Wednesday, February 3, 2016

मंदी स्वच्छता मिशन


लगभग ढाई दर्जन स्कीमों के मिशन और अभियानों से लदी-फदी सरकार उस जमीनी असर की तलाश में बेचैन है जो इतनी कोशिशों के बाद नजर आना चाहिए था.


मामि गंगे, स्वच्छता मिशन, डिजिटल इंडिया जैसे मिशन का औद्योगिक मंदी के इलाज से क्या रिश्ता है? सवाल इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि मोदी सरकार के मिशन मोड का उसके पिछले बजटों से क्या रिश्ता है, क्योंकि अगर मोदी के अभियानों का बजट यानी सरकारी खर्च या परियोजनाओं से कोई ठोस रिश्ता होता तो शायद हम मंदी के समाधान को जमीन पर उतरता देख रहे होते. मोदी सरकार जब अपने तीसरे बजट से महज तीस दिन दूर है तब यह महसूस करना कतई मुश्किल नहीं है कि अगर स्वच्छता, डिजिटल इंडिया, गंगा सफाई जैसे मिशन बजटीय नीतियों और खर्च के कार्यक्रमों से ठोस ढंग से जुड़ते तो इनसे मंदी दूर करने और रोजगार बहाल करने का जरिया निकल सकता था.
सरकार के गलियारों में टहलते और खबरों को सूंघते हुए यह अंदाजा लग जाता है कि मोदी सरकार अब अपने फैसले की समीक्षा के दौर में है. लगभग ढाई दर्जन स्कीमों के मिशन और अभियानों से लदी-फदी सरकार उस जमीनी असर की तलाश में बेचैन है जो इतनी कोशिशों के बाद नजर आना चाहिए था. समीक्षाओं का यह दौर चाहे जो नतीजा लेकर निकले, दो तथ्य स्पष्ट हो रहे हैं कि एक तो मिशन अपेक्षित नतीजे नहीं दे सके और दूसरा सरकार की बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाएं खड़ी नहीं हो सकीं जो अर्थव्यवस्था में मांग व बदलाव की उम्मीद जगातीं. ऐसा लगता है कि शायद वरीयताओं के किलों के नीचे परियोजनाओं और आवंटनों की नींव नहीं रखी गई. अगर ऐसा हुआ होता तो कई मिशन औद्योगिक ग्रोथ की गाड़ी में मांग और नए रोजगारों का ईंधन भर सकते थे. 
नमूने के तौर पर स्वच्छता और डिजिटल इंडिया को लिया जा सकता है जो विशुद्ध रूप से आर्थिक और बुनियादी ढांचा सेवाओं से जुड़े मिशन हो सकते थे, जिन्हें सरकार ने जनभागीदारी के प्रतीकों से जोड़कर प्रचार अभियान में बदल दिया और आर्थिक नतीजे सीमित हो गए.
अक्तूबर 2014 तक सड़कें बुहारती वीआइपी छवियों का दौर खत्म होने लगा था और न केवल गंदगी अपनी जगह मुस्तैद हो गई थी बल्कि सरकार में इस स्वच्छता मिशन को लेकर एक तरह का आलस पसरने लगा था. 2015 के बजट में जब सरकार से स्वच्छता मिशन को लेकर ठोस परियोजनाओं के ऐलान की उम्मीद थी, तब इसे जन चेतना से जोड़ दिया गया और स्वच्छता मिशन का चश्मा धूमिल पडऩे लगा.
स्वच्छता मिशन जो भारत में बुनियादी ढांचे को रक्रतार देने का जरिया बना सकता था, अब सिर्फ उम्मीदों में है. स्वच्छता को अगर आदत और जागरूकता की बहसों से बाहर निकाल कर देखा जाए तो यह शत प्रतिशत आर्थिक सर्विस है जो ठीक उसी तरह का बुनियादी ढांचा, तकनीक, लोग, विशेषज्ञताएं निवेश मांगती है जो शायद सिंचाई, रेलवे या दूरसंचार जैसी किसी भी दूसरी आर्थिक सेवा को चाहिए.
