Wednesday, September 9, 2015

रुपया और राष्‍ट्रवाद



रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.
चीन की चरमराती अर्थव्यवस्था और ग्लोबल करेंसी व वित्तीय बाजारों में उठापटक का भारत तत्काल कोई बड़ा फायदा उठाए या न नहीं, लेकिन इस माहौल का एक बड़ा लाभ जरूर हो सकता है. इस वित्तीय बेचैनी के बीच हमारे नेता देश की करेंसी यानी रुपए को लेकर अपने दकियानूसी आग्रहों से निजात पा सकते हैं. भारत में, बीजेपी और वामदल हमेशा से इस ग्रंथि के शिकार रहे हैं कि राष्ट्रीय साख के लिए फड़कती मांसपेशियों वाली करेंसी जरूरी है. उन्होंने यह बात सफलता के साथ सड़क पर खड़े अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाई है कि रुपए का कमजोर होना आर्थिक पाप है.
लेकिन सियासत व बाजारों में पिछले एक साल के फेरबदल के बाद ऐसा संयोग बना है जब करेंसी जैसे एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण की कीमत में गिरावट को राष्ट्रीय शर्म बताकर चुनाव लडऩे वाली बीजेपी सत्ता में है और मजबूती देने वाले तमाम कारकों की मौजूदगी के बावजूद रुपया अवमूल्यन की नई तलहटी छू रहा है. यह अनोखी परिस्थिति मुद्रा यानी करेंसी को लेकर हमें अपनी रूढ़िवादी सोच से मुक्त होने और डॉ. मनमोहन सिंह के उस सूत्र को स्वीकार करने का निमंत्रण देती है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद दिया था कि ''विनिमय दर केवल एक मूल्य मात्र है जिसका प्रतिस्पर्धात्मक होना जरूरी है.''करेंसी अवमूल्यन को लेकर भारत की राजनीति गजब की रूढ़िवादी रही है. 1991 के उथल-पुथल भरे आर्थिक दौर पर कांग्रेस के नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की ताजा किताब भारतीय राजनीति की रुपया ग्रंथि के बारे में दिलचस्प तथ्य सामने लाती है. जयराम रमेश संकट और सुधार के उस दौर में प्रधानमंत्री के सलाहकारों में शामिल थे. रमेश के संस्मरण बताते हैं कि रुपए को लेकर प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के आग्रह भले ही वामदलों या बीजेपी जैसे रूढ़िवादी न रहे हों लेकिन अवमूल्यन को लेकर वे बुरी तरह अहसज थे.
1991
के वित्तीय संकट के दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने रिजर्व बैंक के जरिए, 1 जुलाई और 3 जुलाई, 1991 को रुपए की कीमत क्रमशः 7 9 फीसदी घटाई. उस वक्त तक यह रुपए का सबसे बड़ा अवमूल्यन था और वह भी सिर्फ  72 घंटों में. उस दौर में रुपए की कीमत पूरी तरह सरकार तय करती थी, आज की तरह बाजार नहीं. रमेश लिखते हैं कि प्रधानमंत्री राव इस फैसले से इतने असहज थे कि 3 जुलाई को सुबह वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर दूसरा अवमूल्यन रोकने का आदेश दे दिया. डॉ. सिंह ने समझाने की भरसक कोशिश की लेकिन प्रधानमंत्री सहज नहीं हुए. अंततः सुबह 9.30 बजे डॉ. सिंह ने रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन से इसे रोकने को कहा लेकिन तब तक देर हो गई थी, रिजर्व बैंक सुबह नौ बजे रुपए के दूसरे और बड़े अवमूल्यन को अंजाम दे चुका था. डॉ. सिंह ने राहत की सांस ली और प्रधानमंत्री को उत्साह के साथ फैसला सूचित कर दिया. अलबत्ता, फैसला इतना सहज नहीं था. अवमूल्यन के बाद संसद में लंबे समय तक प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को अपनी पार्टी व विपक्ष की लानतें झेलनी पड़ीं.

1991
से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव तक देश में काफी कुछ बदल गया लेकिन रुपए को लेकर नेताओं की हीन ग्रंथि में कोई तब्दीली नहीं आई. सत्ता में बैठने के बाद नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली को इस बात का एहसास हो रहा होगा कि कि उन्होंने रुपए की गिरावट को जिस तरह देश की साख से जोड़ा था, वह हास्यास्पद था. बाजार के जानकार रुपए की उठापटक को टेक्निकल चार्ट पर पढ़ते हैं. इस चार्ट के मुताबिक, रुपए में ताजी गिरावट (3 सितंबर 66.24 रुपए प्रति डॉलर) 2013 का दौर जैसी दिख रही है, जब रुपया 68.80 तक टूट गया था.

