Tuesday, May 24, 2016

असर तो है मगर !


काले धन पर रोक की कोशिशों के शुरुआती नतीजे नकारात्‍मक हैं लेकिन सरकार ने उन पर टिके रहने की हिम्‍मत दिखाई है 

जोखिम उठाए बिना बड़े तो दूर, छोटे बदलाव भी संभव नहीं हैं, कम से कम गवर्नेंस पर यह पुरानी सूझ पूरी तरह लागू होती है. दो साल की लानत-मलामत के बाद मोदी सरकार अंततः नपे-तुले जोखिम लेने लगी है. हमारा संकेत उन कदमों की तरफ है जो काले धन की अर्थव्यवस्था पर रोक को लेकर पिछले एक साल में उठाए गए हैं. हालांकि उनके शुरुआती नतीजे नकारात्मक रहे हैं लेकिन इसके बावजूद सरकार ने उन पर टिके रहने की हिम्मत दिखाई है.  वित्तीय पारदर्शिता को लेकर पिछले एक साल में तीन बड़े फैसले हुए, जो नकद लेन-देन सीमित करने, सर्राफा बाजार को नियमों में बांधने और शेयर बाजार के जरिए काले धन की आवाजाही पर सख्ती करने से जुड़े हैं. इन तीनों कदमों के प्रारंभिक नतीजे वित्तीय और राजनैतिक चुनौती बनकर सामने आए लेकिन शुक्र है कि सरकार ने प्रॉविडेंट फंड की तरह कोई पलटी नहीं मारी और जोखिम से जूझने की हिम्मत दिखाई है.
इस साल अप्रैल में आए रिजर्व बैंक के एक आंकड़े ने बैंकों और अर्थशास्त्रियों का सिर चकरा दिया. रिजर्व बैंक ने बताया कि वित्तीय सिस्टम में नकदी का प्रवाह अचानक तेजी से बढ़ा है, जिसे तकनीकी शब्दों में करेंसी इन सर्कुलेशन कहा जाता है. यही वह नकदी है जिसे हम जेब में रखते हैं. 20 मार्च, 2016 तक मौद्रिक प्रणाली में नकदी का स्तर 16.7 खरब (ट्रिलियन) रुपए पहुंच गया जो पिछले साल मार्च में 14.8 खरब (ट्रिलियन) पर था. यह बढ़ोतरी करीब 2 खरब (ट्रिलियन) रु. की है. 2015-16 में करेंसी इन सर्कुलेशन की वृद्धि दर 15.4 फीसदी दर्ज की गई जो पिछले साल केवल 10.7 फीसदी थी. सिर्फ यही नहीं, अप्रैल, 2015 से जनवरी, 2016 के बीच एटीएम से निकासी में भी भारी बढ़ोतरी दर्ज किए जाने के आंकड़ों ने इस नकद कथा के रहस्य को और गहरा दिया.
नकदी में बढ़ोतरी पर रिजर्व बैंक गवर्नर को भी हैरत हुई. अर्थव्यवस्था में ऐसा कोई कारण नहीं था जो ऐसा होने की वजह बनता. मुद्रास्फीति न्यूनतम स्तर पर है, बाजार में मांग नदारद है, अचल संपत्ति का कारोबार ठप है तो फिर लोग कैश लेकर क्यों टहल रहे हैं? खास तौर पर उस दौर में जब इलेक्ट्रॉनिक और मोबाइल बैंकिंग गति पकड़ रही है और सरकार भी बैंकिंग सिस्टम के जरिए ही लोगों को सब्सिडी पहुंचाने की कोशिश में है.
बैंकिंग विशेषज्ञ इशारा कर रहे हैं कि बड़े नकद लेन-देन पर सख्ती, सिस्टम में नकदी बढ़ने की प्रमुख वजह हो सकती हैं. पिछले बजट में अचल संपत्ति सौदों में 20,000 रु. से ज्यादा के नकद एडवांस पर रोक लगा दी गई थी और एक लाख रु. से ऊपर की किसी भी खरीद-बिक्री पर पैन (इनकम टैक्स का परमानेंट एकाउंट नंबर) दर्ज करना भी अनिवार्य किया गया था. इस साल जनवरी में आयकर विभाग ने किसी भी माध्यम से दो लाख रु. से अधिक के लेन-देन पर पैन का इस्तेमाल जरूरी बना दिया और गलत पैन नंबर पर सात साल तक की सजा अधिसूचित कर दी. इसके साथ ही दो लाख रुपए से ऊपर की ज्वेलरी खरीद पर भी पैन बताने की शर्त लगा दी गई. इन फैसलों ने काले धन की नकद अर्थव्यवस्था पर चोट की है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, सिस्टम में नकदी की बढ़ोतरी नवंबर, 2015 से शुरू हुई जो, जनवरी, 2016 में काले धन पर सख्ती के आदेश लागू होने तक सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई, यानी लोग सख्ती से बचने के लिए नवंबर से नकदी जुटाने में लग गए थे.
नकद कारोबार कालेधन को सफेद करने का बड़ा जरिया है जिसे रोकने की कोशिशें असर तो कर रही हैं लेकिन इसका शुरुआती बुरा प्रभाव बैंकों पर पड़ा है, जहां जमा की वृद्धि दर 50 साल के सबसे निचले स्तर पर है. कारोबारी लेन-देन का बड़ा हिस्सा बैंकों से बाहर होता दिख रहा है. सरकार ने बैंक जमा घटने का जोखिम उठाते हुए नकद लेन-देन पर सख्ती बरकरार रखी है लेकिन अब बैंकों में जमा को प्रोत्साहन देने की जरूरत है क्योंकि बैंक भारी दबाव में हैं.

