Wednesday, April 29, 2015

नया एशियाई टाइगर !


चीन-पाक समझौते से एक नया पाकिस्तान भारत से मुकाबिल होगा. इस नए समीकरण के बाद भारत के लिए, दक्षिण एशिया की कूटनीति में शर्तें तय करने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पाकिस्तान यात्रा शायद इसलिए टल रही थी क्योंकि दोनों मुल्क जिस करवट की तैयारी कर रहे थे, वह यकीनन बहुत बड़ी होने वाली थी. पाकिस्तान को अपना आर्थिक भविष्य चीन के हाथ सौंपने से पहले, अमेरिका से दूरी बनाने का साहस जुटाना था जबकि चीन को दुनिया के सबसे जोखिम भरे देश में दखल की रणनीति पर मुतमईन होना था. सब कुछ योजना के मुताबिक हुआ और जिनपिंग और नवाज शरीफ के बीच समझौते के साथ ही दक्षिण एशिया की कूटनीतिक बिसात सिरे से बदल गई. भारत इस बदलाव को चाह कर भी नहीं रोक सका. अमेरिका ने रोकने में रुचि नहीं ली जबकि हाशिये पर सिमटे रूस को ज्यादा मतलब नहीं था. चीन-पाक समझौते से अब न केवल एक नया पाकिस्तान भारत से मुकाबिल होगा बल्कि दिल्ली की सरकार को देश की सीमा से कुछ सौ किलोमीटर दूर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर सहित काश्गर से ग्वादर तक चीनी कंपनियों की धमाचौकड़ी के लिए तैयार रहना होगा.
  46 अरब डॉलर कितने होते हैं? अगर यह सवाल पाकिस्तान से संबंधित हो तो जवाब है कि यह आंकड़ा पाकिस्तान के जीडीपी के 20 फीसदी हिस्से के बराबर है. यही वह निवेश है जिसके समझौते पर जिनपिंग और नवाज शरीफ ने दस्तखत किए हैं. समझना मुश्किल नहीं है कि चीन ने पाकिस्तान की डूब चुकी अर्थव्यवस्था को न केवल गोद में उठा लिया है बल्कि यह निवेश जिस प्रोजेक्ट में हो रहा है, उसके तहत लगभग पूरा पाकिस्तान चीन के प्रभाव में होगा.
   
दुनिया के सबसे बड़े हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की निर्माता और 60 अरब डॉलर की संपत्तियां संभालने वाली चीन की थ्री गॉर्जेज कॉर्पोरेशन की अगुआई में जब चीन की विशाल सरकारी कंपनियां पाकिस्तान के इतिहास की बड़ी आर्थिक व निर्माण परियोजना शुरू करेंगी तो उनका शोर दिल्ली तक दस्तक देगा. चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर अपने तरह की पहली परियोजना है जिसमें दो मुल्क अपनी आर्थिक संप्रभुता को साझा कर रहे हैं. काराकोरम राजमार्ग पर स्थित उत्तर-पश्चिमी चीनी शहर काश्गर को पाकिस्तान के दक्षिणी बंदरगाह ग्वादर से जोड़ने वाले 3,000 किलोमीटर के इस गलियारे में सड़कों, रेलवे, तेल-गैस पाइपलाइन, औद्योगिक पार्क का नेटवर्क बनेगा, जिसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर भी शामिल है. ग्वादर को हांगकांग की तर्ज पर फ्री ट्रेड जोन में बदला जाएगा. लाहौर, मुल्तान, गुजरांवाला, फैसलाबाद, रावलपिंडी और कराची में मेट्रो भी कॉरिडोर का हिस्सा हैं. चीन ने अपनी पांच दिग्गज सरकारी कंपनियों, थ्री गॉर्जेज, चाइना पावर इंटरनेशनल, हुआनेंग ग्रुप, आइसीबीसी कॉर्प, जोनर्जी कॉर्प को पाकिस्तान में उतार दिया है. इनके पीछे इंडस्ट्रियल ऐंड कॉमर्शियल बैंक ऑफ चाइना के संसाधनों की ताकत होगी.
   