2013
का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि कमजोर रुपए को देश की कमजोरी बताने के राजनैतिक अभियान उसी दौरान जन्मे थे. 2013 में कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर थीं. भारत में विदेशी मुद्रा की आवक-निकासी के सभी संतुलन ध्वस्त थे. हालत इस कदर बुरी थी कि रिजर्व बैंक को रुपए पर संकट टालने के लिए उपायों का पूरा दस्ता मैदान में उतारना पड़ा तब जाकर कहीं हालत सुधरी. लेकिन आज जब कच्चे तेल की कीमतें 44 डॉलर पर हैंफॉरेक्स रिजर्व 355 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर है, महंगाई घट रही है, व्यापार घाटा गिर रहा है, विदेशी आवक-निकासी में अंतर कम हो रहा है तब भी रुपया ताकत की हुंकार लगाने की बजाए 2013 की तर्ज पर गोते खा रहा है. यह परिस्थित सिद्ध करती है कि करेंसी एक परिवर्तनशील वित्तीय उपकरण है, जिसे भावुक राष्ट्रीयता के संदर्भ में नहीं, बल्कि आर्थिक हालात की रोशनी में देखना ही समझदारी है.
 
वित्त मंत्री जेटली को रुपए की ताजा गिरावट का बचाव करना पड़े तो वे यही कहेंगे कि पिछले कुछ माह में फिलिपीन पेसो, थाई बाट और भारतीय रुपए के अलावा, उभरते बाजारों की सभी मुद्राएं गिरी थीं. इसलिए रुपए का 66-67 पहुंचना कोई बड़ी बात नहीं है. भारतीय मुद्रा निर्यात बाजार की अन्य प्रतिस्पर्धी मुद्राओं के मुकाबले कुछ ज्यादा ही मजबूत हो गई थी, इस अवमूल्यन से हमें निर्यात में बढ़त मिलेगी. यकीनन, उनके इस तर्क में आपको 1991 के डॉ. सिंह के ही शब्द सुनाई देंगे. जयराम रमेश की किताब में डॉ. सिंह का वह जवाब दर्ज है जो उन्होंने 1991 में रुपए के बड़े अवमूल्यन के बाद राज्यसभा में हुई बहस पर दिया था. उन्होंने कहा था कि अंग्रेज भारत को प्राथमिक उत्पादों का निर्यातक बनाकर रखना चाहते थे, औद्योगिक उत्पादों का निर्यातक नहीं. इसलिए घरेलू मुद्रा को हमेशा ताकतवर रखने के संस्कार भर दिए गए. रुपए का संतुलित अवमूल्यन हमें आधुनिक व प्रतिस्पर्धात्मक बनाता है तो वह राष्ट्र विरोधी कैसे हो जाएगा? आज डॉलर की कीमत 67 रुपए पर पहुंचते देख क्या मोदी-जेटली समेत पूरी बीजेपी यह स्वीकार करेगी कि हमेशा ताकतवर रुपए की वकालत ब्रिटिश औपनिवेशिक आर्थिक नीति की हिमायत नहीं थी? क्या बीजेपी अब यह स्वीकार करेगी कि रुपए के अवमूल्यन में पाप या अपमान जैसा कुछ नहीं है. अगर आप बाजार में हैं तो आपको प्रतिस्पर्धी होना ही चाहिए.

