Tuesday, October 20, 2015

उलटा तीर



विदेश में जमा काला धन को लेकर एक बेसिर-पैर के चुनावी वादे को पूरा करने की कोशिश में भारतीय टैक्स सिस्टम की विश्वसनीयता पर गहरी खरोंचें लग गई हैं.

यह कहावत शायद टैक्सेशन की दुनिया के लिए ही बनी होगी कि आम माफी उन अपराधियों के प्रति सरकार की उदारता होती है जिन्हें सजा देना बहुत महंगा पड़ता है. टैक्स चोरों और काले धन वालों को आम माफी (एमनेस्टी?) का फैसला सरकारें हिचक के साथ करती हैं, क्योंकि कर चोरों को बगैर सजा के बच निकलने की सुविधा देना हमेशा से अनैतिक होता है. इसलिए अगर इस सहूलियत के जरिए पर्याप्त काला धन भी न आए तो सरकार की साख क्षत-विक्षत हो जाती है. एनडीए सरकार के साथ यही हुआ है, विदेश में जमा काला धन को लेकर एक बेसिर-पैर के चुनावी वादे को पूरा करने की कोशिश में भारतीय टैक्स सिस्टम की विश्वसनीयता पर गहरी खरोंचें लग गई हैं. आधी-अधूरी तैयारियों और जल्दबाजी में लिए गए फैसलों के कारण, सजा से माफी देकर विदेश में जमा काला धन बाहर निकालने की कोशिश औंधे मुंह गिरी है. टैक्स चोरों ने भी सरकार की उदारता पर भरोसा नहीं किया है.
आम चुनावों के दौरान विदेश से काला धन लाकर लोगों के खाते में जमा करने के वादे पर सवालों में घिरने के बाद सरकार ने बजट सत्र में संसद से एक कानून (अनडिस्क्लोज्ड फॉरेन इनकम ऐंड एसेट्स बिल, 2015) पारित कराया था, जिसके तहत सरकार ने विदेश में काला धन रखने वालों को यह सुविधा दी थी कि 1 जुलाई से 1 अक्तूबर के बीच यदि विदेश में छिपाया धन घोषित करते हुए टैक्स (30 फीसद) और पेनाल्टी (टैक्स का शत प्रतिशत) चुकाई जाती है तो कार्रवाई नहीं होगी. तीन महीने में इस अवधि के खत्म होने पर केवल 4,147 करोड़ रु. का काला धन घोषित हुआ है, जिस पर सरकार को अधिकतम 2,000 करोड़ रु. का टैक्स मिलेगा.
इस साल मार्च में इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि 1997 की काला धन स्वघोषणा (वीडीआइएस) स्कीम में गोपनीयता के वादे के बाद भी कंपनियों पर कार्रवाई हुई थी, इसलिए कानून के तहत बड़ी घोषणाएं होने पर शक है लेकिन यह अनुमान कतई नहीं था कि विदेश में काला धन होने के अभूतपूर्व राजनैतिक आंकड़ों के बावजूद इतनी कम घोषणाएं होंगी.
एमनेस्टी स्कीम की विफलता की तह में जाना जरूरी है. काले धन को लेकर इस बड़ी पहल की नाकामी सरकार को नौसिखुआ व जल्दबाज साबित करती है. 
अंधेरे में तीर दरअसल, वित्त मंत्रालय के पास विदेश में जमा काले धन की कोई ठोस जानकारी ही नहीं थी. ऐसी कोशिशें कम ही देशों ने की है क्योंकि इनकी विफलता का खतरा ज्यादा होता है. भारत की पिछली सफल स्कीमें भी देशी काले धन पर केंद्रित थीं. हाल में इटली और अमेरिका ने विदेश में जमा काले धन पर एमनेस्टी स्कीमें सफलता से पूरी की हैं जिनके लिए विदेश से सूचनाएं जुटाकर मजबूत जमीन तैयार की गई थी जबकि अपना वित्त मंत्रालय इस मामले में बिल्कुल अंधेरे में है. सरकार ने दुनिया के तमाम देशों व टैक्स हैवेन को पिछले महीनों में करीब 3,200 अनुरोध भेजकर सूचना हासिल करने की कोशिश शुरू की है, जिनके जवाब अभी आने हैं. सरकार के पास जो जानकारियां उपलब्ध हैं, वे ठोस नहीं थीं, इसलिए तीर उलटा आकर लगा है. वह पार्टी जो विदेश में भारी काला धन जमा होने का दावा कर रही थी, उसके वित्त मंत्री को इस स्कीम की भव्य विफलता के बाद कहना पड़ा कि विदेश में भारत का काला धन है नहीं. 
रणनीतिक चूकः एमनेस्टी स्कीमों का लाभ लेने की कोशिश वही लोग करते हैं जिन्हें सजा का डर होता है. लेकिन वित्त मंत्रालय ने विदेश में जमा धन को लेकर विभिन्न मामलों में सक्रिय कार्रवाइयां, यहां तक सर्वे भी इस स्कीम से बाहर कर दिए थे. इसलिए जो लोग कार्रवाई के डर से स्कीम में आ सकते थे उन्हें भी मौका नहीं मिला. यह एक बड़ी रणनीतिक चूक है.
भरोसे का सवालः आयकर विभाग को मालूम था कि पुराने तजुर्बों की रोशनी में इस सुविधा पर लोग आसानी से विश्वास नहीं करेंगे. स्कीम को सफल बनाने के लिए कर प्रशासन पर भरोसा बढ़ाने की कोशिश होनी चाहिए थी, लेकिन एक तरफ सरकार काला धन घोषित करने के लिए एमनेस्टी दे रही थी तो दूसरी तरफ निवेशकों व कंपनियों को मैट (मिनिमम ऑल्टरनेटिव टैक्स) और पुराने मामलों के लिए नोटिस भेजे जा रहे थे. इस असंगति ने कर प्रशासन पर भरोसे को कमजोर किया और स्कीम की विफलता सुनिश्चित कर दी.
अधूरी तैयारीः वित्त मंत्रालय ने एमनेस्टी के लिए तैयारी नहीं की थी. स्कीम को लेकर स्पष्टीकरण देर से आए और सबसे बड़ी बात, प्रचार में बहादुर सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी स्कीम का कोई प्रचार नहीं किया, खास तौर पर विदेश में तो कतई नहीं, जहां बसे भारतीय इसके सबसे बड़े ग्राहक थे. अंतरराष्ट्रीय तजुर्बे बताते हैं कि इस तरह की स्कीमों को लेकर प्रत्यक्ष व परोक्ष अभियान चलते हैं ताकि अधिक से अधिक लोग इसका हिस्सा बन सकें और सफलता सुनिश्चित हो सके.
काले धन पर आम माफी की असफलता की तुलना 18 साल पहले की वीडीआइएस स्कीम से की जाएगी. तब इसके तहत 36,697 करोड़ रु. काले धन की घोषणा हुई थी, जो मौजूदा स्कीम में की गई घोषणाओं का दस गुना है. यही नहीं, इसे विदेश से काला धन निकालने में अमेरिका (5 अरब डॉलर) और इटली (1.4 अरब यूरो) की ताजा सफलताओं की रोशनी में भी देखा जाएगा.