ईरान-पाकिस्तान के बीच बनने वाली गैस पाइपलाइन को भी चीन की सरपरस्ती मिल गई है. इसका 560 मील लंबा ईरानी हिस्सा (फारस की खाड़ी में असलुया से बलूचिस्तान सीमा तक) तैयार है, अब पाकिस्तान को ग्वादर तक 485 मील पाइपलाइन बिछानी है. करीब दो अरब डॉलर की इस परियोजना की 85 फीसद लागत चीन उठाएगा. यह पाइपलाइन पाकिस्तान को 4,500 मेगावाट की बिजली क्षमता देगी जो पूरे मुल्क की बिजली कमी को खत्म कर देगी.    देश के आर्थिक व रणनीतिक भविष्य को चीन को सौंपने का फैसला यकीनन बड़ा था लेकिन शरीफ को इसमें बहुत मुश्किल नहीं हुई होगी क्योंकि अमेरिका ने 60 वर्ष के रिश्तों में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को इतनी बड़ी सौगात नहीं दी जो चीन ने एक बार में दे दी. शरीफ ने चीन से पाकिस्तान की किस्मत जोड़कर बहुत कुछ साध लिया है. पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था लगभग डूब चुकी है. निवेश नदारद है और विदेशी मदद भी खत्म हो गई है. चीन परियोजनाओं के तेज क्रियान्वयन के लिए मशहूर है. पूरा कॉरिडोर अगले 15 साल में तैयार होना है जबकि चीन-ईरान पाइपलाइन तो 2017 से काम करने लगेगी. अगर सब कुछ ठीक चला तो अगले कुछ महीनों में पाकिस्तान में तेज निर्माण शुरू हो जाएगा जो अर्थव्यवस्था को गति देने के साथ शरीफ की सियासी मुसीबत कम करेगा. चीन से दोस्ती, शरीफ को सेना का दबदबा घटाने और आतंकवादी गतिविधियां सीमित करने में भी मदद कर सकती है. चीन के युआन अगले पांच साल में पाकिस्तान का चेहरा बदल सकते हैं.
   
आतंक की फैक्टरी, अस्थिर सरकारों और सेना के परोक्ष राज वाले एक जोखिम भरे देश में इतना बड़ा निवेश करने की हिक्वमत केवल चीन ही कर सकता था और विशेषज्ञों की मानें तो जिनपिंग ऐसा करने के लिए उत्सुक भी थे. अफगानिस्तान, ईरान व पश्चिम एशिया के खनिज समृद्ध इलाके चीन की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं का नया लक्ष्य हैं और जहां अमेरिका व रूस की रुचि खत्म हो रही है. पाकिस्तान में यह निवेश दक्षिण एशिया में भारत की रणनीति को सीमित करेगा और चीन को अफगानिस्तान से लेकर पश्चिम एशिया तक मुक्त उड़ान की सुविधा देगा. इसके अलावा पाकिस्तान चीन के लिए सस्ते उत्पादन का केंद्र बनेगा और ईरान के गैस व तेल चीन तक लाने का रास्ता भी तैयार करेगा.
   
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कूटनीतिक संकल्प सराहनीय हैं लेकिन उनकी ग्लोबल उड़ानों के नतीजे सामने आने से पहले ही चीन व पाकिस्तान ने भारतीय उपमहाद्वीप के कूटनीतिक समीकरण बदल दिए हैं. भारत के लिए दक्षिण एशिया की कूटनीति में शर्तें तय करने के ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं. म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और बांग्लादेश के आर्थिक हितों को संजोने के बाद चीन ने पाकिस्तान को भी हथेली पर उठा लिया है. मोदी को अगले माह बीजिंग जाने से पहले यह तय करना होगा कि भारत इस नए चाइनीज ड्रीम के साथ कैसे सामंजस्य स्थापित करेगा.  कूटनीति की दुनिया में शी जिनपिंग की मुहावरेदार भाषा नई नहीं है फिर भी इस बार जब उन्होंने पाकिस्तान को भविष्य का एशियाई टाइगर (पाकिस्तान के डेली टाइम्‍स में छपा उनका लेख) कहा तो चौंकने वाले कम नहीं थे क्योंकि दुनिया की किसी भी महाशक्ति ने पाकिस्तान में यह संभावना कभी नहीं देखी. चीन की दोस्ती में पाकिस्तान शेर बनेगा या नहीं, यह कहना मुश्किल है लेकिन इस बात से इत्तेफाक करना होगा कि चीनी डीएनए के साथ पाकिस्तान की गुर्राहट और चाल जरूर बदल जाएगी.