Wednesday, September 2, 2015

जीएसटी है, कोई जादू नहीं


जीएसटी में जितनी उम्मीदें पैवस्त हैंजटिलताओं व किंतु-परंतुओं का हिस्सा उनसे ज्यादा बड़ा हैउम्‍मीदों को तर्कसंगत रखने के लिए जिन्‍हें समझना जरुरी है।
ह शायद हमारी चमत्कारप्रियता का नतीजा ही है कि हम वैसे ही सोचने लगते हैं, जैसा कि सियासत या सरकारें हमसे चाहती  हैं. जैसे, जादू-टोने के कद्रदान हम हिंदुस्तानी यह समझ रहे थे कि कांग्रेस तरक्की का कोई स्विच चुरा ले गई है नई सरकार आते ही उसे फिट कर देगी और सब कुछ चमक उठेगा. ठीक उसी तरह हमें समझाया गया कि गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) लागू होते ही विकास दर छलांगे लगाने लगेगी. यह बात अलग है कि बीजेपी को भी जीएसटी में कमजोर ग्रोथ का शर्तिया इलाज, गद्दीनशीन होने के बाद ही नजर आया. इससे पहले तक जीएसटी महज एक टैक्स सुधार था, जिसमें जल्दबाजी को लेकर बीजेपी को गहरी आपत्ति थी. फिर भी सियासत को माफ किया जा सकता है. ज्यादा बड़ा अचरज यह है कि निवेशकों से विशेषज्ञ तक, सब जीएसटी की बारात में शामिल हो गए. शुक्र है कि सरकार, जब जीएसटी के बुनियादी विधेयक को पारित कराने के लिए संसद के विशेष सत्र की तैयारी कर रही है, तब इस टैक्स सुधार को लेकर तर्कहीन उत्साह की गर्द बैठने लगी है और इसे वास्तविकता की रोशनी में देखने की कोशिश शुरू हो गई है.
जीएसटी के मामले में विपक्ष और पक्ष, दोनों ही खेमों को धन्य कर चुकी बीजेपी को सरकार में आने के बाद उम्मीदों को तर्क का आधार देना चाहिए था. जीएसटी में जितनी उम्मीदें पैवस्त हैं, जटिलताओं व किंतु-परंतुओं का हिस्सा उनसे ज्यादा बड़ा है, जिन्हें न केवल जागरूक बहस के लिए समझना जरूरी है बल्कि इसलिए भी जानना चाहिए ताकि जीएसटी की राह में आने वाले झटकों और यू टर्न के लिए पहले से तैयार रहा जा सके. जैसे कि इस प्रचार को कुछ ठहर कर निगलने की जरूरत है कि जीएसटी लागू होते ही देश की विकास दर एक से दो फीसदी बढ़ जाएगी. आइएमएफ की सूचनाओं के आधार पर एम्बिट कैपिटल का एक ताजा अध्ययन साबित करता है कि इनडायरेक्ट टैक्स सुधार और आर्थिक ग्रोथ का कोई सीधा रिश्ता नहीं है.
1986 से लेकर 2000 के बीच दुनिया के चार अलग-अलग देशों में जीएसटी लागू हुआ था. न्यूजीलैंड ने 1986 में जीएसटी अपनाया और 1989 में इसकी दर बढ़ाई. ऑस्ट्रेलिया में 2000 में जीएसटी आया जबकि कनाडा में 1991 में. कनाडा ने 2006 और 2008 में इसकी दरें बदलीं. थाईलैंड में 1991 में एकमुश्त जीएसटी लागू हुआ. इन चारों देशों में केवल न्यूजीलैंड ऐसा था जहां जीएसटी के बाद ग्रोथ तेज हुई. शेष तीन देशों में ग्रोथ में गिरावट रही. विशेषज्ञ मानते हैं कि न्यूजीलैंड में ग्रोथ की कई और दूसरी वजहें भी थीं.
तो फिर जीएसटी लागू होने के बाद भारत में विकास दर दो फीसदी बढ़ जाने का आकलन आखिर आया कहां से? दरअसल, एनसीएईआर ने 2009 में एक रिपोर्ट दी थी जिसके मुताबिक, यदि भारत में आदर्श और आधुनिक जीएसटी लागू होता है तो ग्रोथ की उम्मीद लगाई जानी चाहिए. लेकिन अब जो जीएसटी आने वाला है, उसमें पांच स्तरीय टैक्स होंगे. सीजीएसटी के तहत केंद्र के टैक्स (एक्साइज, सर्विस), एसजीएसटी के तहत राज्यों के टैक्स—अंतरराज्यीय बिक्री पर आइजीएसटी (सेंट्रल सेल्स टैक्स की जगह), अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स और पेट्रोल डीजल, एविएशन फ्यूल पर टैक्स अलग से होंगे. इस पांच मंजिला जीएसटी के बाद ग्रोथ का तर्क अपने अपने आप दुबक जाता है.
जीएसटी दोहरा-तिहरा टैक्स खत्म करता है इसलिए महंगाई में कमी का इसका रिश्ता जरूर स्थापित होता है. ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, थाईलैंड और न्यूजीलैंड में जीएसटी के बाद महंगाई घटी. लेकिन भारत में जीएसटी को लेकर सबसे बड़ा असमंजस इसी पहलू पर है. जिन देशों ने हाल में इसे लागू किया है, वहां जीएसटी दर पांच (जापान) से लेकर 19.5 फीसदी (यूरोपीय यूनियन) तक है. जीएसटी में एक रेवेन्यू न्यूट्रल रेट होता है यानी कि जिस दर पर सरकार को राजस्व का नुक्सान नहीं होगा. मौजूदा आकलनों में भारत के लिए यह दर 18 फीसद आंकी गई है इससे राजस्व तो नहीं बढ़ेगा लेकिन सरकारों को नुक्सान भी नहीं होगा.
भारत में इनडायरेक्ट टैक्स की औसत दर इस समय 24 फीसदी है इसलिए जीएसटी दर इससे ऊपर ही होने की संभावना है, क्योंकि सरकारों को बढ़ते खर्च को संभालने के वास्ते राजस्व में बढ़ोतरी चाहिए. एम्बिट का अध्ययन बताता है कि 25 फीसदी का जीएसटी रेट होने पर सरकारों का टैक्स जीडीपी अनुपात एक से दो फीसदी बढ़ेगा. उनको ज्यादा राजस्व मिलेगा, जिसे वे विकास में खर्च कर सकती हैं. लेकिन 25 फीसदी की जीएसटी दर महंगाई को भड़का देगी, जिससे मांग कम हो सकती है.
जीएसटी को लेकर केवल क्रियान्वयन की उलझन ही नहीं है बल्कि व्यावहारिक पेचीदगियां हैं, जिन्हें पारदर्शिता के साथ बताया जाना चाहिए. मसलन, अगर जीएसटी दर 18 फीसदी तय होती है तो शायद कारें, उपभोक्ता सामान, भवन निर्माण सामग्री सस्ती होगी लेकिन अगर दर 25 फीसदी तक रही तो कीमतें ऊंची ही रहेंगी. भारत में टेलीफोन, शिक्षा, होटल आदि दर्जनों सेवाओं की लागत आम लोगों के खर्च का बड़ा हिस्सा है. सेवाओं को लेकर जीएसटी में हर तरह से चोट लगनी है. सर्विस टैक्स की दर 14 फीसद है, जिसे बढ़ाकर 18 फीसद (आरएनआर) तो किया ही जाना है. यानी सेवाएं महंगी होंगी और अगर जीएसटी दर 25 या उससे ऊपर हुई तो सेवाओं पर टैक्स लगभग दोगुना हो जाएगा.