योजना आयोग का आकलन है कि नगरपालिकाओं में प्रति दिन लगभग 1.15 लाख टन से ज्यादा कचरा निकलता है और 12वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक, भारत में ठोस कचरा निस्तारण का कोई इंतजाम है ही नहीं. 2001 की जनगणना के अनुसार, क्लास वन और टू शहरों में 80 फीसदी सीवेज का ट्रीटमेंट नहीं होता. पिछली जनगणना ने बताया कि शहरों में 37 फीसदी आवास खुली नालियों से जुड़े हैं जबकि 18 फीसदी घरों का पानी सड़क पर बहता है. बरसाती पानी संभालने के लिए 80 फीसदी सड़कों के साथ ड्रेनेज नहीं है. ईशर अहलुवालिया समिति का आकलन था कि शहरों में सीवेज, ठोस कचरा प्रबंधन और बरसाती पानी की नालियों को बनाने के लिए पांच लाख करोड़ रु. की जरूरत है. कोई भी स्वयंसेवा संसाधनों की इस भीमकाय जरूरत का विकल्प नहीं बन सकती थी लेकिन अगर सरकार चाहती तो दो साल में स्वच्छता को लेकर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की कतार खड़ी कर सकती थी.
पिछले दो साल में देश के ज्यादातर शहरों में कचरा निस्तारण, ड्रेनेज और सीवेज की बड़ी परियोजनाएं शुरू हो सकती थीं जो शहरों को रहने लायक बनातीं, उद्योगों के लिए मांग पैदा करतीं, बड़े रोजगारों का रास्ता खोलतीं, कचरा नियंत्रण और शहर प्रबंधन की नई तकनीकों की तलाश शुरू करतीं, लेकिन एक आर्थिक सेवा को प्रतीकों तक सीमित रखने का नतीजा यह हुआ कि बड़ी बुनियादी ढांचा क्रांति सिर्फ नेताओं के ड्राइंग रूम में टंगी झाड़ू विभूषित छवियों तक सिमट गई.  
पिछले साल, 1 जुलाई को जब प्रधानमंत्री मोदी, इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में डिजिटल इंडिया मिशन लॉन्च कर रहे थे तब उस कार्यक्रम में मौजूद लोग कॉल ड्रॉप की शिकायत कर रहे थे. मुट्ठी भर ऐप्लिकेशन आधारित सेवाओं और ई-गवर्नेंस के पुराने प्रयोगों के नवीनीकरण के साथ नमूदार हुआ डिजिटल इंडिया भव्य तो था लेकिन ठोस नहीं.
नैसकॉम-मैकेंजी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में तकनीक व संबंधित सेवाओं का बाजार 2025 तक 350 अरब डॉलर पर पहुंच जाएगा जो पिछले साल 132 अरब डॉलर पर था. तकनीकों के बाजार की गहरी पड़ताल यह बताती है कि भारत बुनियादी तकनीकों का सबसे बड़ा बाजार है, अभी देश के पास कचरा निस्तारण, पेयजल आपूर्ति और शुद्धता, सरकारी सेवाओं का डिजिटाइजेशन, बेसिक हेल्थ सेवाएं जैसी तकनीकों की ही कमी है. मोबाइल ऐप्लिकेशन आधारित सेवाएं इसके बाद आती हैं.
जनभागीदारी से राजनैतिक परिवर्तन तो हो सकते हैं लेकिन आर्थिक बदलाव नहीं हो पाते. आर्थिक परिवर्तन के लिए नीतियों को लंबे समय तक सिंझाना होता है, गवर्नेंस को बार-बार हिलाते-मिलाते और पलटते रहना होता है, तब जाकर ग्रोथ का रसायन तैयार होता है. वित्त मंत्री अरुण जेटली अगले सप्ताह जब अपने तीसरे बजट का भाषण लिख रहे होंगे तो उनकी चुनौती घाटे के आंकड़े नहीं बल्कि वाजपेयी की सड़क परियोजना या मनमोहन की मनरेगा की तरह कुछ बड़ी परियोजनाओं को हकीकत बनाना होगा ताकि जमीन पर बदलावों की नापजोख हो सके. दुर्भाग्य से ऐसा करने के लिए मोदी सरकार के पास यह आखिरी बजट है क्योंकि 2017 2018 के बजट दस राज्यों के चुनाव की छाया में बनेंगे और उन बजटों में वित्तीय आर्थिक प्रबंधन और मंदी से जूझने की जुगत दिखाने का ऐसा मौका शायद फिर नहीं मिलेगा.


