Tuesday, August 4, 2015

सियासी कबीले में कलाम


डा.कलाम की सहजता व वैज्ञानिकता असंदिग्ध रूप से श्रेष्ठ है लेकिन राष्ट्रपति के तौर पर उनका चुनाव और देश की राजनीति की मुख्यधारा में उनका छोटा-सा कार्यकाल  सियासत पर ज्यादा गहरी टिप्पणियां करता है.

" वाजपेयी जी, यह मेरे लिए बहुत बड़ा मिशन है. राष्ट्रपति पद पर मेरे नामांकन के लिए मैं, सभी दलों की सहमति चाहता हूं. '' वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने जब यह शर्त तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने रखी तब उन्हें यह सूचना मिले दो घंटे बीत चुके थे कि वे राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए के प्रत्याशी होंगे. पहली सूचना भी वाजपेयी ने ही दी थी. दो घंटे के भीतर कलाम यह समझ चुके थे कि अगर बात बन सकती तो वे नहीं, बल्कि पी.सी. अलेक्जेंडर या उपराष्ट्रपति कृष्णकांत राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी होते. या फिर कौन जाने कि वाजपेयी खुद दौड़ में होते जैसा कि लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि रज्जू भैया वाजपेयी को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाना चाहते थे. अपनी उम्मीदवारी के लिए राजनैतिक सर्वानुमति की शर्त कलाम ने इसलिए रखी थी क्योंकि सर्वोच्च पदों को लेकर भारतीय राजनीति हमेशा से कबीलाई रही है, जिसमें कलाम जैसों के लिए जगह नहीं होती.
वे खुद को दलीय राजनीति के जवाबी कीर्तन में फंसने से बचाना चाहते थे. डॉ. कलाम की श्रेष्ठताओं के बावजूद सच यह है कि राजनीति की मुख्यधारा को फलांगते हुए एक टेक्नोक्रैट के राष्ट्रपति का प्रत्याशी बनने से भारतीय राजनीति का एक बड़ा खोल टूट गया था. सियासत उन्हें लेकर कभी स्वाभाविक नहीं रही इसलिए बाद में पूरी सियासी जमात ने मिलकर यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि कलाम का वाकया सरकार के अन्य क्षेत्रों में बड़े पदों पर परंपरा न बन जाए. कलाम की सहजता व वैज्ञानिकता असंदिग्ध रूप से श्रेष्ठ है लेकिन राष्ट्रपति के तौर पर चुनाव और देश की राजनीति की मुख्यधारा में उनका आगमन और छोटा-सा कार्यकाल (2002 से 2007) सियासत पर ज्यादा गहरी टिप्पणियां करता है. भारतीय राजनीति न केवल गहराई तक आनुवांशिक है बल्कि एक इसकी दूसरी पहचान यह भी है कि दलीय आग्रहों के बावजूद इसमें गजब की सामूहिकता है. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या मुख्यमंत्री जैसे पद राजनेताओं या राजनैतिक जड़ों वाले लोगों को लिए आरक्षित हैं और पिछले साठ वर्ष में सभी दलों ने सजग रहकर इस अलिखित संधि का बेहद दृढ़ता के साथ पालन किया है और देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद तक पहुंचे सभी लोग राजनैतिक अतीत के साथ आगे बढ़े हैं. इस पैमाने पर अपनी समग्र वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद कलाम अधिकतम गवर्नर या राजदूत हो सकते थे. उनका राष्ट्रपति होना हजार संयोगों का एक साथ मिल जाना था. कलाम को राष्ट्रपति बनाने के लिए राजनीति की हिचक सिर्फ इसलिए भी टूट सकी क्योंकि वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, जो सियासत के रवायती संस्कारों को लेकर उतने आग्रही नहीं थे. अगर वाजपेयी ने कलाम के चुनाव को प्रतिष्ठा न बनाया होता तो शायद एनडीए किसी दूसरे राजनैतिक प्रत्याशी पर