आर्थिक सुधारों को लेकर उम्मीदें जायज हैं लेकिन हवाई किले औंधे मुंह ला पटकते हैं. प्रत्येक आर्थिक सुधार फायदे और चुभन साथ लेकर आता है. सुधारों की स्लेट पर पहले हस्ताक्षर को बेताब सरकार का एक संवेदनशील, बहुआयामी और पेचीदा सुधार को जादुई बनाकर पेश करना स्वीकार हो सकता है, लेकिन यह समझना मुश्किल है कि जीएसटी पर कोई चर्चा राजनैतिक दायरे से निकलकर उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता तक क्यों नहीं पहुंचाई गई, जिन्हें इसे लगाना, वसूलना और चुकाना है. जीएसटी को लेकर दीवानगी का आलम तैयार करने की बजाए इस पर ठोस चर्चा जरूरी है, क्योंकि इस टैक्स सुधार में फूल और कांटों का औसत रह-रहकर बदलने वाला है.

Monday, August 31, 2015

वाह पैकेज, आह सुधार



पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण के साथ मोदी ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले अपने ही मॉडल को सर के बल खड़ा कर दिया है. 

ह अप्रत्याशित ही था कि लाल किले की प्राचीर से अपने 86 मिनट के मैराथन भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार भी उस सबसे बड़े सुधार का जिक्र नहीं किया, जिसका ऐलान उन्होंने पिछले साल यहीं से किया था. योजना आयोग की विदाई लाल किले से ही घोषित हुई थी, जो मोदी सरकार का इकलौता क्रांतिकारी सुधार ही नहीं था बल्कि एक साहसी प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता का प्रमाण भी था. अलबत्ता, लाल किले से संबोधन में योजना आयेाग और नीति आयोग का जिक्र न होने का रहस्य चार दिन बाद आरा की चुनावी रैली में खुला जब प्रधानमंत्री ने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ रु. के पैकेज के साथ उस बेहद कीमती सुधार को रोक दिया, जो योजना आयोग की समाप्ति के साथ खुद उन्होंने शुरू किया था.
बिहार पैकेज पर असमंजस इसलिए नहीं है कि भारत के जीडीपी (2014-15) के एक फीसदी के बराबर का यह पैकेज कहां से आएगा या इसे कैसे बांटा जाएगा, बल्कि इसलिए कि पैकेज पॉलिटिक्स के नवीनीकरण ने केंद्र और राज्य के वित्तीय संबंधों को बदलने वाले मोदी के मॉडल को सिर के बल खड़ा कर दिया है. राजनैतिक गणित के आधार पर राज्यों को सौगात और खैरात बांटने का दंभ ही कांग्रेसी संघवाद की बुनियाद था. राज्यों को केंद्र से हस्तांतरणों में सियासी फार्मूले के इस्तेमाल पर पर्याप्त शोध उपलब्ध है जो बताता है कि 1972 से 1995 तक उन राज्यों को केंद्र से ज्यादा मदद मिली जो राजनैतिक तौर पर केंद्र सरकार के करीब थे या चुनावी संभावनाओं से भरे थे. 1995 के बाद राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों के अभ्युदय के साथ केंद्रीय संसाधनों के हस्तांतरण में पारदिर्शता के आग्रह मुखर होने लगे.
यह गैर-कांग्रेसी राज्यों के विरोध का नतीजा था कि वित्त आयोगों ने धीरे-धीरे केंद्र से राज्यों को विवेकाधीन हस्तांतरणों के सभी रास्ते बंद कर दिए. 14वें वित्त आयोग ने तो केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बांटने के लिए सामान्य और विशेष श्रेणी के राज्यों का दर्जा भी खत्म करते हुए, वित्तीय तौर पर नुक्सान में रहने वाले राज्यों के लिए राजस्व अनुदान का फॉर्मूला सुझाया है. वित्त आयोग ने केंद्र से राज्यों को हस्तांतरण बढ़ाने में शर्तों और सुविधाओं की भूमिका को सीमित कर दिया है.
