Tuesday, May 26, 2015

मूल्यांकन शुरु होता है अब

करोड़ों बेरोजगार युवाओं और मध्य वर्ग को अपने प्रचार से बांध पाना मोदी के लिए दूसरे साल की सबसे बड़ी चुनौती होने वाली है.

ब्बीस मई 2016 शायद नरेंद्र मोदी के आकलन के लिए ज्यादा उपयुक्त तारीख होगी. इसलिए नहीं कि उस दिन सरकार दो साल पूरे करेगी बल्कि इसलिए कि उस दिन तक यह तय हो जाएगा कि मोदी ने भारत के मध्य वर्ग और युवा को ठोस ढंग से क्या सौंपा है जो बीजेपी की पालकी की अपने कंधे पर यहां तक लाया हैमोदी सरकार की सबसे बड़ी गफलत यह नहीं है कि वह पहले ही साल में किसानों व गांवों से कट गई. गांव न तो बीजेपी के राजनैतिक गणित का हिस्सा थे और न ही मोदी का चुनाव अभियान गांवों पर केंद्रित था. मोदी के लिए ज्यादा बड़ी चिंता युवा व मध्य वर्ग की अपेक्षाएं हैं जिन्होंने उनकी राजनीति को नया आयाम दिया है और पहले वर्ष में मोदी इनके लिए कुछ नहीं कर सके.
रोजगार और महंगाईभारतीय गवर्नेंस की सबसे घिसी हुई बहसे हैं लेकिन इन्हीं दोनों मामलों में मोदी से लीक तोड़ने की सबसे ज्यादा उम्मीदें भी हैं क्योंकि कांग्रेस के खिलाफ अभूतपूर्व जनादेश में पांच साल की महंगाई और 2008 के बाद उभरी नई बेकारी भिदी हुई थी. मोदी सरकार की पहली सालगिरह पर भाषणों को सुनते और विज्ञापनों को पढ़ते हुएअगर मुतमईन करने वाले सबसे कम तर्क आपको इन्हीं दो मुद्दों पर मिले तो चौंकिएगा नहीं.
याद कीजिए पिछले साल की गर्मियों में मोदी की चुनावी रैलियों में उमड़ती युवाओं की भीड़. कैसे भूल सकते हैं आप पड़ोस के परिवारों में मोदी के समर्थन की उत्तेजक बहसेंयह बीजेपी का पारंपरिक वोटर नहीं था. यह समाजवादी व उदारवादी प्रयोगों के तजुर्बों से लैस मध्य वर्ग था जो मोदी के संदेश को गांवों व निचले तबकों तक ले गया. यकीननएक साल में मोदी से जादू की उम्मीद किसी को नहीं थी लेकिन लगभग हर दूसरे दिन बोलते सुने गए और बच्चों से लेकर ड्रग ऐडिक्ट तक से मन की बात करने वाले प्रधानमंत्री की रोजगारों पर चुप्पी अप्रत्याशित थी. मोदी का मौन उनकी नौकरियों पर सरकार की निष्क्रियता की देन था.
दरअसलस्थायीअस्थायीनिजीसरकारी व स्वरोजगारसभी आयामों पर 2015 में रोजगारों का हाल 2014 से बुरा हो गया. लेबर ब्यूरो ने इसी अप्रैल में बताया कि प्रमुख आठ उद्योगों में रोजगार सृजन की दर तिमाही के न्यूनतम स्तर पर है. फसल की बर्बादी और रोजगार कार्यक्रम रुकने से गांव और बुरे हाल में हैं. सफलताओं के गुणगान में सरकार स्किल डेवलपमेंट का सुर ऊंचा करेगी लेकिन स्किल वाले महकमे के मुताबिकसबसे ज्यादा रोजगार (6 करोड़ सालाना) भवन निर्माणरिटेल और ट्रांसपोर्ट से निकलते हैं. इन क्षेत्रों में मंदी नापने के लिए आपको आर्थिक विशेषज्ञ होने की जरूरत नहीं है. रियल एस्टेट गर्त में हैरिटेल बाजार को सरकार खोलना नहीं चाहती और ट्रांसपोर्ट की मांग इन दोनों पर निर्भर है. दरअसलदूसरे मिशन इंतजार कर सकते थे अलबत्ता रोजगारों के लिए नई सूझ से लैस मिशन की ही अपेक्षा थी. अब जबकि मॉनसून डरा रहा है और ग्लोबल एजेंसियां भारत की ग्रोथ के लक्ष्य घटाने वाली हैं तो मोदी के लिएअगले एक साल के दौरान करोड़ों बेरोजगार युवाओं को अपने प्रचार से बांध पाना बड़ा मुश्किल होने वाला है.