चुनावी वादे पर फजीहत से लेकर निवेशकों को नोटिस और उनकी वापसी और एमनेस्टी स्कीम की विफलता तक, पिछले सोलह माह में भारत के कर प्रशासन की साख तेजी से गिरी है. बैंकों के जरिए काला धन विदेश ले जाने के ताजा मामले ने कर प्रशासन की निगहबानी के दावों को भी धो दिया है. सरकार की आम माफी पर लोगों का भरोसा न होना एक बड़ी विफलता है, जिसका असर कर प्रशासन की विश्वसनीयता व मनोबल पर लंबे अर्से तक रहेगा. भारत के टैक्स सिस्टम को इस हादसे से उबरने में लंबा वक्त लग सकता है. 

Sunday, October 11, 2015

बदलते संवादों का जोखिम


मोदी समझना होगा कि अगर विमर्श बदलें तो लोगों की राय और सियासत बदलने में वक्त नहीं लगता.
यूपीए सरकार की बड़ी विफलता शायद यह नहीं थी कि उसने फैसले नहीं किए. फैसले तो हुए ही थे तभी तो मोदी सरकार यूपीए मॉडल से आगे नहीं बढ़ पा रही है. मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी नाकामी यह थी कि वे नकारात्मक संवादों की सुनामी को थाम नहीं सके, जिसने अंततः सरकार को चकनाचूर कर दिया. नरेंद्र मोदी सरकार भी इसी घाट पर फिसल रही है. मोदी को सबसे ज्यादा चिंता इस बात की करनी चाहिए कि उनकी सरकार अपनी भोर में ही उन विभाजक और सांप्रदायिक संवादों पर चर्चा से घिर गई है, जिनसे वाजपेयी सरकार अपनी प्रौढ़ावस्था में रू-ब-रू हुई थी और अंततः लोकप्रियता गंवा बैठी.
भारत में नई सरकार से जुड़ी विमर्श बदलने की आहट न्यूयॉर्क, सैनफ्रांसिस्को और बोस्टन के फाइनेंशियल डिस्ट्रिक्ट तक सुनी जा सकती है, जहां भारत में सुधार की संभावनाओं पर करोड़ों डॉलर लगा चुके निवेशक बैठते हैं. कठोर सुधारों की अनुपस्थिति से खीझे इन निवेशकों को उन्माद भरे आयोजन और ज्यादा डरा रहे हैं. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में भाषण के लिए न्यूयॉर्क पहुंचे (6 अक्तूबर, 2015) वित्त मंत्री अरुण जेटली दादरी की घटना पर यूं ही परेशान नहीं दिखे, उन्हें निवेशकों की इस झुंझलाहट का बाकायदा एहसास हुआ है.
सरकार को लेकर दो-दो नकारात्मक संवाद एक साथ जड़ पकडऩे लगे हैं. उग्र हिंदुत्व का वेताल बीजेपी की पीठ पर हमेशा से सवार रहा है जो सुशासन के निर्गुण, निराकार आह्वानों को पीछे धकेल कर आगे आने लगा है, जबकि दूसरी तरफ सरकार में कुछ ठोस न हो पाने या जमीन पर बदलाव नजर न आने के आकलन मुखर हो रहे हैं जो सुधार शून्यता के एहसास को गाढ़ा करते हैं.
सरकार के संवादों को सकारात्मक बनाए रखने में विफलता का क्षोभ मोदी के भाषणों में झलकता है. अमेरिका जाने से पहले अपनी जनसभाओं में मोदी विकास के थमने के लिए कांग्रेस को कोस रहे थे जबकि अमेरिका में उनके भाषण, 16 माह की गवर्नेंस की बजाए भावनात्मक व राष्ट्रवादी मुद्दों पर केंद्रित रहे जो उत्साह बनाए रखने की कोशिशों का हिस्सा थे. मोदी के इन प्रयासों के बावजूद सरकार का विराट प्रचार तंत्र उम्मीद भरी बहसों को थाम पाने में चूक रहा है. प्रतिबंधों की दीवानी राज्य सरकारें, विकास और सुधार की चर्चा को ध्वस्त कर रही हैं जबकि काम में सुस्ती को लेकर नौकरशाही पर ठीकरा फोड़ते केंद्रीय मंत्री (नितिन गडकरी) सरकार की विवशता की नजीर बन रहे हैं.