केंद्र और राज्यों के वित्तीय रिश्तों में सियासी दखल को पूरी तरह खत्म करने के लिए योजना आयोग का विदा होना जरूरी था, जो केंद्रीय स्कीमों के जरिए संसाधनों के राजनैतिक हस्तांतरण को पोस रहा था. यही वजह थी कि पिछले साल लाल किले की प्राचीर से जब मोदी ने इस संस्था को विदा किया तो इसे राज्यों के लिए आर्थिक आजादी की शुरुआत माना गया. योजना आयोग के जाने और वित्त आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद राज्य सरकारें उस कांग्रेसी संघवाद से मुक्त हो गई थीं, जिसके तहत उन्हें केंद्र के साथ सियासी रिश्तों के तापमान या चुनावी सियासत के मुताबिक केंद्रीय मदद मिलती थी. लेकिन अफसोस! बिहार पैकेज के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सबसे बड़े वित्तीय सुधार की साख खतरे में डाल दी है.
बिहार पैकेज का ऐलान मोदी की टीम इंडिया यानी देश के राज्यों की उलझन बढ़ाने वाला है, जो योजना आयोग की अनुपस्थिति से उपजे शून्य को लेकर पहले से ही ऊहापोह में हैं. योजना आयोग की विदाई ने केंद्र व राज्य के बीच संसाधनों के बंटवारे और प्रशासनिक समन्वय को लेकर व्यावहारिक चुनौतियां खड़ी कर दी हैं, जिसे भरने के लिए नीति आयोग के पास न तो पर्याप्त अधिकार हैं और न ही क्षमताएं. योजना आयोग केवल केंद्र व राज्यों के बीच संसाधन ही नहीं बांटता था बल्कि केंद्र के विभिन्न विभागों व राज्य सरकारों के बीच समन्वय का आधार था. केंद्रीय मंत्रालय व राज्य सरकारें योजना आयोग को संसाधनों की जरूरतों का ब्योरा भेजती थीं, जिसके आधार पर केंद्रीय योजना को बजट से मिली सहायता बांटी जाती है. योजना आयोग बंद होने के साथ यह प्रक्रिया भी खत्म हो गई.
राज्य सरकारों को विभिन्न स्कीमों व कार्यक्रमों के तहत केंद्रीय संसाधन मिलते हैं. योजना आयोग की अनुपस्थिति के बाद अब 14वें वित्त आयोग की राय के मुताबिक इन केंद्रीय स्कीमों में संसाधनों के बंटवारे का नया फॉर्मूला तय होना है, जिसके लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिशों का इंतजार हो रहा है. इस असमंजस के कारण आवंटनों की गति सुस्त है, जिससे राज्यों की ही नहीं, बल्कि केंद्र की योजनाओं के क्रियान्वयन पर भी असर पड़ रहा है. यही नहीं, योजना आयोग केंद्रीय व राज्य की स्कीमों की मॉनिटरिंग भी करता था, जिसके आधार पर आवंटनों को तर्कसंगत किया जाता था. व्यवस्था का विकल्प भी अब तक अधर में है.
योजना आयोग खत्म होने के बाद अनौपचारिक चर्चाओं में मुख्यमंत्री यह बताते थे कि योजना आयोग की नामौजूदगी से केंद्र व राज्यों के बीच समन्वय का शून्य बन गया है. अलबत्ता राज्यों के मुखिया यह जिक्र करना नहीं भूलते थे कि मोदी सरकार के नेतृत्व में केंद्र व राज्यों के बीच वित्तीय रिश्तों की नई इबारत बन रही है, जो राज्यों की आर्थिक आजादी को सुनिश्चित करती है. इसलिए समन्वय की समस्याओं का समाधान निकल आएगा. लेकिन बिहार पैकेज के बाद अब मोदी के संघवाद पर राज्यों का भरोसा डगमगाएगा.
यह देखना अचरज भरा है कि राज्यों को आर्थिक आजादी की और केंद्रीय नियंत्रण से मुक्त करने की अलख जगाते मोदी, इंदिरा-राजीव दौर के पैकेजों की सियासत वापस ले आए हैं, जिसके तहत केंद्र सरकारें राजनैतिक गणित के आधार पर राज्यों को संसाधन बांटती थीं. राजनैतिक कलाबाजियां और यू टर्न ठीक हैं लेकिन कुछ सुधार ऐसे होते हैं जिन पर टिकना पड़ेगा. मोदी के अच्छे दिनों का बड़ा दारोमदार टीम इंडिया यानी राज्यों पर है, जिन्हें मोदी के सहकारी संघवाद से बड़ी आशाएं हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि बिहार पैकेज अपवाद होगा. मोदी पैकेज पॉलिटिक्स में फंसकर अपने सबसे कीमती सुधार को बेकार नहीं होने देंगे.

Tuesday, August 18, 2015

विकल्प तो है, संकल्प कहा है?


