Monday, April 18, 2016

यह किसका धर्म!

क्या हम खुद से यह पूछने का साहस जुटा सकते हैं कि कोई देश अपनी इतनी बड़ी सेवा को इस तरह चलाएगा जैसे कि भारत में धार्मिक स्थल चलते हैं

केरल के अखबारों के मुताबिक, राज्य में छोटे-बड़े करीब 36,000 मंदिर हैं यानी करीब 3.5 करोड़ की  आबादी में लगभग 1,000 लोगों पर एक मंदिर. अन्य  धार्मिक स्थलों को जोड़ लिया जाए तो औसत 900 लोगों पर एक धर्म केंद्र का हिसाब बैठता है. भारत में धार्मिक स्थलों की गणना का कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन केरल को सैंपल मानकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि आबादी और धार्मिक स्थलों का लगभग यही औसत कमोबेश पूरे देश में होगा. यह औसत भारत में प्रति एक हजार लोगों पर अस्पतालों, स्कूलों, पुलिस थानों, रेलवे स्टेशनों आदि किसी भी सार्वजनिक सेवा से बहुत बड़ा है
आर्थिक गणनाओं में धर्म का कम्युनिटी सर्विस के तौर पर मूल्यांकन नहीं होता लेकिन बुनियादी ढांचे, व्यवस्थाओं, विस्तार, जन भागीदारी में धार्मिक तंत्र भारत की सबसे बड़ी सामुदायिक सेवा है, जिसका अपना पर्याप्त सक्षम और बड़ा अर्थशास्त्र भी है. हमें अफसोस होना चाहिए कि विशाल, समृद्ध और राजनीति से गहरे अंतरसंबंध वाली हमारी सबसे बड़ी सामुदायिक सेवा इस मानवाधिकार की गारंटी नहीं दे सकती कि लोग आस्थाएं संजोते हुए अपनी जिंदगी से हाथ नहीं धोएंगे. कोल्लम की जली-भुनी जिंदगियों के लिए आतिशबाजी की प्रतिस्पर्धा को जिम्मेदार मानना गलती होगी, ठीक उसी तरह जैसे कि हमने अक्तूबर 2013 में दतिया (मध्य प्रदेश) के रतनगढ़ मंदिर में 121 मौत वाली भगदड़ के सबक, मंदिर के पास बने कमजोर पुल में तलाशने की कोशिश की थी. 2013 में कुंभ के दौरान इलाहाबाद स्टेशन पर भगदड़ में 36 मौत या 2008 में चामुंडा देवी (राजस्थान में मेहरानगढ़) में 249 मौत के लिए इन स्थानों का भूगोल जिम्मेदार नहीं था. जिम्मेदार तो हम हैं जो आस्था से जुड़े इस विशाल तंत्र को गंभीरता से नहीं लेते. होंगे हम तकनीक के सूरमा लेकिन ज्यादातर धार्मिक स्थलों पर भीड़ प्रबंधन दरअसल भेड़ प्रबंधन जैसा है. बना रखे होंगे हमने भवन निर्माण के दर्जनों कायदे-कानून लेकिन सरकार का विशाल तंत्र धार्मिक स्थल में न्यूनतम बुनियादी ढांचा सुनिश्चित नहीं कर पाता. हमारे धर्म प्रबंधक महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश से रोकने के लिए सबसे बड़ी अदालत तक लड़ सकते हैं लेकिन मंदिरों में लोगों की जिंदगी सुरक्षित रखने के लिए अदालत के आदेश (सुप्रीम कोर्ट 2013) पर कान नहीं देंगे. हमारा धार्मिक-राजनैतिक नेतृत्व सूखे को लेकर एक संत के बेतुके बयान पर घंटों बहस कर सकता है लेकिन धार्मिक स्थलों को सुरक्षित बनाने की जिम्मेदारी तय करने के लिए कोई बहस नहीं होगी.  धर्म एक सामुदायिक सेवा के तौर पर भारत को दुनिया से बिल्कुल अलग खड़ा करता है. सरकार तो यह नहीं बता सकती कि धार्मिक स्थलों की कुल संख्या कितनी है लेकिन अगर हम कुछ निजी अध्ययनों, धार्मिक विश्लेषणों और धर्म संगठनों का आंकड़ा खंगालें तो हमें इस सामुदायिक सेवा के विस्तार का आयाम चौंका देगा. भारत में करीब 5,000 के आसपास तो सक्रिय पौराणिक हिंदू तीर्थ हैं जिनके संदर्भ प्राचीन साहित्य या इतिहास से आते हैं. बौद्ध, जैन, इस्लाम, सिख, ईसाई केंद्रों को मिलाकर यह संख्या 6,000 से ऊपर निकल जाती है. भारत में करीब 60 बड़े धार्मिक नगर हैं जहां पूरा शहर किसी धार्मिक केंद्र के इर्दगिर्द ही घूमता है. यकीनन इस गणना में धर्म स्थलों का विशाल स्थानीय तंत्र शामिल नहीं है जो शहरों ग्रामीण बसावटों के बीच सबसे तेजी से फैलने वाला नेटवर्क है. तीर्थ और धार्मिक पर्यटन, मौसमी मेलों, पूजा और उत्सव भी इस विशाल नेटवर्क का हिस्सा हैं जिन्हें शामिल करने के बाद, सिर्फ लोगों की भागीदारी के आधार पर ही धर्म ऐसी कम्युनिटी सर्विस बन जाता है जो किसी भी अन्य सामुदायिक सेवा से ज्यादा चाक-चौबंद इंतजाम मांगती है. क्या हम खुद से यह पूछने का साहस जुटा सकते हैं कि कोई देश अपनी इतनी बड़ी सेवा को इस तरह चलाएगा जैसे कि भारत में धार्मिक स्थल चलते हैं. भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में धार्मिक केंद्र, एक वास्तविक संपत्ति (टैंजिबिल एसेट) हैं, जो सामाजिक परिवेश में बने रहने के लिए संसाधन जुटाते हैं, लोगों को रोजगार देते हैं और अपनी गतिविधियां बढ़ाकर मझोली से बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाते हैं.

