Monday, December 28, 2015

कुछ अच्छे दिन हो जाएं


क्‍या राजनेता पिछले चुनाव में राजनैतिक संवादों और उपभोक्ता प्रचार के बीच गहरे अंतर को समझने में चूक रहे हैं 

ल मेरी लूना, चुटकी में चिपकाए, कुछ मीठा हो जाए जैसे सहज विज्ञापन संदेशों का अच्छे दिन आने वाले हैं से क्या रिश्ता है? यकीन करना मुश्किल है लेकिन हकीकत में बीजेपी के लोकसभा चुनाव में अच्छे दिनों वाला संदेश, इन्हीं सहज विज्ञापनों से प्रेरित था, जो हाल के दशकों में प्रभावी राजनैतिक परिवर्तन के संवाद का सबसे बड़ा प्रतिमान बनकर उभरा. चुनावी वादे, राजनेताओं की टिप्पणियां और सत्ता परिवर्तन, यकीनन, विज्ञापनी संदेशों जैसे नहीं होते. फिर अच्छे दिन आने का संदेश इतना बड़ा वादा था जिसके सामने कुछ भी नहीं टिका. तारीफ करनी होगी विज्ञापन गुरु पीयूष पांडे की न केवल, सीधे दिल में उतर जाने वाले संदेश के लिए बल्कि इसके लिए भी कि उन्होंने राजनैतिक रूप से सही-गलत होने की चिंता किए बगैर अपनी नई किताब में खुलकर यह स्वीकार किया कि अच्छे दिन आने वाले हैं संदेश की पृष्ठभूमि में इसी तरह के चॉकलेटी विज्ञापन थे.
नरेंद्र मोदी के लोकसभा चुनाव अभियान की विज्ञापन रणनीति की कमान पांडे के हाथ में थी जो प्रमुख विज्ञापन एजेंसी ओऐंडएम के एग्जीक्यूटिव चेयरमैन और क्रिएटिव डायरेक्टर हैं. अबकी बार मोदी सरकार का जिंगल भी उन्हीं की रचनात्मकता की देन थी. पांडे ने अपनी आत्मकथा पांडेमोनियम में लिखा है कि जुलाई 2013 में आए चुनावी सर्वेक्षण बीजेपी की बढ़त तो दिखा रहे थे लेकिन बहुमत नहीं. त्रिशंकु संसद का अंदेशा था. 7 सितंबर, 2013 को मोदी के प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनने के बाद, बीजेपी के चुनाव अभियान का लीड कैंपेन, सोहो स्क्वेयर को मिला जो कि ओऐंडएम की एजेंसी है.
पांडे लिखते हैं, जैसे ही हम यह समझे कि वोटर क्या सुनना चाहते हैं, हम उन्हें वही बताने लगे जिस पर वे भरोसा कर सकते थे. यकीनन पांडे अपनी जगह सही थे. वे किसी उत्पाद या सेवा की तर्ज पर बीजेपी के लिए एक विज्ञापन क्रिएटिव ही बना रहे थे, अलबत्ता उन्हें शायद यह नहीं पता था कि वे चॉकलेट या बाइक नहीं, एक राजनैतिक परिवर्तन का संदेश लिख रहे हैं जिसका आयाम और असर अपरिमित होने वाला है. अच्छे दिन बहुत भव्य राजनैतिक वादा था, जिसे भारत तो छोड़िए, विकसित देशों के नेता भी करने में हिचकेंगे. 2015 बीतते-बीतते, बदलाव का सबसे भव्य संदेश उम्मीदों के टूटने की गहरी कसक में बदल गया बल्कि खुद प्रधानमंत्री के लिए इस वड़े आश्वासन को जुमला बनने से रोकना असंभव होगा. ऐसा इसलिए हुआ चूंकि हमारे राजनेता पिछले चुनाव में राजनैतिक संवादों और उपभोक्ता प्रचार के बीच गहरे अंतर को लांघ गए थे. उन्हें उम्मीदें जगाते हुए यह ध्यान नहीं रहा कि जो कहा है, उसे करने की योजना बतानी होगी और फिर अंततः करके दिखाना भी होगा.
