Wednesday, August 3, 2016

आगेे और महंगाई है !


अच्‍छे मानसून के बावजूद, कई दूसरे कारणों के चलते अगले दो वर्षों में महंगाई  की चुनौती समाप्‍त होने वाली नहीं है। 

देश में महंगाई पर अक्सर चर्चा शुरू हो जाती हैलेकिन जब सरकार कोई अच्छे फैसले करती है तो उसका कोई जिक्र नहीं करता." ------ 22 जुलाई को गोरखपुर की रैली में यह कहते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति और आर्थिक प्रबंधन की सबसे पुरानी दुविधा को स्वीकार कर रहे थेजिसने किसी प्रधानमंत्री का पीछा नहीं छोड़ा. कई अच्छी शुरुआतों के बावजूद महंगाई ने ''अच्छे दिन" के राजनैतिक संदेश को बुरी तरह तोड़ा है. पिछले दो साल में सरकार महंगाई पर नियंत्रण की नई सूझ या रणनीति लेकर सामने नहीं आ सकी जबकि अंतरराष्ट्रीय माहौल (कच्चे तेल और जिंसों की घटती कीमतें) भारत के माफिक रहा है. सरकार की चुनौती यह है कि अच्छे मॉनसून के बावजूद अगले दो वर्षों में टैक्सबाजारमौद्रिक नीति के मोर्चे पर ऐसा बहुत कुछ होने वाला हैजो महंगाई की दुविधा को बढ़ाएगा.
भारत के फसली इलाकों में बारिश की पहली बौछारों के बीच उपभोक्ता महंगाई झुलसने लगी है. जून में उपभोक्ता कीमतें सात फीसदी का आंकड़ा पार करते हुए 22 माह के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गईं. अच्छे मॉनसून की छाया में महंगाई का जिक्र अटपटा नहीं लगना चाहिए. महंगाई का ताजा इतिहास (2008 के बाद) गवाह है कि सफल मॉनूसनों ने खाद्य महंगाई पर नियंत्रण करने में कोई प्रभावी मदद नहीं की है अलबत्ता खराब मॉनसून के कारण मुश्किलें बढ़ जरूर जाती हैं. पिछले पांच साल में भारत में महंगाई के सबसे खराब दौर बेहतर मॉनसूनों की छाया में आए हैं. इसलिए मॉनसून से महंगाई में तात्कालिक राहत के अलावा दीर्घकालीन उम्मीदें जोडऩा तर्कसंगत नहीं है.
भारत की महंगाई जटिलजिद्दी और बहुआयामी हो चुकी है. नया नमूना महंगाई के ताजा आंकड़े हैं. आम तौर पर खाद्य उत्पादों की मूल्य वृद्धि को शहरी चुनौती माना जाता है लेकिन मई के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण इलाकों में महंगाई बढऩे की रफ्तार शहरों से ज्यादा तेज थी. खेती के संकट और ग्रामीण इलाकों में मजदूरी दर में गिरावट के बीच ग्रामीण महंगाई के तेवर राजनीति के लिए डरावने हैं.
अच्छे मॉनसून के बावजूद तीन ऐसी बड़ी वजह हैं जिनके चलते अगले दो साल महंगाई के लिए चुनौती पूर्ण हो सकते हैं.
सबसे पहला कारण सरकारी कर्मचारियों के वेतन में प्रस्तावित बढ़ोतरी है. इंडिया रेटिंग का आकलन है कि वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद खपत में 45,100 करोड़ रु. की बढ़ोतरी होगी. प्रत्यक्ष रूप से यह फैसला मांग बढ़ाएगालेकिन इससे महंगाई को ताकत भी मिलेगी जो पहले ही बढ़त की ओर है. जैसे ही राज्यों में वेतन बढ़ेगामांग व महंगाई दोनों में एक साथ और तेज बढ़त नजर आएगी.
रघुराम राजन के नेतृत्व में रिजर्व बैंक महंगाई पर अतिरिक्त रूप से सख्त था और ब्याज दरों को ऊंचा रखते हुए बाजार में मुद्रा के प्रवाह को नियंत्रित कर रहा था. केंद्रीय बैंक का यह नजरिया दिल्ली में वित्त मंत्रालय को बहुत रास नहीं आया. राजन की विदाई के साथ ही भारत में ब्याज दरें तय करने का पैमाना बदल रहा है. अब एक मौद्रिक समिति महंगाई और ब्याज दरों के रिश्ते को निर्धारित करेगी. राजन के नजरिए से असहमत सरकार आने वाले कुछ महीनों में उदार मौद्रिक नीति पर जोर देगी. मौद्रिक नीति के बदले हुए पैमानों से ब्याज दरें कम हों या न हों लेकिन महंगाई को ईंधन मिलना तय है.