सामाजिक-आर्थिक संपत्ति के आधार पर भारत की यह सामुदायिक सेवा तीन तरह की असंगतियों की शिकार है. इनमें पहली है क्षमताओं की कमी-भारत की आबादी के सबसे बड़े हिस्से को दैनिक, साप्ताहिक मासिक और वार्षिक आधार पर सेवा देने वाले इस तंत्र के पास मांग के मुताबिक क्षमताएं नहीं हैं. धार्मिक तीर्थों के नेटवर्क से लेकर मझोले मंदिरों तक, क्षमता की यह कमी हमेशा नजर आती है जो भीड़ प्रबंधन और सुरक्षा तक की चुनौतियों के तौर पर सामने आती है. दूसरी असंगति है विनियमन की कमी. धार्मिक स्थलों को बनाने या चलाने के कोई नियम नहीं हैं. सिर्फ धार्मिक केंद्र होने के कारण ज्यादातर स्थल सभी तरह के निर्माण नियमों से परे हैं जिनमें स्वच्छता, प्रदूषण, जनसुविधाओं को लेकर कोई व्यवस्था नहीं दिखती. तीसरी चुनौती इन संस्थाओं में आर्थिक पारदर्शिता की है. ज्यादातर बड़े तीर्थ और धार्मिक स्थल संपन्नता और समृद्धि के बावजूद बुनियादी सुविधाओं में बुरी तरह लचर हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोल्लम की त्रासदी देखते हुए यह एहसास जरूर हुआ होगा कि दर्जनों विभाग, स्कीमें, संस्थाएं गढ़ने वाली सरकार धर्मस्थलों पर सालाना त्रासदियों के बावजूद अपनी बड़ी सामुदायिक सेवा को सुरक्षित रखने का तंत्र नहीं बना सकी. सरकार की बेफिक्री से ज्यादा चिढ़ होनी चाहिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और धार्मिक चेतना के पैरोकारों की उपेक्षा पर. हमने कभी धार्मिक संघों, स्वयंसेवकों, परिषदों, दलों के मंच से यह आवाज उठते नहीं देखी कि भारत का तीर्थ प्रबंधन कितना घटिया है, हमने कभी यह मुहिम नहीं देखी कि नए मंदिरों की तामीर से पहले संत, स्वयंसेवी संगठन मिलकर पुराने तीर्थों को जानलेवा बनने से रोकेंगे. हमने कभी यह चर्चा नहीं सुनी कि देश के खरबपति मंदिर तीर्थ अपेक्षाकृत सीमित संसाधनों वाले पुराने तीर्थों को सुविधा-सुरक्षा से संपन्न करेंगे. कोल्लम की मौतें हमें सिर्फ यही याद दिलाती हैंखोट हमारे सितारों की नहीं है दरअसल हम ही नाकारा हैं.” (शेक्सपियर-जूलियस सीजर).