Tuesday, April 21, 2015

कांग्रेस का 'राहुल काल'


अज्ञातवास से लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए सही वक्त पर सही कदम का राजनैतिक मंत्र हमेशा से रॉकेट विज्ञान की तरह अबूझ रहा है.
ह अध्यादेश पूरी तरह बकवास है. इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए!!" सितंबर 2013 को दिल्ली के प्रेस क्लब की प्रेस वार्ता में अचानक पहुंचे राहुल गांधी की यह मुद्रा नई ही नहीं, विस्मयकारी भी थी. संसद में चुप्पी, पार्टी फोरम पर सन्नाटा, और सक्रियता तथा निष्क्रियता के बीच हमेशा असमंजस बनाकर रखने वाले राहुल, अपनी सरकार के एक अध्यादेश को इस अंदाज में कचरे का डिब्बा दिखाएंगे, इसका अनुमान किसी को नहीं था. कांग्रेस की सूरत देखने लायक थी. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि यह अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल रोकने के मकसद से बना था. 10 जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा-8 को अवैध करार देते हुए फैसला सुनाया था कि अगर किसी सांसद या विधायक को अदालत अभियुक्त घोषित कर देती है तो उसकी सदस्यता तत्काल खत्म हो जाएगी. पूरी सियासत बचाव में आगे आ गई. अदालती आदेश पर अमल रोकने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार ने एक अध्यादेश गढ़ा और सर्वदलीय बैठक के हवाले से दावा किया कि सभी दल इस पर सहमत हैं. राजनैतिक सहमतियां प्रत्यक्ष रूप से दिख भी रहीं थीं. अलबत्ता राहुल ने सरकार और पार्टी के नजरिये से अलग जाते हुए सिर्फ यही नहीं कहा कि कांग्रेस और बीजेपी इस पर राजनीति कर रही हैं बल्कि उनकी टिप्पणी थी कि "हमें यह बेवकूफी रोकनी होगी. भ्रष्टाचार से लड़ना है तो छोटे-छोटे समझौते नहीं चलेंगे." बताने की जरूरत नहीं कि राहुल गांधी के विरोध के बाद अध्यादेश कचरे के डिब्बे में चला गया.
इस प्रसंग का जिक्र यहां राहुल गांधी के राजनैतिक साहस या सूझ की याद दिलाने के लिए नहीं हो रहा है. मामला दरअसल इसका उलटा है. राहुल गांधी भारतीय राजनीति में अपने लिए एक नई श्रेणी गढ़ रहे हैं. भारत के लोगों ने साहसी और लंबी लड़ाई लड़ने वाले नेता देखे हैं. बिखरकर फिर खड़ी होने वाली कांग्रेस देखी है. दो सीटों से पूर्ण बहुमत तक पहुंचने वाली संघर्षशील बीजेपी देखी है. बार-बार बनने वाला तीसरा मोर्चा देखा है. सब कुछ गंवाने के बाद दिल्ली की सत्ता हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी देखी है लेकिन राहुल गांधी अनोखे नेता हैं जिन्हें मौके चूकने में महारत हासिल है. राहुल रहस्यमय अज्ञातवास से लौटकर अगले सप्ताह जब कांग्रेस की सियासत में सक्रिय होंगे तो जोखिम उनके लिए नहीं बल्कि पार्टी के लिए है, क्योंकि उसके इस परिवारी नेता के लिए सही वक्त पर सही कदम का राजनैतिक मंत्र, हमेशा से रॉकेट विज्ञान की तरह अबूझ रहा है.
कांग्रेस अगर यह समझने की कोशिश करे कि 2013 में अध्यादेश को कचरे के डिब्बे के सुपुर्द कराने वाली घटना, राहुल की एक छोटी धारदार प्रस्तुति बनकर क्यों रह गई तो उसे शायद अपने इस राजकुमार से बचने में मदद मिलेगी. अपराधी नेताओं को बचाने वाला अध्यादेश उस वक्त की घटना है जब देश में भ्रष्टाचार को लेकर जन और न्यायिक सक्रियता अपने चरम पर थी. इसी दौरान अदालत ने राजनीति में अपराधियों के प्रवेश पर सख्ती की, जिसे रोकने के लिए सभी दल एकजुट हो गए. पारंपरिक सियासत की जमात से राहुल गांधी लीक तोड़कर आगे आए. सत्तारूढ़ दल के सबसे ताकतवर नेता का सरकार के विरोध में आना अप्रत्याशित था, लेकिन इससे भी ज्यादा विस्मयकारी यह था कि राहुल फिर नेपथ्य में गुम हो गए, जबकि यहां से उनकी सियासत का नया रास्ता खुल सकता था.
इस बात से इत्तेफाक करना पड़ेगा कि राहुल गांधी राजनैतिक समझ रखते हैं लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि सियासत और समय के नाजुक रिश्ते की उन्हें कतई समझ नहीं है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जो जनांदोलन अंततः कांग्रेस की शर्मनाक हार और बीजेपी की अभूतपूर्व जीत की वजह बना, वह दरअसल राहुल गांधी के लिए अवसर बन सकता था. लोकपाल बनाने की जवाबदेही केंद्र सरकार की थी. सभी राजनैतिक दल लगभग हाशिये पर थे और एक जनांदोलन सरकार से सीधे बात कर रहा था. इस मौके पर अगर राहुल गांधी ने ठीक वैसे ही तुर्शी दिखाई होती जैसी 2013 के सितंबर में अपराधी नेताओं के बचाव में आ रहे अध्यादेश के खिलाफ थी तो देश की राजनैतिक तस्वीर यकीनन काफी अलग होती. यह अवसर चूकने में राहुल की विशेषज्ञता का ही उदाहरण है कि जिस नए भूमि अधिग्रहण कानून पर उन्होंने अपनी सरकार पर दबाव बनाया था, उसे लेकर जब मोदी सरकार को घेरने का मौका आया तो कांग्रेस राजकुमार किसी अनुष्ठान में लीन हो गए.
ब्रिटेन के महान प्रधानमंत्रियों में एक (1868 से 1894 तक चार बार प्रधानमंत्री) विलियम एवार्ट ग्लैडस्टोन को राजनीति में फिलॉसफी ऑफ राइट टाइमिंग का प्रणेता माना जाता है. प्रसिद्ध लिबरल नेता और अद्भुत वक्ता ग्लैडस्टोन, कंजर्वेटिव नेता बेंजामिन डिजरेली के प्रतिस्पर्धी थे. दुनिया भर के नेताओं ने उनसे यही सीखा है कि सही मौके पर सटीक सियासत सफल बनाती है. अटल बिहारी वाजपेयी, सोनिया गांधी, डेविड कैमरुन, बराक ओबामा से लेकर नरेंद्र मोदी तक सभी राजनैतिक सफलताओं में ग्लैडस्टोन का दर्शन देखा जा सकता है. अलबत्ता राहुल गांधी के राजनैतिक ककहरे की किताब से वह पाठ ही हटा दिया गया था, जो सही मौके पर सटीक सियासत सिखाता है.