अच्छे दिनों का ऐंटी क्लाइमेक्स भारत के राजनैतिक संवादों के बड़बोले और अधकचरेपन का नया प्रतीक है. मोदी ही नहीं, दूसरे नायक केजरीवाल भी इसी घाट फिसले. सब कुछ जनता से पूछकर करने के वादों और दिल्ली को चुटकियों में बदलने की उम्मीदों के बरअक्स केजरीवाल सरकार अहंकार की लड़ाई से भर गई और नई राजनीति और नई गवर्नेंस की उम्मीदें ढह गईं. 2015 में यह बीमारी इतनी फैली कि पूरा साल जहरीले, भड़कीले, चटकीले, बेहूदा, कुतर्की, तथ्यहीन, बेसिर-पैर के बयानों के लिए जाना जाएगा. नेताओं की यह फिसलन ठीक उस वक्त नजर आई जब निर्णायक जनादेश देने के बाद लोग अपने नेताओं से अभूतपूर्व गंभीरता, साख और समझदारी की अपेक्षा कर रहे थे.
दिलचस्प है कि इंटरनेट के आविष्कार और एक क्लिक पर अतीत उगल देने वाली सामूहिक मेमोरी (डिजिटल अर्काइव) के बाद जब कहे-सुने अतीत को परखने की सुविधाएं उपलब्ध हैं, तब भारतीय राजनेता कुछ भी बोलने की आदत में ज्यादा ही लिथड़ गए. 2015 में नेता मुंह बाकर बोले इसलिए उनके बयानों की तासीर परखने में लोगों ने भी कोताही नहीं की. यह पहला मौका था जब भारत में सरकार और नेताओं के झूठ व बड़बोलेपन पर डिजिटल सक्रियता के साथ समाज इतना मुखर हुआ, जिसकी चपेट में आकर हफ्ते दर हफ्ते राजनीति व गवर्नेंस की साख पर खरोंचें गहरी होती चली गईं.
2015 हमारे ताजा अतीत में पहला वर्ष था जब सामाजिक-आर्थिक विकास के आंकड़ों पर बड़े शक-शुबहे पैदा हुए. आम तौर पर भारत में बड़े सरकारी आंकड़ों मसलन जीडीपी, महंगाई, निर्यात, उत्पादन, सामाजिक विकास को लेकर बहुत सवाल नहीं उठते, लेकिन इस साल की बहसें सुधारों के नए मॉडल की नहीं बल्कि आंकड़ों और दावों की तथ्यपरकता पर केंद्रित थीं जो एक विशाल लोकतंत्र में सरकारी तथ्यों को लेकर बढ़ते संदेह और झूठ के डर को पुख्ता करती थीं. अंततरू सरकार ने दिसंबर में जो छमाही आर्थिक समीक्षा संसद में रखी वह आर्थिक तस्वीर को गुलाबी नहीं बल्कि चुनौतीपूर्ण बताती है. इसलिए 2016 में सरकार को यह ध्यान भी रखना होगा कि चुनावी वादों में गफलत फिर भी चल सकती है लेकिन एक उदार ग्लोबल बाजार में आंकड़ों की बाजीगरी देश की साख ले डूबती है.
सरकारों, संस्थाओं और कारोबारियों के बीच भरोसे की पैमाइश को लेकर एडलमैन का ग्लोबल ट्रस्ट बैरोमीटर सर्वे काफी प्रतिष्ठित है जो हर साल जनवरी में आता है. जनवरी 2015 में आए सर्वे ने भारत को पांच शीर्ष देशों में रखा था, जो विश्वास से भरपूर हैं, लेकिन सरकार पर भरोसा घटने के कारण भारत इस रैंकिंग में तीसरे से पांचवें स्थान पर खिसक गया है. 2015 में यह ढलान बढ़ गई है.
पैसे के बाद अगर कोई दूसरी चीज राजनीति के साथ गहराई तक गुंथी है, तो वह नेताओं के झूठ व बड़बोलापन है. प्रतिस्पर्धी राजनीति में दूरदर्शिता और दूर की कौड़ी के बीच विभाजक रेखा पतली है. नेता अक्सर इसे लांघ जाते हैं. उम्मीदों के किले बनाना ठीक है लेकिन लोग अब इन किलों की बुनियाद बनने में देरी बर्दाश्त नहीं करते. भारत के राजनेताओं से अब आधुनिक समाज मुखातिब है. जो ठगे जाने के एहसास से सबसे ज्यादा चिढ़ता है और झूठ को झूठ व सच को सच कहने से नहीं हिचकता. 2014 के चुनाव में बीजेपी का एक और चर्चित चुनावी जिंगल था नता माफ नहीं करेगी. पांडे लिखते हैं कि बचपन में उन्होंने बार-बार सुना था कि गवान माफ नहीं करेगा. यही कहावत इस जिंगल का आधार थी. हमारे नेताओं को कुछ भी बोलते हुए अब यह याद रखना होगा कि जनता माफ...!