2010 में काले धन पर संसद में पेश श्वेत पत्र में सरकार ने माना था कि सोने और आभूषण कारोबार का एक बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी तंत्र की नजरों से ओझल रहता है. यह कारोबार, अचल संपत्ति के बाद भारत में काले धन का सबसे बड़ा ठिकाना है. इस पर टैक्स की दर न्यूनतम है इसलिए यह धंधा गांवों तक फैला है. वित्त मंत्री ने इस बजट में जब सोने के आभूषणों पर एक फीसदी की एक्साइज ड्यूटी लगाई तो मकसद राजस्व जुटाना नहीं बल्कि इस कारोबार को टैक्स की रोशनी में लाना था.
इस फैसले के बाद हड़ताल हुई जो व्यापक राजनैतिक नुक्सान की वजह बनी, क्योंकि आभूषण कारोबारी बीजेपी के पारंपरिक वोटर हैं, लेकिन वित्त मंत्री ने इस जोखिम के बावजूद न केवल फैसला कायम रखा बल्कि स्वीकार किया कि देश में सोने-चांदी पर टैक्स की दर अनुचित रूप से कम है. इस सख्ती का नतीजा है कि सोने-चांदी के कारोबार पर ग्राहक (ज्वेलरी खरीद पर पैन का नियम) और विक्रेता (एक्साइज ड्यूटी) दोनों तरफ से शिकंजा कस गया है.
तीसरा बड़ा फैसला बीते सप्ताह हुआ है, जब सरकार ने दोहरा कराधान टालने की संधि को सख्त करते हुए दुरुपयोग के रास्ते सीमित करने पर मॉरिशस से सहमति बनाई. भारत में टैक्स से बचने के लिए मॉरिशस के जरिए शेयर बाजारों में बड़ा निवेश होता है, जिसमें बड़े पैमाने पर काले धन की आवाजाही होती है. कर संधियों का दुरुपयोग रोकने और उन्हें पारदर्शी बनाने की कोशिशें काफी समय से लंबित थीं. भारत ने करीब 80 देशों के साथ ऐसी संधियां की हैं जिन्हें आधुनिक बनाया जाना है. संधियों को बदलने का फैसला तात्कालिक तौर पर देश के शेयर बाजार में निवेश को प्रभावित करेगा लेकिन सरकार ने इस जोखिम को स्वीकार करते हुए यह ऑपरेशन शुरू किया है.

काले धन को लेकर बेसिर-पैर के चुनावी वादे पर फजीहत झेलने के बाद मोदी सरकार ने ठोस कदमों के साथ आगे बढ़ने का साहस दिखाया है, जो पिछले दो साल की कम चर्चित लेकिन प्रमुख उपलब्धि है. उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संकल्प आगे बना रहेगा, क्योंकि काले धन से लड़ाई लंबी और पेचीदा है जिसमें कई आर्थिक और राजनैतिक चुनौतियां सरकार का इंतजार कर रही हैं.

Tuesday, May 17, 2016

अब मिशन पुनर्गठन


बेहतर मंशा के बावजूद पिछले दो साल में सरकार के कई अभियान और मिशन जमीनी हकीकत से गहरी असंगति का शिकार हो गए हैं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 14 अप्रैल को जब मध्य प्रदेश में ग्राम उदय से भारत उदय अभियान की शुरुआत कर रहे थे, उस समय उनकी सरकार सूखे पर सुप्रीम कोर्ट के लिए जवाब तैयार कर रही थी, जो उसे अदालत की फटकार के बाद दाखिल करना था. अप्रैल के तीसरे हफ्ते में जब सरकार ने अदालत को बताया कि देश की एक-चौथाई आबादी सूखे की चपेट में है, उस दौरान पार्टी अपने मंत्रियों और सांसदों को गांवों में किसान मेले लगाने का कार्यक्रम सौंप रही थी. नतीजतन, पानी की कमी, खेती की बदहाली और सूखे के बीच ग्राम उदय जनता तो क्या, बीजेपी के सांसदों के गले भी नहीं उतरा जो सरकारी स्कीमों का भरपूर प्रचार न करने को लेकर आजकल प्रधानमंत्री से अक्सर झिड़कियां और नसीहतें सुन रहे हैं.

करिश्माई नेतृत्व की अगुआई में प्रचंड बहुमत वाली किसी सरकार के सांसदों का दो साल में ही इतना हतोत्साहित होना अचरज में डालता है. खासतौर पर ऐसी पार्टी के सांसद जो लंबे अरसे बाद सत्ता में लौटी हो और जिसकी सरकार लगभग हर महीने कोई नया मिशन या स्कीम उपजा रही हो.