Monday, January 25, 2016

मंदी की बैलेंस शीट


अगर मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज कंपनियों ने निवेश शुरू नहीं किए तो स्टार्ट-अप के पास न मांग होगी, न मुनाफा और तब इनके वैल्यूएशन बुलबुले बन जाएंगे.

स्टार्ट-अप इंडिया का मेक इन इंडिया से क्या रिश्ता है? वैसा ही जैसा कि मेक इन इंडिया का भारतीय खेती से है या फिर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का शहरी और औद्योगिक अर्थव्यवस्था से है, क्योंकि ग्रामीण और कस्बाई मांग के बिना ऑटो, सीमेंट, खाद्य और उपभोक्ता उत्पादों का बाजार आज जैसी मंदी में डूब जाता है. भारत के सबसे ज्यादा वैल्यूएशन (शुद्ध कारोबार का औसतन सात गुना) वाले स्टार्ट-अप ई कॉमर्स से आते हैं. ई कॉमर्स भारत के विशाल उद्योग क्षेत्र के लिए छोटी-सी शॉपिंग मॉल जैसा है. दूसरी तरफ स्टार्ट-अप इंडिया के ग्राहक शहरी क्षेत्र से आते हैं जहां उद्योगों और इनसे जुड़ी सेवाएं ही रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत हैं.
बीते रविवार को प्रधानमंत्री जब लघु उद्योगों की नई पीढ़ी यानी स्टार्ट-अप के लिए सहूलियतों का अभियान शुरू कर रहे थे तब स्टार्ट-अप उद्यमियों की सूझ व साहस पर व वित्तीय जरूरतों की आपूर्ति पर संदेह नहीं था. सरकारी स्टार्ट-अप फंड का विचार उपजने (फंड अभी दूर है) से पहले इस महीने तक पिछले दो साल में वेंचर कैपिटल आधारित कंपनियों की फंडिंग 12 अरब डॉलर यानी करीब 80,000 करोड़ रुपए पर पहुंच गई. स्टार्ट-अप एग्रीगेटर टैक्स्कैन के मुताबिक, करीब 7.3 अरब डॉलर की फंडिंग तो 2015 में हुई है. इसलिए स्टार्ट-अप को पैसा कैसे मिलेगा, यह सवाल नहीं है बल्कि चुनौती तो यह है कि इन्हें बाजार मिलेगा या नहीं. अगर मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज में कंपनियों ने निवेश शुरू नहीं किया तो स्टार्ट-अप के पास न मांग होगी, न मुनाफा और तब इनके वैल्यूएशन बुलबुले बन जाएंगे जिसका डर सॉफ्टबैंक के प्रेसिडेंट और सीओओ निकेश अरोड़ा ने स्टार्ट-अप इंडिया के भव्य मंच से जाहिर भी किया.
स्टार्ट-अप इंडिया की सफलता के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली की जोड़ी को उस मंदी को तोडऩा है जो कंपनियों की बैलेंस शीट में बैठी है. पिछले दो साल में तमाम गंभीर कोशिशों और उससे गंभीर प्रचार के बावजूद अर्थव्यवस्था की चुनौती पिछले 18 माह में ज्यादा गहरा गई है. भारत में उद्योग, निर्माण और सेवाएं रोजगार के सबसे बड़े स्रोत हैं लेकिन यह मोर्चा तिल-तिल कर ढह रहा है. औद्योगिक ग्रोथ नवंबर में चार साल के सबसे निचले स्तर पर आ गई है. 2015-16 की पहली दो तिमाही में कंपनियों की कमाई 6 से 15 फीसद घटी. और यह गिरावट पिछले दो-तीन साल से जारी है. लगातार निर्यात मुश्किलें दोगुनी कर रहा है.
मेक इन इंडिया की कोशिशों और दो बजटों के बावजूद मोदी सरकार उद्योगों को नए निवेश के लिए क्यों राजी नहीं कर सकी? भारत का उद्योग जगत अब उस मंदी से घिर गया है जिसे तकनीकी जबान में बैलेंस शीट रिसेशन कहते हैं. यह पुरानी पारंपरिक मंदी से अलग और जटिल है. यह मंदी कंपनियों पर लदे कर्ज से उपजती है. नई अर्थव्यवस्था में अधिकांश निवेश निजी कंपनियां ही करती हैं. बैलेंस शीट रिसेशन के दौरान कंपनियां बुरी तरह कर्ज में दब जाती हैं इसलिए कंपनियां जो भी कमाई करती हैं, उसे कर्ज चुकाने में लगाती हैं, न कि नए निवेश में. ऐसी स्थिति में नया निवेश खत्म हो जाता है. ग्लोबल अर्थशास्त्री मानते हैं कि जापान की 1990 से 2005 तक की मंदी दरअसल कंपनियों की बैलेंस शीट को निचोड़ देने वाले उस कर्ज से उपजी थी जो उन्होंने बैंकों से ले रखा था. अमेरिका में 2007 से 2009 के बीच की मंदी भी बैलेंस शीट रिसेशन ही थी.
कर्ज ने भारत में कंपनियां की कमर तोड़ दी है. एक आर्थिक अखबार के अध्ययन के मुताबिक, 2014-15 के अंत में देश की 441 प्रमुख कंपनियां करीब 28.5 लाख करोड़ रुपए के कर्ज पर बैठी थीं जो देश की कुल 656 गैर वित्तीय कंपनियों के कर्ज का 98.1 फीसदी है. बीते दिसंबर में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कंपनियों को निवेश की राह में सबसे बड़ी मुसीबत यूं ही नहीं कहा था. कंपनियों के संचालन लाभ कर्ज पर ब्याज देने या चुकाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. ऐसा दबाव महसूस कर रही कंपनियों की संख्या 2009-10 में 16 थी जो तीन साल पहले 29 और अब 67 हो गई है. इसी तरह कंपनियों के निवेश पर रिटर्न भी 2014-15 में घटकर दशक के सबसे निचले स्तर 7.4 फीसद पर आ गया है. यही बैलेंस शीट रिसेशन है.
 याद कीजिए, ग्रोथ के लिए कर्ज पर ब्याज दरें घटाने की वह बहस जो पिछले साल खूब चली और तब ऐसा लगता था कि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय, दोनों दो ध्रुवों पर हैं. अलबत्ता रिजर्व बैंक सही निकला. कंपनियों के कर्ज इस कदर बढ़ चुके हैं कि वे जो कमाई कर रही हैं, वह कर्ज चुकाने में जा रही है. दूसरी तरफ, बैंक बकाया कर्जों के पहाड़ तले दब गए हैं. यही वजह है कि ब्याज दर में कमी के बावजूद न निवेश बढ़ा, न ग्रोथ. इसके साथ ही यह समझ में आ गया कि इस मंदी का इलाज सस्ता कर्ज है ही नहीं क्योंकि जिस वजह से कंपनियां बीमार हैं उसे बढ़ाने वाली दवा वह क्यों लेंगी.