समझौता कर लेता. क्योंकि कलाम न केवल 1998 में वाजपेयी मंत्रिमंडल में शामिल होने की पेशकश ठुकरा चुके थे बल्कि अपना पेशेवर कार्यकाल पूरा कर अन्ना यूनिवर्सिटी में शिक्षक के तौर पर अपने सेवानिवृत्त जीवन की तैयारी शुरू कर चुके थे. यकीनन, वे सियासत की दहलीजों पर मत्था टेके बगैर देश के प्रथम नागरिक हो गए. लेकिन साथ ही यह भी सच है कि कलाम की प्रतिष्ठा को नया शिखर राष्ट्रपति बनने के बाद ही मिला और वे इतने लोकप्रिय होंगे इसका अंदाजा खुद एनडीए को भी नहीं था. कलाम का सफल वैज्ञानिक होना उनकी लोकप्रियता की शायद उतनी बड़ी वजह नहीं था. वे भारतीय मध्य वर्ग और युवाओं के चहेते इसलिए बन सके क्योंकि एक नितांत गैर सियासी टेक्नोक्रैट चौंकाने वाले अंदाज में भारतीय राजनीति की परंपरा को ध्वस्त करता हुआ, स्फुलिंग की तरह राष्ट्रपति पद पर पहुंच गया. उनकी इस उड़ान ने पहली बार भारत के लोगों को भरोसा दिया था कि एक गैर राजनैतिक व्यक्ति अपनी क्षमता के बूते सत्ता के गढ़ ढहाकर राष्ट्रपति तक हो सकता है, अलबत्ता कलाम का यही मॉडल सियासत के गले नहीं उतरा. कलाम के राष्ट्रपति बनने तक वाजपेयी सरकार का उत्तरार्ध शुरू हो गया था जबकि उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी. उनका शेष कार्यकाल यूपीए के साथ बीता, जिसने एक क्षमतावान राष्ट्रपति की सक्रियता को सीमित कर दिया, जो भारत का ब्रांड एम्बेसडर हो सकता था. उस दौरान दिल्ली के सियासी गलियारों में यह किस्से आम थे कि किस तरह यूपीए ने कलाम की उड़ान को रोक दी है. उन्हें दूसरा कार्यकाल नहीं मिलना था क्योंकि तब तक पारंपरिक राजनीति कलाम जैसों को शिखर पर रखने का जोखिम समझ चुकी थी. अलबत्ता एक जनप्रिय पूर्व राष्ट्रपति का महज एक व्याख्याता बनकर रह जाना, उनकी क्षमताओं के साथ न्याय हरगिज नहीं था.
कलाम की जली सियासत प्रोफेशनलों को फूंक-फूंककर चुनने लगी. उनके बाद प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति भवन पहुंचते ही पुराना मॉडल वापस स्थापित हो गया और सत्ता में अन्य पदों पर गैर राजनेताओं के प्रवेश को लेकर सतर्कता पहले से ज्यादा बढ़ गई. मिसाइलमैन कलाम के राष्ट्रपति बनने के बाद के वर्षों में सर्वोच्च पदों पर किसी गैर राजनेता को लाने की जोखिम नहीं लिया गया. और जहां भी क्षमतावान गैर राजनेता या प्रोफेशनल लाने पड़े, वहां राजनैतिक नेतृत्व हमेशा सशंकित बना रहा. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और सरकार के रिश्ते इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं.  कलाम का वैज्ञानिक और चिंतक होना नहीं बल्कि उनका राष्ट्रपति बनना भारत के राजनैतिक इतिहास की एक दुर्लभ घटना है, क्योंकि कलाम न तो आनुवांशिक नेता थे और न ही दलीय राजनीति में उनका कभी बपतिस्मा हुआ था. आदर्श परिस्थतियों में कलाम के राष्ट्रपति बनने को परंपरा बनाया जाना चाहिए था क्योंकि सत्ता के प्रमुख पदों पर विशेषज्ञों और पेशेवरों को लाने की हिचक खत्म हो गई थी. लेकिन जैसा कि रघुबीर सहाय ने लिखा है स्वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग/एक स्वाधीन व्यक्ति से! दरअसल कलाम की स्वाधीनता ने पारंपरिक सियासत को पर्याप्त मात्रा में चौंका दिया है. उम्मीद कम ही है कि निकट भविष्य में भारतीय राजनीति कलाम जैसी किसी दूसरी शख्सियत को सत्ता के शिखर पर लाने का साहस जुटा पाएगी.