सरकार के अभियानों और स्कीमों पर उसके अपने सांसदों का ठंडा रुख एक सच बता रहा है, सरकार जिसे समझने को तैयार नहीं है. सिर्फ ग्रामोदय ही नहीं, बेहतर मंशा के बावजूद पिछले दो साल में सरकार के कई अभियान और मिशन जमीनी हकीकत से गहरी असंगति के नमूने बन गए हैं. यही वजह है कि ऐसे बदलाव नहीं नजर आए, जिन्हें लेकर सांसद अपेक्षाओं से भरी जनता से नजरें मिला सकें.

मोदी सरकार ने गवर्नेंस और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों की कई दुखती रगों पर उंगली रखने की कोशिश की है लेकिन अधिकतर प्रयोग जड़ें नहीं पकड़ सके. कुछ मिशन कायदे से शुरू भी नहीं हो पाए तो कुछ स्कीमों को चलाने लायक व्यवस्था तैयार नहीं थी, इसलिए दो साल के भीतर ही मोदी सरकार के लगभग सभी प्रमुख मिशन और स्कीमें एक जरूरी पुनर्गठन की टेर लगाने लगी हैं. मिसाल के तौर पर मेक इन इंडिया को ही लें, जो आर्थिक वास्तविकता से कटा होने के कारण जहां का तहां ठहर गया.

कोई शक नहीं कि मैन्युफैक्चरिंग में निवेश जरूरी है लेकिन मोदी सरकार जब सत्ता में आई, तब औद्योगिक क्षेत्र ऐसी मंदी की गिरफ्त में था, जिसमें कंपनियों के पास भारी उत्पादन क्षमताएं तैयार पड़ी हैं लेकिन मांग नहीं है. जब कर्ज में दबी कंपनियां बैंकों की मुसीबत बनी हैं तो निवेश क्या होगा. दो साल में जो विदेशी निवेश आया, वह सर्विस सेक्टर में चला गया जिस पर सरकार का फोकस नहीं था, जबकि मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां बंद हो रही हैं या उत्पादन घटा रही हैं. कारोबार आसान बनाने की मुहिम मेक इन इंडिया का हिस्सा थी जो परवान नहीं चढ़ी, क्योंकि राज्यों ने बहुत उत्साह नहीं दिखाया. मेक इन इंडिया को अगर प्रासंगिक रखना है तो इसे चुनिंदा उद्योगों पर फोकस करना होगा, तभी कुछ नतीजे मिल सकेंगे.

स्वच्छता मिशन मौजूदा नगरीय प्रबंधन की हकीकत से कटा हुआ था, इसलिए यह सड़क बुहारती साफ-सुथरी छवियों से आगे नहीं गया. इसे पूरे देश में एक साथ शुरू करने की गलती की गई, जो न केवल असंभव था, बल्कि अव्यावहारिक भी. भारत में नगरीय स्वच्छता का जिम्मा स्थानीय निकायों का है, जिनके पास पर्याप्त संसाधन, श्रमिक और तकनीक का अभाव है. स्कीम के डिजाइन, लक्ष्यों और रणनीति में नगर प्रशासनों की भूमिका नहीं थी, इसलिए मिशन मजाक बनकर गुजर गया. सुनते हैं कि स्वच्छता मिशन का पुनर्गठन होने वाला है. इसे अब चुनिंदा शहरों पर फोकस किया जाएगा. देर आए, दुरुस्त आए.

सब कुछ मोबाइल और इंटरनेट पर देने की मुहिम लेकर शुरू हुआ डिजिटल इंडिया इस हकीकत से कोई वास्ता नहीं रखता था कि जब शहरों में ही मोबाइल नेटवर्क काम नहीं करते तो गांवों का क्या हाल होगा, जहां इंटरनेट तो क्या, वॉयस नेटवर्क भी ठीक से नहीं चलता. गांवों में स्मार्ट फोन की पहुंच सीमित है और मोबाइल इंटरनेट की लागत एक जरूरी पहलू है. यही वजह है कि डिजिटल इंडिया सरकारी सेवाओं के कुछ मोबाइल ऐप्लिकेशनों तक सीमित रह गया, जबकि मोबाइल नेटवर्क पर कॉल ड्रॉप बढ़ते चले गए.

जनधन में 50 फीसदी खाते अब भी जीरो बैलेंस हैं, जिनमें न लोगों ने पैसा रखा और न सरकार ने कोई ट्रांसफर किया. डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर रसोई गैस की सब्सिडी बांटने तक ठीक चली क्योंकि उसमें लाभार्थियों की पहचान का टंटा नहीं था, लेकिन जैसे ही लाभार्थी पहचान कर केरोसिन बांटने की बारी आई, स्कीम ठिठक गई.

सांसद आदर्श ग्राम योजना के लक्ष्य ही स्पष्ट नहीं थे, सांसद भी बहुत उत्साही नहीं दिखे. पेंशन और बीमा योजनाएं पिछले प्रयोगों की तरह कमजोर डिजाइन और सीमित लाभों के चलते परवान नहीं चढ़ीं. सबके लिए आवास और स्मार्ट सिटी जैसे मिशन क्रियान्वयन रणनीति की कमी का शिकार हो गए, जबकि मुद्रा बैंक की जिम्मेदारी बैंकों को उस वक्त मिली जब वे फंसे हुए कर्जों में जकड़े हैं.