Tuesday, December 22, 2015

टैक्‍सेशन की नई पीढ़ी


असंगत कर ढांचे की बहस को कालीन के नीचे दबाकर जीएसटी पर आगे बढऩा खतरनाक हो सकता है

दि हम यह याद रख पाते कि कि कच्चे तेल की ग्लोबल कीमत 37 डॉलर प्रति बैरल तक गिर चुकी है लेकिन टैक्स के कारण डीजल 46 से 54 रु. और पेट्रोल 61 से 68 रु. प्रति लीटर पर मिल रहा है तो शायद हम जीएसटी की चर्चाओं में जरूरी अर्थ भर सकते थे. यदि हम जीएसटी से ग्रोथ बढऩे की खामखयाली छोड़कर उन तजुर्बों पर बहस करते जो हमें जीएसटी के पूर्वज यानी वैल्यू एडेड टैक्स लागू करने के दौरान मिले थे तो शायद हमें जीएसटी और टैक्स सिस्टम को ठीक करने में ज्यादा मदद मिलती. बहरहाल, अब जबकि राजनीतिक पैंतरों को छोड़ लगभग पूरा सियासी कुनबा जीएसटी की जरूरत पर सहमत है तो अब मौका है कि इस बहस को दो टूक किया जाए और इसे संसद से सड़क तक ले जाया जाए क्योंकि जीएसटी, भारत की विशाल आबादी की खपत, निवेश और रोजगारों पर ऐसा असर छोड़ेगा जो पिछले कई दशकों में नजर नहीं आया है.
असंगत कर ढांचे की बहस को कालीन के नीचे दबाकर जीएसटी पर आगे बढऩा खतरनाक हो सकता है. वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार की ताजी रिपोर्ट ने जीएसटी को लेकर 12 फीसदी की न्यू्नतम दर, सेवाओं और उत्पादों के लिए 17 से 19 फीसदी की मध्यम दर और 40 फीसदी की सर्वोच्च दरों का ढांचा सुझाया है. इन तीनों दरों की गहराई में जाना जरूरी है. 12 फीसदी की न्यूनतम दर का मतलब है कि अब केंद्र और राज्य में एक्साइज और वैट को लेकर इकाई की दरों का दौर खत्म हो जाएगा यानी कि तमाम उत्पाद जो 6-8 फीसदी टैक्स के तहत हैं उन पर 12 फीसदी टैक्स लगेगा. दूसरी दर के तहत सर्विस टैक्स 14.5 फीसदी से बढ़कर 19 फीसदी पर पहुंच जाएगा. हो सकता है पेट्रो उत्पादों के लिए एक नई दर आए जो 20 फीसदी के इर्दगिर्द होगी. लक्जरी उत्पादों के लिए 40 फीसदी की दर प्रस्तावित है. अगर दरें इतनी भी रहें तो भी जीएसटी हमें बहुत महंगा पड़ेगा.
जीएसटी का ढांचा पत पर ज्यादा और कमाई पर कम टैक्स उस पुराने सिद्धांत से निकला है जिसे बदलने की हमें जरूरत थी. कई बड़े सुधारों के बावजूद हम अपने कर ढांचे को आधुनिक, सहज और उत्साही नहीं बना सके. दुनिया के देशों में कमाई पर ज्यादा और खपत पर सीमित टैक्स लगता है लेकिन भारत के वित्त मंत्री टैक्स और कॉर्पोरेट कर घटाकर लोकप्रियता बटोरते हैं जबकि एक्साइज, सर्विस टैक्स आदि इनडाइरेक्ट रेट बढ़ाकर खुद को चतुर साबित करते हैं. डाइरेक्ट टैक्स का फायदा एक छोटे-से वर्ग को मिलता है लेकिन इनडाइरेक्ट टैक्स बढ़ते ही बहुत बड़ी आबादी की खपत सीमित हो जाती है.
टैक्स का बुनियादी सिद्धांत कहता है कि टैक्स बेस यानी करदाताओं की तादाद बढऩे के साथ कर दरें कम होनी चाहिए. लेकिन अर्थव्यवस्था में ग्रोथ के साथ उत्पादन, खपत और करदाताओं की तादाद बढऩे के बावजूद इनडाइरेक्ट टैक्स (एक्साइज, सर्विस टैक्स, सेस, सरचार्ज) लगातार बढ़े हैं. इसके बदले आयकर और कॉर्पोरेट कर की दरें घटने के बावजूद करदाताओं की संख्या बमुश्किल चार करोड़ लोगों तक पहुंची है, जो आबादी के केवल तीन फीसदी है.
