रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.
चीन की चरमराती अर्थव्यवस्था और
ग्लोबल करेंसी व वित्तीय बाजारों में उठापटक का भारत तत्काल कोई बड़ा फायदा उठाए या न नहीं, लेकिन इस माहौल का एक बड़ा लाभ जरूर हो सकता है. इस वित्तीय
बेचैनी के बीच हमारे नेता देश की करेंसी यानी रुपए को लेकर अपने दकियानूसी
आग्रहों से निजात पा सकते हैं. भारत में, बीजेपी और वामदल हमेशा से इस ग्रंथि के शिकार रहे हैं कि राष्ट्रीय साख के लिए फड़कती मांसपेशियों वाली करेंसी जरूरी है. उन्होंने यह बात सफलता के साथ सड़क पर खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाई है कि रुपए का कमजोर होना आर्थिक पाप है.
लेकिन
सियासत व बाजारों में पिछले एक साल के फेरबदल के बाद ऐसा संयोग बना है जब
करेंसी जैसे एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण की कीमत में गिरावट को
राष्ट्रीय शर्म बताकर चुनाव लडऩे वाली बीजेपी सत्ता में है और मजबूती देने
वाले तमाम कारकों की मौजूदगी के बावजूद रुपया अवमूल्यन की नई तलहटी छू रहा
है. यह अनोखी परिस्थिति मुद्रा यानी करेंसी को लेकर हमें अपनी
रूढ़िवादी सोच से मुक्त होने और डॉ. मनमोहन सिंह के उस सूत्र को स्वीकार करने
का निमंत्रण देती है जो उन्होंने 1991 में रुपए के
बड़े अवमूल्यन के बाद दिया था कि ''विनिमय दर केवल एक
मूल्य मात्र है जिसका प्रतिस्पर्धात्मक होना जरूरी है.''करेंसी अवमूल्यन को
लेकर भारत की राजनीति गजब की रूढ़िवादी रही है. 1991 के उथल-पुथल
भरे आर्थिक दौर पर कांग्रेस के नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश
की ताजा किताब भारतीय राजनीति की रुपया ग्रंथि के बारे में दिलचस्प
तथ्य सामने लाती है. जयराम रमेश संकट और सुधार के उस दौर में प्रधानमंत्री
के सलाहकारों में शामिल थे. रमेश के संस्मरण बताते हैं कि रुपए को
लेकर प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के आग्रह भले ही वामदलों या बीजेपी जैसे
रूढ़िवादी न रहे हों लेकिन अवमूल्यन को लेकर वे बुरी तरह अहसज थे.
1991 के वित्तीय संकट के दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक के जरिए, 1 जुलाई और 3 जुलाई, 1991 को रुपए की कीमत क्रमशः 7 व 9 फीसदी घटाई. उस वक्त तक यह रुपए का सबसे बड़ा अवमूल्यन था और वह भी सिर्फ 72 घंटों में. उस दौर में रुपए की कीमत पूरी तरह सरकार तय करती थी, आज की तरह बाजार नहीं. रमेश लिखते हैं कि प्रधानमंत्री राव इस फैसले से इतने असहज थे कि 3 जुलाई को सुबह वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर दूसरा अवमूल्यन रोकने का आदेश दे दिया. डॉ. सिंह ने समझाने की भरसक कोशिश की लेकिन प्रधानमंत्री सहज नहीं हुए. अंततः सुबह 9.30 बजे डॉ. सिंह ने रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन से इसे रोकने को कहा लेकिन तब तक देर हो गई थी, रिजर्व बैंक सुबह नौ बजे रुपए के दूसरे और बड़े अवमूल्यन को अंजाम दे चुका था. डॉ. सिंह ने राहत की सांस ली और प्रधानमंत्री को उत्साह के साथ फैसला सूचित कर दिया. अलबत्ता, फैसला इतना सहज नहीं था. अवमूल्यन के बाद संसद में लंबे समय तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को अपनी पार्टी व विपक्ष की लानतें झेलनी पड़ीं.