संवादों का मिजाज बदलने की दो वजहें साफ दिखती हैं. पहली यह कि मोदी का चुनाव अभियान शानदार तैयारियों की मिसाल भले ही रहा लेकिन बीजेपी गवर्नेंस के लिए तैयार नहीं थी. भूमि अधिग्रहण, जीएसटी, वन रैंक, वन पेंशन और विदेश में काले धन जैसे मुद्दों पर फजीहत साबित करती है कि चुनावों से पहले कोई तैयारी नहीं की गई और सत्ता में आने के बाद भी जटिल फैसलों पर संवाद या क्रमशः प्रगति साबित करने का कोई तंत्र विकसित नहीं हुआ. 
दूसरी वजह शायद यह है कि मोदी अपनी गवर्नेंस को बताने के लिए प्रभावी प्रतीक चुनने में चूक गए हैं. पिछले 16 माह में सरकार ने कम से कम दो दर्जन नई पहल (मिशन, स्कीम, आदि) की हैं लेकिन इनमें से कोई भी प्रयोग महसूस करने लायक बदलाव नहीं दे सका. सरकार की सभी पहल प्रतीकात्मक और राज्यस्तरीय हैं जिनके पीछे ठोस कार्यान्वयन का ढांचा नहीं है और राज्यों से समन्वय नदारद है.
वाजपेयी का कार्यकाल कई मामलों में मोदी के लिए नसीहत और नजीर बन सकता है. वाजपेयी भी तीन अल्पजीवी सरकारों के बाद उम्मीदों के उफान पर बैठ कर सत्ता में आए थे और उग्र हिंदुत्व का खतरा उनकी सरकार को भी था. वाजपेयी ने विमर्श को विकास पर केंद्रित रखने और उग्र हिंदुत्व से दूरी बनाने के लिए गवर्नेंस के लक्ष्यों का रोड मैप पहले ही तय कर दिया था जिनके सहारे, 2001 में शिला पूजन और राम मंदिर आंदोलन का बिगुल बजने तक सरकार कई सुधारात्मक कदम उठा चुकी थी. मोदी की मुसीबत यह है कि वे न तो सुधारों और गवर्नेंस की ठोस मंजिलें तय कर पाए हैं जिनके आसपास दूरगामी उम्मीद की चर्चाएं हो सकें और न ही उन्होंने वाजपेयी की तरह बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं और निर्माणों को चुना जो गवर्नेंस के जोरदार आगाज का परचम उठा सकें. मोदी ने अपेक्षाओं को पंख लगा दिए हैं, एक-तरफा संवादों की नीति चुनी है और स्कीमों के कछुओं पर सवारी की है, इसलिए कुछ न बदलने का शोर तेज होने लगा है.
24 दिसंबर, 2014 को इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि मोदी को उग्र हिंदुत्व की लपट से बचने के लिए अपनी गवर्नेंस के व्यावहारिक लक्ष्य तय करने होंगे, नहीं तो उनके परिवार के योगी, साक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे. मोदी का ताजा असमंजस 2001 के वाजपेयी जैसा है, तमाम सुधारों के बावजूद वाजपेयी उग्र हिंदुत्व के आग्रहों की चपेट से बच नहीं सके. 2001 में अयोध्या को लेकर सरकार व विहिप के बीच मोर्चा खुला था. 2002 की शुरुआत होने तक, शिला पूजन को लेकर टकराव, तनाव बढ़ा, गोधरा में ट्रेन जली, गुजरात के दंगे हुए और माहौल विषाक्त हो गया. वाजपेयी ने 2002 और '03 में आर्थिक सुधारों की भरसक कोशिश की. 2003 के अंत में तीन विधानसभाएं भी जीतीं लेकिन देश को सबसे अच्छी गवर्नेंस व सबसे तेज ग्रोथ देने वाली सरकार 2004 में वापस नहीं लौटी. 2002 के सांप्रदायिक तनाव से उभरा विमर्श वाजपेयी सरकार की बेजोड़ परफॉर्मेंस को निगल गया था.