हाल में पेट्रोल और डीजल की कीमतें जब अपने कंटीले स्तर पर लौट आईं और मौसम की मार के बाद जरूरी चीजों के दाम नई ऊंचाई छूने लगे तो मध्य व निचले वर्ग को सिर्फ यही महसूस नहीं हुआ कि किस्मत की मेहरबानी खत्म हो गई बल्कि इससे ज्यादा गहरा एहसास यह था कि इस सरकार के पास भी जिंदगी जीने की लागत को कम करने की कोई सूझ नहीं है. महंगाई से निबटने के मोदी मॉडल की चर्चा याद हैचुनाव के दौरान इस पर काफी संवाद हुआ था. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की एक रिपोर्ट का हवाला दिया गया. मांग की बजाए आपूर्ति के रास्ते महंगाई को थामने के विचार हवा में तैर रहे थे. कीमतों में तेजी रोकने के लिए प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड को सरकार ने अपनी 'ताकतवरसूझ कहा था. अलबत्ता जुलाई 2014 में घोषित यह फंड मई, 2015 में बन पाया और वह भी केवल 500 करोड़ रु. के कोष के साथजो फिलहाल आलू-प्याज की महंगाई से आगे सोच नहीं पा रहा है. सत्ता में आने के बाद नई सरकार नेमहंगाई रोकने के लिए राज्यों को मंडी कानून खत्म करने का फरमान जारी किया था जिसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी लागू नहीं किया. व्यापारियों की नाराजगी कौन मोल ले?
महंगाई सर पर टंगी हो और मांग कम हो तो कीमतों की आग में टैक्सों का पेट्रोल नहीं छिड़का जाना चाहिए. लेकिन सरकार का दूसरा बजट एक्साइज और सर्विस टैक्स के नए चाबुकों से लैस था. कच्चा तेल 100 डॉलर पार नहीं गया है लेकिन भारत में पेट्रो उत्पाद महंगाई से फिर जलने लगे हैं तो इसके लिए बजट जिम्मेदार हैजिसने पेट्रो उत्पादों पर नए टैक्स थोप दिए. सरकार जब तक एक साल के जश्न से निकल कर अगले वर्ष की सोचना शुरू करेगी तब तक सर्विस टैक्स की दर में दो फीसदी की बढ़त महंगाई को नए तेवर दे चुकी होगी. रबी की फसल का नुक्सान खाद्य उत्पादों की कीमतों में फटने लगा है. अगर मॉनूसन ने धोखा दिया तो मोदी अगले सालठीक उन्हीं सवालों का सामना कर रहे होंगे जो वह प्रचार के दौरान कांग्रेस से पूछ रहे थे.
नारे हालांकि घिस कर असर छोड़ देते हैंफिर भी अच्छे दिन लाने का वादा भारत के ताजा इतिहास में सबसे बड़ा राजनैतिक बयान थामध्य वर्ग पर जिसका अभूतपूर्व मनोवैज्ञानिक प्रभाव हुआ. मोदी इसी मध्य वर्ग के नेता हैंजिसकी कोई भी चर्चा रोजगार व महंगाई की चिंता के बिना पूरी नहीं होतीक्योंकि देश के महज दस फीसद लोग ही स्थायी वेतनभोगी हैं और आम लोग अपनी कमाई का 45 से 60 फीसद हिस्सा सिर्फ खाने पर खर्च करते हैं. सरकार जब अपना पहला साल पूरा कर रही है तो खपत दस साल के न्यूनतम स्तर पर हैरोजगारों में बढ़ोत्तरी शून्य है और महंगाई वापस लौट रही है. मोदी सरकार का असली मूल्यांकन अब शुरू हो रहा हैपहला साल तो केवल तैयारियों के लिए था.