1991 से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक देश में काफी कुछ बदल गया लेकिन रुपए को लेकर नेताओं की हीन ग्रंथि में कोई तब्दीली नहीं आई. सत्ता में बैठने के बाद नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली को इस बात का एहसास हो रहा होगा कि कि उन्होंने रुपए की गिरावट को जिस तरह देश की साख से जोड़ा था, वह हास्यास्पद था. बाजार के जानकार रुपए की उठापटक को टेक्निकल चार्ट पर पढ़ते हैं. इस चार्ट के मुताबिक, रुपए में ताजी गिरावट (3 सितंबर 66.24 रुपए प्रति डॉलर) 2013 का दौर जैसी दिख रही है, जब रुपया 68.80 तक टूट गया था.
2013 का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि कमजोर रुपए को देश की कमजोरी बताने के राजनैतिक अभियान उसी दौरान जन्मे थे. 2013 में कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर थीं. भारत में विदेशी मुद्रा की आवक-निकासी के सभी संतुलन ध्वस्त थे. हालत इस कदर बुरी थी कि रिजर्व बैंक को रुपए पर संकट टालने के लिए उपायों का पूरा दस्ता मैदान में उतारना पड़ा तब जाकर कहीं हालत सुधरी. लेकिन आज जब कच्चे तेल की कीमतें 44 डॉलर पर हैं, फॉरेक्स रिजर्व 355 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर है, महंगाई घट रही है, व्यापार घाटा गिर रहा है, विदेशी आवक-निकासी में अंतर कम हो रहा है तब भी रुपया ताकत की हुंकार लगाने की बजाए 2013 की तर्ज पर गोते खा रहा है. यह परिस्थित सिद्ध करती है कि करेंसी एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण है, जिसे भावुक राष्ट्रीयता के संदर्भ में नहीं, बल्कि आर्थिक हालात की रोशनी में देखना ही समझदारी है.
वित्त मंत्री जेटली को रुपए की ताजा गिरावट का बचाव करना पड़े तो वे यही कहेंगे कि पिछले कुछ माह में फिलिपीन पेसो, थाई बाट और भारतीय रुपए के अलावा, उभरते बाजारों की सभी मुद्राएं गिरी थीं. इसलिए रुपए का 66-67 पहुंचना कोई बड़ी बात नहीं है. भारतीय मुद्रा निर्यात बाजार की अन्य प्रतिस्पर्धी मुद्राओं के मुकाबले कुछ ज्यादा ही मजबूत हो गई थी, इस अवमूल्यन से हमें निर्यात में बढ़त मिलेगी. यकीनन, उनके इस तर्क में आपको 1991 के डॉ. सिंह के ही शब्द सुनाई देंगे. जयराम रमेश की किताब में डॉ. सिंह का वह जवाब दर्ज है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद राज्यसभा में हुई बहस पर दिया था. उन्होंने कहा था कि अंग्रेज भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थे, औद्योगिक उत्पादों का निर्यातक नहीं. इसलिए घरेलू मुद्रा को हमेशा ताकतवर रखने के संस्कार भर दिए गए. रुपए का संतुलित अवमूल्यन हमें आधुनिक व प्रतिस्पर्धात्मक बनाता है तो वह राष्ट्र विरोधी कैसे हो जाएगा? आज डॉलर की कीमत 67 रुपए पर पहुंचते देख क्या मोदी-जेटली समेत पूरी बीजेपी यह स्वीकार करेगी कि हमेशा ताकतवर रुपए की वकालत ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति की हिमायत नहीं थी? क्या बीजेपी अब यह स्वीकार करेगी कि रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.
1991 के वित्तीय संकट के दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक के जरिए, 1 जुलाई और 3 जुलाई, 1991 को रुपए की कीमत क्रमशः 7 व 9 फीसदी घटाई. उस वक्त तक यह रुपए का सबसे बड़ा अवमूल्यन था और वह भी सिर्फ 72 घंटों में. उस दौर में रुपए की कीमत पूरी तरह सरकार तय करती थी, आज की तरह बाजार नहीं. रमेश लिखते हैं कि प्रधानमंत्री राव इस फैसले से इतने असहज थे कि 3 जुलाई को सुबह वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर दूसरा अवमूल्यन रोकने का आदेश दे दिया. डॉ. सिंह ने समझाने की भरसक कोशिश की लेकिन प्रधानमंत्री सहज नहीं हुए. अंततः सुबह 9.30 बजे डॉ. सिंह ने रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन से इसे रोकने को कहा लेकिन तब तक देर हो गई थी, रिजर्व बैंक सुबह नौ बजे रुपए के दूसरे और बड़े अवमूल्यन को अंजाम दे चुका था. डॉ. सिंह ने राहत की सांस ली और प्रधानमंत्री को उत्साह के साथ फैसला सूचित कर दिया. अलबत्ता, फैसला इतना सहज नहीं था. अवमूल्यन के बाद संसद में लंबे समय तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को अपनी पार्टी व विपक्ष की लानतें झेलनी पड़ीं.