यकीनन, लोकतंत्र में फैसलों में अपनी एक गति है, लेकिन सरकार से जुड़े संवादों में सकारात्मकता अनिवार्य है. ताजा नकारात्मक संवाद, मोहभंग की तरफ बढ़ें इससे पहले मोदी को उग्र हिंदुत्व को खारिज करना होगा और अपेक्षाओं को तर्कसंगत करते हुए उम्मीदों को जगाने वाली ठोस चर्चा की तरफ लौटना होगा. भारत में इस समय शायद ही कोई दूसरा नेता ऐसा होगा जो मोदी से बेहतर इस बात को समझ सकता हो कि अगर विमर्श बदलें तो लोगों की राय और सियासत बदलने में वक्त नहीं लगता.

Monday, October 5, 2015

सर्विस चाहिए, सब्सिडी नहीं



कुछ हफ्तों में पूरी दुनिया में योग दिवस का आयोजन करा लेने वाली सरकार क्या इतनी लाचार है कि बुनियादी ढांचे की बेहद अदना-सी समस्या भी ठीक नहीं हो सकती?

पभोक्ताओं की जेब काटने के अलावा महंगाई व मोबाइल पर कॉल ड्रॉप के बीच दूसरे भी कई रिश्ते हैं. दोनों ऐसी समस्याएं है जिन्हें हल करने के लिए किसी बड़े नीतिगत आयोजन की जरूरत नहीं है और दोनों का ही समाधान निकालने के लिए राज्य सरकारें केंद्र की सबसे बड़ी मददगार हो सकती हैं जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी टीम इंडिया कहते हैं. हाल ही में कॉल ड्रॉप की समस्या पर प्रधानमंत्री का दखल, मामले की पेचीदगी का सबूत नहीं था बल्कि इस सवाल को जमीन दे रहा था कि कुछ हफ्तों में पूरी दुनिया में योग दिवस का आयोजन करा लेने वाली सरकार क्या इतनी लाचार है कि बुनियादी ढांचे की बेहद अदना-सी समस्या भी ठीक नहीं हो सकती?
कॉल ड्रॉप पर संचार मंत्रालय से पीएमओ तक पहुंची चर्चाओं और कॉर्पोरेट बैठकों को टटोलते हुए यह जानना कतई मुश्किल नहीं है कि खराब मोबाइल नेटवर्क की समस्या इतनी बड़ी नहीं है कि इसके लिए राजनैतिक सर्वानुमति की जरूरत हो या फिर उपभोक्ताओं को खराब सर्विस के बदले टेलीफोन बिल पर सब्सिडी देने की जरूरत आ पड़े.
तकनीक को लेकर बहुत ज्यादा मगजमारी न भी करें तो भी इस समस्या की जड़ और संभावित समाधानों को समझने के लिए इतना जानना बेहतर रहेगा कि मोबाइल फोन 300 मेगाहट्र्ज से लेकर 3000 मेगाहट्र्ज की फ्रीक्वेंसी पर काम करते हैं, हालांकि पूरी रेंज भारत में इस्तेमाल नहीं होती. मोबाइल नेटवर्क का बुनियादी सिद्धांत है कि फ्रीक्वेंसी का बैंड जितना कम होगा, संचार उतना ही सहज रहेगा. यही वजह है कि हाल में जब स्पेक्ट्रम (फ्रीक्वेंसी) का आवंटन हुआ तो ज्यादा होड़ 900 मेगाहट्र्ज के बैंड के लिए थी. लेकिन अच्छे फ्रीक्वेंसी (निचले) बैंड में जगह कम है, इसलिए ज्यादा कंपनियां इसे हासिल करने कोशिश करती हैं. यदि किसी कंपनी के पास अच्छे बैंड कम हैं और ग्राहक ज्यादा, तो कॉल ड्राप होगी यानी कि फ्रीक्वेंसी की सड़क अगर भर चुकी है तो ट्रैफिक धीमे चलेगा.
