Tuesday, July 14, 2015

यह तो मौका है!


सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था.
याने लोग कहते हैं कि बार-बार मौके मुश्किल से मिलते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी इस कहावत को गलत साबित कर रहे हैं. भारत की सामाजिक-आर्थिक गणना मोदी के लिए ऐसा अवसर लेकर आई है, जो शायद उनको मिले जनादेश से भी ज्यादा बड़ा है. देश की अधिकांश आबादी में गरीब और सामाजिक सुरक्षा के प्रयोगों की विफलता के आकलन पहले से मौजूद थे. ताजा सर्वेक्षण ने इन आकलनों को आंकड़ों का ठोस आधार देते हुए मोदी सरकार को, पूरे आर्थिक-सामाजिक नीति नियोजन को बदलने का अनोखा मौका सौंप दिया है.

इस सर्वेक्षण ने नीति नियोजन ढांचे की सबसे बड़ी कमी पूरी कर दी है. भारत दशकों से अपने लोगों की कमाई के अधिकृत आंकड़े यानी एक इन्कम डाटा की बाट जोह रहा था, जो हर आर्थिक फैसले के लिए अनिवार्य है. यहां सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के पांच बड़े नतीजों को जानना जरूरी है जो नीतियों और सियासत को प्रभावित करेंगेः (1) भारत में दस में सात लोग गांव में रहते हैं, (2) 30 फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं और 51 फीसदी लोग सिर्फ मजदूर हैं, (3) गांवों में हर पांच में चार परिवारों में सर्वाधिक कमाने वाले सदस्य की अधिकतम आय 5,000 रु. प्रति माह है. यानी पांच सदस्यों के परिवार में प्रति व्यक्ति आय प्रति माह एक हजार रु. से भी कम है, (4) 56 फीसद ग्रामीण भूमिहीन हैं, (5) 36 फीसदी ग्रामीण निरक्षर हैं. केवल तीन फीसदी लोग ग्रेजुएट हैं. ये आंकड़े केवल ग्रामीण आबादी की आर्थिक स्थिति बताते हैं. इसी सर्वेक्षण का शहरी हिस्सा अभी जारी होना है. जो शायद यह बताएगा कि शहरों में बसे 11 करोड़ परिवारों में 35 लाख परिवारों के पास आय का कोई साधन नहीं है.
ग्रामीण और शहरी (अनाधिकारिक) आर्थिक सर्वेक्षण के तीन बड़े निष्कर्ष हैं. पहला, देश की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण है. दूसरा, शहरों-गांवों को मिलाकर करीब 90 फीसदी आबादी ऐसी है जो केवल 200 से 250 रु. प्रति दिन पर गुजारा करती है, और तीसरा भारत में मध्य वर्ग केवल 11 करोड़ लोगों का है जिनके पास एक सुरक्षित नियमित आय है.
इस आंकड़े के बाद कोई भी यह मानेगा कि देश में नीतियों के गठन की बुनियाद बदलने का वक्त आ गया है जिसकी शुरुआत उन पैमानों को बदलने से होगी जो सभी आर्थिक-सामाजिक नीतियों का आधार हैं. देश में गरीबी की पैमाइश बदले बिना अब काम नहीं चलेगा क्योंकि इन आंकड़ों ने साबित किया है कि भारत में गरीबी पिछली सभी गणनाओं से ज्यादा है. खपत सर्वेक्षण, महंगाई की गणना, रोजगारों का हिसाब-किताब, सामाजिक सुरक्षा की जरूरत हैं. फॉर्मूले भी नए सिरे से तय होंगे. खपत को आधार बनाकर भारत में असमानता घटने का जो आकलन (गिन्नी कोइफिशिएंट) किया जाता रहा है, इस आंकड़े की रोशनी में वह भी बदल जाएगा.
इन पैमानों को बदलते ही सरकारी नीतियां एक निर्णायक प्रस्थान बिंदु पर खड़ी दिखाई देंगी. सामाजिक-आर्थिक सेंसस के आंकड़े साबित करते हैं कि भारत में मनरेगा जैसे कार्यक्रम राजनैतिक सफलता क्यों लाते हैं? सस्ते अनाज के सहारे रमन सिंह, नवीन पटनायक या सस्ते भोजन के सहारे जयललिता लोकप्रिय और सफल कैसे बने रहते हैं जबकि औद्योगिक निवेश और बुनियादी ढांचे की सफलता पर वोटर नहीं रीझते. अलबत्ता आंकड़े यह भी बताते हैं कि लोकलुभावन नीतियों का ढांचा सिर्फ लोगों को जिंदा रख सकता है, उनकी जिंदगी बेहतर नहीं कर सकता.
अर्थव्यवस्था पर आर्थिक सुधारों के प्रभाव के समानांतर इन आंकड़ों की गहरी पड़ताल की जाए तो शायद नीतियों के एक नए रास्ते की जरूरत महसूस होगी, जो विकास के पूरे आयोजन को बदलने, गवर्नेंस के बड़े सुधार, तकनीकों का इस्तेमाल, संतुलित रूप से खुले बाजार और नए किस्म की स्कीमों से गढ़ा जाएगा. गरीबी की राजनीति यकीनन बुरी है लेकिन जब 90 फीसदी लोगों के पास आय सुरक्षा ही न हो तो रोजगार या भोजन देने वाली स्कीमों के बिना काम नहीं चलता. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा देने के नए तरीके खोजने होंगे और रोजगारों को मौसमी व अस्थायी स्तरों से निकालकर स्थायी की तरफ ले जाना होगा.
आप पिछले छह दशक की ग्रामीण बदहाली को लेकर कांग्रेस को कोसने में अपना वक्त बर्बाद कर सकते हैं लेकिन सच यह है कि इन आंकड़ों के सामने आने का यह सबसे सही वक्त है. कांग्रेस के राज में अगर ये आंकड़े आए होते तो लोकलुभावनवाद का चरम दिख जाता. केंद्र में अब ऐसी सरकार है जो अतीत का बोझ उठाने के लिए बाध्य नहीं है. इसके पास मौका है कि वह भारत में नीतियों का रसायन नए सिरे से तैयार करे.
सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण और पुराने तजुर्बे ताकीद करते हैं कि देश को नीतियों व स्कीमों के भारी मकडज़ाल की जरूरत नहीं है. अचूक तकनीक, मॉनिटरिंग, राज्यों के साथ समन्वय से लैस और तीन चार बड़े सामाजिक कार्यक्रम पर्याप्त हैं, जिन्हें खुले और संतुलित बाजार के समानांतर चलाकर महसूस होने वाला बदलाव लाया जा सकता है.
सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था. सर्वेक्षण के अनुसार 200 रु. से 250 रु. रोज पर गुजरा करने वाली अधिकांश आबादी के लिए बैंक खाते, बीमा वाली जनधन योजना लगभग बेमानी है. मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया या इस तरह के अन्य कार्यक्रम अधिकतम दस फीसदी लोगों को प्रभावित कर सकते हैं. यही वजह है कि दिहाड़ी पर जीने वाले 90 फीसदी और उनमें भी अधिकांश अल्पशिक्षित और अशिक्षित भारत पर मोदी सरकार के मिशन और स्कीमों का असर नजर नहीं आया है.
मोदी की नीतियों का पानी उतरे, उससे पहले देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत उनके हाथ में है. इन आंकड़ों की रोशनी में वे नीतियों और गवर्नेंस की नई शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें लोगों ने नई शुरुआत के लिए ही चुना है, अतीत की लकीरों पर नए रंग-रोगन के लिए नहीं.