1991 से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक देश में काफी कुछ बदल गया लेकिन रुपए को लेकर नेताओं की हीन ग्रंथि में कोई तब्दीली नहीं आई. सत्ता में बैठने के बाद नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली को इस बात का एहसास हो रहा होगा कि कि उन्होंने रुपए की गिरावट को जिस तरह देश की साख से जोड़ा था, वह हास्यास्पद था. बाजार के जानकार रुपए की उठापटक को टेक्निकल चार्ट पर पढ़ते हैं. इस चार्ट के मुताबिक, रुपए में ताजी गिरावट (3 सितंबर 66.24 रुपए प्रति डॉलर) 2013 का दौर जैसी दिख रही है, जब रुपया 68.80 तक टूट गया था.
2013 का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि कमजोर रुपए को देश की कमजोरी बताने के राजनैतिक अभियान उसी दौरान जन्मे थे. 2013 में कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर थीं. भारत में विदेशी मुद्रा की आवक-निकासी के सभी संतुलन ध्वस्त थे. हालत इस कदर बुरी थी कि रिजर्व बैंक को रुपए पर संकट टालने के लिए उपायों का पूरा दस्ता मैदान में उतारना पड़ा तब जाकर कहीं हालत सुधरी. लेकिन आज जब कच्चे तेल की कीमतें 44 डॉलर पर हैं, फॉरेक्स रिजर्व 355 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर है, महंगाई घट रही है, व्यापार घाटा गिर रहा है, विदेशी आवक-निकासी में अंतर कम हो रहा है तब भी रुपया ताकत की हुंकार लगाने की बजाए 2013 की तर्ज पर गोते खा रहा है. यह परिस्थित सिद्ध करती है कि करेंसी एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण है, जिसे भावुक राष्ट्रीयता के संदर्भ में नहीं, बल्कि आर्थिक हालात की रोशनी में देखना ही समझदारी है.
वित्त मंत्री जेटली को रुपए की ताजा गिरावट का बचाव करना पड़े तो वे यही कहेंगे कि पिछले कुछ माह में फिलिपीन पेसो, थाई बाट और भारतीय रुपए के अलावा, उभरते बाजारों की सभी मुद्राएं गिरी थीं. इसलिए रुपए का 66-67 पहुंचना कोई बड़ी बात नहीं है. भारतीय मुद्रा निर्यात बाजार की अन्य प्रतिस्पर्धी मुद्राओं के मुकाबले कुछ ज्यादा ही मजबूत हो गई थी, इस अवमूल्यन से हमें निर्यात में बढ़त मिलेगी. यकीनन, उनके इस तर्क में आपको 1991 के डॉ. सिंह के ही शब्द सुनाई देंगे. जयराम रमेश की किताब में डॉ. सिंह का वह जवाब दर्ज है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद राज्यसभा में हुई बहस पर दिया था. उन्होंने कहा था कि अंग्रेज भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थे, औद्योगिक उत्पादों का निर्यातक नहीं. इसलिए घरेलू मुद्रा को हमेशा ताकतवर रखने के संस्कार भर दिए गए. रुपए का संतुलित अवमूल्यन हमें आधुनिक व प्रतिस्पर्धात्मक बनाता है तो वह राष्ट्र विरोधी कैसे हो जाएगा? आज डॉलर की कीमत 67 रुपए पर पहुंचते देख क्या मोदी-जेटली समेत पूरी बीजेपी यह स्वीकार करेगी कि हमेशा ताकतवर रुपए की वकालत ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति की हिमायत नहीं थी? क्या बीजेपी अब यह स्वीकार करेगी कि रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.