अगर वित्त मंत्री इस सच से इत्तेफाक रखते हैं तो इस मंदी का इलाज बजट को ही निकालना होगा. सरकार बदलने से सब कुछ बदल जाने के ख्यालीपुलाव की महक अब खत्म हो रही है और औद्योगिक उत्पादन, निर्यात, खेती की उपज, शेयर बाजारों में गिरावट की तल्ख हकीकत सामने आ चुकी है तो उन्हें बजट का पूरा गणित बदलना होगा. मोदी सरकार के पिछले दो बजटों में मंदी खत्म करने को लेकर बड़ी निर्णायक रणनीति नजर नहीं आई. सिर्फ खर्च रोककर और टैक्स बढ़ाकर घाटे को संभालने की कोशिश सफल हुई लेकिन इन बजटों से मांग की कमी और उस मंदी का इलाज नहीं हुआ जो कंपनियों की बैलेंस शीट में पैठ गई है. आधुनिक इकोनॉमी यानी स्टार्ट-अप, पुरानी इकोनॉमी यानी मेक इन इंडिया और खेती अब तीनों सरकार से मंदी का इलाज करने वाला ड्रीम बजट चाहते हैं क्या वित्त मंत्री बड़ी परियोजनाएं, खर्च में तेज बढ़ोतरी और टैक्सों में कमी दे सकेंगे? अगर यह साहस नहीं दिखा तो वास्तविक अर्थव्यवस्था की ढलान स्टार्ट-अप इंडिया को बढऩे की तो छोड़िए, पांव टिकाने का मौका भी नहीं देगी. 

Tuesday, January 19, 2016

सुधारों का सूचकांक


क्‍या धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस लौट रही हैजो बीजेपी के साथ सुधारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था की वापसी की उम्मीदों के विपरीत है.
जब मौजूदा स्टील उद्योग मांग में कमी से परेशान हो और मदद मांग रहा हो तो केंद्र सरकार राज्यों के साथ नई स्टील कंपनियां क्यों बनाने जा रही है? छोटे उद्यमियों को कर्ज देने के लिए नए सरकारी बैंक (मुद्रा बैंक) की क्या जरूरत है जबकि कई सरकारी वित्तीय संस्थाएं यही काम कर रही हैं? गंगा सफाई के लिए सरकारी कंपनी बनाने की जरूरत क्यों है जबकि विभिन्न एजेंसियां व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसी का कमा-खा रहे हैं? व्यावसायिक शिक्षा और रोजगार निजी क्षेत्र से मिलने हैं तो स्किल डेवलपमेंट के लिए अधिकारियों का नया काडर बनाने की क्या जरूरत है? सरकारी स्कीमों की भव्य विफलताओं के बाद मिशन और स्कीमों की गवर्नेंस हमें कहां तक ले जाएंगी? क्या अब भी वह वक्त नहीं आया है कि रेलवे, कोयला, बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में सरकारी एकाधिकार खत्म किया जाए और सरकारी कंपनियों व बैंकों का निजीकरण किया जाए?
  फरवरी की 13 तारीख को जब मुंबई में मेक इन इंडिया के पहले सालाना जलसे में दुनिया भर की कंपनियां (60 देशों से 1,000 कंपनियों के आने की संभावना) जुटेंगी तो उनके दिमाग में ऐसे सवाल गूंज रहे होंगे. दरअसल, निवेशकों का सबसे बड़ा मलाल यह नहीं है कि बीजेपी बिहार-दिल्ली हार गई है बल्कि यह आशंका साबित होना है कि धीरे-धीरे सरकारी नियंत्रण वाली गवर्नेंस लौट रही है, जो बीजेपी के साथ सुधारवादी मुक्त अर्थव्यवस्था की वापसी की उम्मीदों के विपरीत है.
  राजनीति में दक्षिणपंथ, वामपंथ, समाजवाद, सेकुलरवाद, जातिवाद, राष्ट्रवाद की चाहे जो छौंक लगाई जाए लेकिन आम लोगों ने तजुर्बों के आधार पर सरकारों को सुधारक मानने के अपने पैमाने तय किए हैं. दिलचस्प यह है कि निवेशक और उद्यमी भी इन्हीं  पैमानों से इत्तेफाक रखते हैं जो कि देश के अधिकांश लोगों ने तय किए हैं. तेज आर्थिक सुधार, आय में बढ़ोतरी और रोजगार देने वाली सरकारें न केवल लोगों की चहेती रही हैं बल्कि निवेशकों ने भी इन्हें सिर आंखों पर बिठाया. यही वजह है कि मोदी का भव्य जनादेश तेज ग्रोथ, मुक्त बाजार और रोजगार देने वाली सरकार के लिए था.
  आर्थिक सुधारों की दमकती सफलता ने यह सुनिश्चित किया है कि मुक्त बाजार और निजी उद्यमिता के प्रबल पैरोकार को भारत में सुधारक राजनेता माना जाएगा. मोदी से मुक्त बाजार का चैंपियन बनने की उम्मीदें इसलिए हैं, क्योंकि वे खुले बाजार के करीब हैं और मोदी गुजराती उद्यमिता के अतीत से प्रभावित रहे हैं. कांग्रेस ने इक्लूसिव ग्रोथ की जिद में उदारीकरण पर जो बंदिशें थोप दी थीं, मोदी उन्हें खत्म करने वाले मसीहा के तौर पर उभरे थे.
