सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था.
सयाने लोग कहते हैं कि बार-बार मौके मुश्किल से मिलते हैं लेकिन नरेंद्र
मोदी इस कहावत को गलत साबित कर रहे हैं. भारत की सामाजिक-आर्थिक
गणना मोदी के लिए ऐसा अवसर लेकर आई है, जो शायद
उनको मिले जनादेश से भी ज्यादा बड़ा है. देश की अधिकांश आबादी
में गरीब और सामाजिक सुरक्षा के प्रयोगों की विफलता के आकलन पहले से मौजूद
थे. ताजा सर्वेक्षण ने इन आकलनों को आंकड़ों का ठोस आधार देते हुए मोदी
सरकार को, पूरे आर्थिक-सामाजिक
नीति नियोजन को बदलने का अनोखा मौका सौंप दिया है.
इस सर्वेक्षण
ने नीति नियोजन ढांचे की सबसे बड़ी कमी पूरी कर दी है. भारत दशकों से
अपने लोगों की कमाई के अधिकृत आंकड़े यानी एक इन्कम डाटा की बाट जोह रहा था, जो हर
आर्थिक फैसले के लिए अनिवार्य है. यहां सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण
के पांच बड़े नतीजों को जानना जरूरी है जो नीतियों और सियासत को प्रभावित
करेंगेः (1) भारत में दस में सात लोग गांव में रहते हैं, (2) 30 फीसदी लोग
खेती पर निर्भर हैं और 51 फीसदी लोग
सिर्फ मजदूर हैं, (3) गांवों में हर पांच
में चार परिवारों में सर्वाधिक कमाने वाले सदस्य की अधिकतम आय 5,000 रु. प्रति
माह है. यानी पांच सदस्यों के परिवार में प्रति व्यक्ति आय प्रति
माह एक हजार रु. से भी कम है, (4) 56 फीसद
ग्रामीण भूमिहीन हैं, (5) 36 फीसदी ग्रामीण निरक्षर हैं. केवल
तीन फीसदी लोग ग्रेजुएट हैं. ये आंकड़े
केवल ग्रामीण आबादी की आर्थिक स्थिति बताते हैं. इसी
सर्वेक्षण का शहरी हिस्सा अभी जारी
होना है. जो शायद यह बताएगा कि शहरों में बसे 11 करोड़
परिवारों में 35 लाख
परिवारों के पास आय का कोई साधन नहीं है.
ग्रामीण और शहरी
(अनाधिकारिक) आर्थिक सर्वेक्षण के तीन बड़े निष्कर्ष हैं. पहला, देश की 70 फीसदी आबादी
ग्रामीण है. दूसरा, शहरों-गांवों को मिलाकर करीब 90 फीसदी आबादी ऐसी
है जो केवल 200 से 250 रु. प्रति
दिन पर गुजारा करती है, और तीसरा भारत
में मध्य वर्ग केवल 11 करोड़ लोगों का है जिनके पास एक सुरक्षित नियमित आय
है.
इस आंकड़े के
बाद कोई भी यह मानेगा कि देश में नीतियों के
गठन की बुनियाद बदलने का वक्त आ गया है जिसकी शुरुआत उन पैमानों को बदलने से
होगी जो सभी आर्थिक-सामाजिक नीतियों का आधार हैं. देश में गरीबी की
पैमाइश बदले बिना अब काम नहीं चलेगा क्योंकि इन आंकड़ों ने साबित किया है कि
भारत में गरीबी पिछली सभी गणनाओं से ज्यादा है. खपत सर्वेक्षण, महंगाई की
गणना, रोजगारों का हिसाब-किताब, सामाजिक
सुरक्षा की जरूरत हैं. फॉर्मूले भी नए सिरे से तय होंगे. खपत को आधार बनाकर
भारत में असमानता घटने का जो आकलन (गिन्नी कोइफिशिएंट) किया जाता रहा है, इस आंकड़े की
रोशनी में वह भी बदल जाएगा.