Monday, May 18, 2015

रिटेल का शेर


यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकीजो बुनियादी ढांचेखेतीरोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है.
बीजेपी क्या भारतीय बाजार के सबसे बड़े उदारीकरण को रोकने की जिद छोड़ रही है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुदरा कारोबार के शेर को जगाने की हिम्मत जुटा चुके हैं, जो 125 करोड़ उपभोक्ताओं व 600 अरब डॉलर के कारोबार की ताकत से लैस है और जहां विदेशी व निजी निवेश के बाद पूरी अर्थव्यवस्था में बहुआयामी ग्रोथ का इंजन चालू हो सकता है. अगर खुदरा कारोबार में 51 फीसदी विदेशी निवेश के फैसले पर नई सरकार की सहमति और बीजेपी व उसके सहयोगी दलों के राज्यों की मंजूरी दिखावा नहीं है तो फिर इसे मोदी सरकार की पहली वर्षगांठ का सबसे साहसी तोहफा माना जाना चाहिए.
यह केवल बीजेपी की रुढ़िवादी जिद थी जिसके चलते देश के विशाल खुदरा बाजार को आधुनिकता की रोशनी नहीं मिल सकी, जो बुनियादी ढांचे, खेती, रोजगार से लेकर उपभोक्ताओं तक को फायदा पहुंचा सकती है. रिटेल का उदारीकरण होकर भी नहीं हो सका. पिछली सरकार ने सितंबर 2012 में मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश खोल तो दिया लेकिन बीजेपी के जबरदस्त विरोध के बाद, निवेशकों को इजाजत देने का विकल्प राज्यों पर छोड़ दिया गया था. सियासत इस कदर हो चुकी थी कि किसी राज्य ने आगे बढ़ने की हिम्मत ही नहीं दिखाई.
खुदरा कारोबार में एफडीआइ पर सरकार का यू-टर्न ताजा है क्योंकि इसी अप्रैल में, वाणिज्य व उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमन ने लोकसभा को बताया था कि मल्टी ब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश की नीति पर अमल पर कोई फैसला नहीं हुआ है. यह पहलू बदल शायद भूमि अधिग्रहण पर मिली नसीहतों से उपजा है. मोदी स्वीकार कर रहे हैं कि विपक्ष में रहते एक सख्त भूमि अधिग्रहण कानून की वकालत, बीजेपी की गलती थी. ठीक ऐसी ही गलती रिटेल में एफडीआइ के विरोध के जरिए हुई थी जिसे अब ठीक करने का वक्त है.
खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की सीमा 51 फीसदी करने का निर्णय ठीक उन्हीं चुनौतियों की देन था जिनसे अब मोदी सरकार मुकाबिल है. मंदी व बेकारी से परेशान यूपीए सरकार खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश लाना चाहती थी ताकि ग्रोथ का जरिया खुल सके. यह एक क्रांतिकारी उदारीकरण था. इसलिए ग्लोबल छवि भी चमकने वाली थी. मोदी सरकार पिछले एक साल में रोजगारों की एकमुश्त आपूर्ति बढ़ाने या बड़े सुधारों का कौल नहीं दिखा सकी. अलबत्ता अब मौका सामने है. उद्योग मंत्रालय के ताजा दस्तावेज के मुताबिक बीजेपी, उसके सहयोगी दलों व कांग्रेस को मिलाकर राजस्थान, महाराष्ट्र कर्नाटक, आंध्र प्रदेश समेत 12 राज्य खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने पर राजी हैं. समर्थन की ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं बनी थी. यह विदेशी रिटेल कंपनियों को बुलाने का साहस दिखाने का सबसे अच्छा अवसर है.
भारत की उपभोग खपत ही अर्थव्यवस्था का इंजन है जिसके बूते 2004 से 2009 के बीच सबसे तेज ग्रोथ आई थी. रिटेल बाजार के पीछे खेती है, बीच में उद्योग हैं और आगे उपभोक्ता. उपभोग खर्च ही मांग, रोजगार, आय में बढ़त, खर्च व खपत का चक्र तैयार करता है, जो रिटेल की बुनियाद है. रिटेल भारत में रोजगारों का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है जिसमें चार करोड़ लोग लगे हैं. स्किल डेवलपमेंट मंत्रालय मानता है कि 2022 तक इस क्षेत्र में करीब 5.5 करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा. यह आकलन इस क्षेत्र में विदेशी निवेश से आने वाली ग्रोथ की संभावना पर आधारित नहीं है. बोस्टन कंसल्टिंग की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत का खुदरा कारोबार 2020 तक एक खरब डॉलर का हो जाएगा, जो आज 600 अरब डॉलर पर है. खुदरा कारोबार का आधुनिकीकरण, नौकरियों का सबसे बड़ा जरिया हो सकता क्योंकि सप्लाई चेन से लेकर स्टोर तक संगठित रिटेल में सबसे ज्यादा रोजगार बनते हैं. पारंपरिक रिटेल में विदेशी निवेश पर असमंजस के बीच ई-रिटेल के कारण असंगतियां बढ़ रही हैं. ई-रिटेल में टैक्स, निवेश, गुणवत्ता, पारदर्शिता के सवाल तो अपनी जगह हैं ही. इससे डिलीवरी मैन से ज्यादा बेहतर रोजगार भी नहीं निकले हैं.