  अलबत्ता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले 18 माह में ऐसे दस फैसले भी नहीं किए जो सैद्धांतिक या व्यावहारिक तौर पर उनकी सरकार को साहसी सुधारक या मुक्त बाजार की पैरोकार साबित करते हों. दूसरी तरफ ऐसे फैसलों की फेहरिस्त लंबी है जो मोदी सरकार को बंद बाजार, संरक्षणवाद की हिमायती यानी वामपंथी आर्थिक दर्शन के करीब खड़ा दिखाती है.
  मोदी सरकार ने पिछले 18 माह में आधा दर्जन नई सरकारी कंपनियों की बुनियाद रखी है. दूसरी तरफ बैंकिंग, एयर इंडिया, रेलवे और कोल इंडिया के विनिवेश या खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर पसीना आ गया है और विश्व के देशों से मुक्त व्यापार समझौतों पर स्वदेशी हावी हो गया है.
  मोदी से उदारीकरण का मसीहा बनने की उम्मीदें नाहक नहीं थीं. पिछले दो दशक के आंकड़े और अनुभव, दोनों ही यह साबित करते हैं कि सरकार ने नहीं, बाजार ने भारत का उद्धार किया है. 1991 में सुधारों के बाद से अगले एक दशक में भारत में अतिनिर्धनता करीब दस फीसद कम हुई, जिसमें बड़ा योगदान लोगों की आय बढऩे का है जो निजी क्षेत्र से आए रोजगारों के कारण बढ़ी है.
  आर्थिक उदारीकरण की सूत्रधार होते हुए भी कांग्रेस ने पिछले एक दशक में गवर्नेंस बदलने का कोई जोखिम नहीं लिया इसलिए शुरुआती सफलताओं के बाद आर्थिक सुधार दागी होते चले गए. मोदी जब मिनिमम गवर्नमेंट की बात कर रहे थे तो एहसास हुआ कि शायद उन्होंने अपेक्षाएं समझ ली हैं, क्योंकि मिनिमम गवर्नमेंट में ब्यूरोक्रेसी छांटने, हर तरह की पारदर्शिता लाने, प्रशासनिक सुधार, जैसे वे सभी पहलू आते हैं जिन्होंने भारत में ग्रोथ को दागी किया है. इसके विपरीत मोदी सरकर एक नया स्कीमराज लेकर आ गई जो इसे मैक्सिमम गवर्नेंस जैसा बनाता है.
  जिन सुधारों का जिक्र हमने किया वे मोदी से न्यू्नतम तौर पर अपेक्षित थे. दरअसल, सरकार को तो इसके आगे जाकर बाजार में किस्म-किस्म के कार्टेल ताोड़ने , कॉर्पोरेट गवर्नेंस, राज्यों में निजीकरण, नए नियामकों का गठन और राजनैतिक दलों में पारदर्शिता जैसे कदम उठाने थे, जिनसे भारत में दूरगामी बदलावों की दिशा तय होनी है.
 सरकारी हलकों में इस तल्ख हकीकत को अब महसूस किया जा रहा है कि स्कीमों, ब्यूरोक्रेसी और संरक्षणवाद से लदी-फदी यह ऐसी गवर्नेंस है जो न तो निचले तबके को छू सकी है और न ही युवा और निवेशकों और उद्यमियों में कोई उत्साह पैदा कर पाई है. मेक इन इंडिया सम्मेलन में लोगों के जेहन में वे आंकड़े भी तैरेंगे जो गवर्नेंस के लिए पहली बड़ी चुनौती का सायरन बजा रहे हैं. आर्थिक परिदृश्य को चाहे खेती, उद्योग, विदेश व्यापार में बांटकर देखें या केंद्रीय, राज्यीय और अंतरराष्ट्रीय पक्षों में, यह पहला मौका है जब खेती, निर्यात, उद्योग, रोजगार आदि कई क्षेत्रों में लाल बत्तियां एक साथ जल उठी हैं और आर्थिक बहस को सुधारों की बजाए संकट प्रबंधन की तरफ मोडऩे वाली हैं.
2014 के जनादेश के बाद लोगों ने नरेंद्र मोदी में मार्गरेट थैचर, रोनाल्ड रेगन और ली क्वान यू की झलक देखी थी जो साहस और संकल्प से अपने देशों की कायापलट के लिए जाने जाते हैं. मोदी को थैचर, रेगन होने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी होना है जो सूझ, संकल्प और समावेश में मोदी सरकार के 18 महीनों पर भारी पड़ते हैं. अब बीजेपी की चुनौती किसी राज्य में सत्ता में पहुंचना हरगिज नहीं होनी चाहिए. सरकार को यह धारणा बनने से रोकना होगा कि नरेंद्र मोदी के रूप में भारत को वह सुधारक नहीं मिल पाया है जिसकी हमें तलाश थी. क्या 2016 का बजट इस धारणा को खारिज करने की शुरुआत करेगा?