इन पैमानों
को बदलते ही सरकारी नीतियां एक निर्णायक
प्रस्थान बिंदु पर खड़ी दिखाई देंगी. सामाजिक-आर्थिक सेंसस के आंकड़े साबित
करते हैं कि भारत में मनरेगा जैसे कार्यक्रम राजनैतिक सफलता क्यों लाते
हैं? सस्ते अनाज के सहारे रमन सिंह, नवीन पटनायक
या सस्ते भोजन के सहारे जयललिता लोकप्रिय और सफल कैसे बने रहते हैं
जबकि औद्योगिक निवेश और बुनियादी ढांचे की सफलता पर वोटर नहीं रीझते.
अलबत्ता आंकड़े यह भी बताते हैं कि
लोकलुभावन नीतियों का ढांचा सिर्फ लोगों को जिंदा रख सकता है, उनकी जिंदगी
बेहतर नहीं कर सकता.
अर्थव्यवस्था
पर आर्थिक सुधारों के प्रभाव के समानांतर इन आंकड़ों की गहरी पड़ताल की जाए तो
शायद नीतियों के एक नए रास्ते की जरूरत महसूस होगी, जो विकास के
पूरे आयोजन को बदलने, गवर्नेंस के बड़े
सुधार, तकनीकों का इस्तेमाल, संतुलित रूप
से खुले बाजार और नए किस्म की स्कीमों से गढ़ा जाएगा. गरीबी की राजनीति
यकीनन बुरी है लेकिन जब 90 फीसदी लोगों
के पास आय सुरक्षा ही न हो तो रोजगार या भोजन देने वाली स्कीमों के
बिना काम नहीं चलता. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा देने के नए तरीके खोजने होंगे
और रोजगारों को मौसमी व अस्थायी स्तरों से निकालकर स्थायी की तरफ ले जाना
होगा.
आप पिछले छह
दशक की ग्रामीण बदहाली को लेकर कांग्रेस को
कोसने में अपना वक्त बर्बाद कर सकते हैं लेकिन सच यह है कि इन आंकड़ों के
सामने आने का यह सबसे सही वक्त है. कांग्रेस के राज में अगर ये आंकड़े आए
होते तो लोकलुभावनवाद का चरम दिख जाता. केंद्र में अब ऐसी सरकार है जो अतीत
का बोझ उठाने के लिए बाध्य नहीं है. इसके पास मौका है कि वह भारत में
नीतियों का रसायन नए सिरे से तैयार करे.
सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण
और पुराने तजुर्बे ताकीद करते हैं कि देश को नीतियों व स्कीमों के भारी
मकडज़ाल की जरूरत नहीं है. अचूक तकनीक, मॉनिटरिंग, राज्यों के
साथ समन्वय से लैस और तीन चार बड़े सामाजिक कार्यक्रम
पर्याप्त हैं, जिन्हें खुले और
संतुलित बाजार के समानांतर चलाकर महसूस होने वाला बदलाव लाया जा सकता है.
सत्ता में
आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल
उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का
राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था. सर्वेक्षण के अनुसार 200 रु. से 250 रु. रोज पर
गुजरा करने वाली अधिकांश आबादी के लिए बैंक खाते, बीमा वाली
जनधन योजना लगभग बेमानी है. मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया या
इस तरह के अन्य कार्यक्रम अधिकतम दस फीसदी लोगों को प्रभावित कर सकते हैं.
यही वजह है कि दिहाड़ी पर जीने वाले 90 फीसदी और
उनमें भी अधिकांश अल्पशिक्षित और अशिक्षित भारत पर मोदी सरकार के मिशन
और स्कीमों का असर नजर नहीं आया है.
मोदी की
नीतियों का पानी उतरे, उससे पहले देश की सामाजिक-आर्थिक
हकीकत उनके हाथ में है. इन आंकड़ों की रोशनी में वे नीतियों और गवर्नेंस
की नई शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि
उन्हें लोगों ने नई शुरुआत के लिए ही
चुना है, अतीत की लकीरों पर नए रंग-रोगन के लिए नहीं.