 रिटेल में नया निवेश, कंस्ट्रक्शन की मांग को वापस लौटा सकता है जो इस समय गहरी मंदी में है और खेती के बाद रोजगारों और मांग का दूसरा बड़ा जरिया है. रिटेल उपभोक्ता उत्पाद उद्योगों के लिए नया बाजार और दसियों तरह की सेवाएं लेकर आता है जो कि मेक इन इंडिया का हिस्सा है. रिटेल का 60 फीसदी हिस्सा खाद्य व ग्रॉसरी का है जो कि प्रत्यक्ष रूप से खेती से जुड़ता है. आधुनिक रिटेल, किसानों और लघु उद्योगों के लिए एक बड़ा बाजार होगा.
 रिटेल को लेकर कुछ नए तथ्य तस्दीक करते हैं कि सरकार इसके सहारे ग्रोथ के इंजन में ईंधन भर सकती है. जीडीपी की नई गणना के मुताबिक, आर्थिक ग्रोथ की रफ्तार पांच फीसदी से बढ़कर 7.5 फीसदी पहुंचने के पीछे विशाल थोक व खुदरा कारोबार की ग्रोथ है. इस कारोबार के समग्र आकार को जीडीपी गणना का पुराना आंकड़ा पकड़ नहीं पाता था. पुराने पैमाने के तहत थोक व रिटेल कारोबार का, जीडीपी में योगदान नापने के लिए एनएसएसओ के रोजगार सर्वे का इस्तेमाल होता था लेकिन नए फॉर्मूले में सेल टैक्स के आंकड़े को आधार बनाया गया तो पता चला कि थोक व खुदरा कारोबार न केवल अर्थव्यवस्था का 20 फीसदी है बल्कि इसके बढ़ने की रफ्तार जीडीपी की दोगुनी है.
   भूमि अधिग्रहण कानून में बदलावों के विरोध में राहुल-सोनिया के भाषणों को, खुदरा में विदेशी निवेश के खिलाफ अरुण जेटली के भाषण के साथ सुनना बेहतर होगा. इससे यह एहसास हो जाएगा कि भारत की राजनीति चुनाव से चुनाव तक का मौकापरस्त खेल है और कांग्रेस-बीजेपी नीतिगत दूरदर्शिता में बेहद दरिद्र हैं. अलबत्ता फैसले बदलना साहसी राजनीति का प्रमाण भी है. इसलिए प्रधानमंत्री अगर नई सोच का साहस दिखा रहे हैं तो उन्हें भूमि अधिग्रहण के साथ 125 करोड़ लोगों के विशाल खुदरा बाजार के उदारीकण की हिम्मत भी दिखानी चाहिए जो केवल बीजेपी की दकियानूसी सियासत के कारण आगे नहीं बढ़ सका. उनका यह साहस अर्थव्यवस्था की सूरत और सीरत, दोनों बदल सकता है.


Tuesday, May 12, 2015

यह वो जीएसटी नहीं

लोकसभा ने जीएसटी के जिस प्रारूप पर मुहर लगाई है उससे न तो कारोबार आसान होगा और न महंगाई घटेगी. देश को वह जीएसटी मिलता नहीं दिख रहा है जिसका इंतजार पिछले एक दशक से हो रहा था.