तीसरी बड़ी चुनौती बढ़ते टैक्स की है. पिछले तीन बजटों में टैक्स लगातार बढ़ेजिनका सीधा असर जेब पर हुआ. रेल किराएफोन बिलइंटरनेटस्कूल फीस की दरों में बढ़ोतरी इनके अलावा थी. इन सबने मिलकर पिछले दो साल में जिंदगी जीने की लागत में बड़ा इजाफा किया. जीएसटी को लेकर सबसे बड़ी दुविधा या आशंका यही है कि यदि राज्यों और केंद्र के राजस्व की फिक्र की गई तो जीएसटी दर ऊंची रहेंगी. जीएसटी की तरफ बढ़ते हुए सरकार को लगातार सर्विस टैक्स की दर बढ़ानी होगीजिसकी चुभन पहले से ही बढ़ी हुई है.
महंगाई पर नियंत्रण की नई और प्रभावी रणनीति को लेकर नई सरकार से उम्मीदों का पैमाना काफी ऊंचा था. इसकी वजह यह थी कि मूल्य वृद्धि पर नियंत्रण के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नई सूझ लेकर आने वाले थे. मांग (मुद्रा का प्रवाह) सिकोड़ कर महंगाई पर नियंत्रण के पुराने तरीकों के बदले मोदी को आपूर्ति बढ़ाकर महंगाई रोकने वाले स्कूल का समर्थक माना गया था.
याद करना जरूरी है कि मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के बतौर एक समिति की अध्यक्षता की थीजो महंगाई नियंत्रण के तरीके सुझाने के लिए बनी थी. उसने 2011 में तत्कालीन सरकार को 20 सिफारिशें और 64 सूत्रीय कार्ययोजना सौंपी थीजो आपूर्ति बढ़ाने के सिद्धांत पर आधारित थी. समिति ने सुझाया था कि खाद्य उत्पादों की अंतरराज्यीय आपूर्ति बढ़ाने के लिए मंडी कानून को खत्म करना अनिवार्य है. मोदी समिति भारतीय खाद्य निगम को तीन हिस्सों में बांट कर खरीदभंडार और वितरण को अलग करने के पक्ष में थी. इस समिति की तीसरी महत्वपूर्ण राय कृषि बाजार का व्यापक उदारीकरण करने पर केंद्रित थी.
दिलचस्प है कि पिछले ढाई साल में खुद मोदी सरकार इनमें एक भी सिफारिश को सक्रिय नहीं कर पाई. सरकार ने सत्ता में आते ही मंडी (एपीएमसी ऐक्ट) कानून को खत्म करने या उदार बनाने की कोशिश की थी लेकिन इसे बीजेपी शासित राज्यों ने भी भाव नहीं दिया. एनडीए सरकार ने पूर्व खाद्य मंत्री और बीजेपी नेता शांता कुमार के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी जिसने एफसीआइ के विभाजन व पुनर्गठन को खारिज कर दिया और खाद्य प्रबंधन व आपूर्ति तंत्र में सुधार जहां का तहां ठहर गया. 
मोदी सरकार यदि लोगों के ''न की बात" समझ रही है तो उसे बाजार में आपूर्ति बढ़ाने वाले सुधार शुरू करने होंगे.अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमतों में गिरावट उनकी मदद को तैयार है. 
दरअसलमौसमी महंगाई उतनी बड़ी चुनौती नहीं है जितनी इस अपेक्षा का स्थायी हो जाना कि महंगाई कभी कम नहीं हो सकती. भारत में इस अंतर्धारणा ने महंगाई नियंत्रण की हर कोशिश के धुर्रे बिखेर दिए हैं. इस धारणा को तोडऩे की रणनीति तैयार करना जरूरी है अन्यथा मोदी सरकार को महंगाई के राजनैतिक व चुनावी नुक्सानों के लिए तैयार रहना होगाजो सरकार के पुरानी होने के साथ बढ़ते जाएंगे.