सत्ता में दो साल पूरे कर रहे प्रधानमंत्री को यह एहसास जरूर होना चाहिए कि उनकी सरकार ने दो साल में स्कीमों और मिशनों का इतना बड़ा परिवार खड़ा कर दिया है, जिनकी मॉनिटरिंग ही मुश्किल है, नतीजे निकाल पाना तो दूर की बात है. जल्दी नतीजों के लिए मोदी सरकार को घोषित स्कीमों और मिशनों को मिशन मोड में पुनर्गठित करना होगा ताकि वरीयताओं की सूची नए सिरे से तय हो सके. गांव से लेकर शहर तक, बैकिंग से लेकर कूड़े-कचरे तक और डिजिटल से लेकर स्किल तक फैले अपने दो दर्जन से अधिक मिशन-स्कीम समूह में से चुनिंदा चार या पांच कार्यक्रमों पर फोकस करना होगा.

सरकारी स्कीमों को लेकर बीजेपी सांसदों की बेरुखी बेसबब नहीं है. वे सियासत की जमीन के सबसे करीब हैं और नतीजों की नामौजूदगी में मोहभंग की तपिश महसूस कर रहे हैं. सांसद जानते हैं कि अगले तीन साल चुनावी सियासत से लदे-फदे होंगे, जिसमें कुछ बड़ा करने की गुंजाइश कम होती जाएगी. इसलिए जो हो चुका है, उसे चुस्त-दुरुस्त कर अगर नतीजे निकाले जा सकें तो पार्टी सांसदों का उत्साह लौटने की सूरत बन सकती है.



Tuesday, May 10, 2016

कुछ करते क्यों नहीं !


भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भ्रष्टाचार को लेकर एक और आतिशबाजी शुरू हो चुकी है. पिछले पांच-छह साल में घोटालों पर यह छठी-सातवीं राजनैतिक कुश्ती है, जो हर बार पूरे तेवर-तुर्शी और गोला-बारूद के साथ लड़ी जाती है और राजनीतिजीवी जमात को अपनी आस्थाएं तर करने का मौका देती है. लेकिन हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर हम एक छलावे के दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भारत भ्रष्टाचार के सभी पैमानों पर सबसे ऊपर है, लेकिन इससे निबटने की व्यवस्था करने, संस्थाएं और पारदर्शी ढांचा बनाने में हम उन 175 देशों में सबसे पीछे हैं, जिन्होंने 2003 में संयुक्त राष्ट्र की भ्रष्टाचार रोधी संधि पर दस्तखत किए थे. हमसे तो आगे पाकिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया, भूटान और वियतनाम जैसे देश हैं जिनके प्रयास, सफलताएं-विफलताएं भ्रष्टाचार पर ग्लोबल चर्चाओं में जगह पाते हैं.

चॉपरगेट के बहाने हम उन आंदोलनों और बेचैनियों को श्रद्धांजलि दे सकते हैं, जिन्होंने 2011 से 2013 के बीच देश को मथ दिया था. लगता था कि जैसे भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ इंकलाब आ गया है. कोई बता सकता है कि इस बेहद उथल-पुथल भरे दौर से निकला लोकपाल आज कहां है, जिसका कानून तकनीकी तौर पर जनवरी, 2014 से लागू है, लेकिन लोकपाल महोदय प्रकट नहीं हुए.

यह खबर किसी अखबार या टीवी के मतलब की नहीं थी कि दिसंबर, 2014 में मोदी सरकार ने लोकपाल कानून को पुनःविचार और संशोधनों के लिए कानून मंत्रालय की संसदीय समिति को सौंप दिया. एक साल बाद दिसंबर, 2015 में इस समिति ने केंद्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआइ के भ्रष्टाचार रोधी विंग को लोकपाल के दायरे में लाने की सिफारिश के साथ अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी.

भ्रष्टाचार को लेकर यह कैसी वचनबद्धता है कि तकनीकी तौर पर लोकपाल कानून बने ढाई साल हो चुके हैं, लेकिन मोदी सरकार लोकपाल पर कुछ नहीं बोली. संयुक्त राष्ट्र की संधि के मुताबिक, भारत को पांच दूसरे कानून भी बनाने हैं. इनमें एक व्हिसलब्लोअर बिल भी है. इस कानून के तहत भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले की सुरक्षा के प्रावधान ढीले करते हुए सरकार अपनी मंशा को दागी करा चुकी है.

यह विधेयक राज्यसभा में अटका है. अदालतों में पारदर्शिता के लिए जुडीशियल अकाउंटेबिलटी बिल, नागरिक सेवाओं से जुड़े अधिकारों के लिए सिटीजन चार्टर ऐंड ग्रीवांस रिड्रेसल बिल, सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार रोकने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन का विधेयक और विदेशी अधिकारियों व अंतरराष्ट्रीय संगठनों में रिश्वतखोरी रोकने के विधेयकों को लेकर पिछले दो साल में सरकार में कहीं कोई सक्रियता नहीं दिखी.

किसी को यह मुगालता नहीं है कि लोकपाल या इन पांच कानूनों के जरिए हम भारत की सियासत और कार्यसंस्कृति में भिदे भ्रष्टाचार को रोक सकेंगे. यह तो सिर्फ भ्रष्टाचार पर रोक, जांच और पारदर्शिता का शुरुआती ढांचा बनाने की कोशिश है, वह भी अभी शुरू नहीं हो सकी है. 2003 में भ्रष्टाचार पर अंतरराष्ट्रीय संधि (2005 से लागू) के बाद लगभग प्रत्येक देश ने अपनी परिस्थिति के आधार पर भ्रष्टाचार से निबटने के लिए रणनीतियां, संस्थाएं, नियम, कानून और एजेंसियां बनाई हैं, जिन्हें लगातार संशोधित कर प्रभावी बनाया जा रहा है.