करीबन तीन साल पहले गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) पर राज्यों की एक बैठक की रिपोर्टिंग के दौरान राजस्व विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझसे कहा था कि पूरे भारत में उत्पादन, सेवा और बिक्री पर एक समान टैक्स दरें लागू करना लगभग नामुमकिन है! उस वक्त मुझे उनकी यह टिप्पणी झुंझलाहट से भरी और औद्योगिक राज्यों की तरफ इशारा करती हुई महसूस हुई थी, क्योंकि वह दौर जीएसटी पर गतिरोध का था और गुजरात एक दशक से इस सुधार का विरोध कर रहा था. जीएसटी पर ताजा राजनैतिक खींचतान ने उस अधिकारी को सही साबित कर दिया. देश के सबसे बड़े कर सुधार का चेहरा बदल गया है. जीएसटी के नाम पर हमें जो मिलने वाला है उससे पूरे देश में कॉमन मार्केट बनना तो दूर, महंगाई बढऩे व कर प्रशासन में अराजकता का जोखिम सिर पर टंग गया है.
टैक्स जटिल हैं लेकिन जीएसटी पर एक दशक की चर्चा के बाद लोगों को इतना जरूर पता है कि भारत में उत्पादन, बिक्री और सेवाओं पर केंद्र से लेकर राज्य तक किस्म-किस्म के टैक्स (एक्साइज, सर्विस, वैट, सीएसटी, चुंगी, एंटरटेनमेंट, लग्जरी, पर्चेज) लगते हैं जो न केवल टैक्स चोरी को प्रेरित करते हैं बल्कि उत्पादों की कीमत बढ़ने की बड़ी वजह भी हैं. जीएसटी लागू कर इन टैक्सों को खत्म किया जा सकता है ताकि पूरे देश में समान टैक्स रेट के जरिए कारोबार आसान हो सके. यह अंततः उपभोक्ताओं के लिए उत्पादों और सेवाओं की कीमत कम करेगा. लेकिन जीएसटी का प्रस्तावित ढांचा इस मकसद से उलटी दिशा में जाता दिख रहा है.
एक दशक से अधर में टंगे जीएसटी को लेकर उत्साह इसलिए लौटा था क्योंकि गुजरात उन राज्यों में अगुआ था जो जीएसटी के हक में नहीं हैं. दिल्ली पहुंचने के बाद मोदी जीएसटी के मुरीद हो गए, जिससे इस टैक्स सुधार की उम्मीद को ताकत मिल गई. लेकिन जीएसटी को लेकर मोदी का नजरिया बदलने से राज्यों के रुख में कोई बदलाव नहीं हुआ. केरल के वित्त मंत्री व जीएसटी पर राज्यों की समिति के मुखिया के.एम. मणि की मानें तो गुजरात और महाराष्ट्र ने दबाव बनाया कि सभी तरह के जीएसटी के अलावा, राज्यों को वस्तुओं की अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स लगाने की छूट मिलनी चाहिए, उत्पादकों को जिसकी वापसी नहीं होगी. यह टैक्स उस राज्य को मिलेगा जहां से सामान की आपूर्ति शुरू होती है. गुजरात का दबाव कारगर रहा. यह नया टैक्स लोकसभा से पारित विधेयक का हिस्सा है जो औद्योगिक राज्यों का राजस्व बढ़ाएगा जबकि अन्य राज्यों को नुक्सान होगा. इस तरह औद्योगिक व उपभोक्ता राज्यों के बीच पुरानी खाई फिर तैयार हो गई है. इसलिए जीएसटी विधेयक अब न केवल राज्यसभा में फंस सकता है बल्कि राज्यों के विरोध के कारण इसे अगले साल से लागू किए जाने की संभावना भी कम हो गई है.