वैट को लेकर हमारा तजुर्बा ताकीद करता है कि जीएसटी की अधिकतम दर तय करने का सुझाव उपयोगी है. राज्यों में सेल्स टैक्स की जगह वैल्यू एडेड टैक्स 2005 से लागू हुआ था. उसमें भी तीन तरह की दरें प्रस्तावित थीं लेकिन लागू होने के तीन साल के भीतर ही पूरा अनुशासन हवा हो गया. अब अलग-अलग राज्यों में एक ही उत्पाद पर अलग-अलग टैक्स हैं और वैट लागू होने के बाद ज्यादातर उत्पाद ऊंची कर दरों के स्लैब में चले गए हैं.
ऊंची कर दरें कारोबार को मुश्किल बनाने की सबसे बड़ी वजह हैं इसलिए कारोबारी सहजता की बहसें भी कर ढांचे पर आकर ठहर जाती हैं. एक और बड़ी विसंगति यह है कि अंतरराष्ट्रीय अनुबंधों के कारण सीमा शुल्क की दरें तेजी से घटी हैं जिनकी भरपाई एक्साइज और सर्विस टैक्स बढ़ाकर की गई. इस प्रक्रिया में देश में उत्पादन महंगा हुआ और निवेश कम और उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता घटती गई. जीएसटी की दरें नीचे रखकर ही प्रतिस्पर्धा और मांग बढ़ाने के लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं.
भारत में करों की पीढ़ी बदलने का वक्त आ रहा है. देश को अब ग्रीन टैक्स लगाने होंगे जो पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली खपत और उत्पादन को रोकते हों. इनमें कंजेशन टैक्स, पॉल्यूशन टैक्स, ग्रीन एनर्जी टैक्स होंगे जो दुनिया के देशों में आजमाए जा रहे हैं. इन नए करों की शुरुआत से पहले सामान्य आर्थिक खपत को महंगा करने वाले इनडाइरेक्ट टैक्स को कम करना जरूरी है अन्यथा भारत का कर ढांचा बुरी तरह असंगत होकर उद्यमिता, मांग और निवेश की उम्मीदों को ध्वस्त कर देगा.
दरअसल टैक्स की बहस सरकारी खर्च कम करने की तरफ मुडऩी चाहिए. लोकलुभावन खर्च के कारण खपत पर टैक्स (इनडाइरेक्ट) को निचोड़ा गया है. सरकारों को अपना आकार और भूमिका सीमित करनी होगी ताकि खपत सिकोडऩे वाली टैक्स थोपने की आदत से निजात मिल सके. यह कतई जरूरी नहीं है कि जीएसटी संसद के इसी सत्र में पारित हो जाए, ज्यादा जरूरी यह है कि ऐसा जीएसटी हमें मिले जो उपभोक्ता और निवेशक के तौर पर हमारी मुसीबतें कम करता हो. अगर ऊंचे टैक्स वाला जीएसटी लागू हुआ तो इसके नतीजे न केवल आर्थिक तौर पर विस्फोटक होंगे बल्कि राजनीतिक तौर पर भी इनका विपरीत असर होगा.
जीएसटी के ताजा विमर्श में इन सवालों से मुठभेड़ बेहद जरूरी है कि क्या जीएसटी का मौजूदा ढांचा भारत में निवेश और कारोबार को आसान करेगा? क्या जीएसटी कर ढांचे में वह असंगतियां दूर करेगा जिनके कारण हम खपत पर लगे भारी टैक्सों का देश हो गए हैं, जो मांग और बेहतर जीवन स्तर की उम्मीदों का गला घोंटते है? और क्या हम जीएसटी के बाद ऐसी व्यवस्था बनते देख पाएंगे जो सरकार को टैक्स लगाने पर नहीं बल्कि फालतू के खर्च सीमित करने पर प्रेरित करती हो? ये तीनों सवाल एक-दूसरे से जुड़े हैं और उपभोक्ताओं, व्यापारियों और निवेशकों को संसद की बहस से इन सवालों के माकूल जवाब चाहिए क्योंकि, एक अदद खराब जीएसटी हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा.