Wednesday, July 29, 2015

पारदर्शिता का तकाजा


एक साल में गवर्नेंस में पारदर्शिता को लेकर नए उपाय करना तो दूर, मोदी सरकार ने मौजूदा व्यवस्था से ही असहमति जता दी. नतीजतन, आज वह उन्हीं सवालों से घिरी है, जिनसे वह कांग्रेस को शर्मसार करती थी


माना कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज (संदर्भः ललित मोदी) उदारमना हैं. शिवराज सिंह चौहान व्यापम घोटाले के व्हिसलब्लोअर हैं और वसुंधरा पर लगे आरोप प्रामाणिक नहीं हैं लेकिन यह सवाल तो फिर भी बना रहता है कि मोदी सरकार को क्रिकेट की साफ सफाई से किसने रोका था? व्यापम घोटाले की जांच के लिए अदालती चाबुक का इंतजार क्यों किया गया? खेलों में फर्जीवाड़ा रोकने वाले विधेयक को कानूनी जामा पहनाने में कौन बाधा डाल रहा है? पारदर्शिता के लिए कानूनी और संस्थागत ढांचा बनाने में कौन-सी समस्या है? मोदी सरकार अगर इस तरह के कदमों व फैसलों के साथ आज संसद में खड़ी होती तो एक साल के भीतर भ्रष्टाचार पर उसे उन्हीं सवालों का सामना नहीं करना पड़ता जो वह पिछले कई वर्षों से लगातार कांग्रेस से पूछती रही है. संसद की खींचतान से ज्यादा गंभीर पहलू यह है कि मोदी सरकार के पहले एक साल में उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर वह बेबाक फर्क नजर नहीं आया जिसकी उम्मीद उससे की गई थी. केंद्र से लेकर राज्यों तक बीजेपी को शर्मिदगी में डालने वाले ताजे विवाद दरअसल गवर्नेंस की गलतियां हैं, सत्ताजन्य अहंकार या बेफिक्री जिनकी वजह होती है. ये गलतियां पहले ही साल में इसलिए आ धमकीं क्योंकि पिछले एक साल में गवर्नेंस में पारदर्शिता को लेकर नए उपाय करना तो दूर, सरकार ने मौजूदा व्यवस्था से ही असहमति जता दी. दागी व्यक्ति से दूरी बनाना सामान्य सतर्कता है. इसलिए जब सुषमा स्वराज जैसी तजुर्बेकार मंत्री कानून की नजर में अपराधी ललित मोदी की मदद के लिए इतने बेधड़क होकर अपने पद का इस्तेमाल करती हैं तो अचरज होना लाजिमी है. स्वराज और ललित मोदी के बीच पारिवारिक व पेशेवर रिश्तों की रोशनी में सुषमा को और ज्यादा सतर्क होना चाहिए था. पूर्व आइपीएल प्रमुख की मदद अगर विदेश मंत्री की गलती है तो यह चूक दरअसल सत्ता में होने की बेफिक्री का नतीजा है. ललित मोदी के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी होने पर सुषमा ज्यादा मुश्किल में होंगी.
पंकजा मुंडे के चिक्की व खिचड़ी खरीद फैसलों को देखकर अदना-सा क्लर्क भी यह बता देगा कि इस तरह के निर्णय सत्ता की ताकत सिर चढऩे की वजह से होते हैं. राज्य सरकार के नियमों के मुताबिक, एक करोड़ रुपए से ऊपर की खरीद टेंडर से ही हो सकती है जबकि पंकजा ने एकमुश्त 206 करोड़ रु. की खरीद कर डाली. इस सप्ताह विधानसभा में उन्होंने यह गलती मान भी ली. महाराष्ट्र में खेती मशीनों की खरीद का 150 करोड़ रु. और घोटाला खुला है, जिसमें टेंडर के सामान्य नियमों का खुला उल्लंघन किया गया है. फिक्र होनी चाहिए कि अगर बीजेपी की नई सरकारों में अन्य मंत्रियों ने भी सुषमा या पंकजा की तरह मनमाने फैसले किए हैं तो फिर पार्टी और मोदी सरकार के लिए आने वाले महीनों में कई बड़ी मुश्किलें तैयार हो रही हैं. सिर्फ शांता कुमार ही नहीं, बीजेपी में कई लोग यह कहते मिल जाएंगे कि पारदर्शिता को लेकर