिक निर्माणों से लेकर सामाजिक ढांचा बनाने तक केंद्र की भूमिका सीमित हो जाएगी. राज्यों का प्रशासानिक ढांचा अक्षमताओं का पुराना रोगी है. निर्माण गतिविधियां कॉन्ट्रेक्टर राज के हवाले हैं. यदि राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी, क्योंकि राज्यों को वित्तीय ही नहीं बल्कि जमीन अधिग्रहण से लेकर रिटेल में विदेशी निवेश तक कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर कानूनी ताकत भी मिल रही है.
राजनैतिक उठा-पटक के बावजूद भारत में गवर्नेंस का एक नया ढांचा उभरने लगा है. इसमें एक तरफ राज्य सरकारें होंगी जो विकास की राजनीति में केंद्र की भूमिका सीमित करेंगी तो दूसरी तरफ होंगे स्वतंत्र नियामक यानी रेगुलेटर, जो दूरसंचार, बिजली, बीमा, पेंशन, पेट्रोलियम, बंदरगाह, एयरपोर्ट, कमॉडिटी, फार्मास्यूटिकल व पर्यावरण क्षेत्रों में केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकार ले चुके हैं. रेलवे व सड़क नियामक कतार में हैं. सेबी, प्रतिस्पर्धा आयोग, राज्य बिजली नियामक आयोगों को शामिल करने के बाद यह नया शासक वर्ग राजनैतिक प्रभुओं से ज्यादा ताकतवर दिखता है. अगर राज्यों में पानी और सड़क परिवहन के लिए नियामक बनाने की सिफारिशें भी अमल में आर्इं तो अगले कुछ वर्षों में देश की आर्थिक किस्मत नेताओं से लैस मंत्रिमंडल नहीं बल्कि विशेषज्ञ नियामक लिखेंगे.

इतिहास हर व्यक्ति के लिए अपनी तरह से जगह निर्धारित करता है. इतिहास नरेंद्र मोदी का मूल्याकंन कैसे करेगा अभी यह तय करना जल्दी है लेकिन उन्होंने जान-बूझकर या अनजाने ही इतिहास की एक बड़ी इबारत अपने नाम जरूर कर ली है. उनकी अगुआई में केंद्र और राज्य के रिश्तों का ढांचा बदल गया है. नरेंद्र मोदी भारत में ताकतवर केंद्र सरकार का नेतृत्व करने वाले शायद आखिरी प्रधानमंत्री होंगे. उनके रहते ही सत्ता की ताकत नए सुल्तानों यानी स्वतंत्र नियामकों के पास पहुंच जाएगी और विकास के खर्च की ताकत राज्यों के हाथ में सिमट जाएगी. यह किसी भी तरह से 91 या ’95 के सुधारों से कम नहीं है. इस बदलाव के बाद भारत की राजनीति का रासायनिक संतुलन भी सिरे से तब्दील हो सकता है.