सियासत ने जीएसटी की तस्वीर पूरी तरह बदल दी है. अब इनडायरेक्ट टैक्स का एक नहीं बल्कि पांच स्तरीय ढांचा होगा. सीजीएसटी के तहत केंद्र के टैक्स (एक्साइज, सर्विस) लगेंगे और एसजीएसटी के तहत राज्यों के टैक्स. इसके अलावा अंतरराज्यीय बिक्री पर आइजीएसटी लगेगा जो सेंट्रल सेल्स टैक्स की जगह लेगा. सामान की अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स और पेट्रोल डीजल, एविएशन फ्यूल पर टैक्स अलग से होंगे. जीएसटी तो पूरे देश में एक समान टैक्स ढांचा लाने वाला था, केंद-राज्य के अलग-अलग समेकित जीएसटी तक भी बात चल सकती थी लेकिन जीएसटी के नाम पर पांच टैक्सों का ढांचा आने वाला है जो मुसीबत से कम नहीं है.
दरअसल, जीएसटी के तहत उत्पादकों और व्यापारियों को कच्चे माल पर दिए गए टैक्स की वापसी होनी है ताकि एक ही सेवा या उत्पाद पर बहुत से टैक्स न लगें. अब जबकि कई स्तरों वाला टैक्स ढांचा बरकरार है तो लाखों टैक्स रिटर्न की प्रोसेसिंग सबसे बड़ी चुनौती होगी. अगर जीएसटी अपने मौजूदा स्वरूप में आया तो हर रोज हजारों रिटर्न फाइल होंगे, जिन्हें जांचने के लिए तैयारी नहीं है. जीएसटी के लिए देशव्यापी कंप्यूटरराइज्ड टैक्स नेटवर्क बनना था, जिसकी प्रगति का पता नहीं है जबकि राज्यों के टैक्स सिस्टम पुरानी पीढ़ी के हैं. जीएसटी अगर इस तरह लागू हुआ तो अराजकता व राजस्व नुक्सान ही हाथ लगेगा.
जीएसटी की दर आखिर कितनी होगी? राज्यों की समिति 27 फीसद की जीएसटी दर (रेवेन्यू न्यूट्रल रेटिंग जिस पर राज्यों को राजस्व का कोई नुक्सान नहीं होगा) का संकेत दे रही है. यह मौजूदा औसत दर से दस फीसद ज्यादा है. अगर जीएसटी दर 20 फीसद से ऊपर तय हुई तो भारत का यह सबसे बड़ा कर सुधार महंगाई की आफत बनकर टूटेगा. दुनिया के जिन देशों ने हाल में जीएसटी लागू किया है वहां टैक्स पांच (जापान) से लेकर 19.5 फीसदी (यूरोपीय यूनियन) तक हैं. जीएसटी के मामले में सियासत को देखते हुए सरकार के लिए यह दर कम रख पाना बेहद मुश्किल होगा.
जीएसटी को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हृदय बदलने के अलावा और कुछ नहीं बदला है. केंद्र से लेकर राज्यों तक कोई तैयारी नहीं है. पूरी बहस केवल सरकारों के राजस्व पर केंद्रत है. कर वसूलने व चुकाने वाले, अर्थात् व्यापारी व उपभोक्ता अंधेरे में हैं. जीएसटी, सुर्खियां बटोरू स्कीम या मिशन नहीं है, यह भारत का सबसे संवेदनशील सुधार है जो हर अमीर-गरीब उपभोक्ता की जिंदगी से जुड़ा है. सरकार को ठहरकर इसकी पर्याप्त तैयारी करनी चाहिए. प्रधानमंत्री को अपने रसूख का इस्तेमाल कर राज्यों को इस पर सहमत करना चाहिए. जीएसटी लागू न होने से जितना नुक्सान होगा, उससे कहीं ज्यादा नुक्सान इसे बगैर तैयारी के लागू करने से हो सकता है.
अधिकांश लोग टैक्स का गणित नहीं समझते. लेकिन इतना जरूर समझते हैं कि ज्यादा टैक्स होने से महंगाई बढ़ती है और अगर पूरे देश में टैक्स की एक दर हो तो कारोबार आसान होता है. लोकसभा ने जीएसटी के जिस प्रारूप पर मुहर लगाई है उससे न तो कारोबार आसान होगा और न महंगाई घटेगी. देश को वह जीएसटी मिलता नहीं दिख रहा है जिसका इंतजार पिछले एक दशक से हो रहा था.