Tuesday, July 7, 2015

ग्रीक ट्रेजडी के भारतीय मिथक

ग्रीस की ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट के कई मिथक भारत से मिलते हैं 

ग्रीस की पवित्र वातोपेदी मॉनेस्ट्री के महंत इफ्राहीम व देश के शिपिंग मंत्री की पत्नी सहित 14 लोगों को पिछले साल नवंबर में जब ग्रीक सुप्रीम कोर्ट ने धोखाधड़ी का दोषी करार दिया, तब तक यह तय हो चुका था कि ग्रीस (यूनान) आइएमएफ के कर्ज में चूकने वाला पहला विकसित मुल्क बन जाएगा और दीवालिएपन से बचने के लिए उसे लंबी यंत्रणा झेलनी होगी. आप कहेंगे कि 10वीं सदी की क्रिश्चियन मॉनेस्ट्री का ग्रीस के संकट से क्या रिश्ता है? दरअसल, ट्रेजडी का पहला अंक इसी मॉनेस्ट्री ने लिखा था. महंत इफ्राहीम ने 2005 में नेताओं व अफसरों से मिलकर एक बड़ा खेल किया. उन्होंने मॉनेस्ट्री के अधिकार में आने वाली विस्तोनिदा झील ग्रीक सरकार को बेच डाली और बदले में 73 सरकारी भूखंड व भवन लेकर वाणिज्यिक निर्माण शुरू कर दिए.
इन कीमती संपत्तियों में एथेंस ओलंपिक (2004) का जिम्नास्टिक स्टेडियम भी था. 2008 में इसके खुलासे के साथ न केवल तत्कालीन सरकार गिर गई बल्कि भ्रष्टाचार, क्रोनी कैपिटलिज्म व सरकारी फर्जीवाड़े की ऐसी परतें उघड़ीं कि ग्रीस दीवालिएपन की कगार पर टंग गया. ग्रीस, तकनीकी तौर पर मंदी से उपजे कर्ज संकट का शिकार दिखता है लेकिन दरअसल उसकी ट्रेजडी को घटिया गवर्नेंस व सियासत ने गढ़ा है. ग्रीस के ताजा संकट को पढ़ते हुए इस एहसास से बचना मुश्किल है कि भारत में कई ग्रीस पल रहे हैं.
बीते सप्ताह बैंक के बंद होने के बाद ग्रीस की ट्रेजडी का कोरस शुरू हो गया था. कर्ज चुकाने में चूकना किसी देश के लिए घोर नर्क है. तबाही की शुरुआत देश की वित्तीय साख टूटने व खर्च में कटौती से होती है और बैंकों की बर्बादी से दीवालिएपन तक आती है. ग्रीस का पतन 2008 में शुरू हुआ. 2010 के बाद यूरोपीय समुदाय व आइएमएफ ने 240 अरब यूरो के दो पैकेज दिए, जिसमें 1.6 अरब यूरो की देनदारी बीते मंगलवार को थी, ग्रीस जिसमें चूक गया. ताजा डिफॉल्ट के साथ 1.1 करोड़ की आबादी वाला ग्रीक समाज वित्तीय मुश्किलों की लंबी सुरंग में उतर गया है. अब उसे कठोर शर्तें मानकर खर्च में जबरदस्त कटौती करनी होगी या खुद को दीवालिया घोषित करते हुए उस निर्मम दुनिया से निबटना होगा है जहां सूदखोर शायलॉक की तरह कर्ज वसूला जाता है. हाल का सबसे बड़ा डिफॉल्टर अर्जेंटीना पिछले एक दशक से यह आपदा झेल रहा है.
ग्रीस के संकट की वित्तीय पेचीदगियां उबाऊ हो सकती हैं लेकिन इस ट्रेजडी के कारणों में भारत में दिलचस्पी जरूर होनी चाहिए. वहां के सबसे बड़े जमीन घोटाले को अंजाम देने वाले वातोपेदी मॉनेस्ट्री को ही लें, जो उत्तर माउंट एटॉस प्रायद्वीप पर स्थित है और बाइजेंटाइन युग से ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियनिटी का सबसे पुराना केंद्र है. वित्तीय संकटों के अध्येता माइकल लेविस अपनी किताब बूमरैंग में लिखते हैं कि महंत इफ्राहीम इतना रसूखदार था कि वह एक ग्रीक बैंकर के साथ वातोपेदी रियल एस्टेट फंड बनाने वाला था. झील के बदले उसने जो सरकारी संपत्तियां हासिल कीं उनका दर्जा (लैंड यूज) बदलकर उन्हें वाणिज्यिक किया गया ताकि उन पर आधुनिक कॉम्प्लेक्स बनाए जा सकें. वातोपेदी मठ की यह कथा क्या आपको भारत के वाड्रा, आदर्श घोटाले अथवा धर्म ट्रस्टों के जमीन घोटालों की सहोदर नहीं लगती?