मोदी सरकार को कहीं ज्यादा सख्त होना चाहिए था. सख्ती दिखाने के मौकों की कमी भी नहीं थी. मसलन, सत्ता में आने के बाद बीजेपी स्पोर्टिंग फ्रॉड विधेयक को पारित कर सकती थी ताकि क्रिकेट का कीचड़ साफ हो सके. सट्टेबाजी जैसे अपराधों के लिए जेल व भारी जुर्माने की सजा का प्रावधान करने वाला विधेयक दो साल से लंबित है और इसके बिना लोढ़ा समिति की सिफारिशों के तहत सजा पाए मयप्पन और कुंद्रा पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं हो सकती. इसी क्रम में खेल संघों को कानून के दायरे लाने की पहल भी खेलों को साफ-सुथरा बनाने के प्रति मोदी सरकार की गंभीरता का सबूत बन सकती थी. लेकिन पारदर्शिता के आग्रहों को मजबूत करने की बजाए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने न केवल सीबीआइ को यह सलाह दे डाली कि उसे फैसलों में ईमानदार गलती (ऑनेस्ट एरर) व भ्रष्टाचार में फर्क समझना होगा, बल्कि इसके लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में बदलाव की तैयारी भी शुरू कर दी. बजट सत्र के अंत में सरकार व्हिसलब्लोअर कानून में संशोधन ले आई, जिसके तहत भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने को बुरी तरह हतोत्साहित करने का प्रस्ताव है. अगर यह संशोधन पारित हुआ तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लगभग असंभव हो जाएगी. अगर सूचना के अधिकार पर ताजे पहरे इस फेहरिस्त में जोड़ लिए जाएं तो गवर्नेंस में पारदर्शिता को लेकर सरकार की नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है. ताजा विवाद यह महसूस कराते हैं कि सरकार न केवल गवर्नेंस और गलतियों बल्कि भूलों के बचाव में भी कांग्रेसी तौर-तरीकों की ही मुरीद है. मध्य प्रदेश के गवर्नर रामनरेश यादव को फरवरी में ही विदा हो जाना चाहिए था जब व्यापम घोटाले में एफआइआर हुई थी. सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश के बाद तो उनके पद पर बने रहने का मतलब ही नहीं है. यह मानते हुए कि यादव, भोपाल के राजभवन में कांग्रेस की विरासत हैं, उन्हें बनाए रखकर सरकार यूपीए जैसी फजीहत को न्योता दे रही है. सुषमा व पंकजा जैसे मंत्रियों की 'भूलें' बताती हैं कि बीजेपी की सरकारों में भी पारदर्शिता के आग्रह मजबूत नहीं हैं. ताजा विवाद, उच्च पदों पर भ्रष्टाचार को लेकर सरकार के नेतृत्व का असमंजस जाहिर करते हैं. यूपीए सरकार भी ठीक इसी तरह उच्च पदों पर भ्रष्टाचार को लेकर दो टूक फैसलों से बचती रही. नतीजतन अदालतों ने सख्ती की और सरकार अपनी साख गंवा बैठी. मोदी सरकार सत्ता में आने के बाद पहली बार रक्षात्मक दिख रही है और भ्रष्टाचार पर अदालतें फिर सक्रिय (व्यापम) हो चली हैं. प्रधानमंत्री को एहसास होना चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त हुए बिना बात नहीं बनेगी. इसके लिए उन्हें उच्च पदों पर पारदर्शिता के कठोर प्रतिमान तय करने होंगे, क्योंकि संसद में विपक्ष का गतिरोध उतनी बड़ी चुनौती नहीं है, ज्यादा बड़ी उलझन यह है कि जो सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश पर सवार होकर सत्ता में पहुंची वह एक साल के भीतर भ्रष्टाचार को लेकर बचाव की मुद्रा में है. यह नरेंद्र मोदी को लेकर बनी उम्मीदों का जबरदस्त ऐंटी-क्लाइमेक्स है.