पहली बार कांग्रेस महासचिव बनने के बाद राहुल ने दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कहा था कि सफलता मौके पर निर्भर करती है, सफल वही हुए हैं जिन्हें मौके मिले हैं. अलबत्ता राहुल की राजनीति मौका मिलने के बाद भी असफल होने का तरीका सिखाती है. कांग्रेस को राहुल से डरना चाहिए क्योंकि उनका यह राजकुमार मौके चूकने का उस्ताद है और ''राहुल काल'' के दौरान कांग्रेस ने भी सुधरने, बदलने और आगे बढ़ने के तमाम मौके गंवाए हैं. फिर भी अज्ञातवास से लौटे राहुल को कांग्रेस सिर आंखों पर ही बिठाएगी क्योंकि यह पार्टी परिवारवाद के अभिशाप को अपना परम सौभाग्य मानती है. अलबत्ता पार्टी में किसी को राहुल गांधी से यह जरूर पूछना चाहिए कि म्यांमार में विपश्यना के दौरान क्या किसी ने उन्हें गौतम बुद्ध का यह सूत्र बताया था कि ''आपका यह सोचना ही सबसे बड़ी समस्या है कि आपके पास काफी समय है.'' कांग्रेस और राहुल के पास अब सचमुच बिल्कुल समय नहीं है.