हेलेनिक या पश्चिमी सभ्यता के गढ़ ग्रीस की बदहाली बताती है कि सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है. यूरोमुद्रा अपनाने के लिए ग्रीस को घाटे व कर्ज को (यूरोजोन ग्रोथ ऐंड स्टेबिलिटी पैक्ट) को काबू में रखने की शर्तें माननी थीं. इन्हें पूरा करने के लिए सरकार ने कई तरह के ब्याज, पेंशन, कर्जों की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि भुगतानों को बजट से छिपा लिया और घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से खूब कर्ज उठाया. यूरोपीय समुदाय के आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) की पड़ताल में पता चला कि 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी था जबकि सरकार ने 3.7 फीसदी होने का दावा किया था. इसके बाद देश की साख ढह गई. भारत के आंकड़ों में तो इतने फर्जीवाड़े हैं कि एक दो नहीं दसियों ग्रीस मिल जाएंगे. 
माइकल लुइस बूमरैंग में एक कंस्ट्रक्शन कंपनी का जिक्र करते हैं, जिसने एथेंस शहर में कई बड़ी इमारतें बनाकर बेच डालीं और एक भी यूरो का टैक्स नहीं दिया जबकि उस पर करीब 1.5 करोड़ यूरो के टैक्स की देनदारी बनती थी. इस फर्म ने दर्जनों छोटी कंपनियां बनाईं, फर्जी खर्च दिखाए और अंततः केवल 2,000 यूरो का टैक्स देकर बच निकली. ग्रीस में टैक्स चोरी के नायाब तरीके भले ही यूरोप व अमेरिका में दंतकथाओं की तरह सुने जाते हों लेकिन एथेंस की कंस्ट्रक्शन कंपनी की कर चोरी जैसे कई किस्से तो भारत में आपको एक अदना टैक्स इंस्पेक्टर सुना देगा.
 ग्रीस के बैंक उसकी त्रासदी का मंच हैं और बैंकों के मामले में भारत व ग्रीस में संकट के आकार का ही अंतर है. यूरोपीय बैंक अगर जोखिम भरे निवेश में डूबे हैं तो भारतीय बैंक सियासी-कॉर्पोरेट गठजोड़ में हाथ जला रहे हैं. भारतीय बैंक करीब तीन लाख करोड़ का कर्ज फंसाए बैठे हैं, जिनमें 40 फीसदी कर्ज सिर्फ 30 बड़ी कंपनियों पर बकाया है. भारत में बैंक नहीं डूबते क्योंकि सरकार बजट से पैसा देती रही हैं. देशी बैंक जमाकर्ताओं के पैसे से सरकार को कर्ज देते हैं और फिर सरकार उन्हें उसी पैसे से उबार लेती है. दरअसल यह आम लोगों की बचत या टैक्स भुगतान ही हैं जो बैंकों, सरकार व चुनिंदा कंपनियों के बीच घूमता है.
सरकारों का डिफॉल्टर होना नया नहीं है. दुनिया ने 1824 से 2006 के बीच 257 बार सॉवरिन डिफॉल्ट देखे हैं. दिवालिएपन पर आर्थिक शोध का अंबार मौजूद है, जिसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह त्रासदी सिर्फ वित्तीय बाजार की आकस्मिकताओं से नहीं आती बल्कि खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार व वित्तीय अपारदर्शिता देशों मोहताज बना देती है.
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस हमेशा अपनी क्षमता से बड़ा इतिहास बनाता है. उसने इस बार भी निराश नहीं किया. भारत व ग्रीस अब सिर्फ मिथकों या इतिहास के आइने में एक जैसे नहीं हैं, ग्रीस का वर्तमान भी भारत के लिए नसीहतें भेज रहा है. शुक्र है कि हम सुरक्षित हैं लेकिन क्या हम ग्रीस से कुछ सीखना चाहेंगे?