Tuesday, January 12, 2016

उदार बाजार की गुलामी

 लाइसेंस परमिट राज खत्म होने के बाद भी भारत का बाजार पूरी तरह खुल नहीं सका. अगर सरकार हटी तो लोग चुनिंदा कंपनियों के बंधुआ हो गए. 


कोई गणेश हैं जिन्होंने फेसबुक के फ्री बेसिक्स के ट्रायल मात्र से इतनी जानकारी हासिल कर ली कि उनके खेतों की पैदावार दोगुनी हो गई! अगर आप भारत की खेती की ताजा दशा से वाकिफ हैं तो आप दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्क कंपनी के विज्ञापनों की इस गणेश कथा को नियम तो दूर, अपवाद भी नहीं मानेंगे लेकिन फिर इतना तय है कि फेसबुक फ्री बेसिक्स के विशाल विज्ञापन आपको कुछ तो राजनीति हैवाले संदिग्ध एहसास भरे बिना नहीं छोड़ेंगे.
 जैसे चुनावी विज्ञापनों में गरीबी व असमानता हटाने के लिए वोट मांगे जाते हैं ठीक उसी तर्ज पर फेसबुक अगर भारत में डिजिटल असमानता दूर करने के लिए अपनी फ्री बेसिक्स सेवा को चुनने की अपील करे तो सब कुछ सामान्य नहीं है. दरअसल, इससे पहले कि हम अपने बाजार व उदारीकरण को, सरकारी व निजी दोनों, एकाधिकार से मुक्त कर पाते, हम बाजार की जटिल राजनीति में लिथड़ने जा रहे हैं. यह सियासत रोजमर्रा की राजनीति से ज्यादा पेचीदा और प्रभावी है क्योंकि इसमें चुनी हुई सरकारें भी शामिल हो जाती हैं.
 फेसबुक के फ्री बेसिक्स से जुड़ा सवाल निहायत बेसिक है. कोई हमें शॉपिंग मॉल में बुला रहा है जहां एंट्री फ्री होगी लेकिन बदले में सिर्फ चुनिंदा दुकानों से सामान लेने की छूट होगी. अगर पूरे मॉल में घूमना-खाना-खरीदना चाहते हैं तो फिर मुफ्त एंट्री नहीं मिलेगी. क्या हम ऐसा चाहते हैं? इससे पहले कि हम फ्री इंटरनेट बहस में उतरें, इंटरनेट की मौजूद व्यवस्था को समझना जरूरी है. भारत की मौजूदा नीति के तहत मोबाइल ऑपरेटर्स को स्पेक्ट्रम मिला है जिसके तहत सबको समान रूप से इंटरनेट मिलता है. जो जिस स्पीड का डाटा पैकेज लेता है उतना इंटरनेट चलता है. इंटरनेट का सस्ता होना जरूरी है और इसके लिए कंपनियों को सुविधाएं और रियायतें मिलनी चाहिए लेकिन कोई कंपनी मुफ्त इंटरनेट के बदले आपको एक सीमित क्षेत्र में सैर कराना चाहे तो यह इंटरनेट की उस आजादी के खिलाफ है जो भारत दे रहा है और दुनिया के लिए आदर्श है.

 इंटरनेट की दुनिया में तीन भागीदार हैं जो इसे मुक्त संसार बनाते हैं. फेसबुक का फ्री बेसिक्स इन तीनों को बिगाड़ देगा. इंटरनेट तक पहुंचाने की सड़क यानी टेलीकॉम नेटवर्क मोबाइल ऑपरेटरों ने बनाई है. जाहिर है, फेसबुक का फ्री बेसिक्स एक ही कंपनी के नेटवर्क पर मिलेगा यानी कि इससे ऑपरेटर को ज्यादा ग्राहक मिलेंगे जिससे मोबाइल बाजार की प्रतिस्पर्धा बिगड़ेगी. इस बाजार के दूसरे भागीदार मीडिया, ई-कॉमर्स आदि कंटेट व सेवा कंपनियां हैं. भारत में इंटरनेट पूरी तरह स्वतंत्र है. लेकिन फेसबुक के बाजार में उन्हीं की दुकान लगेगी जो उसके साथ होंगे तीसरा, खुद इंटरनेट है जिसमें मुफ्त लेकिन सीमित पहुंच का नियम, इसके स्वतंत्र होने की बुनियाद ही हिला देगा. देश के सबसे बड़े ऑपरेटर एयरटेल ने पिछले साल एयरटेल जीरो सर्विस के तहत कुछ वेबसाइट पर फ्री इंटरनेट एक्सेस देने का प्रस्ताव किया था इसके बदले वे वेबसाइट एयरटेल को पैसा देने वाली थीं. यह पेशकश भारत में नेट न्यूट्रेलिटी की बहस की शुरुआत थी.  
 फेसबुक फ्री बेसिक्स जैसी पेशकश, प्रतिस्पर्धा को पूजने वाले पश्चिम के बाजारों में कर ही नहीं सकती, यह तो सिर्फ पिछड़े और विकासशील देशों को लुभा सकती है. इसके बावजूद दो दिन पहले इजिप्ट ने फ्री बेसिक्स बंद कर दिया. दरअसल, फेसबुक, एयरटेल के कारोबारी हित मुक्त बाजार में ही सुरक्षित हैं न कि उस बाजार में जिसे वे गढऩा चाहती हैं. भारतीय बाजार में एकाधिकार व कार्टेलों का दखल पहले से है. फेसबुक तो अपने आकार, फॉलोअर्स और रसूख के सहारे इस असंतुलन को मजबूत करने जा रहा है.
 लाइसेंस परमिट राज खत्म होने के बाद भी भारत का बाजार पूरी तरह खुल नहीं सका. अगर सरकार हटी तो लोग चुनिंदा कंपनियों के बंधुआ हो गए. हमारे मासिक बिल भुगतान हमें बता देंगे कि हम किस तरह अधिकांश पैसा करीब दो दर्जन कंपनियों को दे रहे हैं. चाकलेट से लेकर मोबाइल तक दर्जनों उत्पाद व सेवाएं ऐसी हैं जिनमें हमारे पास चुनिंदा विकल्प हैं. इसलिए इनके बाजार में या तो एकाधिकार (मोनोपली) हैं या कार्टेल. दूसरी तरफ पेट्रोलियम, रेलवे, कोयला, बिजली आदि  पर सरकार का एकाधिकार है इसलिए दोनों जगह उपभोक्ता ऐंटी कंपीटिशन गतिविधियों का शिकार हो होता है जबकि इनकी तुलना में ऑटोमोबाइल, खाद्य उत्पाद, दवा में प्रतिस्पर्धा बेहतर है.