Monday, December 14, 2015

भारतीय सियासत का ग्रीन होल

अब जब कि पर्यावरण को लेकर दुनिया के सामने ठोस आर्थिक व राजनैतिक वादों की बारी है तब हमारी सियासी बहसों की पर्यावरणीय दरिद्रता और ज्यादा मुखर हो चली है. 
क्या प  मुतमइन हो सकते हैं कि नेताओं ने शीतकालीन सत्र में तीन दिन तक, जिस तरह संविधान और सहिष्णुता का धान कूटा, ठीक उसी तरह दिल्ली की दमघोंट हवा और चेन्नै के सैलाब पर भी बहस की आएगी. संसद का रिकॉर्ड देखने के बाद उम्मीद नहीं जगती कि देर रात तक संसद चलाकर लडऩे वाले नेता, बदमिजाज मौसम से जीविका व जिंदगी को बचाने वाली गवर्नेंस पर ऐसी गंभीर बहस करेंगे. अतीत की रेत में धंसे शुतुरमुर्गी सिरों जैसी संसदीय बहसें बताती हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सियासत में आधुनिकता का स्तर न्न्या है. भारत में तो ग्रीन पॉलिटिक्स की आमद एक दशक पहले तक हो जानी चाहिए थी जब मौसमी बदलाव जानलेवा हो चले थे. अब जब कि पर्यावरण को लेकर दुनिया के सामने ठोस आर्थिक और राजनैतिक वादों की बारी है, तब हमारी सियासी बहसों की पर्यावरणीय दरिद्रता और ज्यादा मुखर हो चली है.
यूरोप में ग्रीन पॉलिटिक्स ने दरअसल वामपंथी दलों की जगह भरी है. पर्यावरण की नई राजनीति यूरोप में 1980 के दशक में उभरी और 1990 के दशक की शुरुआत तक बेहद प्रभावी हो गई. चुनावों में ग्रीन पार्टियों ने बड़ी सफलता नहीं हासिल की पर यह पार्टियां पर्यावरण को सुरक्षित रखने की नीतियों की हिमायत के साथ क्रमशः राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक एजेंडा तय करने लगीं. इस 'ग्रीन लेफ्ट' के अतिवादी आग्रहों पर कई बार लानतें भेजी गईं लेकिन इस राजनीति का असर था ग्रीन टैक्स, साफ ऊर्जा, शहरों में कंजेशन टैक्स, विलासितापूर्ण जिंदगी के लिए ऊंची कीमत, प्रकृति के लिए सुरक्षित कारोबार को लेकर आज यूरोप के कानून और नियम, अमेरिका से ज्यादा आधुनिक हैं.
अगर आपको हैरत न हुई तो अब होनी चाहिए कि संविधान दिवस की बहस में जब सभी दल अपने-अपने आंबेडकर चुने रहे थे और कांग्रेस और बीजेपी का आइडिया ऑफ इंडिया एक दूसरे से गुत्थमगुत्था थे, ठीक उस समय प्रधानमंत्री के दफ्तर में पेरिस पर्यावरण सम्मेलन को लेकर भारत की वचनबद्धताओं को अंतिम रूप दिया जा रहा था. संसद ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि आखिर कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए भारत जो समझौते करने वाला है, उससे देश की आबादी की जिंदगी पर कैसे असर होंगे? भारत ने दुनिया से वादा किया है कि वह 2020 तक, पर्यावरण को गर्म करने वाले कार्बन का उत्सर्जन 33 से 35 फीसदी घटाएगा. यह बहुत बड़ा वादा है जिसकी आर्थिक-राजनैतिक लागत भी बड़ी होगी क्योंकि इसके बाद साफ सुथरी बिजली से लेकर हर जगह नई तकनीकों की जरूरत होगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पेरिस होकर लौट आए, चेन्नै में मौसम के गुस्से ने दहला भी दिया लेकिन भारत के नेता जिंदगी और मौत से जुड़ी बहसों में शायद इसलिए नहीं उतर पाए क्योंकि उनकी सियासी पढ़ाई में आधुनिक ग्रीन पॉलिटिक्स का अध्याय ही नहीं है.
दिल्ली का स्मॉग इसी साल नहीं पैदा हुआ. लेकिन राजनैतिक मंचों पर यह सवाल कभी नहीं उभरा कि शहरों की आबोहवा बदलने के लिए तात्कालिक व दीर्घकालिक रणनीति क्या होगी? अदालत ने जब चाबुक फटकारा तो हर काम जनता से पूछकर करने वाले केजरीवाल ने सिर्फ पंद्रह दिन के नोटिस पर हफ्ते में तीन दिन आधी कारें सड़क से हटाने का फरमान जारी कर दिया. दुनिया के ज्यादातर शहरों में यह व्यवस्था इसलिए आजमाई नहीं गई क्योंकि वहां की राजनीति ने उन विकल्पों पर चर्चा की थी जो कम से कम असुविधा में जनता को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाते थे. भारत में ग्रीन पॉलिटिक्स सक्रिय होती तो हम दिल्ली में कंजेशन टैक्स लगाने, पार्किंग महंगी करने, एक से अधिक कार रखने पर रोक, डीजल कारों पर टैक्स बढ़ाकर राजस्व जुटाने और उससे नगरीय परिवहन तैयार करने पर चर्चा कर रहे होते न कि कारें बंद करने के बेतुके फैसलों से निबटने की तैयारी कर रहे होते. तब हमारी बहसें यह होतीं कि क्लीन एनर्जी सेस या स्वच्छ भारत सेस का इस्तेमाल आखिर कहां हो रहा है?
सियासत के पोंगापंथ पर शक नहीं है लेकिन नसीहतों को लेकर असंवेदनशीलता ज्यादा परेशान करती है. पिछले एक दशक में आधुनिक सियासत व गवर्नेंस की बड़ी बहसें या फैसले देश की पारंपरिक राजनीति के मंच से उठे ही नहीं हैं. भारत में पर्यावरण को लेकर गवर्नेंस को बदलने की शुरुआत स्वयंसेवी संस्थाओं और अदालतों की जुगलबंदी से होती है, किसी राजनैतिक दल के आंदोलन से नहीं. पश्चिम के लोकतंत्र इससे ठीक उलटे हैं. वहां पर्यावरण के नुक्सान भारत जैसे मुल्कों की तुलना में कम हैं फिर भी उन्होंने राजनैतिक आंदोलनों के जरिए पर्यावरण को राजनीति के केंद्र में स्थापित किया. भारत में पर्यावरण को लेकर जो गैर राजनैतिक और स्वयंसेवी सक्रियता दिखी भी, उसे नई सरकार ने बंद कर दिया. आबोहवा की दुरुस्तगी पर अगर, अदालतें न सक्रिय हों तो भारत के नेता, इतिहास में बदलाव पर जूझ जाएंगे लेकिन दमघोंट वर्तमान को बदलने पर सक्रिय नहीं होंगे. 
भारत के भविष्य की अब लगभग हर नीति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण से प्रभावित होनी है. आने वाले कुछ ही वर्षों में शहर बनाने से लेकर बिजली संयंत्र लगाने, कारों के उत्पादन से उनके इस्तेमाल तक, बीमारियों से लड़ाई के इंतजाम से लेकर खेती तक और टैक्स, निर्यात, आयात तक लगभग सभी नीतियों में जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण के संदर्भ मुखर होने वाले हैं, जो जिंदगी जीने की लागत व तरीका बदलेंगे. ग्रीन गवर्नेंस को लेकर नेताओं की सीमित समझ और सक्रियता से दो तरह के खतरे सामने हैं एक—अदालती या अंतरराष्ट्रीय फैसलों के कारण हम अचानक जिंदगी बदलने या महंगी करने वाले अहमक फैसलों के शिकार हो सकते हैं, जैसा दिल्ली में कारों की संख्या कम करने को लेकर हुआ है. और दूसरा-हमें शायद धुंध या पानी में डूबने के लिए छोड़ दिया जाएगा.