Tuesday, April 14, 2015

कैंसर के पैरोकार

तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश हर राजनीतिक दल ने की है.

भारत में यह अपने तरह की पहली घटना थी जब एक संसदीय समिति के सदस्य किसी उद्योग के लिए खुली लॉबीइंग कर रहे थे और उद्योग भी कुख्यात तंबाकू का. बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर न केवल अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे हैं बल्कि बीड़ी पीने-पिलाने की खुली वकालत भी कर रहे थे. अलबत्ता सबसे ज्यादा शर्मनाक यह था कि सरकार ने इस संसदीय समिति की बात मान ली और तंबाकू से खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का काम रोक दिया. दिलचस्प है कि सांसदों की यह लामबंदी बीड़ी तंबाकू की बिक्री रोकने के खिलाफ नहीं थी बल्कि महज सिगरेट के पैकेट पर कैंसर की चेतावनी का आकार बड़ा (40 से 85 फीसद) करने के विरोध में थी. बस इतने पर ही सरकार झुक गई और फैसले पर अमल रोक दिया गया. संसदीय समिति के सदस्यों और बीड़ी किंग सांसद के बयानों पर सवाल उठने के बाद प्रधानमंत्री के ''गंभीर'' होने की बात सुनी तो गई लेकिन यह लेख लिखे जाने तक न तो सरकार ने सिगरेट की पैकिंग पर चेतावनी का आकार बढ़ाने की अधिसूचना जारी की और न ही बीड़ी सुल्तान को संसदीय समिति (सबऑडिर्नेट लेजिसलेशन) से हटाया गया है. नशीली दवाओं पर मन की बातों और किस्म-किस्म की नैतिक शिक्षाओं के बीच तंबाकू पर सरकार क्या कदम उठाएगी, यह तो पता नहीं. अलबत्ता तंबाकू के हक में उत्तर प्रदेश के बीड़ी सुल्तान और बीजेपी सांसद की खुली लामबंदी से सियासत का सबसे बड़ा कैंसर जरूर खुल गया है जिसे ढकने की कोशिश लगभग हर राजनीतिक दल ने की है. सरकारी फाइलों तक निजी कंपनियों के कारिंदों की पहुंच के ताजे मामलों की तुलना में बीड़ी प्रसंग कई कदम आगे का है जहां कंपनियों के प्रवर्तक जनप्रतिनिधि के रूप में खुद अपने लिए ही कानून बना रहे हैं. तंबाकू, जिसका घातक होना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणित है, जब उसके पक्ष में खुले आम लामबंदी हो सकती है तो अन्य उद्योगों से जुड़ी नीतियों को लेकर कई गुना संदेह लाजिमी है. बीड़ी तंबाकू प्रकरण केंद्र सरकार की नीतियों से जुड़ा है. जब प्रधानमंत्री की नाक के नीचे यह हाल है तो राज्यों की नीतियां किस तरह बनती होंगी इसका सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है.
भारत में उद्योगपति सांसद और कारोबारी नेताओं का ताना-बाना बहुत बड़ा है. बीड़ी उद्योगपति सांसद जैसे दूसरे उदाहरण भी हमारे सामने हैं. 'जनसेवा' के साथ उनकी कारोबारी तरक्की हमें खुली आंखों से दिख सकती है लेकिन इसे स्थापित करना मुश्किल है. पारदर्शिता के लिए पैमाने तय करने की जरूरत होती है. भारत की पूरी सियासत ने गहरी मिलीभगत के साथ राजनीति और कारोबार के रिश्तों की कभी कोई साफ परिभाषा तय ही नहीं होने दी. नतीजतन नेता कारोबार गठजोड़ महसूस तो होता है पर पैमाइश नहीं हो पाती. हालांकि पूरी दुनिया हम जैसी नहीं है. जिन देशों में इस गठजोड़ को नापने की कोशिश की गई है वहां नतीजों ने होश उड़ा दिए हैं.
अमेरिका के ओपन डाटा रिसर्च, जर्नलिज्म और स्वयंसेवी संगठन, सनलाइट फाउंडेशन ने पिछले साल नवंबर में एक शोध जारी किया था जो अमेरिका में कंपनी राजनीति गठजोड़ का सबसे सनसनीखेज खुलासा था. यह शोध साबित करता है कि अमेरिका में राजनीतिक रूप से सक्रिय 200 शीर्ष कंपनियों ने राजनीतिक दलों को चंदा देने और लॉबीइंग (अमेरिकी कानून के मुताबिक लॉबीइंग पर खर्च बताना जरूरी ) पर 2007 से 2012 के बीच 5.8 अरब डॉलर खर्च किए (http://bit.ly/vvvDvIw) और बदले में उन्हें सरकार से 4.4 खरब डॉलर का कारोबार और फायदे हासिल हुए. सनलाइट फाउंडेशन ने एक साल तक कंपनियों, चंदे, चुनाव आदि के करीब 1.4 करोड़ दस्तावेज खंगालने के बाद पाया कि पड़ताल के दायरे में आने वाली कंपनियों ने अपने कुल खर्च का लगभग 26 फीसद हिस्सा सियासत में निवेश किया. सनलाइट फाउंडेशन ने इसे फिक्स्ड फॉरच्यूंस कहा यानी सियासत में निवेश और मुनाफे की गारंटी.