भारत को जिन सुधारों की जरूरत है वे बाजार को खोलने के साथ उसे संतुलित करने थे और इनमें सरकार की भूमिका सबसे बड़ी होने वाली है. सरकार को न केवल अपने एकाधिकार वाले क्षेत्रों से निकलना था बल्कि जिन क्षेत्रों में निजी कार्टेल बन गए हैं वहां प्रतिस्पर्धा बढ़ानी है. मसलन, मोबाइल को ही लें जहां 2जी से 4जी तक जाते ऑपरेटरों की संख्या घट रही है यानी प्रतिस्पर्धा कम हो रही है. इन अपेक्षाओं के बीच जब सरकार में रह चुके नंदन नीलकेणि जैसे विशेषज्ञ आधार कार्ड के जरिए लोगों को मुफ्त इंटरनेट देने की वकालत करते हैं तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि आखिर हम सरकारी सब्सिडी की समाप्ति की तरफ बढ़ रहे हैं या नई सब्सिडी स्कीमें शुरू करने की तरफ.
 हम उदारीकरण के जरिए सभी को अवसर देने वाला मुक्त बाजार बनाने चले थे. हमने सोचा था कि लोगों की जिंदगी व कारोबार में सरकार की भूमिका सीमित होती जाएगी लेकिन कांग्रेस से बीजेपी तक आते भारत के आर्थिक उदारीकरण का पूरा मॉडल ही गड्डमड्ड हो गया है. हम नए किस्म के सरकारीकरण से मुकाबिल हैं और बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित करने के नए तरीकों का इस्तेमाल बढ़ गया है.
पिछले साल एयरटेल जीरो के विरोध के बाद भारत में नेट न्यूट्रेलिटी से खतरा टल गया था लेकिन टीआरएआइ ने इस बहस को फिर खोल दिया है और फेसबुक के कथित गणेश महंगे विज्ञापनों के जरिए खेती में सोशल नेटवर्किंग के फायदे बताने लगे हैं. यकीनन इस बहस की दोबारा शुरुआत को फेसबुक के अमेरिकी मंच पर भारतीय प्रधानमंत्री की मौजूदगी से जोडऩे का समर्थन नहीं किया जा सकता लेकिन अगर बात निकली है तो दूर तलक जाएगी और लोग नरेंद्र मोदी से उम्मीद जरूर करेंगे कि उनकी सरकार बाजार की आजादी की पैरोकार बनकर उभरेगी, प्रतिस्पर्धाएं सीमित करने की कोशिशों की हिमायती नहीं.


Tuesday, January 5, 2016

आकस्मिकता के विरुद्ध


अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए.