Tuesday, May 5, 2015

सबसे बड़े सुधार का मौका


मोदी सरकार के लिए यह अवसर कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़े निर्णायक सुधार शुरू करने का है. यह सुधार केवल लंबित और अनिवार्य हैं बल्कि बीजेपी के राजनैतिक भविष्य का बड़ा दारोमदार भी इन्हीं पर है.

नरेंद्र मोदी सरकार अपनी पहली सालगिरह के जश्न को कैसे यादगार बना सकती है? किसानों की खुदकुशी, गिरते शेयर बाजार, टैक्स नोटिसों से डरे उद्योग और हमलावर विपक्ष को देखते हुए यह सवाल अटपटा है लेकिन दरअसल मोदी जहां फंस गए हैं, उबरने के मौके ठीक वहीं मौजूद हैं. यह अवसर कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़े और निर्णायक सुधार शुरू करने का है. जो न केवल आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही लंबित और अनिवार्य हैं बल्कि बीजेपी के राजनैतिक भविष्य का भी बड़ा दारोमदार इन्हीं पर है.
 सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार गांव व खेती की हकीकत से तालमेल नहीं बैठा सकी. पिछली खरीफ में आधा दर्जन राज्यों में सूखा पड़ा था. फरवरी में कृषि मंत्रालय ने मान लिया कि सूखी खरीफ और रबी की बुवाई में कमी से अनाज उत्पादन तीन साल के सबसे निचले स्तर पर रह सकता है. किसान आत्महत्या का आंकड़ा तो पिछले नवंबर में 1,400 पर पहुंच गया था. लेकिन दो बजटों में भी खेती को लेकर गंभीरता नहीं दिखी. इस साल मार्च में प्रधानमंत्री जब 'मन की बात' बताकर खेतिहरों को भूमि अधिग्रहण पर मना रहे थे तब तक तो दरअसल किसानों के जहर खाने का दूसरा दौर शुरू हो गया था. अगर त्वरित गरीबी नापने का कोई तरीका हो तो यह जानना मुश्किल नहीं है कि मौसमी कहर से 189 लाख हेक्टयर इलाके में रबी फसल की बर्बादी के बाद देश की एक बड़ी आबादी अचानक गरीबी की रेखा से नीचे चली गई है. इस मौके पर सरकार की बहुप्रचारित जनधन, आदर्श ग्राम या डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीमों ने कोई मदद नहीं की क्योंकि ये योजनाएं ग्रामीण अर्थव्यावस्था की हकीकत से वास्ता ही नहीं रखती थीं. ताजा कृषि संकट 2009 से ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि लगातार दो फसलें बिगड़ चुकी हैं और तीसरी फसल पर खराब मॉनसून का खौफ मंडरा रहा है. गांवों में मनरेगा के तहत रोजगार सृजन न्यूनतम स्तर पर आ गया है और शहर में रोजगारों की आपूर्ति पूरी तरह ठप है. इसलिए सिर्फ खेती नहीं बल्कि पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को उबारने की चुनौती है जो दरअसल एक अवसर भी है.  भारतीय खेती उपेक्षा व असंगति और सफलता व संभावनाओं की अनोखी कहानी है. यदि पिछली खरीफ को छोड़ दें तो 2009 के बाद से अनाज उत्पादन और कृषि निर्यात लगतार बढ़ा है और ग्रामीण इलाकों की मांग ने मंदी के दौर में ऑटोमोबाइल व उपभोक्ता उत्पाद कंपनियों को लंबा सहारा दिया है. अलबत्ता कृषि की कुछ बुनियादी समस्याएं हैं जो मौसम की एक बेरुखी में बुरी तरह उभर आती हैं और कृषि को अचानक दीन-हीन बना देती हैं. एक के बाद एक आई सरकारों ने खेती को कभी नीतियों का एक सुगठित आधार नहीं दिया. जिससे यह व्यवसाय हमेशा संकट प्रबंधन के दायरे में रहा.