Tuesday, July 21, 2015

इतना तो हो सकता है!


शिक्षा में बड़े सुधारों में समय लगना लाजिमी है लेकिन चुनिंदा सरकारी परीक्षाओं और भर्तियों का ढांचा ठीक करने के लिए सरकार को राज्य सभा में किस बहुमत की दरकार है?

स बार ऑल इंडिया प्री मेडिकल रीटेस्ट के परीक्षार्थी जूते और पूरी बाजू की शर्ट पहनकर परीक्षा देने नहीं जा सकेंगे. उन्हें अंगूठी, चूड़ी, ब्रेसलेट, हेयर बैंड, हेयर क्लिप, ईयरिंग, स्कार्फ, धूप का चश्मा पहनने या पर्स, यहां तक कि पानी की बोतल ले जाने की छूट नहीं होगी. देश की सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल परीक्षा में नकल रोकने के लिए सीबीएसई के इस बेतुके इंतजाम पर आपको हैरत दिखाने का पूरा हक है लेकिन अचरज इस पर भी होना चाहिए कि व्यापम घोटाले की विरासत के साथ सत्ता में पहुंची बीजेपी ने पिछले एक साल में प्रमुख परीक्षाओं की दशा सुधारने पर गंभीर होना भी मुनासिब नहीं समझा. शिक्षा में सुधार में समय लग सकता है लेकिन परीक्षाओं का ढांचा ठीक करने के लिए पता नहीं सरकार को राज्यसभा में किस बहुमत की दरकार है
देश में नौकरियां हैं ही कितनी? उनमें भी सरकारी नौकरियां तो और भी कम हैं. पिछले चार साल में अकेले उत्तर भारत के राज्यों में करीब 20 परीक्षाएं और भर्तियां घोटालों की वजह से दागी होकर रद्द हो चुकी हैं या अदालतों में फंसी हैं. सरकारी परीक्षाओं और भर्ती में फर्जीवाड़ा न सिर्फ रोजगार रोकता है बल्कि जरूरी सेवाओं में कर्मचारियों की कमी बनाकर रखता है जो भ्रष्टाचार की एक और बड़ी वजह है. विशाल नौकरशाही और तमाम तकनीकों के बावजूद अगर केंद्र और राज्य सरकारें भी अपनी चुनिंदा परीक्षाएं व भर्तियां साफ-सुथरी नहीं कर सकतीं तो फिर हमें शिक्षा की गुलाबी बहसों पर जरा नए सिरे से गौर करना चाहिए, क्योंकि सरकारी नौकरियां और उनकी परीक्षाएं शिक्षा के विशाल परिदृश्य का एक फीसदी हिस्सा भी नहीं हैं.
सरकारी नौकरियों के लिए परीक्षाएं और भर्ती भारत का सबसे पुराना संगठित घोटाला है. इसका सबसे अनोखा पहलू यह है कि इसे सुधारने के लिए किसी बड़े नीतिगत आयोजन की जरूरत नहीं है. क्षमताएं बढ़ाकर, तकनीक लाकर और पारदर्शिता के सख्त नियम बनाकर इस लूट व शर्मिंदगी को आसानी से रोका जा सकता है. मसलन, मेडिकल परीक्षा को ही लें. 50,000 सीटों के लिए लाखों परीक्षार्थी संघर्ष करते हैं और सफलता का अनुपात 0.5 फीसदी से भी कम है. अगले पांच साल में देश में पर्याप्त मेडिकल सीटें  बनाने का मिशन आखिर कितना महंगा हो सकता है? खास तौर पर जब मोदी सरकार अरबों की लागत वाले मिशन हर महीने शुरू कर रही है.
हमें उम्मीद थी कि सरकार क्रिकेट में घोटाले पर भले ही ठिठक जाए लेकिन कम से कम भर्तियों में घोटाले, मेडिकल कॉलेजों का फर्जीवाड़ा, डोनेशन के खेल, फर्जी यूनिवर्सिटी की जांच के मामलों में तो नहीं हिचकेगी क्योंकि बीजेपी के बौद्धिकों को इस मर्ज की वजह मालूम है. सवाल पूछना जरूरी है कि सरकार ने पिछले एक साल में मेडिकल, टेक्निकल शिक्षा और निजी भागीदारी के मॉडल को चुस्त करने के लिए क्या किया जो कि हर तरह की लूट-खसोट से भरा है. भारत दुनिया में सबसे ज्यादा मेडिकल कॉलेजों वाला देश है लेकिन यहां न पर्याप्त सीटें हैं और न पर्याप्त डॉक्टर, क्योंकि मेडिकल कॉलेजों में औसत 100 से 150 सीटें होती हैं. बड़े कॉलेज बनाकर न केवल मेडिकल सीटों का खुदरा बाजार बंद हो सकता है बल्कि मेडिकल शिक्षा में फर्जीवाड़ा भी रुक सकता है. इसी तरह एमबीए और इंजीनियरिंग में कम नौकरियां और ज्यादा प्रशिक्षितों का असंतुलन है.