Monday, April 11, 2016

एक लाख करोड़ का सवाल


सब्सिडी गरीबी की नहीं बल्कि अमीरी की राजनीति का शिकार है. सब्सिडी पर नए तथ्य सबूत हैं कि निम्न तो छोड़िए, मध्यम वर्ग भी अब सब्सिडी के बड़े हिस्से के दायरे में नहीं है. 

गर आप यह मानते हैं कि सब्सिडी की पूरी राजनीति केवल निम्न व मध्यम वर्ग के लिए है तो अगली पंक्तियां ध्यान से पढ़िए. भारत में हर साल एक लाख करोड़ रु. की सब्सिडी अमीरों की जेब में जाती है और वह भी केवल सात बड़ी सेवाओं पर. सभी तरह की सेवाओं पर आंकड़ा और बड़ा हो सकता है. भारत में छोटी बचतों पर कर रियायतों का फायदा उठाने वाले 62 फीसदी लोग चार लाख रुपए से ज्यादा की सालाना आय वाले हैं यानी छोटी आय वाले हरगिज नहीं.
सब्सिडी की बहस में अब सिर्फ गरीब-गुरबों और मझोले तबके को कोसने से काम नहीं चलने वाला. इस पेचीदगी की समझने के लिए रियायतों के उस दालान में उतरना होगा जहां अमीरी का राज है.  2015-16 की आर्थिक समीक्षा ने सब्सिडीखोरी के इस तपकते फोड़े को छूने की कोशिश की है. इससे अमीरों को जा रही सब्सिडी की एक छोटी-सी तस्वीर हमारे सामने आई, जिसमें साफ नजर आता है कि छोटी बचत स्कीमें, सोना, बिजली, केरोसिन, रेलवे किराया और विमान ईंधन जैसी सेवाएं जिन पर सरकार सब्सिडी देती है, उनका फायदा समाज के खाए-अघाए लोग उठाते हैं. यहां गरीबों से हमारा मतलब 30 फीसदी लोगों से है जो आबादी में खपत और आमदनी के हिसाब से सबसे नीचे हैं. शेष 70 फीसदी लोगों को बेहतर माना जा सकता है. 
दुनिया की किसी सभ्यता में सोना (गोल्ड ) गरीबी से कोई रिश्ता नहीं रखता. सोना ऐसी वस्तु हरगिज नहीं है जिसकी खरीद के लिए टैक्स में रियायत दी जाए बल्कि हकीकत में तो सोने पर ऊंचे व भरपूर टैक्स की दरकार होती है. लेकिन भारत में सोने पर टैक्स का ढांचा हमारी पूरी टैक्स समझ पर अट्टहास करता है. हम दुनिया के उन कुछ चुनिंदा देशों में होंगे जहां सोने पर दो फीसदी से कम टैक्स लगता है. केंद्र व राज्य दोनों मिलकर सोने पर महज 1 से 1.6 फीसदी टैक्स लगाते हैं जबकि इसके बदले खाने-पीने की सामान्य चीजों से लेकर पेट्रोल-डीजल पर लोग 12.5 फीसदी से 25 फीसदी तक टैक्स चुकाते हैं. सोने पर अगर टैक्स की आदर्श दर 25 फीसदी मान ली जाए तो करीब पूरा देश जरूरी चीजों पर भारी टैक्स चुकाकर और अमीरी तथा समृद्धि के इस प्रतीक पर करीब 23 फीसदी टैक्स सब्सिडी देता है जिसका 98 फीसदी फायदा समृद्ध तबकों को जाता है. समीक्षा मानती है कि सोने पर टैक्स सब्सिडी 4,000 करोड़ रु. से ज्यादा है.
समृद्ध तबके के फायदे के मामले में एलपीजी सिलेंडर सोने से कम नहीं है. एक सिलेंडर बाजार मूल्य की तुलना में 36 फीसदी सस्ता मिलता है. भारत में 91 फीसदी एलपीजी कनेक्शन मझोले व उच्च वर्ग के पास हैं इसलिए एलपीजी पर अमीरों की सब्सिडीखोरी 40,000 करोड़ रु. की है.