लगे हाथ मोबाइल टावर की कमी की बहस का मर्म भी जान लेना चाहिए जो कि टेलीकॉम इन्फ्रास्ट्रक्चर का बुनियादी हिस्सा है. देश में करीब 96 करोड़ मोबाइल उपभोक्ताओं को सेवा देने के लिए 5.5 लाख टावर हैं. अच्छे यानी निचले फ्रीक्वेंसी बैंड के लिए कम टावर चाहिए लेकिन 3जी और 4जी यानी ऊंचे बैंड की सर्विस के लिए ज्यादा टावरों की जरूरत होती है.
इन बुनियादी तथ्यों की रोशनी में सरकार और कंपनियों की भूमिका परखने पर किसी को भी एहसास हो जाएगा कि समस्या बड़ी नहीं है, बल्कि मामला संकल्प, गंभीरता, समन्वय की कमी और कंपनियों पर दबाव बनाने में हिचक का है, जिसने भारत की मोबाइल क्रांति को कसैला कर दिया है. सबसे पहले टावरों की कमी को लेते हैं. मोबाइल सेवा कंपनियां मानती हैं कि नेटवर्क को बेहतर करने और कॉल ड्रॉप रोकने के लिए फिलहाल केवल एक लाख टावरों की जरूरत है. इसमें ज्यादातर टावर महानगरों में चाहिए. देश के हर शहर और जिले में केंद्र व राज्य सरकारों की इतनी संपत्तियां मौजूद हैं जिन पर टावर लगाए जा सकते हैं. सिर्फ एक समन्वित प्रशासनिक आदेश से काम चल सकता है. इस साल फरवरी में इसकी पहल भी हुई लेकिन तेजी से काम करने वाला पीएमओ इसे रफ्तार नहीं दे सका. 12 राज्यों में अपनी या अपने सहयोगी दलों की सरकारों के बावजूद अगर मोदी सरकार छोटे-छोटे टावरों के लिए कुछ सैकड़ा वर्ग फुट जमीन या छतें भी नहीं जुटा सकती तो फिर टीम इंडिया की बातें सिर्फ जुमला हैं.
प्रशासनिक संकल्प में दूसरा झोल कंपनियों पर सख्ती को लेकर है. पिछले साल स्पेक्ट्रम नीलामी को सरकार ने अपनी सबसे बड़ी सफलता कहते हुए कंपनियों के लिए बुनियादी ढांचे की कमी पूरी कर दी थी. कंपनियों को स्पेक्ट्रम आपस में बांटने की छूट मिल चुकी है, वे अपने टावर पर दूसरी कंपनी को जगह दे सकती हैं. उन्हें स्पेक्ट्रम बेचने की छूट भी मिलने वाली है, लेकिन इतना सब करते हुए पीएमओ और संचार मंत्री को कंपनियों से यह पूछने की हिम्मत तो दिखानी चाहिए कि अगर जनवरी 2013 से मार्च 2015 तक वॉयस नेटवर्क का इस्तेमाल 12 फीसदी बढ़ा तो कंपनियों ने नेटवर्क (बीटीएस) क्षमता में केवल 8 फीसद का ही इजाफा क्यों किया? कॉल ड्रॉप पर टीआरएआइ का ताजा दस्तावेज बताता है कि पिछले दो साल में 3जी पर डाटा नेटवर्क का इस्तेमाल 252 फीसदी बढ़ा लेकिन कंपनियों ने नेटवर्क में केवल 61 फीसदी की बढ़ोतरी की.
स्पेक्ट्रम के लिए कंपनियों की ऊंची बोली से सरकार को राजस्व मिला और कंपनियों को स्पेक्ट्रम, जिससे बाजार में उनका मूल्यांकन बढ़ रहा है, लेकिन उपभोक्ता को सिर्फ कॉल ड्रॉप व महंगे बिल मिले हैं. सरकार तो कंपनियों को इस बात के लिए भी बाध्य नहीं कर पा रही है कि वे कम से कम इतना तो बताएं कि उनके पास नेटवर्क व उपभोक्ताओं का अनुपात क्या है ताकि लोग उन कंपनियों की सेवा न लें जिनकी सीटें भर चुकी हैं.