कालेधन के अपराध को थामने का असली एजेंडा तो एसआइटी ने थमाया है जो काली अर्थव्यवस्था के खिलाफ सरकार के संकल्प का आधार बन सकता है.
हुमत की सरकारें भी डर कर रेत में सिर घुसा सकती हैं. जनप्रिय नेतृत्व के संकल्पवान होने की कोई गारंटी नहीं है. कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश बड़े जनादेश के बाद बड़े सुधारों की बाट जोह रहा हो, सरकारें तो आम तौर पर एक जैसा डीएनए लेकर आती हैं. यदि आप लोकसभा से विपक्ष के 25 सांसदों को निलंबित करने के फैसले को मोदी सरकार के साहस का प्रमाण मान रहे हों तो जरा ठहरिए. साहस और संकल्प का इससे बड़ा मौका तो संसद सत्र से पहले आया था जब काले धन पर विशेष जांच दल (एसआइटी) ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी, जो भारतीय शेयर बाजारों के टैक्स हैवेन से रिश्तों और देसी अर्थव्यवस्था में काले धन के कारखानों पर ठोस व प्रामाणिक तथ्य सामने लाई है. अलबत्ता, जिस एसआइटी के गठन को मोदी सरकार काले धन के खिलाफ सरकार के संकल्प का घोषणा पत्र मान रही थी उसकी रिपोर्ट देखकर सरकार के पैर कांप गए. वित्त मंत्री ने कांग्रेसी राह पर चलते हुए इस रिपोर्ट पर पानी डाल दिया जबकि एसआइटी के निष्कर्षों की रोशनी में काले धन के खिलाफ नीतिगत और प्रशासनिक अभियान शुरू होना चाहिए था.
ऐसा पहली बार हुआ है जब सुप्रीम कोर्ट की निगहबानी में गठित दो न्यायाधीशों का विशेष जांच दल, सरकारी दस्तावेजों और सूचनाओं की पड़ताल के बाद काले धन को लेकर ठोस निष्कर्षों पर पहुंचा है जो काली कमाई और इसके निर्यात को रोकने की रणनीति का ब्लू प्रिंट हैं. पहला निष्कर्ष यह है कि टैक्स हैवेन में जमा काला धन पार्टिसिपेटरी नोट्स (पी नोट्स) के जरिए शेयर बाजार में आ रहा है. दूसरा, भारत में कागजी यानी लेटर बॉक्स कंपनियां काली कमाई को घुमाने-छिपाने का सबसे बड़ा जरिया हैं और तीसरा, अलग-अलग राज्यों में बने विशेष आर्थिक जोन मनी लॉन्ड्रिंग का जरिया हैं.
पी नोट्स एक वित्तीय उपकरण है, जिन्हें भारत में पंजीकृत विदेशी निवेशक (एफआइआइ) विदेश में बैठे निवेशकों को जारी करते हैं. इनके जरिए वे निवेशक सेबी में पंजीकरण कराए बगैर भारतीय शेयर बाजार में पैसा लगाते हैं. पी नोट्स के जरिए निवेश करने वाले तकनीकी भाषा में बेनीफिशियल ओनर कहे जाते हैं, जिनकी पहचान संदिग्ध होती है. बेनीफिशियल ओनर की पहचान न केवल अंतरराष्ट्रीय टैक्सेशन में बहस का विषय है बल्कि भारत में भी संसदीय समिति व विशेषज्ञ समूह इस पर सवाल उठा चुके हैं. ब्रिटेन ने इन्हें टैक्स हैवेन के इस्तेमाल और कर चोरी का जरिया माना है और कॉर्पोरेट पारदर्शिता के लिए एक नया कानून पारित किया है जो जनवरी 2016 से लागू होगा.