इसी तरह रेलवे में अगर सामान्य व ऊंची श्रेणी के दर्जों की यात्रा पर लागत व सब्सिडी का हिसाब किया जाए तो किराए में मिल रही रियायत का करीब 34 फीसदी फायदा अमीरों को जाता है जो 3,671 करोड़ रु. है. बिजली दरों पर दी जा रही सब्सिडी का करीब 32 फीसदी (दिल्ली व तमिलनाडु के सैंपल) फायदा ऊपरी तबकों को जाता है. बिजली दरों पर अमीरों को मिल रही सब्सिडी 37,170 करोड़ रु. तक हो सकती है.
ईंधनों पर सब्सिडी की उलटबांसी में सबसे दिलचस्प मामला है विमानन ईंधन (एविएशन टर्बाइन फ्यूल-एटीएफ) का. भारत में एटीएफ पर औसतन 20 फीसदी टैक्स है जबकि पेट्रोल और डीजल पर अधिकतम 55 और 61 फीसदी. लिखना जरूरी नहीं है कि एटीएफ का इस्तेमाल किस वर्ग के परिवहन के लिए होता है. एटीएफ पर करीब 762 करोड़ रु. सब्सिडी समृद्ध तबके को जाती है. सरकार के अपने सर्वेक्षण मानते हैं कि सस्ता और सब्सिडीवाला 50 फीसदी केरोसिन अमीर तबके को जाता है और साथ में करीब 5,500 करोड़ रु. की सब्सिडी ले जाता है.
आर्थिक समीक्षा की मानी जाए तो इस साल के बजट में प्रॉविडेंट फंड की निकासी पर टैक्स लगाने को लेकर सरकार सही थी लेकिन अगर कोई समझता है कि इस फैसले पर यू-टर्न मध्यम वर्ग की जरूरत को ध्यान में रखकर हुआ तो वह गफलत में है. दरअसल, 12,000 करोड़ रु. की यह सब्सिडी भी करदाताओं में ऊंचे आय वर्गों के फायदे में दर्ज होती है. भारत में छोटी बचतों पर टैक्स छूट विवादित रही है क्योंकि इसके फायदे उठाने वालों की पैमाइश नहीं हो पाती. लेकिन ताजा आंकड़े आयकर की धारा 80 सी (बचत पर छूट) से फायदों की पड़ताल पर नई रोशनी डालते हैं. भारत में 30 फीसदी टैक्स के दायरे में आने वाले लोगों की औसत आय 24.7 लाख रु. सालाना है. कुल करदाताओं में इनका हिस्सा 1.1 फीसदी है. करदाताओं की यह जमात कमाई के आधार पर देश की आबादी में केवल 0.5 फीसदी बैठती है. बीस फीसदी के टैक्स की सीमा में आने वाले कुल करदाता, आबादी के महज 1.6 फीसदी हैं. पीपीएफ सहित छोटी बचतों पर ज्यादातर टैक्स छूट का लाभ इन्हीं दो वर्गों को मिलता है और उसमें भी सबसे ज्यादा सुपर रिच को.
सब्सिडीखोरी की यह सूची अंतिम नहीं है. एक लाख करोड़ रु. की इस सूची में सिर्फ छह जिंस या सेवाएं शामिल हैं और लघु बचतों के एक छोटे वर्ग को गिना गया है जो सब्सिडी, कर रियायतों, और किस्म-किस्म की छूट की विशाल दुनिया का एक सैंपल मात्र है. इसमें राज्यों में दी जाने वाली अलग-अलग तरह की रियायतें शामिल नहीं हैं, जिनमें पेयजल, सड़क परिवहन, संपत्ति कर, हाउस टैक्स और विभिन्न स्थानीय कर हैं. इनमें तमाम कर लागत से कम दर पर इसलिए लगाए जाते हैं ताकि उनका लाभ गरीबों और मझोले तबके को मिल सके.
समझना मुश्किल नहीं है कि भारत में सब्सिडी को संतुलित और तर्कसंगत बनाने की बहसें राजनैतिक जड़ क्यों नहीं पकड़तीं? दरअसल, सब्सिडी गरीबी की नहीं बल्कि अमीरी की राजनीति का शिकार है. सब्सिडी पर नए तथ्य सबूत हैं कि निम्न तो छोड़िए, मध्यम वर्ग भी अब सब्सिडी के बड़े हिस्से के दायरे में नहीं है. इसकी मलाई तो सिर्फ शहरी उच्च व उच्च मध्यम वर्ग काट रहा है जबकि गरीब व मझोले बेसबब ही सब्सिडी की तोहमत और लानत ढो रहे हैं.