हमारे पास रेलवे है जो न समय पर चलती है और न पर्याप्त क्षमता है. सड़कें हैं लेकिन बदहाल हैं. बिजली नेटवर्क है लेकिन बिजली नहीं आती. मोबाइल क्रांति भारत का एकमात्र सबसे सफल सुधार है जिसने भारत को आधुनिक बनाया है. इस क्रांति को पहले घोटालों ने दागी किया और अब खराब सेवा इसे चौपट करने वाली है. प्रधानमंत्री पता नहीं, कैसा डिजिटल इंडिया बनाना चाहते हैं? कॉल ड्रॉप पर दूरसंचार नियामक अधिकरण के हालिया चर्चा पत्र को अगर आधार माना जाए तो सरकार बुनियादी ढांचे की चुनौती को तुरंत ठीक करने और कंपनियों पर सख्ती में खुद को नाकाम पा रही है. इसकी बजाए उपभोक्ताओं के बिल में छूट देने के विकल्प की तैयारी हो रही है मानो उपभोक्ता अच्छा नेटवर्क नहीं बल्कि में बिल कमी चाह रहे हों? उपभोक्ताओं को अच्छी सेवा चाहिए, खराब सेवा पर सब्सिडी नहीं. ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि मोबाइल को रेलवे या बिजली जैसी हालत में पहुंचाने पर किसका फायदा होने वाला है.

Saturday, September 19, 2015

कमजोरी में बदलती ताकत


बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की सरकारों ने विकास को तो छोड़िएविकास के सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.