 भारत के संदर्भ में पी नोट्स के खेल को समझना जरूरी है, क्योंकि एसआइटी ने सेबी की मदद से कुछ ऐसी सूचनाएं दी हैं जो पहले नहीं मिलीं. भारत में पी नोट्स और बेनीफिशियल ओनर्स के जरिए जितना ऑफ शोर डेरेवेटिव इन्वेस्टमेंट (ओडीआइ) होता है, उसका लगभग 80 फीसदी निवेश केमैन आइलैंड (31%), अमेरिका (14%), यूके (13.5%), मॉरिशस (9.9%) और बरमूडा (9.1%) से आता है. इनमें कुछ देश घोषित टैक्स हैवेन हैं. सेबी के आंकड़ों के मुताबिक, फरवरी 2015 के अंत तक भारतीय बाजारों में 2.7 लाख करोड़ का ओडीआइ मौजूद था. आश्चर्य यह है कि लगभग 60,000 की आबादी वाले केमैन आइलैंड से अकेले भारत में 85,000 करोड़ रुपए का निवेश हुआ. यह इस बात का प्रमाण है कि भारतीय निवेशक केमैन आइलैंड के जरिए बड़े पैमाने पर काला धन पी नोट्स के जरिए भारतीय बाजार में ला रहे हैं. सरकार के लिए यही मौका है जब पी नोट्स को टैक्स हैवेन शेयर बाजार से खत्म करने की निर्णायक मुहिम शुरू की जा सकती है. लेकिन वित्त मंत्री ने क्या किया? एसआइटी की रिपोर्ट पर शेयर बाजार ने जरा-सी घबराहट क्या दिखाई, सरकार बोली कि ऐसा कुछ भी नहीं होगा जिससे बाजार को धक्का पहुंचे. मतलब यह कि टैक्स हैवेन और बाजार के रिश्ते फलते-फूलते रहेंगे. कांग्रेस भी इसी नीति पर चली थी.
 काले धन पर चुनावी जुमलेबाजी की गर्द अब कमोबेश बैठ चुकी है. मोदी सरकार अगर विदेश और देश में जमा काले धन को लेकर गंभीर है तो उसे तीन कदम तत्काल उठाने होंगे. एक, विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाजार में टैक्स (एसटीटी) से बचने के लिए टैक्स हैवेन या कर रियायतों वाले देशों को आधार बनाकर पी नोट्स के जरिए निवेश करते हैं. कर कानूनों को उदार बनाकर इसे रोका जा सकता है और पी नोट्स धारकों (बेनीफिशियल ओनर) की पहचान अनिवार्य की जा सकती है. दो, एसआइटी की इस राय को मानने में क्या अड़चन है कि काली कमाई को छिपाने व घुमाने में काम आने वाली लेटरबॉक्स कंपनियों पर सख्ती के लिए कंपनी कानून (धारा 89/4) पारदर्शिता बढ़ाई जाए और वित्त मंत्रालय के मातहत सीरियस फ्रॉड ऑफिस इन पर सख्ती करे. तीन, वित्त मंत्रालय की राजस्व जांच एजेंसी (डीआरआइ) सरकार को यह बताती रही है कि एसईजेड संगठित मनी लॉन्ड्रिंग का जरिया हैं यदि इन पर सख्ती की जाए तो काले धन की धुलाई के ये कारखाने रुक सकते हैं.
विदेश में काले धन को लेकर मोदी सरकार का कानून तो मैक्सिमम गवर्नमेंट का उदाहरण है जो नौकरशाही को उत्पीडऩ की ताकत दे रहा है. दरअसल कालेधन के अपराध को थामने का असली एजेंडा तो एसआइटी ने थमाया है जो काली अर्थव्यवस्था के खिलाफ सरकार के संकल्प का आधार बन सकता है.
देश यह समझ पाने में मुश्किल महसूस कर रहा है कि मोदी लगातार उन मौकों को क्यों गंवाते जा रहे हैं जो उन्हें एक साहसी और निर्णायक सरकार का मुखिया साबित कर सकते हैं. उनके पास न केवल सख्त और बड़े सुधारों का भव्य जनादेश है बल्कि कालाधन और पारदर्शिता पर अदालते भी उनके साथ हैं. फिर भी एसआइटी की रिपोर्ट देखने के बाद सरकार अगर उसी खोल में घुस जाती है जिसमें कांग्रेस सरकार हमेशा छिपी रही थी तो मोदी सरकार की नीयत पर सवाल उठाने में कोई हर्ज नहीं है.