Monday, June 29, 2015

इकबाल का सवाल

मोदी सरकार के कई मिथक अचानक टूटने लगे हैं। बाहर से भव्‍य फिल्‍म सेट की तरह दिखती सरकार में पर्दे के पीछे यूपीए जैसी अपारदर्शिता और नीति शून्यता झांकने लगी है.
ई सरकार का मंत्रिमंडल बेदम है. उम्मीद है, सरकार आगे निराश नहीं करेगी.'' मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के अगले ही दिन अंतरराष्ट्रीय निवेश फर्म क्रेडिट सुइस की यह टिप्पणी बहुतों को अखर गई थी. निष्कर्ष तथ्यसंगत था लेकिन टिप्पणी कुछ जल्दबाजी में की गई लगती थी. अलबत्ता बीते सप्ताह एक बड़े विदेशी निवेशक ने दो-टूक अंदाज में मुझसे पूछा कि मोदी सरकार का प्लान बी क्या है? तो मुझे अचरज नहीं हुआ क्योंकि सियासी से लेकर कॉर्पोरेट गलियारों तक यह प्रश्न कुलबुलाने लगा है कि क्या नरेंद्र मोदी के लिए अपनी सरकार की बड़ी सर्जरी करने का वक्त आ गया है. यह सवाल केवल सरकार के कमजोर प्रदर्शन से ही प्रेरित नहीं है. सुषमा-वसुंधरा के ललित प्रेम, स्मृति ईरानी की मूर्धन्यता के विवाद और सरकार व पार्टी पर मोदी-शाह के इकबाल को लेकर असमंजस की गूंज भी इस सवाल में सुनी जा सकती है.
मोदी सरकार का एक साल पूरा होने तक यह सच लगभग पच गया था कि अपेक्षाओं व मंशा के मुकाबले नतीजे कमजोर रहे हैं. लेकिन यह आशंका किसी को नहीं थी कि नई सरकार कोई ठोस बदलाव महसूस कराए बिना अपने शैशव में ही उन विवादों में उलझ जाएगी जो न केवल गवर्नेंस के उत्साह निगल सकते हैं, बल्कि जिनके चलते सरकार और बीजेपी में नरेंद्र मोदी व अमित शाह का दबदबा भी दांव पर लग जाएगा.
पिछले एक साल में मोदी सरकार के दो चेहरे दिखे हैं. एक चेहरा भव्य और शानदार आयोजनों व प्रभावी संवाद की रणनीतियों का है.  लेकिन इसके विपरीत दूसरा चेहरा गवर्नेंस में ठोस यथास्थिति का है जो पिघल नहीं सकी. यह ठहराव खुद प्रधानमंत्री को भी बेचैन कर रहा है. सरकार की इस बेचैनी को तथ्यों में बांधा जा सकता है. मसलन, नौकरशाही में फेरबदल को लीजिए. पिछले 12 माह में केंद्र की नौकरशाही में तीन बड़े फेरबदल हो चुके हैं. यह उठापटक, सरकार चलाने में असमंजस की नजीर है. मोदी सरकार ब्यूरोक्रेसी को स्थिर और स्वतंत्र बनाना चाहती है जबकि ताबड़तोड़ फेरबदल ने उलटा ही असर किया है. ठीक इसी तरह क्रियान्वयन की चुनौतियों के चलते, तमाम बड़ी घोषणाओं के लक्ष्य व प्रावधान बदल दिए गए हैं. अगर वन रैंक वन पेंशन, खाद्य महंगाई, उच्च पदों पर पारदर्शिता जैसे बड़े चुनावी वादों पर किरकिरी को इसमें जोड़ लिया जाए तो महसूस करना मुश्किल नहीं है कि ढलान सामने है और वापसी के लिए सरकार की सूरत व सीरत में साहसी बदलाव करने होंगे, क्योंकि अभी चार साल गुजारने हैं.
नरेंद्र मोदी अब अपनी सरकार की सर्जरी किए बिना आगे नहीं बढ़ सकते. मंत्रिमंडल के पहले पुनर्गठन तक यह बात साफ हो गई थी कि तजुर्बे व पेशेवर लोगों की कमी के कारण टीम मोदी अपेक्षाओं के मुकाबले बेहद लचर है. पिछले एक साल का रिपोर्ट कार्ड इस बात की ताकीद करता है कि ज्यादातर मंत्री कोई असर नहीं छोड़ सके हैं. वजह चाहे मंत्रियों की अक्षमता हो या उन्हें अधिकार न मिलना, लेकिन मोदी का मंत्रिमंडल उनकी मंशाओं को जमीन पर उतारने में नाकाम रहा है. महत्वपूर्ण संस्थाओं में खाली शीर्ष पद बताते हैं कि एक साल बाद भी सरकार का आकार पूरा नहीं हो सका है. अगर मोदी अगले तीन माह में अपने मंत्रिमंडल में अकर्मण्यता का बोझ कम नहीं करते तो नीति शून्यता और कमजोर गवर्नेंस की तोहमतें उनका इंतजार कर रही हैं.
मोदी भले ही सलाह न सुनने के लिए जाने जाते हों लेकिन अब उन्हें अर्थव्यवस्था, विदेश नीति से लेकर अपने भाषणों तक के लिए थिंक टैंक और सलाहकारों की जरूरत है जो सरकार को नीतियों, कार्यक्रमों और कानूनों की नई सूझ दे सकें. नई पैकेजिंग में यूपीए की स्कीमों के दोहराव के कारण बड़े-बड़े मिशन छोटे नतीजे भी नहीं दे पा रहे हैं और असफलताएं बढऩे लगी हैं. मोदी सरकार को क्रियान्वयन के ढांचे में भी सूझबूझ भरे बदलावों की जरूरत है जिसके लिए उसे पेशेवरों की समझ पर भरोसा करना होगा जैसा कि दुनिया के अन्य देशों में होता है.
नरेंद्र मोदी अपनी सरकार और पार्टी में नैतिकता व पारदर्शिता के ऊंचे मानदंडों से समझौते का जोखिम नहीं ले सकते, क्योंकि उनकी सरकार को मिले जनादेश की पृष्ठभूमि अलग है. वसुंधरा, सुषमा, स्मृति, पंकजा के मामले बीजेपी से ज्यादा मोदी की राजनीति के लिए निर्णायक हैं. इन मामलों ने मोदी को दोहरी चोट पहुंचाई है. एक तो उनकी साफ-सुथरी सरकार अब दागी हो गई है. दूसरा, पद न छोडऩे पर अड़े नेता मोदी-शाह के नियंत्रण को चुनौती दे रहे हैं. गवर्नेंस और पारदर्शिता के मामले में मोदी की चुनौतियां मनमोहन से ज्यादा बड़ी हैं. मनमोहन के दौर में भ्रष्टाचार व नीति शून्यता की तोहमतें गठबंधन की मजबूरियों पर मढ़ी जा सकती थीं. यही वजह थी कि यूपीए सरकार के कलंक का बड़ा हिस्सा कांग्रेस पार्टी के खाते में गया. अलबत्ता बीजेपी में तो सरकार और पार्टी दोनों मोदी में ही समाहित हैं और उनकी अपनी ही पार्टी के नेता दागी हो रहे हैं. इसलिए सभी तोहमतें सिर्फ मोदी के खाते में दर्ज होंगी.
मुसीबत यह है कि नई सरकार के कई मिथक अचानक एक साथ टूटने लगे हैं. मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर मोदी की सख्त पकड़ की दंतकथाओं के विपरीत वरिष्ठ मंत्री व मुख्यमंत्री दागी होते दिख रहे हैं, जबकि जन संवाद की जबरदस्त रणनीतियों के बावजूद ठोस नतीजों की अनुपस्थिति लोगों को निराश कर रही है. सरकार एक साल के भीतर ही फिल्म सेट की तरह दिखने लगी है जिसमें बाहर भव्यता है लेकिन पीछे यूपीए जैसी अपारदर्शिता और नीति शून्यता बजबजा रही है.