भारत में जान-माल यकीनन महफूज हैं लेकिन कारोबारी भविष्य सुरक्षित रहने की गारंटी नहीं है. पता नहीं कि सरकारें या अदालतें कल सुबह नीतियों के ऊंट को किस करवट तैरा देंगी इसलिए धंधे में नीतिगत जोखिमों का इंतजाम जरूरी रखिएगा, भले ही सेवा या उत्पाद कुछ महंगे हो जाएं. यह झुंझलाई हुई टिप्पणी एक बड़े निवेशक की थी जो हाल में भारत में नीतियों की अनिश्चितता को बिसूर रहा था. अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए. नीतियों की अनिश्चितता केवल उद्यमियों की मुसीबत नहीं है. युवाओं से लेकर अगले कदम उठाने तक को उत्सुक नौकरीपेशा और सामान्य उपभोक्ताओं से लेकर रिटायर्ड तक, किसी को नहीं मालूम है कि कौन-सी नीति कब रंग बदल देगी और उन्हें उसके असर से बचने का इंतजाम तलाशना होगा.
दिल्ली की सड़कों पर ऑड-इवेन का नियम तय करते समय क्या दिल्ली सरकार ने कंपनियों से पूछा था कि वे अपने कर्मचारियों की आवाजाही को कैसे समायोजित करेंगी? इससे उनके संचालन कारोबार और विदेशी ग्राहकों को होने वाली असुविधाओं का क्या होगा? बड़ी डीजल कारों को बंद करते हुए क्या सुप्रीम कोर्ट ने यह समझने की कोशिश की थी कि पिछले पांच साल में ऑटो कंपनियों ने डीजल तकनीक में कितना निवेश किया है. केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद बाजार में दीवाली मना रहे निवेशकों को इस बात का इलहाम ही नहीं था कि उन्हें टैक्स के नोटिस उस समय मिलेंगे जब वे नई व स्थायी टैक्स नीति की अपेक्षा कर रहे थे. ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त लंबी है जिन्होंने भारत को सरकारी खतरों से भरा ऐसा देश बना दिया है जहां नीतियों की करवटों का अंदाज मौसम के अनुमान से भी कठिन है.
लोकतंत्र बदलाव से भरपूर होते हैं लेकिन बड़े देशों में दूरदर्शी स्थिरता की दरकार भी होती है. भारत इस समय सरकारी नीतियों को लेकर सबसे जोखिम भरा देश हो चला है. यह असमंजस इसलिए ज्यादा खलता है क्योंकि जनता ने अपने जनादेश में कोई असमंजस नहीं छोड़ा था. पिछले दो वर्षों के लगभग सभी जनादेश दो-टूक तौर पर स्थायी सरकारों के पक्ष में रहे और जो परोक्ष रूप से सरकारों से स्थायी और दूरदर्शी नीतियों की अपेक्षा रखते थे. अलबत्ता स्वच्छ भारत जैसे नए टैक्स हों या सरकारों के यू-टर्न या फिर चलती नीतियों में अधकचरे परिवर्तन हों, पूरी गवर्नेंस एक खास किस्म के तदर्थवाद से भर गई है.
गवर्नेंस का यह तदर्थवाद चार स्तरों पर सक्रिय है और गहरे नुक्सान पैदा कर रहा है. पहला&आर्थिक नीतियों में संभाव्य निरंतरता सबसे स्पष्ट होनी चाहिए लेकिन आयकर, सेवाकर, औद्योगिक आयकर से जुड़ी नीतियों में परिवर्तन आए दिन होते हैं. जीएसटी को लेकर असमंजस स्थायी है. आयकर कानून में बदलाव की तैयार रिपोर्ट (शोम समिति) को रद्दी का टोकरा दिखाकर नई नीति की तैयारी शुरू हो गई है. कोयला, पेट्रोलियम, दूरसंचार, बैंकिंग जैसे कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां अगले सुधारों का पता नहीं है. इस तरह की अनिश्चितता निवेशकों को जोखिम लेने से रोकती है.
दूसरा क्षेत्र सामाजिक नीतियों व सेवाओं से जुड़ा है, जहां लोगों की जिंदगी प्रभावित हो रही है. मसलन, मोबाइल कॉल ड्राप को ही लें. मोबाइल नेटवर्क खराब होने पर कंपनियों पर जुर्माने का प्रावधान हुआ था लेकिन कंपनियां अदालत से स्टे ले आईं. अब सब कुछ ठहर गया है. सामाजिक क्षेत्रों में निर्माणाधीन नीतियों का अंत ही नहीं दिखता. आज अगर छात्र अपने भविष्य की योजना बनाना चाहें तो उन्हें यह पता नहीं है कि आने वाले पांच साल में शिक्षा का परिदृश्य क्या होगा या किस पढ़ाई से रोजगार मिलेगा.
नीतियों की अनिश्चितता के तीसरे हलके में वे अनोखे यू-टर्न हैं जो नई सरकारों ने लिए और फिर सफर को बीच में छोड़ में दिया. आधार कार्ड पर अदालती खिचखिच और कानून की कमी से लेकर ग्रामीण रोजगार जैसे क्षेत्रों में नीतियों का बड़ा शून्य इसलिए दिखता है, क्योंकि पिछली सरकार की नीतियां बंद हैं और नई बन नहीं पाईं. एक बड़ी अनिश्चितता योजना आयोग के जाने और नया विकल्प न बन पाने को लेकर आई है. जिसने मंत्रालयों व राज्यों के बीच खर्च के बंटवारे और नीतियों की मॉनिटरिंग को लेकर बड़ा खालीपन तैयार कर दिया है.
नीतिगत अनिश्चितता का चौथा पहलू अदालतें हैं, जो किसी समस्या के वर्तमान पर निर्णय सुनाती हैं लेकिन उसके गहरे असर भविष्य पर होते हैं. अगर सरकारें नीतियों के साथ तैयार हों तो शायद अदालतें कारों की बिक्री पर रोक, प्रदूषण कम करने, नदियां साफ करने, गरीबों को भोजन देने या पुलिस को सुधारने जैसे आदेश देकर कार्यपालिका की भूमिका में नहीं आएंगी बल्कि अधिकारों पर न्याय देंगी.
भारत में आर्थिक उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन का एक पूरा दौर बीतने के बाद गवर्नेंस की नसीहतों के साथ दीर्घकालीन नीतियों की जरूरत थी. लेकिन सरकार की सुस्त चाल, पिछली नीतियों पर यू-टर्न, छोटे-मोटे दबावों और राजनैतिक आग्रह एवं अदालतों की सक्रियता के कारण नीतिगत अनिर्णय उभर आया है. कांग्रेस की दस साल की सरकार एक खास किस्म की शिथिलता से भर गई थी लेकिन सुधारों की अगली पीढिय़ों का वादा करते हुए सत्ता में आई मोदी सरकार नीतियों का असमंजस और अस्थिरता और बढ़ा देगी, इसका अनुमान नहीं था.

चुनाव पश्चिम के लोकतंत्रों में भी होते हैं. वहां राजनैतिक दलों के वैर भी कमजोर नहीं होते लेकिन नीतियों का माहौल इतना अस्थिर नहीं होता. अगर नीतियां बदली भी जाती हैं तो उन पर प्रभावित पक्षों से लंबी चर्चा होती है, भारत की तरह अहम फैसले लागू नहीं किए जाते हैं. नीतिगत दूरदर्शिता, समस्याओं से सबसे बड़ा बचाव है. लेकिन जैसा कि मशहूर डैनिश दार्शनिक सोरेन कीर्केगार्द कहते थे कि मूर्ख बनने के दो तरीके हैं एक झूठ पर भरोसा किया जाए और दूसरा सच पर विश्वास न किया जाए. भारत की गवर्नेंस व नीतिगत पिलपिलेपन के कारण लोग इन दोनों तरीकों से मूर्ख बन रहे हैं. क्या नया साल हमें नीतिगत आकस्मिकता से निजात दिला पाएगा? संकल्प करने में क्या हर्ज है.