पर्यावरण की चुनौती से निबटने वाली गवर्नेंस के लिए हमें एक आधुनिक सियासत चाहिए जो अभी केंद्रीय स्तर पर भी नहीं है, राज्यों की राजनीति में तो अभी इसका बीज तक नहीं पड़ा है. अगर चेन्नै की डूब और दिल्ली की जहर भरी हवा भी हमारी सियासत को आधुनिक व दूरदर्शी नहीं बना पा रही है तो मान लीजिए कि किसी बड़े जनविनाश के बावजूद हम इतिहास ठीक करने की बहस में ही उलझे रहेंगे, भविष्य बचाने की नहीं. 

Monday, December 7, 2015

सवालों का सैलाब

मौसम का मिजाज भारत जैसे देशों की आर्थिकऔद्योगिक वित्तीय नीतियों और बजट को बदलने वाला है

क्या हम शहरों की चार आठ लेन सड़कों पर नौकायन के लिए तैयार हैं? क्या हम आए दिन, चक्रवाती तूफान झेल सकते हैं? क्या हम बेमौसम भीषण बारिश, ठंड या तपन के लिए तैयार हैं? ... पर्यावरण से जुड़े ये सवाल कुछ पुराने पड़ गए हैं. नए सवाल कुछ इस तरह हो सकते हैः क्या आप कमाई में कमी के लिए तैयार हैं? क्या हम महंगी बिजली का बिल भरने की स्थिति में हैं? क्या आपके पास सेहत ठीक रखने की लागत उठाने का इंतजाम है? क्या आप बीमा प्रीमियमों का बोझ उठा पाएंगे? बदमिजाज मौसम की बहसें अब पर्यावरण को लेकर सैद्धांतिक चर्चाओं से निकलकर ठोस आर्थिक हलकों में पैठ गई हैं, जहां कार्बन उत्सर्जन कम करने की दीर्घकालीन योजनाओं से ज्यादा बड़ी फिक्र इस बात की है कि रोजाना के असर से कैसा निबटा जाए. भारत में तो अभी हम आपदा राहत की चर्चाओं से ही आगे नहीं बढ़ पाए हैं, आर्थिक क्षति को संभालने के मामले में तो दरअसल खुले आकाश के नीचे खड़े हैं.
चेन्नै की सड़कों से बाढ़ का पानी उतरने के बाद जब कारों, दुकानों, संपत्तियों की मरम्मत को लेकर बीमा क्लेम की बाढ़ आएगी तो आपदा बीमा कंपनियों के दफ्तरों में दिखाई देगी. विमान कंपनियां भी चेन्नै की उड़ानें रद्द होने का नुक्सान जोड़ बीमा कंपनियों के दरवाजे दस्तक देंगी. तमिलनाडु के उद्योग तो बारिश का कहर शुरू होते ही बीमा क्लेम तैयार करने में जुट गए थे. पेरिस जलवायु सम्मेलन में जब ग्लोबल बीमा उद्योग के प्रतिनिधि, आतंकी मौसम पर अपना पक्ष रख रहे थे, तब चिंताएं सिर्फ हर्जाना भरने को लेकर बीमा उद्योग की क्षमता से ही जुड़ी नहीं थीं, बल्कि ज्यादा बड़ी फिक्र संयुक्त राष्ट्र के इस आकलन को लेकर थी कि विकासशील देशों में मौसमी नुक्सान का केवल एक फीसदी हिस्सा ही बीमा रिस्क कवरेज के दायरे में आता है. इसके बावजूद 2013 में हिमाचल और उत्तराखंड में लगभग 5,000 करोड़ रु. का नुक्सान करने वाली बाढ़ के दावों को संभालने में बीमा उद्योग को पसीने आ गए.
मौसमी नुक्सान को बीमा उपलब्ध कराना भारत के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने से ज्यादा बड़ी चुनौती है. 2004 से 2011 के बीच भारत में प्राकृतिक आपदाओं से करीब 9,000 करोड़ रु. का नुक्सान (आइसीआइसीआइ लोम्बार्ड का आकलन) हुआ है, जिसमें 85 फीसदी नुक्सान को कोई बीमा सुरक्षा हासिल नहीं थी. मौसम के कहर का सबसे बड़ा असर ग्लोबल बीमा उद्योग पर हुआ है. एओन पीएलसी की ताजी रिइंश्योरेंस मार्केट आउटलुक रिपोर्ट बताती है कि 2005 के बाद से प्राकृतिक आपदाओं से बीमा उद्योग का नुक्सान औसतन 15 अरब डॉलर सालाना से बढ़कर 2011 में 100 अरब डॉलर तक पहुंच गया था. 2015 तक पिछले तीन वर्षों में यह औसतन 20 से 40 अरब डॉलर रहा. दुनिया की सबसे बड़ी रिइंश्योरेंस फर्म स्विस री का आकलन है कि 2014 की पहली छमाही में आपदाओं की कुल आर्थिक लागत 59 अरब डॉलर थी, जिसमें बीमा कंपनियों ने 21 अरब डॉलर की चोट खाई. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, 2015 की पहली छमाही में 33 अरब डॉलर के आर्थिक नुक्सान पर बीमा कंपनियों ने करीब 13 अरब डॉलर के हर्जाने दिए हैं. भारत में आपदाओं का बीमा कवरेज वर्तमान स्तर से दोगुना भी करना हो तो बीमा कंपनियों को भारी रिइंश्योरेंस जुटाना होगा और लोगों को मोटे प्रीमियम भरने के लिए तैयार रहना होगा.
गर्मी बढ़ाने वाले कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए पेरिस में जब भारत व फ्रांस ऊष्णकटिबंधीय सौ देशों के सौर ऊर्जा समूह की घोषणा कर रहे थे तब जलवायु सम्मेलन के गलियारों में गैर पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की लागत को लेकर बहस भी चल रही थी. ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के डॉ. चार्ल्स फ्रैंक का एक शोध बीते बरस सुर्खियों में था जो बताता है कि  कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए सौर ऊर्जा सबसे महंगा विकल्प है इसके बाद विंड एनर्जी, पनबिजली और नाभिकीय ऊर्जा आते हैं. भारत में सौर ऊर्जा को लेकर सक्रियता बढऩे के बाद उत्पादन लागत कम हुई है लेकिन सौर ऊर्जा केंद्र तक ग्रिड पहुंचाने की लागत जोड़ने पर बिजली महंगी हो जाती है. पारंपरिक बनाम गैर पारंपरिक ऊर्जा की लागत पर तकनीकी बहसें संकेत करती हैं कि फिलहाल, गैर पारंपरिक ऊर्जा को सस्ता रखने के लिए सब्सिडी देनी होगी जो कार्बन उत्सर्जन घटाने की लागत बढ़ाएगी. ताजा निष्कर्ष यह है कि सरकारों को किसी एक या दो ऊर्जा स्रोत को बढ़ावा देकर किसी भी स्रोत से कार्बन उत्सर्जन कम करने की कोशिश करनी चाहिए. अर्थात् कोयला या गैस आधारित बिजली को नई तकनीकें चाहिए, जिन पर ऊर्जा उत्पादन निर्भर है. इन तकनीकों से बिजली की लागत बढ़ना तय है. यानी हमें महंगी बिजली के लिए तैयार रहना होगा और महंगी ऊर्जा विकासशील देश की ग्रोथ की रफ्तार पर असर डालेगी ही. 
बीजिंग में धुंध के कारण उद्योगों की बंदी और पिछले साल भयानक सर्दी के कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ने तक दुनिया को यह एहसास हो चुका था कि मौसम का मिजाज विश्व की सबसे बड़ी सामूहिक उम्मीद पर भारी पड़ेगा. अब दुनिया को तेज ग्रोथ की रणनीतियों से आए दिन समझौता करना होगा. चाहे वह ऊर्जा की खपत कम करना हो या साफ ऊर्जा की लागत बढ़ाना हो या जीवन को सुरक्षित रखने के इंतजाम हों या फिर सेहत बचाने की लागत हो, ये सब मिलकर ग्रोथ पर भारी पड़ेंगे जिसका असर हमें कमाई व रोजगारों पर दिखेगा. इसलिए जलवायु परिवर्तन तीसरी दुनिया की सबसे बड़ी मुसीबत है जिसका अच्छी जिंदगी से अभी परिचय भी नहीं हुआ है.