मोदी जिस तरीके से बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में उभरे और चुनाव जीते हैं, उसमें उनकी राजनैतिक सफलता का सारा दारोमदार उनकी गवर्नेंस की कामयाबी पर है. यदि सरकार असफल या दागी हुई तो पार्टी पर उनके इकबाल का पानी भी टिकाऊ साबित नहीं होगा. सरकार को लेकर बेचैनी बढऩे लगी है लेकिन भरोसा अभी कायम है. नरेंद्र मोदी को कुछ दो टूक ही करना होगा, उनके लिए बीच का कोई रास्ता नहीं है. सरकार व पार्टी में साहसी बदलावों में अब अगर देरी हुई तो मोदी को अगले चार साल तक एक ऐसी रक्षात्मक सरकार चलाने पर मजबूर होना होगा जो विपक्ष के हमलों के सामने अपने तेवर गंवाती चली जाएगी. यकीनन, नरेंद्र मोदी एक कमजोर व लिजलिजी सरकार का नेतृत्व कभी नहीं करना चाहेंगे.

Tuesday, June 23, 2015

फिसलन की शुरुआत

मोदीसत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकरावकॉर्पोरेट और नेता गठजोड़क्रोनी कैपटिलिज्मग्रैंड करप्शनतरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी.
बात इसी अप्रैल की है. वित्त मंत्री अरुण जेटली सीबीआइ दिवस पर कह रहे थे कि देश की शीर्षस्थ जांच एजेंसी को फैसलों में गलती (ऑनेस्ट एरर) और भ्रष्टाचार में फर्क समझना होगा. इसके लिए सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून को भी बदलेगी. वित्त मंत्री की बात अफसरों के कानों में शहद घोल रही थी क्योंकि भ्रष्टाचार की दुनिया तोवैसे भी बचने के विभिन्न रास्तों से भरी पड़ी है. इस बीच अगर सरकार का सबसे ताकतवर मंत्री ईमानदार गलती और भ्रष्टाचार के बीच फर्क करने की सलाह दे रहा है तो यह मुंहमांगी मुराद जैसा था. अलबत्ता यह अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तर्क का सबसे पहला इस्तेमाल सरकार को अपनी वरिष्ठतम मंत्री सुषमा स्वराज के बचाव में करना पड़ेगासरकार में आते ही जिनकी कथित मानवीयता कानून की नजर में बड़े गुनाहगार के काम आई है. आइपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी के खिलाफ फरारी के नोटिस की पुष्टि करने के बादसुषमा के बचाव में वित्त मंत्री अरुण जेटली के पास साफ नीयत की दुहाई के अलावा और कुछ नहीं था. ऐसा लग रहा था कि मानो जेटलीसुषमा-ललित मोदी प्रकरण को ऑनेस्ट एरर कहना चाहते थे.  
इसी जगह हमने जून की शुरुआत में (http://goo.gl/cVAy8P) लिखा था कि मोदी सरकार ने पिछले एक साल में ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे पारदर्शिता बढ़ना तो दूर, बने रहने का भी भरोसा जगता हो. इसलिए भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार की साख खतरे में है. अब जब कि सुषमा-ललित मोदी-वसुंधरा प्रकरण में सरकार बुरी तरह लिथड़ चुकी है तो यह समझना जरूरी है कि पारदर्शिता का परचम लहराने वाली एनडीए सरकार के लिए पहले ही साल में यह नौबत क्यों आ गई, यूपीए जिससे अपनी दूसरी पारी के अंत में दो चार हुई थी.
सवाल बेशक पूछा जाना चाहिए कि प्रवर्तन निदेशालय ने ललित मोदी को वह नोटिस पिछले एक साल में क्यों नहीं भेजे जो यह प्रकरण खुलने के बाद दागे गए हैं? मोदी सरकार ने पिछले एक साल में यूपीए के घोटालों की जांच को कोई गति नहीं दी. एयरसेल मैक्सिस, नेशनल हेराल्ड, सीडब्ल्यूजी, आदर्श, वाड्रा, महाराष्ट्र सिंचाई जैसे बड़े घोटालों में जांच जहां की तहां ठप पड़ी है. इनमें आइपीएल भी शामिल है, जिसकी जांच अगर गंभीरता से होती तो ललित मोदी वर्ल्ड टूर पर न होते. सरकार के देखते देखते व्यापम घोटाले के प्रमुख सूत्र मौत का शिकार होते चले गए. राष्ट्रमंडल घोटाले में जमानत पर रिहा सुरेश कलमाडी व उनके सहायक ललित भनोत एशियन एथलेटिक्स एसोसिएशन के पदाधिकारी बन गए और बीजेपी बेदाग सरकार का पोस्टर बांटती रही. नतीजा यह हुआ है कि राज्यों में भी भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच धीमी पड़ गई है. घोटालों की जांच से बचना सदाशयता नहीं है बल्कि यह साहस व संकल्प की कमी है जिसने पारदर्शिता को लेकर मोदी सरकार की बोहनी खराब कर दी है.
