लगभग ढाई दर्जन स्कीमों के मिशन और अभियानों से लदी-फदी सरकार उस जमीनी असर की तलाश में बेचैन है जो इतनी कोशिशों के बाद नजर आना चाहिए था.
नमामि गंगे, स्वच्छता मिशन,
डिजिटल इंडिया जैसे मिशन का औद्योगिक मंदी
के इलाज से क्या रिश्ता है? सवाल इस तरह
से भी पूछा जा सकता है कि मोदी सरकार के मिशन मोड का उसके पिछले बजटों से क्या
रिश्ता है, क्योंकि अगर मोदी के अभियानों का बजट यानी
सरकारी खर्च या परियोजनाओं से कोई ठोस रिश्ता होता तो शायद हम मंदी के समाधान को
जमीन पर उतरता देख रहे होते. मोदी सरकार जब अपने तीसरे बजट से महज तीस दिन दूर है
तब यह महसूस करना कतई मुश्किल नहीं है कि अगर स्वच्छता, डिजिटल इंडिया,
गंगा सफाई जैसे मिशन बजटीय नीतियों और खर्च
के कार्यक्रमों से ठोस ढंग से जुड़ते तो इनसे मंदी दूर करने और रोजगार बहाल करने का
जरिया निकल सकता था.
सरकार के गलियारों में टहलते और खबरों को सूंघते
हुए यह अंदाजा लग जाता है कि मोदी सरकार अब अपने फैसले की समीक्षा के दौर में है.
लगभग ढाई दर्जन स्कीमों के मिशन और अभियानों से लदी-फदी सरकार उस जमीनी असर की
तलाश में बेचैन है जो इतनी कोशिशों के बाद नजर आना चाहिए था. समीक्षाओं का यह दौर
चाहे जो नतीजा लेकर निकले, दो तथ्य
स्पष्ट हो रहे हैं कि एक तो मिशन अपेक्षित नतीजे नहीं दे सके और दूसरा सरकार की
बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाएं खड़ी नहीं हो सकीं जो अर्थव्यवस्था में मांग व बदलाव
की उम्मीद जगातीं. ऐसा लगता है कि शायद वरीयताओं के किलों के नीचे परियोजनाओं और
आवंटनों की नींव नहीं रखी गई. अगर ऐसा हुआ होता तो कई मिशन औद्योगिक ग्रोथ की गाड़ी
में मांग और नए रोजगारों का ईंधन भर सकते थे.
नमूने के तौर पर स्वच्छता और डिजिटल इंडिया
को लिया जा सकता है जो विशुद्ध रूप से आर्थिक और बुनियादी ढांचा सेवाओं से जुड़े
मिशन हो सकते थे,
जिन्हें सरकार ने जनभागीदारी के प्रतीकों से
जोड़कर प्रचार अभियान में बदल दिया और आर्थिक नतीजे सीमित हो गए.
अक्तूबर 2014 तक सड़कें बुहारती वीआइपी छवियों का दौर खत्म होने लगा था और न केवल गंदगी
अपनी जगह मुस्तैद हो गई थी बल्कि सरकार में इस स्वच्छता मिशन को लेकर एक तरह का
आलस पसरने लगा था. 2015 के बजट में जब सरकार से स्वच्छता मिशन को लेकर ठोस परियोजनाओं के ऐलान की
उम्मीद थी, तब इसे जन चेतना से जोड़ दिया गया और
स्वच्छता मिशन का चश्मा धूमिल पडऩे लगा.
स्वच्छता मिशन जो भारत में बुनियादी ढांचे
को रक्रतार देने का जरिया बना सकता था, अब सिर्फ उम्मीदों में है. स्वच्छता को अगर आदत और जागरूकता की बहसों से
बाहर निकाल कर देखा जाए तो यह शत प्रतिशत आर्थिक सर्विस है जो ठीक उसी तरह का
बुनियादी ढांचा, तकनीक, लोग, विशेषज्ञताएं निवेश मांगती है जो शायद
सिंचाई, रेलवे या दूरसंचार जैसी किसी भी दूसरी
आर्थिक सेवा को चाहिए.