कृषि की बुनियादी समस्याओं को सुधारने के सफल प्रयोग भी हमारे इर्दगिर्द फैले हैं और नीतिगत प्रयासों की कमी नहीं है. मसलन, जोत का छोटा आकार खेती की स्थायी चुनौती है जो इस व्यवसाय को लाभ में नगण्य और जोखिम में बड़ा बनाती है. फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियों में इसका समाधान दिखा है जिन्हें छोटे-छोटे किसान मिलकर बनाते हैं और सामूहिक उत्पादन करते हैं. सरकार ने पिछले साल लोकसभा में बताया था कि भारत में करीब 235 फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियां पंजीकृत हो चुकी हैं और 370 कतार में हैं. करीब 4.33 लाख किसान इसका हिस्सा होंगे. ठीक इसी तरह बिहार और मध्य प्रदेश में अनाज व तिलहन की रिकॉर्ड उपज, उत्तर प्रदेश में दूध की नई क्रांति, देश के कई हिस्सों में फल-सब्जी उत्पादन के नए कीर्तिमान, गुजरात में लघु सिंचाई क्षेत्रीय सफलताएं हैं, जिन्हें राष्ट्रीय बनाया जा सकता है. उर्वरक सब्सिडी में सुधारों का प्रारूप तैयार है. सिंचाई परियोजनाएं प्रस्तावित हैं. नए शोध जारी हैं मगर सक्रिय किए जाने हैं. नीतियां मौजूद हैं. बुनियादी ढांचा उपलब्ध है. इन्हें एक जगह समेटकर बड़े सुधारों में बदला जा सकता है. मोदी सरकार को ग्रामीण आर्थिक सुधारों की बड़ी पहल करनी चाहिए, जिस पर उसे समर्थन मिलेगा, क्योंकि फसलों की ताजा बर्बादी के बाद राज्य भी संवेदनशील हो चले हैं. कई राज्यों को एहसास है कि उनकी प्रगति का रास्ता खेतों से ही निकलेगा क्योंकि उनके पास उद्योग आसानी से नहीं आएंगे. मोदी सरकार नीति आयोग या मेक इन इंडिया की तर्ज पर सुधारों का समयबद्ध अभियान तैयार कर सकती है जो खेती और गांव के लिए अलग-अलग नीतियां बनाने की गलती नहीं करेगा बल्कि पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए समग्र सुधारों की राह खोलेगा. यकीनन, 125 करोड़ लोगों का पेट भरना कहीं से नुक्सान का धंधा नहीं है और करीब 83 करोड़ लोग यानी देश की 70 फीसद आबादी की क्रय शक्ति कोई छोटा बाजार नहीं है. मोदी के लिए सरकार में आने के बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था की फिक्र करना संवेदनशीलता या दूरदर्शिता का तकाजा ही नहीं था बल्कि उन्हें गांवों की फिक्र इसलिए भी करनी चाहिए, क्योंकि उनकी पार्टी को पहली बार गांवों में भरपूर वोट मिले हैं, और सत्तर फीसद बीजेपी सांसद ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं और उनकी अगली राजनैतिक सफलताएं उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे ग्रामीण बहुल राज्यों पर निर्भर होंगी.
राहुल गांधी पर आप हंस सकते हैं लेकिन भूमि अधिग्रहण पर वे लोकसभा में मोदी को जो राजनैतिक नसीहत दे रहे थे, उसमें दम था. भारत में कृषि संकट और सियासत के गहरे रिश्ते हैं. 2002 भारत में सबसे बड़े सूखे का वर्ष था. वाजपेयी सरकार इस संकट से खुद को जोड़ नहीं पाई और 2004 के चुनाव में खेत रही. 2005 में मनरेगा का जन्म दरअसल 2002 के सूखे की नसीहत से हुआ था और जो भारत के ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम में एक बड़ा बदलाव था और बिखरने व घोटालों में बदलने से पहले न केवल प्रशंसित हुआ था बल्कि कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लाया.
मोदी सरकार चाहे तो इस कृषि संकट के बाद सब्सिडी बढ़ाने और कर्ज माफी जैसे पुराने तरीकों के खोल में घुस सकती है, या फिर बड़े सुधारों की राह पकड़ कर खेती को चिरंतन आपदा प्रबंधन की श्रेणी से निकाल सकती है. मोदी सरकार ने पिछले एक साल में कई बड़े मौके गंवाए हैं. अलबत्ता यह मौका गंवाना शायद राजनैतिक तौर पर सबसे ज्यादा महंगा पड़ेगा.