ईमानदार गलती व भ्रष्टाचार के बीच अंतर बताने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 13 को बदलने की कोशिशों पर सवाल इसलिए नहीं उठे थे क्योंकि फैसलों की रक्रतार बढ़ाने और अधिकारियों को दबाव से मुक्त करने पर विरोध था बल्कि अपेक्षा यह थी कि सरकार ऐसा करने से पहले लोकपाल गठित करेगी और सतर्कता ढांचे को मजबूत करेगी ताकि पारदर्शिता को लेकर भरोसा बन सके. सरकार ने नियामकों और निगहबानों को ताकत देना तो दूर पारदर्शिता की उपलब्ध खिड़कियों पर भी पर्दे टांग दिए. सूचना के अधिकार पर पहरे बढ़ा दिए गए. सरकार के फैसलों पर पूछताछ वर्जित हो गई और स्वयंसेवी संस्थाओं के हर कदम की निगहबानी होने लगी. पारदर्शिता के मौजूदा तंत्र पर रोक और नए ढांचे की अनुपस्थिति से कामकाज की गति तो तेज नहीं हुई अलबत्ता सरकार के इरादे जरूर गंभीर सवालों में घिर गए. 
सवाल तो बनता ही है कि क्रिकेट में 2008 से लेकर आज तक दर्जनों घोटाले हुए हैं और बीजेपी हर घोटाले के विरोध में आगे रही है तो सत्ता में आने के बाद क्रिकेट को साफ करने के कदम क्यों नहीं उठाए गए जबकि विपक्ष में रहते हुए यह पार्टी इसके लिए कानून की मांग कर रही थी. साफ-सुथरी सरकार का यह चेहरा समझ से परे था जिसमें बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे थे. इस संसदीय समिति लामबंदी के बाद सरकार ने खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का फैसला अंततः ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनसेवाओं को पारदर्शी बनाने, छोटे और बड़े भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक संस्थागत ढांचा बनाने और नियामक संस्थाओं की मजबूती पर ध्यान न देने से पारदर्शिता को लेकर सरकार में यथास्थितिवाद पैठ गया है. इसकी वजह से पहले ही साल में एक बड़ी गफलत सामने आ गई है.
ललित मोदी-वसुंधरा-सुषमा प्रकरण भारत में उच्च पदों पर हितों के टकराव और फायदों के लेन-देन का बेहद ठोस उदाहरण है. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा के बेटे की कंपनी में ललित मोदी का निवेश और सुषमा स्वराज परिवार से मोदी के प्रोफेशनल व निजी रिश्ते प्रामाणिक हैं. वित्तीय धांधली के आरोपी ललित मोदी को इन रिश्तों के बदले मिले फायदे भी दस्तावेजी हैं. बीजेपी इन मामलों पर बचाव के लिए कांग्रेस के धतकरमों को ढाल बना सकती है लेकिन बात भ्रष्टाचार में प्रतिस्पर्धा की नहीं है बल्कि पिछली सरकार से प्रामाणिक रूप से अलग होने की है.
अपनी ताजा यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी को चीन के स्वच्छता मिशन के बारे में जरूर पता चला होगा, जहां राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी ही पार्टी के 1.82 लाख पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार को लेकर कार्रवाई कर चुके हैं. भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार से भी ऐसे ही साहस की अपेक्षा थी क्योंकि मोदी, सत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकराव, कॉर्पोरेट और नेता गठजोड़, क्रोनी कैपटिलिज्म, ग्रैंड करप्शन, तरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी. मोदी को समझना होगा कि उच्च पदों पर पारदर्शिता तय करना उनको मिले जनादेश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है और इस मामले में उनकी सरकार की फिसलन शुरू हो चुकी है.