Tuesday, August 11, 2015

पटकथा बदलने का मौका


मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे नैतिक शिक्षा व स्‍कीम राज नहीं बल्कि दो टूक सुधार सुनना चाहेगा 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से रेलवे, रिटेल और बैंकिंग जैसे बड़े आर्थिक सुधारों की घोषणा करने की हिम्मत जुटा सकते हैं? क्या मोदी ऐलान करेंगे कि संसद के शीत सत्र में एक विधेयक आएगा जो उच्च पदों पर हितों का टकराव रोकने का कानूनी इंतजाम करता हो? क्या यह घोषणा हो सकती है कि सरकार कानून बनाकर सभी खेल संघों में सियासी मौजूदगी खत्म करेगी? क्या प्रधानमंत्री इस ऐलान का साहस दिखा सकते हैं कि राजनैतिक दलों के चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए छह माह में कानून बन जाएगा?
प्रधानमंत्री ने देश से यह पूछा है न कि लोग स्वाधीनता दिवस पर उनसे सुनना क्या चाहते हैं, तो यह रही अपेक्षाओं सूची. यकीनन, देश अब उनसे नैतिक शिक्षा नहीं सुनना चाहेगा. नई स्कीमों की घोषणाएं तो हरगिज नहीं.
जब किसी दल के पास भव्य जनादेश हो, विपक्ष बुरी तरह टूट चुका हो, केंद्र के साथ देश के 11 राज्यों में उस दल या उसके दोस्तों की सरकार हो, उस दल की सरकार, दरअसल, पिछली सरकार की ही नीतियां लागू कर रही हो और पिछली सरकार चलाने वाली पार्टी अपना राजनैतिक मूलधन भी गवां चुकी हो तो फिर संसद न चल पाने की वजह सिर्फ मुट्ठी भर विपक्ष की उग्रता नहीं है. मोदी सरकार को यह सवाल अब खुद से पूछना होगा कि पिछले 15 अगस्त से इस 15 अगस्त के बीच उसने ऐसा क्या-क्या कर दिया है जिससे हताश विपक्ष को ऐसी एकजुटता और ऊर्जा मिल गई है.
एनडीए सरकार की उलझनों का मजमून मानूसन सत्र में संसदीय गतिरोध की धुंध के पार छिपा है. सरकार एक साल के भीतर ही विश्वसनीयता की दोहरी चुनौती से मुकाबिल है, जो यूपीए की दूसरी पारी से ज्यादा बड़ी है. पहली चुनौती यह है मोदी सरकार भारतीय लोकतंत्र के तीन अलिखित मूल्यों पर कमजोर दिख रही है, जो बहुमत से भरपूर सरकारों को भी अप्रासंगिक कर देते हैं. पहला नियम यह है कि किसी भी स्थिति में सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी को रोकते हुए नजर नहीं आना चाहिए. दूसरा सिद्धांत है कि बहुमत हो या अल्पमत, विपक्ष को साथ लेकर चलने की क्षमता होनी चाहिए और तीसरा नियम जो हाल में ही जुड़ा है कि उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर कोई भी समझौता साख पर बुरी तरह भारी पड़ सकता है.
इस साल में मार्च में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश की दलील (सूचना तकनीक कानून की धारा 66 ए) खारिज होने के बाद सरकार को चेत जाना चाहिए था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में (आधार केस) निजता को मौलिक अधिकार न मानने की ताजा दलील, वेबसाइट पर प्रतिबंधों और उनकी वापसी, सूचना के अधिकार पर रोक और स्वयंसेवी संस्थाओं पर चाबुक चलाते हुए लगातार सरकार संकेत दे रही है कि वह कुछ मौलिक आजादियों को लेकर सहज नहीं है. संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष को साथ लेकर चलना 'रकार' होने के लिए अनिवार्य है. राजीव गांधी के 413 सदस्यों के बहुमत के सामने 15 सदस्यों का विपक्ष नगण्य था लेकिन उसे नकारने का नतीजा इतिहास में दर्ज है. बीजेपी को कांग्रेस से मिले सबक की रोशनी में ही उच्च पदों पर पारदर्शिता को लेकर क्रांतिकारी हदों तक सख्त होना चाहिए था. अलबत्ता लोकसभा में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जब फरार ललित मोदी की मदद को उनकी बीमार पत्नी की मदद मानने की भावुक अपील कर रही थीं तो स्वराज और मोदी परिवार के कारोबारी रिश्तों का अतीत पीछे से झांक रहा था.
सबसे बड़ी असंगति यह है कि भारतीय लोकतंत्र के इन तीन मूल्यों को बीजेपी से बेहतर कोई नहीं समझता, जिसका पूरा राजनैतिक जीवन कांग्रेस के साथ इन्हीं को लेकर लड़ते और उत्पीडऩ झेलते बीता है. लेकिन बीजेपी ने एक साल के भीतर ही उस कांग्रेस को अभिव्यक्ति की आजादी, विपक्ष की अहमियत और पारदर्शिता का सबसे बड़ा पैरोकार बना दिया जो हमेशा इन मूल्यों पर अपने कमजोर अतीत को लेकर असहज रही है.
दूसरी चुनौती भी हलकी नहीं है. मोदी को यह नहीं भूलना होगा कि वे खुले बाजार की पैरोकारी, निजीकरण, सुधार और निजी उद्यमिता को बढ़ावा देने के मॉडल को बखानते हुए सत्ता में आए थे लेकिन पिछले एक साल में उनके नेतृत्व में जो गवर्नेंस निकली है उसमें रेलवे सुधार, बैंकिंग सुधार, सब्सिडी पुनर्गठन, प्रशासनिक सुधार जैसे साहसी फैसले नहीं दिखते. सरकार तो नए सार्वजनिक स्टील प्लांट (राज्यों के साथ) लगा रही है, कांग्रेस की तरह सार्वजनिक उपक्रमों की अक्षमता को ढंक रही है, सरकारी स्कीमों की कतार खड़ी कर रही है, नए मिशन और नौकरशाही गढ़ रही है और सब्सिडी बांटने के नए तरीके ईजाद कर रही है. सामाजिक स्कीमों पर आपत्ति नहीं है लेकिन गवर्नेंस में सुधार का साहस दिखाए बगैर पुराने सिस्टम पर नए मिशन और स्कीमें थोप दी गई हैं. इसलिए हर मिशन सांकेतिक सफलताओं से भी खाली है.
मोदी सरकार से अपेक्षा थी कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों और उदारीकरण के नए प्रतिमान गढ़ेगी जो न केवल गवर्नेंस की कांग्रेसी रीति-नीति से अलग होंगे बल्कि विपक्ष के तौर पर बीजेपी की भूलों का प्रतिकार भी करेंगे. लेकिन मोदी सरकार पता नहीं क्यों यह साबित करना चाहती है कि बड़ी सफलताएं अपना विरोधी चरम (ऐंटी क्लाइमेक्स) साथ लेकर आती हैं?

यह कतई जरूरी नहीं है कि संक्रमण का क्षण आने में वर्षों का समय लगे, कभी-कभी एक संक्रमण के तत्काल बाद दूसरा आ सकता है. 2014 नरेंद्र मोदी के पक्ष में आए जनादेश को भारत के ताजा इतिहास का सबसे बड़ा संक्रमण मानने वाले शायद अब खुद को संशोधित करना चाहते होंगे, क्योंकि असली संक्रमण तो दरअसल अब आया है जब मोदी सत्ता में एक साल गुजार चुके हैं और उम्मीदों का उफान ऊब, झुंझलाहट और मोहभंग की नमी लेकर बैठने लगा है. मोदी जब अगले सप्ताह लाल किले की प्राचीर से देश से मुखातिब होंगे तो देश उनसे 'न की बात' नहीं बल्कि गवर्नेंस की दो टूक सुनना चाहेगा, क्योंकि देश के लोग इस बात को एक बार फिर पुख्ता करना चाहते हैं कि उन्होंने कमजोर कंधों पर अपनी उम्मीदों का बोझ नहीं रखा है.