यह अपेक्षा करना गलत नहीं था कि सूचना तकनीक की संभावनाओं पर हमेशा रीझने वाली सरकार देश में सभी सरकारी परीक्षाओं को ऑनलाइन कराने का मिशन शुरू करेगी. डिग्रियों को जारी करने की प्रणाली को बायोमीट्रिक से जोड़ा जाएगा ताकि फर्जी डिग्रियों का पूरा तंत्र बंद हो सके. या नौकरियों, प्रशिक्षण की क्षमताओं, कॉलेजों और इंस्टीट्यूट को आपस में जोड़कर एक विशाल डाटाबेस बनेगा जो एक क्लिक पर शिक्षा से लेकर नौकरियों तक की तस्वीर बता सकेगा. दरअसल, यही तो वह डिजिटल इंडिया है जो हमें चाहिए. लेकिन देश को डिजिटल बनाने के नाम पर सरकारी प्रचार दिखाने वाले मोबाइल ऐप्लिकेशन थमा दिए गए हैं. मेडिकल, इंजीनियरिंग से लेकर प्रशासनिक और बैंकिंग तक सभी परीक्षाओं को ऑनलाइन कराना या सभी तरह की डिग्रियों को आधुनिक डिजिटल सिक्योरिटी से जोडऩा, अंतरिक्ष में प्लूटो की तलाश नहीं है. सिर्फ एक बड़े तकनीकी मिशन से पेपर लीक, सॉल्वर, नकल, फर्जी प्रमाणपत्रों का पूरा तंत्र खत्म हो सकता है.
शिक्षा के कारोबारियों के बीच एक चुटकुला प्रचलित है कि अगर किसी ने पिछले दो दशकों के दौरान कोई डिग्री ली है तो मुमकिन है कि वह उन पचास फीसदी लोगों में शामिल हो जिनकी डिग्रियां फर्जी हैं या उन्होंने जुगाड़ से परीक्षा पास की है. यदि ऐसा नहीं है तो वह डोनेशन देकर भर्ती हुआ होगा या उसकी परीक्षा का पर्चा लीक हुआ होगा. अगर यह भी नहीं है तो वह कम से कम किसी ऐसे कॉलेज में जरूर पढ़ा होगा जो किसी रसूखदार का है. या उसे सरकारी स्कूल में किसी ऐसे टीचर ने पढ़ाया होगा जो रिश्वत देकर नौकरी में आया. कुल मिलाकर यह कि शिक्षा में घोटाले क्रिकेट की तरह मसालेदार नहीं हैं, क्योंकि यह हमारी रोज की जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं. सरकारी भर्तियों और परीक्षाओं में हर तरह की धांधली से भलीभांति वाकिफ बीजेपी भी अगर इन्हें सुधारने के लिए कुछ नहीं कर पा रही है तो मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस जैसी षड्यंत्र कथाएं बनना लाजिमी है.

भारत को विश्व गुरु बनाने के सपनों के बीच अगर यहां मेडिकल की साफ-सुथरी परीक्षा के लिए छात्रों को कपड़े तक उतारने पड़ सकते हैं तो फिर हमें उम्मीदों की उड़ान को लगाम देनी होगी. शिक्षा और रोजगार की बड़ी बहसों के लिए हमारे पास वक्त है, पहले हम उन लाखों युवाओं की फिक्र कर लें जो नौकरियां तो छोड़िए, साफ-सुथरी परीक्षाओं के भी मोहताज हो चुके हैं. भारत को दुनिया में सबसे अच्छे मानव संसाधन का केंद्र बनाने के, प्रधानमंत्री के, सपने को सैकड़ों सलाम! लेकिन फिलहाल तो सरकारी परीक्षाएं भी अगर साफ सुथरी हो सकें तो यह उन युवाओं पर प्रधानमंत्री का बड़ा अहसान होगा जो जूझ घिसट कर किसी तरह पढ़ लिख गए हैं और अपनी काबिलियत के बूते, ईमानदारी से जिंदगी में कुछ हासिल करना चाहते हैं.