चेन्नै ने बताया है कि भारत को सिर्फ महानगरों में नावों का ही इंतजाम नहीं करना होगा बल्कि मजबूत बीमा तंत्र, हेल्थ केयर और ऊर्जा की लागत कम करने के उपाय भी चाहिए और इन सबके बीच रोजगार और कमाई बढ़ाने के मौके भी पैदा करने होंगे. मौसम का मिजाज भारत जैसे देशों की आर्थिक, औद्योगिक वित्तीय नीतियों और बजट को बदलने वाला है. कुदरत की करवटें सरकारों से बला की चतुरता और दूरदर्शिता मांग रही हैं जो ग्लोबल मंचों से ज्यादा देश के भीतर दिखनी चाहिए. क्रूर मौसम हमारा भविष्य तो बाद में बदलेगा, पहले यह वर्तमान को बदलने वाला है. क्या हमारी सियासत इन बदलावों के लिए अपेक्षित सूझबूझ से लैस है

Sunday, November 29, 2015

युआन की दहाड़

युआन का एसडीआर में आना महज वित्तीय घटना नहीं है इससे ग्लोबल आर्थिक-राजनैतिक संतुलन में वे बड़े बदलाव शुरू होंगे जिनका आकलन वर्षों से हो रहा था.
क्कीसवीं सदी का इतिहास लिखते हुए यह जरूर दर्ज होगा कि चीन शायद उतनी तेजी से नहीं बदला जितनी तेजी से उसके बारे में दुनिया का नजरिया बदला. बात इसी सितंबर की है जब अमेरिका में भारतीय प्रधानमंत्री सहित लगभग सभी ग्लोबल राष्ट्राध्यक्ष मौजूद थे लेकिन अहमियत रखने वाली निगाहें केवल चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अमेरिका की यात्रा पर थीं, जो यह सुनिश्चित करने के लिए बीजिंग पहुंचे थे कि चीन की मुद्रा युआन (जिसे रेन्मिन्बी भी कहते हैं) को करेंसी के उस आभिजात्य क्लब में शामिल किया जाएगा जिसमें अब तक केवल अमेरिकी डॉलर, जापानी येन, ब्रिटिश पाउंड और यूरो को जगह मिली है. सितंबर में वाशिंगटन के कूटनीतिक गलियारों में तैरती रही यह मुहिम, बीते पखवाड़े बड़ी खबर बनी जब आइएमएफ ने ऐलान किया कि उसके विशेषज्ञ एसडीआर में युआन के प्रवेश पर राजी हैं. इसके साथ ही तय हो गया कि अक्तूबर 2016 में युआन को दुनिया की पांचवीं सबसे ताकतवर करेंसी बनाने की औपचारिकता पूरी हो जाएगी. एसडीआर में युआन के प्रवेश से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के लिए ऐसी साख मिली है जिसका कोई सानी नहीं है.
विदेशी मुद्रा संकट में फंसे देशों के लिए आइएमएफ की मदद अंतिम सहारा होती है जो कि हाल में ग्रीस या यूरोप के अन्य संकटग्रस्त देशों को और 1991 में भारत को मिली थी. आइएमएफ के तहत एसडीआर यानी स्पेशल ड्राइंग राइट्स एक संकटकालीन व्यवस्था है. एसडीआर एक तरह की करेंसी है जो आइएमएफ के सदस्य देशों के विदेशी मुद्रा भंडार के हिस्से के तौर पर गिनी जाती है. संकट के समय इसके बदले आइएमएफ से संसाधन मिलते हैं. एसडीआर एक तकनीकी इंतजाम है जिसकी जरूरत दुर्भाग्य से ही पड़ती है लेकिन परोक्ष रूप से यह क्लब दरअसल दुनिया के विदेशी मुद्रा भंडारों के गठन का आधार है. दुनिया के लगभग सभी देशों के विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर, येन, पाउंड और यूरो पर आधारित हैं, युआन अब इनमें पांचवीं करेंसी होगी.
एसडीआर ने 46 साल के इतिहास में बहुत कम सुर्खियां बटोरी हैं. इस दर्जे को पाने के लिए आइएमएफ की शर्तें इतनी कठिन हैं कि कोई देश इस तरफ देखता ही नहीं. 2001 में कई यूरोपीय मुद्राओं के विलय से बना यूरो इसका हिस्सा बना था. किसी मुद्रा के लिए आइएमएफ के मूल्यांकन की दो शर्तें हैं. पहली शर्त है कि इस मुद्रा को जारी करने वाला देश बड़ा निर्यातक होना चाहिए. विश्व निर्यात में 11 फीसदी हिस्से के साथ चीन इस पैमाने पर बड़ी ताकत है. निर्यात के पैमाने पर युआन डॉलर व यूरो के बाद तीसरे नंबर पर है, येन और पाउंड काफी पीछे हैं.