भारत में अगर इस तरह की बेबाक पड़ताल हो तो नतीजे हमें अवाक कर देंगे. मुंबई की ब्रोकरेज फर्म एक्विबट कैपिटल ने राजनीतिक संपर्क वाली 75 कंपनियों को शामिल करते हुए पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों का इंडेक्स बनाया था जो यह बताता था कि 2009 से 2010 के मध्य तक इन कंपनियों के शेयरों में तेजी ने मुंबई शेयर बाजार के प्रमुख सूचकांक बीएसई 500 को पछाड़ दिया. अलबत्ता 2010 में घोटालों पर कैग की रिपोर्ट आने के बाद यह सूचकांक तेजी से टूट कर अक्तूबर 2013 में तलहटी पर आ गया. राजनीतिक रसूख वाली कंपनियों के सूचकांक ने जनवरी 2014 से बढ़त और अप्रैल 2014 से तेज उछाल दिखाई है. तब तक भारत में नई सरकार के आसार स्पष्ट हो गए थे.
भारत में नेता कारोबार गठजोड़ की बात तो नेताओं के वित्तीय निवेश और राज्यों में सरकारी ठेकों की बंदरबांट के तथ्यों तक जानी चाहिए लेकिन यहां सनलाइट फाउंडेशन जैसी पड़ताल या पॉलिटिकली कनेक्टेड कंपनियों के साम्राज्य को ही पूरी तरह समझना मुश्किल है. भारत के पास राजनीतिक पारदर्शिता का ककहरा भी नहीं है. हम न तो राजनीतिक दलों के चंदे का पूरा ब्योरा जान सकते हैं और न ही कंपनियों के खातों से यह पता चलता है कि उन्होंने किस पार्टी को कितना पैसा दिया. इस हमाम में सबको एक जैसा रहना अच्छा लगता है.
अचरज नहीं हुआ कि बीजेपी ने अपने बीड़ी (क्रोनी) कैपटलिज्म को हितों में टकराव कहते हुए हल्की-फुल्की चेतावनी देकर टाल दिया. सिगरेट पैकिंग पर चेतावनी के खिलाफ सांसदों की लामबंदी और बीजेपी के बड़े नेताओं की चुप्पी सिर्फ यही नहीं बताती कि बीजेपी पारदर्शी राजनीति के उतनी ही खिलाफ है जितनी कि कांग्रेस और अन्य दल. ज्यादा हैरत इस बात पर है कि जब नेताओं और मंत्रियों पर प्रधानमंत्री की निगरानी किस्सागोई में बदल चुकी हो तो तंबाकू उद्योग के लिए कानून बनाने का काम बीड़ी निर्माता को कैसे मिल जाता है? यकीनन, सरकार के पहले एक साल में बड़े दाग नहीं दिखे हैं लेकिन दाग न दिखने का मतलब यह नहीं है कि दाग हैं ही नहीं. चेतने का मौका है क्योंकि अगर एक बार दाग खुले तो बढ़ते चले जाएंगे.