पिछले कुछ वर्षों में यूएनडीपी और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टाचार निरोधक रणनीतियों का अध्ययन किया है, जो इस जटिल जंग में हार-जीत, दोनों की कहानियां सामने लाते हैं. मसलन, रोमानिया ने अपनी पुरानी भूलों से सीखकर एक कामयाब व्यवस्था बनाने की कोशिश की. इंडोनेशिया ने अपनी ऐंटी करप्शन रणनीतियों को गवर्नेंस सुधारों से जोड़कर ग्लोबल स्तर पर सराहना हासिल की है. ऑस्ट्रेलिया ने नेशनल ऐंटी करप्शन रणनीति बनाने की बजाए पारदर्शिता को व्यापक गवर्नेंस और न्यायिक सुधारों से जोड़कर पूरे सिस्टम को पारदर्शी बनाने की राह चुनी, जबकि मलेशिया ने भ्रष्टाचार खत्म करने की रणनीति को गवर्नेंस ट्रांसफॉर्मेशन प्रोग्राम से जोड़ा, जो इस विकासशील देश को 2020 तक विकसित मुल्क में बदलने का लक्ष्य रखता है. चीन तो दुनिया का सबसे कठोर भ्रष्टाचार निरोधक अभियान चला रहा है, जिसमें 2013 से अब तक दो लाख से अधिक अधिकारियों और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की जांच हो चुकी है और अभियोजन की दर 99 फीसदी है.

भ्रष्टाचार रोकने की रणनीतियां चार बुनियादी आधारों पर टिकी हैं. सबसे पहला है, मजबूत और स्वतंत्र मॉनिटरिंग एजेंसी, दूसरा, भ्रष्टाचार की नियमित और पारदर्शी नापजोख जबकि तीसरा पहलू है, जांच के लिए पर्याप्त संसाधन और विस्तृत तकनीकी क्षमताएं और चौथा है, स्पष्ट कानून व भ्रष्टाचार पर तेज फैसले देने वाली सक्रिय अदालतें.

भारत की तरफ देखिए. हमारे पास इन चारों में से कुछ भी नहीं है. भारत की एक ताकतवर स्वतंत्र एजेंसी बनाने (लोकपाल) की जद्दोजहद अब तक जारी है. केंद्रीय सतर्कता आयोग को गठन के 39 साल बाद 2003 में वैधानिक दर्जा मिला लेकिन जांच का अधिकार नहीं. जांच करने वाली सीबीआइ सरकारों के पिंजरे का तोता है. भ्रष्टाचार की नापजोख का कोई तंत्र कभी बना ही नहीं और अदालतें उन कानूनों से लैस नहीं हैं, जो जटिल भ्रष्टाचार को बांध सकें.

कीचड़ सनी कांग्रेस से तो इस सबकी उम्मीद भी नहीं थी, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश पर बैठकर सत्ता में आई मोदी सरकार से यह अपेक्षा जरूर थी कि वह पुराने घोटालों की तेज जांच करेगी और भारत को भ्रष्टाचार से निबटने के लिए दूरगामी व स्थायी रणनीति और संस्थाएं देगी.

अगस्तावेस्टलैंड के दलाल जानते हैं कि दुनिया के विभिन्न देशों में फैले रिश्वतखोरी के तार जोड़ते-जोड़ते एक दशक निकल जाएगा. सियासत को भी पता है कि जांच में कुछ न होने का, क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार से निबटने को लेकर संस्थागत तौर पर कुछ किया ही नहीं है. वे तो बस राजनीति के कीचड़ में लिथड़ने के शौकीन हैं, जिसका सीजन कुछ वक्त बाद खत्म हो जाता है.


Monday, May 2, 2016

निर्यात की ढलान


भारतीय निर्यात की गिरावट जटिल, गहरी और बहुआयामी हो चुकी है और सरकार पूरी तरह नीति शून्य और सूझ शून्य नजर आ रही है.


दुनिया भर में फैली मंदी के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रोथ को अंधों में एक आंख वाला राजा कहने पर दो राय हो सकती हैं. रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को अतिआशावादी होना चाहिए या यथार्थवादी, इस पर भी मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इस बात पर कोई दो मत नहीं होंगे कि विदेश व्यापार के संवेदनशील हिस्से में गहरा अंधेरा है जो हर महीने गहराता जा रहा है. भारत का निर्यात 16 माह की लगातार गिरावट के बाद अब पांच साल के सबसे खराब स्तर पर है. निर्यात की बदहाली के लिए दुनिया की ग्रोथ में गिरावट को जिम्मेदार ठहराने का सरकारी तर्क टिकाऊ नहीं है, क्योंकि भारतीय निर्यात की गिरावट जटिल, गहरी और बहुआयामी हो चुकी है और सरकार पूरी तरह नीति शून्य और सूझ शून्य नजर आ रही है.