Monday, June 15, 2015

'बुलेट ट्रेन' का यू टर्न


रेलवे को बदलने पर यू टर्न मोदी सरकार के संकल्प में कमजोरी का पहला ऐलान था. इससे एक विशाल आबादी की बड़ी उम्मीदें मुरझा गईं जिसके पास परिवहन के लिए रेलवे के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
ह पिछले साल नवंबर का आखिरी हफ्ता था जब प्रधानमंत्री गुवाहाटी व मेंदीपाथर (मेघालय) के बीच ट्रेन को हरी झंडी दिखाते हुए कह रहे थे, रेलवे की सुविधाएं 100 साल पुरानी दिखती हैं. रेलवे स्टेशनों का निजीकरण कीजिए. उन्हें आधुनिक बनाइए. स्टेशन एयरपोर्ट से अच्छे होने चाहिए. रेलवे को अपनी जमीन पर        लग्जरी होटल बनाने के लिए निजी क्षेत्र को आमंत्रित करना चाहिए. रेलवे को समझने वाले मानेंगे कि यह बड़ी बात थी. भारत का कोई प्रधानमंत्री पहली बार रेलवे के निजीकरण की चर्चा का साहस दिखा रहा था. लेकिन ठीक एक माह के भीतर सब कुछ बदल गया. प्रधानमंत्री ने वाराणसी के डीजल इंजन कारखाने पहुंचने के बाद कहा, रेलवे के निजीकरण को लेकर अफवाहें फैलाई जा रही हैं, न मैंने कभी ऐसा सोचा है और न कभी करूंगा. रेलवे को बदलने पर यू टर्न न केवल कठोर सुधारों को लेकर मोदी सरकार के संकल्प में कमजोरी का पहला ऐलान था, बल्कि इससे एक विशाल आबादी की उम्मीदें भी मुरझा गईं जिसके पास परिवहन के लिए रेलवे के अलावा कोई विकल्प नहीं है और जिसे बुलेट ट्रेन का सपना दिखाया गया था.
अंदाजा नहीं था कि कि सत्ता में आते ही रेलवे में विदेशी निवेश का बिगुल बजाने वाली मोदी सरकार कुछ ही महीनों में इतनी दब्बू हो जाएगी कि रेलवे के पुनर्गठन पर बात करने से भी डरेगी. सरकार अब भले ही रेलवे को घिसटता हुआ बनाए रखने पर मुतमइन हो लेकिन हकीकत यह है कि रेलवे में सुधार अपेक्षाकृत आसान है. रेलवे के पास सुधारों के कई ब्लू प्रिंट मौजूद हैं. पिछले दो वर्ष में सात समितियां सुधारों की सिफारिश कर चुकी हैं. बिबेक देबरॉय कमेटी तो मोदी सरकार ने ही बनाई थी, जिसे रेलवे में सुधारों की महत्वाकांक्षी पहल माना गया था. लेकिन जब मार्च में इसकी अंतरिम रिपोर्ट आई तब तक रेलवे को बदलने के उत्साह को अनजाना डर निगल चुका था, इसलिए कमेटी ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में एकमुश्त सुधारों की सिफारिश को नरम कर दिया है.
इस महाकाय परिवहन कंपनी में सुधारों पर राजनैतिक सहमति बनाना मुश्किल नहीं है. भारतीय रेल में बदलाव के तर्क किसी आम आदमी के भी गले उतर जाएंगे, जो रोज इसमें धक्के खाता है. मसलन, दुनिया में कौन-सी परिवहन कंपनी 125 अस्पताल, 586 दवाखाने चलाती होगी? या विश्व की कौन रेलवे डिग्री कॉलेज और स्कूल चला रही होगी? स्वाभाविक है कि ट्रेन चलाना रेलवे का काम है, स्कूल-अस्पताल चलाना नहीं. ठीक इसी तरह दुनिया की कोई बस सेवा या एयर सर्विस अपने लिए बसें और विमान नहीं बनाती होगी या सड़कें और हवाई अड्डे नहीं चलाती होगी. इसलिए जब देबरॉय समिति ने रेलवे के बुनियादी ढांचे को अलग कंपनी को सौंपने, कोच, इंजन व धुरा-पहिया बनाने वाली रेलवे की छह इकाइयों को मिलाकर इंडियन रेलवे मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाने और स्कूलों को केंद्रीय विद्यालय को सौंपने की सिफारिश की तो सरकार को सांप सूंघ गया. देबरॉय समिति ने रेलवे के पुनर्गठन के लिए ब्रिटेन, जर्मनी, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया के मॉडल सुझाए हैं, जिनका हवाला मोदी के संबोधनों में मिलता है जब वे जापान व चीन की तर्ज पर रेलवे को आधुनिक बनाने की बात करते थे.