बीजेपी शासित राज्यों का मुख्यमंत्री होने के अलावा आनंदीबेन पटेल, देवेंद्र फड़ऩवीस, मनोहर लाल खट्टर, वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के बीच एक और बड़ी समानता है. ये सभी मिलकर गुड गवर्नेंस और प्रगतिगामी राजनीति की उस चर्चा को पटरी से उतारने में अब सक्रिय भूमिका निभाने लगे हैं जो मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद शुरू हुई थी. दरअसल, राज्यों को नई गवर्नेंस का सूत्रधार होना चाहिए था, वे अचानक मोदी मॉडल की सबसे कमजोर कड़ी बन रहे हैं.
कांग्रेस अपने दस साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए बुरी तरह तरसती रही, वह बीजेपी को यूं ही मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ, जब 11 राज्यों  में उस गठबंधन की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है. बात केवल राजनैतिक समन्वय की ही नहीं है, विकास की संभावनाओं के पैमाने पर भी मोदी के पास शायद सबसे अच्छी टीम है.
राज्यों में विकास के पिछले आंकड़ों और मौजूदा सुविधाओं को आधार बनाते हुए मैकेंजी ने अपने एक अध्ययन में राज्यों की विकास की क्षमताओं को आंका है. देश के 12 राज्य  (दिल्ली, चंडीगढ़, गोआ, पुदुचेरी, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, केरल, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उतराखंड) देश का 50 फीसदी जीडीपी संभालते हैं, जिनमें देश के 58 फीसदी उपभोक्ता बसते हैं. इन 12 राज्यों में पांच में बीजेपी और सहयोगी दलों की सरकार देश का लगभग 25 फीसद जीडीपी संभाल रही हैं. तेज संभावनाओं के अगले पायदान पर आने वाले सात राज्यों (आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, बंगाल, ओडिसा) को शामिल कर लिया जाए तो 19 में नौ बड़े राज्य और देश का लगभग 40 फीसद जीडीपी बीजेपी व उसके सहयोगी दलों की सरकार के हवाले है. मैकेंजी ने आगे जाकर 40 फीसदी जीडीपी संभालने वाले 65 शहरी जिलों को भी पहचाना है. इनमें भी एक बड़ी संख्या बीजेपी के नियंत्रण वाली स्थानीय सरकारों की है.
आदर्श स्थिति में यह विकास की सबसे अच्छी बिसात होनी चाहिए थी. कम से कम इन राज्यों, उद्योग क्लस्टर और शहरी जिलों के सहारे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी अभियान जमीन पर उतरने चाहिए थे, लेकिन पिछले 15 महीनों में इन राज्यों गुड गवर्नेंस के एजेंडे को भटकाने में कोई कमी नहीं छोड़ी. मध्य प्रदेश में हर कुर्सी के नीचे घोटाला निकलता है. महाराष्ट्र सरकार ने घोटालों से शुरुआत की और प्रतिबंधों को गवर्नेंस बना लिया. हरियाणा में विकास की चर्चाएं पाबंदियों और स्कूलों में गीता पढ़ाने जैसी उपलब्धियों में बदल गई हैं. दिलचस्प है कि राज्यों ने भले ही केंद्र की नई शुरुआतों को तवज्जो न दी हो लेकिन बड़े प्रचार अभियानों में केंद्र के मॉडल को अपनाने में देरी नहीं की.
उद्योगपतियों के साथ प्रधानमंत्री की ताजा बैठक में यह बात उभरी कि कारोबार को सहज करने के अभियान राज्यों की दहलीज पर दम तोड़ रहे हैं. औद्योगिक व कारोबारी मंजूरियों को आसान व एकमुश्त बनाने का अभियान पिछड़ गया है. वित्त मंत्री अरुण जेटली को कहना पड़ा कि कारोबार को सहज बनाना एक हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है जबकि मेक इन इंडिया की शुरुआत करते समय सरकार ने सभी मंजूरियों को एकमुश्त करने के लिए एक साल का समय रखा था. केंद्र सरकार के अधिकारी अब इसके लिए कम से कम तीन साल का समय मांग रहे हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि औरों को तो छोड़िए, बीजेपी शासित राज्यों ने भी इस अभियान को भाव नहीं दिया.
मेक इन इंडिया ही नहीं, मंडी कानून बदलने को लेकर बीजेपी के अपने ही राज्यों ने केंद्र की नहीं सुनी. डिजिटल इंडिया पर राज्य ठंडे हैं. आदर्श ग्राम और स्वच्छता मिशन जैसे अभियानों में कैमरा परस्ती छवियों के अलावा राज्यों की सक्रियता नहीं है. प्रशासनिक सुधार, राज्य के उपक्रमों का विनिवेश और पारदर्शिता बढ़ाने वाले फैसलों की बजाए राज्यों ने सरकारी नियंत्रण बढ़ाने और लोकलुभावन स्कीमों के मॉडल चुने हैं जो निवेशकों और युवा आबादी की उम्मीदों से कम मेल खाते हैं.  
मोदी सरकार ने इस साल के बजट के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, नगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की जिम्मेदारी पूरी तरह राज्यों को सौंप दी और केंद्र को केवल संसाधन आवंटन तक सीमित कर लिया. इसका नतीजा है कि 15 महीने में शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में सबसे बड़ा शून्य दिख रहा है. सामाजिक सेवाओं में केंद्र परोक्ष भूमिका निभाना चाहता है जबकि राज्यों के पास संसाधनों की नहीं बल्कि नीतिगत क्षमताओं की कमी है. इसलिए शिक्षा, सेहत, ग्रामीण विकास में क्षमताओं का विकास और विस्तार पिछड़ गया है. बीजेपी के नेता भी मान रहे हैं कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को पूरी तरह राज्यों पर छोडऩे के राजनैतिक नुक्सान होने वाले हैं.
मोदी के सत्ता में आने से पहले और बाद में बनी राज्य सरकारें अपेक्षाओं की कसौटी पर कमजोर पड़ रही हैं, जबकि कुछ बड़े राज्य या तो केंद्र से रिश्तों में हाशिए पर हैं या फिर चुनाव की तैयारी शुरू कर रहे हैं. पूरे देश में करीब दस प्रमुख राज्य ऐसे हैं जिनकी सरकारों के पास समय, संसाधन और संभावनाएं मौजूद हैं और इनमें अधिकांश बीजेपी व उनके सहयोगी दलों की हैं. इंडिया ब्रांड और अभियानों को नतीजों से सजाने का दारोमदार इन्हीं पर है लेकिन किस्म-किस्म के प्रतिबंधों और अहम फैसलों की दीवानी इन सरकारों ने विकास को तो छोड़िए, विकास के सकारात्मक संवादों को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है.
चुनावी राजनीति का कोई अंत नहीं है. 2016 का चुनाव कार्यक्रम इस साल से ज्यादा बड़ा है. प्रधानमंत्री को चुनावी राजनीति से अलग अपनी गवर्नेंस के मॉडल को नए  सिरे से फिट करना होगा और राज्यों को बड़ी व ठोस योजनाओं से बांधना होगा नहीं तो बिहार चुनाव का नतीजा चाहे जो हो, लेकिन अगर राज्य सरकारें चूकीं तो निवेश, विकास और रोजगार की रणनीतियां बुरी तरह उलटी पड़ जाएंगी.