ग्लोबल ग्रोथ के उतार-चढ़ाव किसी भी देश के निर्यात को प्रभावित करते हैं लेकिन भारत के निर्यात की गिरावट अब ढांचागत हो गई है. पिछले 16 माह की निरंतर गिरावट के कारण निर्यात की प्रतिस्पर्धात्मकता (कांपिटीटिवनेस) टूट गई है. निर्यात में प्रतिस्पर्धात्मकता का आकलन विभिन्न देशों के बीच निर्यात में कमी या गिरावट की तुलना के आधार पर होता है. पिछले एक साल में दुनिया के निर्यात आंकड़ों की तुलना करने वाली एम्विबट कैपिटल की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत का निर्यात अन्य देशों से ज्यादा तेज रफ्तार से गिरा है.

2015 की तीसरी तिमाही से 2016 की तीसरी तिमाही के बीच चीन के निर्यात की ग्रोथ रेट घटकर एक फीसदी रह गई जो इस दौर से पहले पांच फीसदी पर थी. बांग्लादेश 10 से तीन फीसदी, विएतनाम 16 से आठ फीसदी, कोरिया तीन से पांच फीसदी, दक्षिण अफ्रीका चार से शून्य फीसदी पर आ गया. इनकी तुलना में भारत का निर्यात जो ताजा मंदी से पहले छह फीसदी की दर से बढ़ रहा था, वह पिछले एक साल में 19 फीसदी गिरा है, जो दुनिया के विभिन्न महाद्वीपों में फैले दो दर्जन से अधिक प्रमुख निर्यातक देशों में सबसे जबरदस्त गिरावट है. ग्लोबल कमोडिटी बाजार में कीमतें घटने से ब्राजील और इंडोनेशिया का निर्यात तेजी से गिरा है लेकिन भारत की गिरावट उनसे ज्यादा गहरी है.

निर्यात की बदहाली की तुलनात्मक तस्वीर पर चीन काफी बेहतर है. यहां तक कि पाकिस्तान व बांग्लादेश की तुलना में भारत का निर्यात पांच और चार गुना ज्यादा तेजी से गिरा है. आंकड़ों के भीतर उतरने पर यह भी पता चलता है कि भारत से मैन्युफैक्चर्ड उत्पादों के निर्यात की गिरावट, उभरते बाजारों की तुलना में ज्यादा तेज है. इनमें ऊंची कीमत वाले ट्रांसपोर्ट, मशीनरी और इलेक्ट्रॉनिक्स को तगड़ी चोट लगी है.

पिछले तीन साल में डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 24 फीसदी टूटा है. आम तौर पर कमजोर घरेलू मुद्रा निर्यात की बढ़त के लिए आदर्श मानी जाती है, अलबत्ता कमजोर होने के बावजूद भारतीय रुपया निर्यात में प्रतिस्पर्धी देशों की मुद्राओं के मुकाबले मजबूत है इसलिए निर्यात गिरा है. ऐसे हालात में निर्यातकों को सरकारी नीतिगत मदद की जरूरत थी जो नजर नहीं आई. प्रतिस्पर्धात्मकता में गिरावट निर्यातकों को लंबे समय के लिए बाजार से बाहर कर देती है, जिसके चलते मांग बढऩे के बाद बाजार में पैर जमाना मुश्किल हो जाता है.

भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धात्मकता घटने का असर आयात पर भी नजर आता है. वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि जब से ग्लोबल ट्रेड में सुस्ती शुरू हुई है, भारत का चीन से आयात बढ़ गया है. इसमें मैन्युफैक्चर्ड सामान का हिस्सा ज्यादा है. मतलब साफ है कि भारतीय उत्पाद निर्यात व घरेलू, दोनों ही बाजारों की प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पा रहे हैं.

भारत का सेवा निर्यात भी ढलान पर है. रिजर्व बैंक का ताजा आंकड़ा बताता है कि फरवरी 2015 में सेवाओं के निर्यात से प्राप्तियों में 12.55 फीसदी गिरावट आई है. सूचना तकनीक सेवाओं के निर्यात में ग्रोथ बनी हुई है लेकिन रफ्तार गिर रही है.

दो सप्ताह पहले इसी स्तंभ में हमने लिखा था कि सरकार के आंकड़े साबित करते हैं कि मुक्त व्यापार समझौते विदेश व्यापार बढ़ाने का सबसे बड़ा साधन हैं अलबत्ता इस उदारीकरण को लेकर नरेंद्र मोदी सरकार कुछ ज्यादा ही रूढ़िवादी है. मुक्त व्यापार की दिशा में रुके कदम निर्यात में गिरावट की बड़ी वजह हैं. भारत का कपड़ा व परिधान निर्यात इस उलझन का सबसे ताजा नमूना है. कपड़ा निर्यात में भारत अब पाकिस्तान से भी पीछे हो गया है. 2014 में पाकिस्तान यूरोपीय समुदाय की वरीयक व्यापार व्यवस्था (जनरल सिस्टम ऑफ प्रीफरेंसेज) का हिस्सा बन गया है और इसके साथ ही वहां के कपड़ा निर्यातकों को करीब 37 बड़े बाजार मिल गए, जहां वे आयात शुल्क दिए बगैर निर्यात कर रहे हैं. कॉटन टेक्सटाइल एक्सपोर्ट्स एसोसिएशन के आंकड़े बताते हैं कि भारत करीब 19 कपड़ा और 18 परिधान उत्पादों का बाजार पाकिस्तान के हाथों खो चुका है. इस बाजार में वापसी के लिए भारत को यूरोपीय समुदाय से व्यापार समझौते की जरूरत है.