Tuesday, April 7, 2015

मौके जो चूक गए

मोदी और केजरीवाल दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है.

भारतीय जनता पार्टी में लोकसभा चुनाव से पहले जो घटा था वैसा ही आम आदमी पार्टी में दिल्ली चुनाव के बाद हुआ. फर्क सिर्फ यह था कि आडवाणी के आंसू, सुषमा स्वराज की कुंठा, वरिष्ठ नेताओं का हाशिया प्रवास मर्यादित और शालीन थे जबकि आम आदमी पार्टी में यह अनगढ़ और भदेस ढंग से हुआ, जो गली की छुटभैया सियासत जैसा था. फिर भी भाजपा और आप में यह एकरूपता इतनी फिक्र पैदा नहीं करती जितनी निराशा इस पर होती है कि भारत में नई गवर्नेंस और नई राजनीति की उम्मीदें इतनी जल्दी मुरझा रही हैं और दोनों के कारण एक जैसे हैं. नरेंद्र मोदी बीजेपी में प्रभुत्वपूर्ण राजनीति लेकर उभरे थे इसलिए वे सरकार में अपनी ही पार्टी के अनुभवों का पर्याप्त समावेश नहीं कर पाए जो गवर्नेंस में दूरगामी बदलावों के लिए एक तरह से जरूरी था, नतीजतन उनकी ताकतवर सरकार, वजनदार और प्रभावी नहीं हो सकी. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में पहुंचते ही समावेशी राजनीति की पूंजी गंवा दी, जो उन्हें औरों से अलग करती थी.
आम आदमी पार्टी का विघटन, किसी पारंपरिक राजनीतिक दल में फूट से ज्यादा दूरगामी असर वाली घटना है. यह पार्टी उस ईंट गारे से बनती नहीं दिखी थी जिससे अन्य राजनैतिक दल बने हैं. परिवार, व्यक्ति, पहचान या विचार पर आस्थाएं भारत की पारंपरिक दलीय राजनीति की बुनियाद हैं, जो भले ही पार्टियों को दकियानूसी बनाए रखती हों लेकिन इनके सहारे एकजुटता बनी रहती है. केजरीवाल के पास ऐसी कोई पहचान नहीं है. उनकी 49 दिन की बेहद घटिया गवर्नेंस को इसलिए भुलाया गया क्योंकि आम आदमी पार्टी सहभागिता, पारदर्शिता और जमीन से जुड़ी एक नई राजनीति गढ़ रही थी, जिसे बहुत-से लोग आजमाना चाहते थे. 
'आप' का प्रहसन देखने के बाद यह कहना मुश्किल है कि इसके अगुआ नेताओं में महत्वाकांक्षाएं नहीं थीं या इस पार्टी में दूसरे दलों जैसी हाइकमान संस्कृति नहीं है. अलबत्ता जब आप आदर्श की चोटी पर चढ़कर चीख रहे हों तो आपको राजनीतिक असहमतियों को संभालने का आदर्शवादी तरीका भी ईजाद कर लेना चाहिए. केजरीवाल की पार्टी असहमति के एक छोटे झटके में ही चौराहे पर आ गई जबकि पारंपरिक दल इससे ज्यादा बड़े विवादों को कायदे से संभालते रहे हैं.
दिल्ली की जीत बताती है कि केजरीवाल ने गवर्नेंस की तैयारी भले ही की हो लेकिन एक आदर्श दलीय सियासत उनसे नहीं सधी जो बेहतर गवर्नेंस के लिए अनिवार्य है. दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर लोग केजरीवाल की सीमाएं जानते हैं, अलबत्ता नई राजनीति के आविष्कारक के तौर पर उनसे अपेक्षाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी थी. केजरीवाल के पास पांच साल का वक्त है. वे दिल्ली को ठीक-ठाक गवर्नेंस दे सकते हैं लेकिन वे अच्छी राजनीति देने का मौका चूक गए हैं. राजनीतिक पैमाने पर आम आदमी पार्टी  अब सपा, बीजेडी, तृणमूल, डीएमके जैसी ही हो गई है जो एक राज्य तक सीमित हैं. इस नए प्रयोग के राष्ट्रीय विस्तार की संभावनाओं पर संदेह करना जायज है.