Tuesday, September 15, 2015

साहस का संकट



चीन से शुरु हुआ ताजा संकट अपने पूर्वजों की तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.

भारत की दहलीज पर ग्लोबल संकट की एक और दस्तक को समझने के दो तरीके हो सकते हैं: एक कि हम रेत में सिर घुसा कर यह कामना करें कि यह दुनियावी मुसीबत है और हम किसी तरह बच ही जाएंगे. दूसरा यह कि इस संकट में अवसरों की तलाश शुरू करें. मोदी सरकार ने दूसरा रास्ता चुना है लेकिन जरा ठहरिए, इससे पहले कि आप सरकार की सकारात्मकता पर रीझ जाएं, हमें इस सरकार को मिले अवसरों के इस्तेमाल का रिकॉर्ड और जोखिम लेने की कुव्वत परख लेनी चाहिए, क्योंकि यह संकट अपने पूर्वजों की तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.
सिर्फ शेयर बाजार ही तो थे जो भारत में उम्मीदों की अगुआई कर रहे थे. चीन में मुसीबत के बाद, उभरती अर्थव्यवस्थाओं से निवेशकों की वापसी के साथ भारत को लेकर फील गुड का यह  शिखर भी दरक गया है, जो सस्ती विदेशी पूंजी पर खड़ा था. पिछले दो साल में भारतीय अर्थव्यवस्था में बुनियादी तौर पर बहुत कुछ नहीं बदला. चुनाव की तैयारियों के साथ उम्मीदों की सीढिय़ों पर चढ़कर शेयर बाजारों ने ऊंचाई के शिखर बना दिए. भारत के आर्थिक संकेतक नरम-गरम ही हैं, मंदी है, ब्याज दरें ऊंची हैं, जरूरी चीजों की महंगाई मौजूद है, मांग नदारद है, मुनाफा और आय नहीं बढ़ रही जबकि मौसम की बेरुखी बढ़ गई है. लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार बेहतर है, कच्चा तेल सस्ता है और राजनैतिक स्थिरता है. दुनिया में संकट की हवाएं पहले से थीं. अपने विशाल प्रॉपर्टी निवेश, मंदी व अजीबोगरीब बैंकिंग के साथ, चीन 2013 से ही इस संकट की तरफ खिसक रहा था.
भारत के आर्थिक उदारीकरण के बाद यह तीसरा संकट है. 1997 में पूर्वी एशिया के करेंसी संकट से भारत पर दूरगामी असर नहीं पड़ा. 2008 में अमेरिका व यूरोप में बैंकिंग व कर्ज संकट से भी भारत कमोबेश महफूज रहा. अब चीन की मुसीबत सिर पर टंगी है. भारत इस पर मुतमइन हो सकता है कि ग्लोबल उथल-पुथल से हम पर आफत नहीं फट पड़ेगी लेकिन यही संकट भारत की ग्रोथ की रफ्तार का भविष्य निर्णायक रूप से तय कर देगा.
पिछले दो संकटों ने भारत को फायदे-नुक्सानों का मिला जुला असर सौंपा. 1997 में जब पूर्वी एशिया के प्रमुख देशों की मुद्राएं पिघलीं तो भारत की पर शुरुआती असर हुआ लेकिन उसके बाद अगले सात वर्ष तक भारतीय अर्थव्यवस्था ने ग्रोथ के सहारे अपना चोला बदल दिया. यह उन बड़े सुधारों का नतीजा था जो नब्बे के दशक के मध्य में हुए और जिनका फायदा हमें वास्तविक अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष निवेश व ग्रोथ के तौर पर मिला. तब तक भारत के शेयर बाजारों में सक्रियता सीमित थी.
2008 के संकट के बाद अमेरिका में ब्याज दरें घटने से सस्ती पूंजी बह चली. पिछले छह साल के सुधारों के कारण उभरती अर्थव्यवस्थाओं में उम्मीदें जग गई थीं. यही वह दौर था जब ब्रिक्स अर्थव्यवस्थाएं चमकीं और भारतीय शेयर बाजार निवेशकों का तीर्थ बन गया. भारतीय अर्थव्यवस्था में स्पष्ट मंदी के बावजूद यह निवेश हाल तक जारी रहा जो चुनाव के बिगुल के साथ 2014 में शिखर पर पहुंच गया था. 
इन तथ्यों के संदर्भ में ताजा चुनौती व अवसर को समझना जरूरी है.
चुनौतीः भारत की मुसीबत चीन का ढहना है ही नहीं, न ही ग्लोबल मंदी से बहुत फर्क पड़ा है सिवा इसके कि निर्यात ढह गया है, जो पहले से ही कमजोर है. उलझन यह है कि अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ते ही (इसी महीने मुमकिन) विदेशी निवेशक भारत सहित उभरते बाजारों से निकलेंगे जहां वे 2008 के बाद आए थे, क्योंकि निवेश पर होने वाले फायदे घट जाएंगे. वास्तविक अर्थव्यवस्था में ग्रोथ नहीं है इसलिए भारतीय कंपनियों का मुनाफा लंबे समय तक निवेश को आकर्षित नहीं कर सकता. यह पिछले पांच साल में पहला मौका है जब विशेषज्ञ भारत सहित उभरते बाजारों में लंबी गिरावट का संदेश दे रहे हैं. ध्यान रहे कि विदेशी निवेशक भारत के लिए डॉलरों का प्रमुख स्रोत रहे हैं इसलिए यह विदाई महंगी पड़ेगी. यह फील गुड की आखिरी रोशनी है जो अब टूटने लगी है. 
अवसरः यदि समय, अर्थव्यवस्था के आकार और ग्लोबल अर्थव्यवस्था से जुड़ाव को अलग कर दिया जाए तो भारत 1995 की स्थिति में है जब जीडीपी में ग्रोथ की उम्मीदें कमजोर थीं और शेयर बाजारों में निवेश नहीं था. अलबत्ता विदेशी व्यापार, निवेश के उदारीकरण से लेकर निजीकरण तक भारत के सभी बड़े ढांचागत सुधार 1995 से 2000 के बीच हुए, जिनका फायदा ग्लोबल संकटों के दौरान निवेशकों के भरोसे के तौर पर मिला. मोदी सरकार नब्बे की दशक जैसे बड़े ढांचागत सुधार कर भारतीय ग्रोथ को अगले एक दशक का ईंधन दे सकती है.
वित्त मंत्री ठीक कहते हैं कि असली दारोमदार वास्तविक अर्थव्यवस्था पर ही है. अब शेयर बाजार भी कंपनियों की ताकत और वास्तविक ग्रोथ पर गति करेंगे न कि सस्ती विदेशी पूंजी पर. इस संकट के बाद भारत के पास दो विकल्प हैं: पहला, सुधार रहित 6.5-7 फीसदी की औसत विकास दर जिसे आप 21वीं सदी की हिंदू ग्रोथ रेट कह सकते हैं. विशाल खपत और कुछ ग्लोबल मांग के सहारे (सूखा आदि संकटों को छोड़कर) ग्रोथ इससे नीचे नहीं जाएगी. दूसरा, नौ-दस फीसदी की ग्रोथ और रोजगारों, सुविधाओं, आय में बढ़ोत्तरी का है जो 1997 के बाद हुई थी. 

शेयर बाजारों पर ग्लोबल संकट की दस्तक के बाद 8 सितंबर को जब प्रधानमंत्री पूरे लाव-लश्कर के साथ उद्योगों को जोखिम लेने की नसीहत दे रहे थे तब उद्यमी जरूर यह कहना चाहते होंगे कि हिम्मत दिखाने की जरूरत तो सरकार आपको है! पिछले 15 माह में तो सुधारों का कोई साहस नहीं दिखा है. अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे के बाद संकट के झटके तेज होंगे. अगला एक साल बता देगा कि हमें 21वीं सदी की हिंदू ग्रोथ रेट मिलने वाली है या फिर तरक्की की तेज उड़ान.