योजना आयोग का आकलन है कि नगरपालिकाओं में
प्रति दिन लगभग 1.15 लाख टन से ज्यादा कचरा निकलता है और 12वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक, भारत में ठोस कचरा निस्तारण का कोई इंतजाम है ही नहीं. 2001 की जनगणना के अनुसार, क्लास वन और
टू शहरों में 80 फीसदी सीवेज का ट्रीटमेंट नहीं होता. पिछली जनगणना ने बताया कि शहरों में 37 फीसदी आवास खुली नालियों से जुड़े हैं जबकि 18 फीसदी घरों का पानी सड़क पर बहता है. बरसाती पानी संभालने के लिए 80 फीसदी सड़कों के साथ ड्रेनेज नहीं है. ईशर अहलुवालिया समिति का आकलन था कि
शहरों में सीवेज,
ठोस कचरा प्रबंधन और बरसाती पानी की नालियों
को बनाने के लिए पांच लाख करोड़ रु. की जरूरत है. कोई भी स्वयंसेवा संसाधनों की इस
भीमकाय जरूरत का विकल्प नहीं बन सकती थी लेकिन अगर सरकार चाहती तो दो साल में
स्वच्छता को लेकर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की कतार खड़ी कर सकती थी.
पिछले दो साल में देश के ज्यादातर शहरों में
कचरा निस्तारण, ड्रेनेज और सीवेज की बड़ी परियोजनाएं शुरू हो
सकती थीं जो शहरों को रहने लायक बनातीं, उद्योगों के लिए मांग पैदा करतीं, बड़े रोजगारों का रास्ता खोलतीं, कचरा नियंत्रण और शहर प्रबंधन की नई तकनीकों की तलाश शुरू करतीं, लेकिन एक आर्थिक सेवा को प्रतीकों तक सीमित रखने का नतीजा यह हुआ कि बड़ी
बुनियादी ढांचा क्रांति सिर्फ नेताओं के ड्राइंग रूम में टंगी झाड़ू विभूषित छवियों
तक सिमट गई.
पिछले साल, 1 जुलाई को जब प्रधानमंत्री मोदी, इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में डिजिटल इंडिया मिशन लॉन्च कर रहे थे तब उस
कार्यक्रम में मौजूद लोग कॉल ड्रॉप की शिकायत कर रहे थे. मुट्ठी भर ऐप्लिकेशन
आधारित सेवाओं और ई-गवर्नेंस के पुराने प्रयोगों के नवीनीकरण के साथ नमूदार हुआ
डिजिटल इंडिया भव्य तो था लेकिन ठोस नहीं.
नैसकॉम-मैकेंजी की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में तकनीक व संबंधित सेवाओं का बाजार 2025 तक 350 अरब डॉलर पर पहुंच जाएगा जो पिछले साल 132 अरब डॉलर पर था. तकनीकों के बाजार की गहरी पड़ताल यह बताती है कि भारत
बुनियादी तकनीकों का सबसे बड़ा बाजार है, अभी देश के पास कचरा निस्तारण, पेयजल आपूर्ति और शुद्धता, सरकारी सेवाओं
का डिजिटाइजेशन, बेसिक हेल्थ सेवाएं जैसी तकनीकों की ही कमी
है. मोबाइल ऐप्लिकेशन आधारित सेवाएं इसके बाद आती हैं.
जनभागीदारी से राजनैतिक परिवर्तन तो हो सकते
हैं लेकिन आर्थिक बदलाव नहीं हो पाते. आर्थिक परिवर्तन के लिए नीतियों को लंबे समय
तक सिंझाना होता है,
गवर्नेंस को बार-बार हिलाते-मिलाते और पलटते
रहना होता है, तब जाकर ग्रोथ का रसायन तैयार होता है.
वित्त मंत्री अरुण जेटली अगले सप्ताह जब अपने तीसरे बजट का भाषण लिख रहे होंगे तो
उनकी चुनौती घाटे के आंकड़े नहीं बल्कि वाजपेयी की सड़क परियोजना या मनमोहन की
मनरेगा की तरह कुछ बड़ी परियोजनाओं को हकीकत बनाना होगा ताकि जमीन पर बदलावों की
नापजोख हो सके. दुर्भाग्य से ऐसा करने के लिए मोदी सरकार के पास यह आखिरी बजट है
क्योंकि 2017 व 2018 के बजट दस राज्यों के चुनाव की छाया में बनेंगे और उन बजटों में वित्तीय
आर्थिक प्रबंधन और मंदी से जूझने की जुगत दिखाने का ऐसा मौका शायद फिर नहीं
मिलेगा.