केजरीवाल के समर्थक, जैसे आज योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी के लिए गैर जरूरी और बोझ साबित कर रहे हैं, ठीक इसी तरह नरेंद्र मोदी के समर्थक उस वक्त पार्टी की पुरानी पीढ़ी को नाकारा बता रहे थे जब बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत हो रही थी. नौ माह में मोदी की लोकप्रियता में जबर्दस्त गिरावट (इंडिया टुडे विशेष जनमत सर्वेक्षण) देखते हुए यह महसूस करना मुश्किल नहीं है कि गवर्नेंस में मोदी की विफलताएं भी शायद उनके राजनीति के मॉडल से निकली हैं जो हाइकमान संस्कृति और पार्टी में असहमति रखने वालों को वानप्रस्थ देने के मामले में कांग्रेस से ज्यादा तल्ख और दो टूक साबित हुआ.
प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के संकल्प और सदाशयता के बावजूद अगर एक साल के भीतर ही उनकी सरकार किसी आम सरकार जैसी ही दिखने लगी है तो इसकी दो वजहें हैं. एक-मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गवर्नेंस के लिए कोई तैयारी नहीं की थी और दो-विशाल बहुमत के बावजूद एक प्रभावी सरकार आकार नहीं ले सकी. बीजेपी चुनाव से पहले अपनी सरकार का विजन डाक्यूमेंट तक नहीं बना सकी थी. घोषणा पत्र तो मतदान शुरू होने के बाद आया. चुनाव की ऊभ-चूभ में ये बातें आई गई हो गईं लेकिन सच यह है कि बीजेपी नई गवर्नेंस के दूरदर्शी मॉडल के बिना सत्ता में आ गई क्योंकि गवर्नेंस की तामीर गढऩे का काम ही नहीं हुआ और ऐसा करने वाले लोग हाशिए पर धकेल दिए गए थे. यही वजह है कि सरकार ने जब फैसले लिए तो वे चुनावी संकल्पों से अलग दिखे या पिछली सरकार को दोहराते नजर आए.
सत्ता में आने के करीब साल भर बाद भी मोदी अगर एक दमदार अनुभवी और प्रतिभाशाली सरकार नहीं गढ़ पा रहे हैं जो इस विशाल देश की गवर्नेंस का रसायन बदलने का भरोसा जगाती हो तो शायद इसकी वजह भी उनका राजनीतिक तौर तरीका है. मोदी केंद्र में गुजरात जैसी गवर्नेंस लाना चाहते थे पर दरअसल वे बीजेपी को चलाने का गुजराती मॉडल पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में ले आए, जो सबको साथ लेकर चलने में यकीन ही नहीं करता या औसत टीम से खेलने को बहादुरी मानता है. एनडीए की पिछली सरकार का पहला साल ही नहीं बल्कि पूरा कार्यकाल दूरदर्शी फैसलों से भरपूर था. विपरीत माहौल और गठजोड़ की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी इतना कुछ इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास गवर्नेंस का स्पष्ट रोड मैप था और उन्हें सबको सहेजने, सबका सर्वश्रेष्ठ सामने लाने की कला आती थी.
राजनीति और गवर्नेंस गहराई से गुंथे होते हैं. मोदी और केजरीवाल इस अंतरसंबंध को कायदे से साध नहीं सके. अब दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है. मोदी और केजरीवाल के पास उद्घाटन के साथ ही कड़वी नसीहतों का अभूतपूर्व खजाना जुट गया है. सरकारों की शुरुआत बेहद कीमती होती है क्योंकि कर दिखाने के लिए ज्यादा समय नहीं होता. मोदी और केजरीवाल ने गवर्नेंस और सियासत की शानदार शुरुआत का मौका गंवा दिया है, फिर भी, जब जागे तब सवेरा.