रेलवे को लेकर दूरदर्शिता भाषणों तक रह गई. इसका बड़ा प्रमाण डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर (डीएफसी) है, जो 2005 से लटका है. यह प्रोजेक्ट रेलवे में माल परिवहन को तेज गति का नेटवर्क देने के लिए बना. इसके शुरू होने से वर्तमान नेटवर्क यात्री ट्रेनों के लिए खाली हो सकता है. डीएफसी के 3,300 किमी के पश्चिम (हरियाणा से महाराष्ट्र) और पूर्व (पंजाब से पश्चिम बंगाल) गलियारे स्वीकृत हो चुके हैं. पूर्वी कॉरिडोर में पटरी बिछाने के लिए टाटा और एलऐंडटी के नेतृत्व में दो संयुक्त उपक्रम भी बन चुके हैं. मोदी सरकार चाहती तो इन्हें सक्रिय करने के साथ रेलवे को बुनियादी ढांचे और मैन्युफैक्चरिंग (मेक इन इंडिया) का झंडाबरदार बना सकती थी.
रेलवे से प्रधानमंत्री के भावनात्मक रिश्तों पर तमाम कविताई के बावजूद, पिछले एक साल में सरकार ने रेलवे में सुधारों की लगभग सभी तैयारियों को फाइलों की नींद सुला दिया है. रेलवे के पुनर्गठन की बात करना मना है और निजीकरण की चर्चा पर करंट लगता है. देबरॉय कमेटी ने अंतरिम रिपोर्ट की सिफारिशों के विरोध को देखते हुए सुधारों से पहले एक स्वतंत्र नियामक की सिफारिश की है, जिससे सरकार कन्नी काटती रही है. भारतीय रेल फिलहाल सरकारी बीमा कंपनियों से मिले कर्ज पर चल रही है और रेलवे से लेकर यात्रियों तक सब जगह यह एहसास गाढ़ा हो चला है कि रेलवे में तेज सुधार दूर की कौड़ी हैं. ताजा हालात में रेलवे में विदेशी निवेश आने की उम्मीद न के बराबर है. गैर-परिवहन गतिविधियों में विदेशी निवेश की इजाजत तो 2001 में ही मिल गई थी मथुरा और मधेपुरा में इंजन बनाने की परियोजनाएं सात साल से विदेशी निवेशकों के स्वागत में कालीन बिछाए बैठी हैं.
भारतीय रेल का हाल जानने के लिए, इस दहकती गर्मी में ट्रेनों में सफर करने के अलावा दूसरा रास्ता यह भी है कि आप गूगल की मदद से मोदी के उन भाषणों को पढ़ें, जो चुनाव से लेकर सत्ता में आने तक दिए गए थे. ये भाषण देश की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली में बदलाव की उम्मीदों के शिखर पर चढ़ने और ढह जाने का दस्तावेजी सबूत हैं. इनमें खास तौर पर पिछले साल 19 जनवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान में बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद का वह भाषण सबसे महत्वपूर्ण है, जहां से रेलवे में बदलाव की उम्मीद जगी थी. तब मोदी ने कहा था कि मारे पास विशाल रेलवे नेटवर्क है, लेकिन दुर्भाग्य से हमने इस पर ध्यान नहीं दिया. अगर रेलवे आधुनिक हो तो हम विकास को नई गति दे सकते हैं. यह पहली बार था जब कोई सत्ता की तरफ बढ़ते एक राजनैतिक दल का सबसे बड़ा नेता रेलवे में सुधारों की बात कर रहा था.

नई सरकार बनने के एक साल बाद आज रेलवे में सुधारों की ज्यादातर उम्मीदें अगर बुझती महसूस हो रही हैं तो हमें यह मानना पड़ेगा कि भारत की सबसे बड़ी परिवहन प्रणाली की बदहाली केवल पिछली सरकारों की अक्षमता का ही नतीजा नहीं है. भारतीय रेलवे अब एक सक्षम सरकार के असमंजस और डर का शिकार भी हो गई है.