कपड़ा निर्यात उन कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में एक है जहां निर्यात रोजगारों का सबसे बड़ा माध्यम है. भारत के निर्यात का एक बड़ा हिस्सा श्रम आधारित उद्योगों से आता है जिसमें टेक्सटाइल के अलावा हस्तशिल्प, रत्न आभूषण आदि प्रमुख हैं. हकीकत यह है कि भारत का 45 फीसदी निर्यात छोटी और मझोली इकाइयां करती हैं, निर्यात घटने के कारण बेकारी बढ़ रही है और नौकरियों के संकट को गहरा कर रही है. 

विदेश व्यापार मोदी सरकार की नीतिगत कमजोरी बनकर उभरा है. प्रधानमंत्री मोदी के ग्लोबल अभियानों की रोशनी में देखने पर यह बदहाली और मुखर होकर सामने आती है. पिछले दो साल में निर्यात बढ़ाने को लेकर कहीं कोई ठोस रणनीति नजर नहीं आई है. दूसरी तरफ, यह असमंजस और गाढ़ा होता गया है कि भारत दरअसल विदेश व्यापार के उदारीकरण के हक में है या बाजार को बंद ही रखना चाहता है. आर्थिक विकास दर के आंकड़ों को लेकर रिजर्व बैंक गवर्नर की खरी-खरी पर सरकार के नुमाइंदों में काफी गुस्सा नजर आया है. अलबत्ता इस क्षोभ का थोड़ा-सा हिस्सा भी अगर निर्यात की फिक्र में लग जाए तो शायद इस मोर्चे पर पांच साल की सबसे खराब सूरत बदलने की उम्मीद बन सकती है.

Tuesday, April 26, 2016

पानी की खेती


भारत पानी के ग्‍लोबल ट्रेड में खेल में पिटा हुआ प्यादा है. वर्चुअल वॉटर के मामले में कई भारतीय राज्यों की हालत और भी खराब है.