एसडीआर क्लब में सदस्यता की दूसरी शर्त है कि करेंसी का मुक्त रूप से इस्तेमाल हो सके. इस पैमाने पर चीन शायद खरा नहीं उतरता, क्योंकि युआन पर पाबंदियां आयद हैं और इसकी कीमत भी बाजार नहीं बल्कि सरकार तय करती है, लेकिन यह चीन का रसूख ही है कि आइएमएफ ने मुक्त करेंसी के पैमाने पर युआन के लिए परिभाषा बदली है. आइएमएफ का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय विनिमय में युआन का हिस्सा काफी बड़ा है. 2014 में यह विभिन्न देशों के मुद्रा भंडारों में सातवीं सबसे बड़ी करेंसी थी. ग्लोबल करेंसी स्पॉट ट्रेडिंग में युआन 11वीं और बॉन्ड बाजारों में सातवीं सबसे बड़ी करेंसी है. यही वजह थी कि अपरिवर्तनीय होते हुए भी युआन को वह दर्जा मिल गया जो लगभग असंभव है.
युआन की यह ऊंचाई, बड़े बदलाव लेकर आएगी. एसडीआर में पांचवीं करेंसी आने के साथ अगले कुछ महीनों में दुनिया के देश अपने विदेशी मुद्रा भंडारों का पुनर्गठन करेंगे और युआन का हिस्सा बढाएंगे. माना जा रहा है कि करीब एक ट्रिलियन डॉलर के अंतरराष्ट्रीय विदेशी मुद्रा भंडार युआन में बदले जाएंगे यानी कि डॉलर की तर्ज पर युआन की मांग भी बढ़ेगी. वल्र्ड बैंक का मानना है कि अगले पांच साल में दुनिया की कंपनियां बड़े पैमाने पर युआन केंद्रित बॉन्ड जारी करेंगी, जिन्हें वित्तीय बाजार 'पांडा बॉन्ड' कहता है. इनका आकार 50 अरब डॉलर तक जा सकता है जो वित्तीय बाजारों में इसकी हनक कई गुना बढ़ाएगा.
युआन ने खुद को ग्लोबल रिजर्व करेंसी बनाने की तरफ कदम बढ़ा दिया है. ग्लोबल बाजारों में ब्रिटिश पाउंड का असर सीमित है, जापानी येन एक ढहती हुई करेंसी है और यूरो का भविष्य अस्थिर है. इसलिए अमेरिकी डॉलर और युआन शायद दुनिया की दो सबसे प्रमुख करेंसी होंगी. दरअसल, चीन चाहता भी यही था, इसलिए युआन का एसडीआर में आना केवल एक वित्तीय घटना नहीं है बल्कि इससे ग्लोबल आर्थिक-राजनैतिक संतुलन में वे बदलाव शुरू होंगे जिनका आकलन वर्षों से हो रहा था. दरअसल, यहां से दुनिया में डॉलर के एकाधिकार की उलटी गिनती पर बहस ज्यादा तथ्य और ठसक के साथ शुरू हो रही है, क्योंकि दुनिया के करीब 45 फीसदी अंतरदेशीय विनिमय अमेरिकी डॉलर में होते हैं जिसके लिए अमेरिकी बैंकिंग सिस्टम की जरूरत होती है, जल्द ही इसका एक बड़ा हिस्सा युआन को मिलेगा.
चीन जिस ग्लोबल आर्थिक ताकत बनने के सफर पर है, उसमें युआन का यह दर्जा सबसे अहम पड़ाव है, लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि दरअसल चीन उतना नहीं बदला है जितना कि दुनिया का नजरिया चीन के प्रति बदल गया है. चीन में आज भी लोकतंत्र नहीं है और वित्तीय तंत्र पहले जैसा अपारदर्शी है फिर से दुनिया ने चीन की ताकत को भी स्वीकार कर लिया है. लेकिन अब चीन को बड़े बदलावों से गुजरना होगा. युआन शायद उन सुधारों की राह खोलेगा, ग्लोबल रिजर्व करेंसी की तरफ बढऩे के लिए विदेशी मुद्रा सुधार, बैंकिंग सुधार, वित्तीय सुधार जैसे कई कदम उठाने होंगे, जिनकी तैयारी शुरू हो गई है. सीमित रूप से उदार और गैर-लोकतांत्रिक चीन अगर इतनी बड़ी ताकत हो सकता है तो सुधारों के बाद चीन का ग्लोबल रसूख कितना होगा, इसका अंदाज फिलहाल मुश्किल है.
भारत में नई सरकार आने से लगभग एक साल पहले चीन के राष्ट्रपति बने जिनपिंग ने अपने राजनैतिक व आर्थिक लक्ष्य बड़ी सूझबूझ व दूरदर्शिता के साथ चुने हैं और सिर्फ दो साल में उन्हें ऐसे नतीजों तक पहुंचाया है जिन्हें चीन ही नहीं, पूरी दुनिया महसूस कर रही है. क्या हम चीन से कुछ सीखना चाहेंगे?