गेहूं, गन्ना, कपास और सोयाबीन उगाने के लिए एशिया  अफ्रीका में सबसे उपयुक्त देश चुने जाएं तो इतिहास व भूगोल दोनों ही पैमानों पर उस सूची में मिस्र व चीन सबसे ऊपर होंगे. मिस्र के पास दुनिया की सबसे बड़ी नील नदी है जो अफ्रीका के विभिन्न देशों से उपजाऊ मिट्टी बटोर कर हर साल अपने विशाल डेल्टा में बिछा जाती है. दूसरी तरफ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी नदी, यांग्जी के मेजबान चीन के पास पानी, मिट्टी ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा थ्री गॉर्जेज बांध भी है. इन विशेषताओं के आधार पर चीन और मिस्र को दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य निर्यातक होना चाहिए, लेकिन वस्तुस्थिति अपेक्षा से बिल्कुल विपरीत है. मिस्र दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं आयातक है और चीन भले ही अन्य निर्यातों में चैंपियन हो लेकिन सन् 2000 के बाद से खाद्य उत्पादों का बड़ा आयातक बन गया है. 
दुनिया में सबसे ज्यादा उपजाऊ जमीन वाले देश अगर अनाज, तिलहन, चीनी आदि के आयातक बन जाएं तो बात कुछ अजीबोगरीब लगती है. यह सब पानी का खेल है जिसने खाद्य व्यापार का संतुलन बदल दिया है. पानी की सबसे ज्यादा खपत कृषि में है इसलिए बेहतर उपज क्षमता रखने वाले मुल्क भी ऐसी फसलें खरीद रहे हैं जो ज्यादा पानी की खपत करती हैं. इसे वर्चुअल वॉटर ट्रेड कहते हैं जिसके तहत कोई देश किसी कृषि उपज का आयात करता है तो उसे उगाने में लगने वाला पानी भी, परोक्ष रूप से, आयात कर रहा होता है, क्योंकि इतनी उपज के लिए अपना पानी लगाना होता. एंबेडेड वॉटर और वॉटर फुटप्रिंट जैसे शब्द ग्लोबल ट्रेड चर्चाओं का हिस्सा हैं जिन पर अमेरिका, चीन एवं भारत में बेंगलूरू के सीएसआइआर तक अध्ययनों की कतार लगी है.
एक टन गेहूं को उगाने में करीब 1,500 घन मीटर पानी लगता है या एक कप कॉफी के लिए 140 लीटर पानी की जरूरत होती है. जो देश अनाज या कॉफी का आयात कर रहे हैं, वे अपनी अन्य जरूरतों के लिए पानी बचा रहे होते हैं. यह वर्चुअल वॉटर इंपोर्ट उन देशों से होता है जहां इन फसलों के लिए भरपूर पानी उपलब्ध है. मिस्र इस नए ट्रेड का पुराना और चीन नया खिलाड़ी है जबकि भारत इस खेल में पिटा हुआ प्यादा है. वर्चुअल वॉटर के मामले में कई भारतीय राज्यों की हालत और भी खराब है.
भारत से पहले एक नजर मिस्र पर जिसकी कहानी रोचक है. हेरोडोटस (5वीं सदी ईस्वी पूर्व) लिखता है कि नील नदी के डेल्टा में बीज बिखेर देने भर से इतनी फसल होती थी कि मिस्र रोमन साम्राज्य का सबसे बड़ा अनाज सप्लायर था. लेकिन 1970 के बाद उसने खाद्य नीति बदली और पानी बचाने के लिए अनाज की खेती को सीमित किया. आज मिस्र के बंदरगाहों पर कनाडा-ऑस्ट्रेलिया के गेहूं से लदे जहाज पहुंचते हैं जो उसके लिए, दरअसल, वर्चुअल वॉटर लेकर आते हैं.
चीन ने यह काम 2001 से शुरू किया. यूरोपीय जिओसाइंस यूनियन के अध्ययन के मुताबिक, चीन ने पानी की ज्यादा खपत वाले अनाज, सोयाबीन, पाम ऑयल, पोल्ट्री आदि का आयात शुरू किया. यह आयात ब्राजील और अर्जेंटीना से होता है. 1996 तक चीन सोयाबीन का सबसे बड़ा निर्यातक था, लेकिन अब सोयाबीन उसके वर्चुअल वॉटर आयात का सबसे बड़ा हिस्सा है. चीन इसकी बजाए कम पानी की खपत वाले फलों, सब्जियों, प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों का निर्यात करता है और पानी के स्रोतों की बचत करता है.
भारत में पानी की कमी केवल खराब मॉनसून का नतीजा नहीं है. पानी अब नीतिगत चुनौती है. दुनिया के कई देश पानी की मांग और आपूर्ति व्यापार, कृषि व उद्योग नीतियों के संदर्भ में तय करने लगे हैं. भारत और चीन दुनिया के दो सबसे बड़े देश हैं और दोनों की पानी नीतियां ग्लोबल अध्ययनों का विषय हैं. स्टॉकहोम वॉटर इंस्टीट्यूट और इंटरनेशनल वॉटर इंस्टीट्यूट के अध्ययन (इंटरनेट पर उपलब्ध) बताते हैं कि चीन अपने जल संसाधनों का ज्यादा बेहतर प्रबंधन कर रहा है. भारत में होने वाली सालाना बारिश चीन से 50 फीसदी ज्यादा है लेकिन भारत के जल भंडार चीन के मुकाबले केवल 67 फीसदी हैं और पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता चीन के मुकाबले ज्यादा तेजी से घट रही है. सीएसआइआर बेंगलूरू के फोर्थ पैराडाइम इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट (नेचर में प्रकाशित) कहती है कि वर्तमान स्तर को देखते हुए भारत में 300 साल में पानी के स्रोत खतरनाक स्तर तक गिर जाएंगे.
भूजल, नदी जल और अन्य स्रोतों के दोहन की स्थिति को देखते हुए भारत में पानी को समग्र नीतिगत बदलाव चाहिए. क्योंकि एक वर्चुअल वॉटर एक्सपोर्ट देश के भीतर भी हो रहा है जिसमें उत्तर-पश्चिम के कम वर्षा वाले राज्य कपास, गन्ना, धान जैसी फसलें उगाकर पूर्वी राज्यों में भेज रहे हैं जो दरअसल पानी के निर्यात जैसा है.
2016 का सूखा कुछ बड़े बुनियादी नीतिगत बदलावों का संदेश लेकर आया है. अब भारत में फसलों की वॉटर मैपिंग की जरूरत है ताकि हर फसल का वॉटर फुटप्रिंट या विभिन्न फसलों में पानी की खपत का स्तर तय हो सके. खेती अब परंपरागत इलाकों के आधार पर नहीं बल्कि वॉटर फुटप्रिंट के आधार पर होगी. और तब सोयाबीन मध्य प्रदेश में नहीं बल्कि असम में और गन्ना महाराष्ट्र या पश्चिम उत्तर प्रदेश में नहीं बल्कि बिहार और बंगाल में उगेगा.
भारत को अपनी खाद्य आयात-निर्यात नीति भी बदलनी है. हम दाल आयात करते हैं और चीनी निर्यात जबकि हमें इसका बिल्कुल उलटा करना चाहिए. भारत की विशालता और पानी की क्षेत्रीय उपलब्धता को देखते हुए पश्चिमी और पूर्वी तट के राज्यों के लिए अलग-अलग खाद्य आयात नीति की जरूरत है. इसके तहत पश्चिमी भारत को आयातित खाद्य पर निर्भरता बढ़ानी पड़ सकती है ताकि वर्चुअल वॉटर का अंतरराज्यीय व्यापार संतुलित हो सके.
पानी को लेकर गंभीरता और संचय भारत (मरुस्थल को छोड़कर) के संस्कार में नहीं है. अब गुजरात, राजस्थान, बुंदेलखंड ही नहीं बल्कि दोआब, डेल्टा और तराई के क्षेत्र भी पानी की कमी से जूझ रहे हैं. इससे पहले कि हमारी जिंदगी से पानी उतर जाए, हमें खेती और पानी के रिश्ते को नए सिरे से तय करना होगा क्योंकि प्रकृति हमें अधिकतम जितना पानी दे सकती थी, वह इस समय उपलब्ध है. इसके बढऩे की कोई गुंजाइश नहीं है.