Wednesday, July 27, 2016

अधूरे सुधारों का अजायबघर



भारत के आर्थिक सुधार अधूरी कोशिशों का  शानदार अजायबघर हैं. 

शुरुआत अच्छी हो तो समझ लीजिए कि आधा रास्ता पार. कहावत ठीक है बशर्ते इसे भारत के आर्थिक सुधारों से न जोड़ा जाए. भारत के आर्थिक सुधार अधूरी कोशिशों का  शानदार अजायबघर हैं. उदारीकरण की रजत जयंती पर बेशक हमें फख्र होना चाहिए कि भारत दुनिया के उन चुनिंदा मुल्कों में है जिसने ढाई दशक में अभूतपूर्व और अद्भुत उपलब्धियां हासिल की हैंजो बढ़ी हुई आयसेवाओंतकनीकोंउत्पादोंसुविधाओं की शक्ल में हमारे आसपास बिखरी हैं और इन सुधारों की कामयाबी की गारंटी देती हैं. लेकिन इसके बावजूद आर्थिक सुधारों की बड़ी त्रासदी इनका अधूरापन हैजो अगर नहीं होता तो हमारे फायदे शायद कई गुना ज्यादा होते और असंगतियां कई गुना कम.
सबसे नए उदारीकरण से शुरू करते हैं. इसी जून में मोदी सरकार ने महत्वाकांक्षी और दूरगामी उड्डयन (एविएशन) नीति जारी की और इसके ठीक बाद विमानन क्षेत्र में विदेशी निवेश के नियम भी उदार किए गए. यह दोनों ही फैसले आधुनिकता और साहस के पैमानों पर उत्साहवर्धक थेक्योंकि नई नीति के तहत सरकार ने भारतीय विमानन कंपनियों के लिए विदेशी उड़ानों के दकियानूसी नियमों को बदल दिया था और दूसरी तरफ विदेशी विमान कंपनियों के लिए बाजार खोलने की हिम्मत दिखाई थी. लेकिन इसके बाद भी यह सुधार अधूरा ही रह गया.
नई उड्डयन नीति का अधूरापन इसलिए और ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में विमानन क्षेत्र का उदारीकरण 1990 में प्रारंभ हुआ. 1994 की ओपन स्काई नीति और विमान सेवा में सरकारी कंपनियों (एयर इंडिया) के एकाधिकार की समाप्ति के बाद तेजी आई लेकिन 26 साल के तजुर्बों के बावजूद नई विमानन नीति में इस क्षेत्र के समग्र उदारीकरण की हिम्मत नजर नहीं आई. कई नीतियों के सफर के बावजूद विमानन क्षेत्र को अभी कुछ और नीतियों का इंतजार करना होगा.
ऊर्जा और बिजली क्षेत्र असंगतियों का शानदार नमूना है. निजी कंपनियों को बिजली उत्पादन की इजाजत 1992 में (इंडिपेंडेंट पॉवर प्रोड्यूसर्स नीति) और उत्पादक इस्तेमाल (कैप्टिव) के लिए कोयला निकालने की छूट 1993 में मिल गई थी. नब्बे के दशक में राज्य बिजली बोर्डों के पुनर्गठन और 2000 के दशक में नए बिजली कानून सहित कई कदमों के बावजूद बिजली सुधार पूरे नहीं हुए. इसी दौरान सरकार ने कोयला क्षेत्र में विदेशी निवेश की गति तेज की और कैप्टिव खदानों का आवंटन-घोटाले-पुनर्आवंटन हुए.
ऊर्जा नीतियों में तमाम फेरबदल के बावजूद बिजली और ऊर्जा सुधार अधूरे उलझे और पेचीदा रहे. सरकार ने उत्पादन का निजीकरण तो किया लेकिन बिजली वितरण अधिकांशतः सरकारी नियंत्रण में रहा. सरकारें बिजली दरें तय करने की राजनीति छोडऩा नहीं चाहती थींइसलिए बिजली क्षेत्र में नियामक खुलकर काम नहीं कर सके. दूसरी तरफ बिजली उत्पादन में निजी निवेश के बावजूद सरकार ने कोयला खनन अपने नियंत्रण में रखा. इन अजीब असंगतियों के चलते भारत का ऊर्जा क्षेत्र विवादोंघोटालों और घाटों का पुलिंदा बन गया. 1990 में बिजली बोर्ड घाटे में थे और राज्यों के बिजली वितरण निगम आज भी घाटे में हैंजिन्हें पिछले 25 साल में तीन पैकेज मिल चुके हैं. तीसरा पैकेज उदय हैजो मोदी सरकार लेकर आई है. बिजली का उत्पादन व आपूर्ति बढ़ी है लेकिन कोयला व बिजली वितरण के क्षेत्र में अधूरे सुधारों के कारण असंगतियां और ज्यादा बढ़ गई हैं.
दूरसंचार सुधारों का किस्सा भी जानना जरूरी हैजो लगभग हर दूसरे साल किसी नीतिगत बदलाव के बावजूद आज तक नतीजे पर नहीं पहुंच सके. 1993 में मोबाइल सेवा की शुरुआत से लेकर, 1995 में कंपनियों को लाइसेंस फीस से माफीटीआरएआइ का गठनसीडीएमए सेवा, 2जी लाइसेंसविदेशी निवेश का उदारीकरण, 3जी सेवा, 2जी घोटालानए स्पेक्ट्रम आवंटन और 4जी तक दूरसंचार सुधारों का इतिहास रोमांच से भरा हुआ है.
इस उदारीकरण का मकसद बाजार में पर्याप्त प्रतिस्पर्धा लाना और उपभोक्ताओं को आधुनिक व सस्ती सेवा देना था लेकिन दूरसंचार सुधारों को सही क्रम नहीं दिया जा सका. सुधारों के अधूरेपन व तदर्थवाद का नतीजा है कि स्पेक्ट्रम घोटालों के बावजूद सरकारें पारदर्शी स्पेक्ट्रम आवंटन नीति नहीं बना सकीं. टीआरएआइ एक सफल व पारदर्शी नियामक बनने में असफल रहाइसलिए 2जी से 4जी तक आते-आते बाजार में प्रतिस्पर्धा (ऑपरेटरों की संक्चया घटी) सीमित रह गई. सेवा की गुणवत्ता बिगड़ी है और सेवा दरें महंगी हो गई हैं.
खुदरा कारोबार के उदारीकरण को चौथे उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं जिसकी शुरुआत 1997 में कैश ऐंड कैरी में शत प्रतिशत विदेशी निवेश के साथ हुई थी. 2000 के दशक में सिंगल ब्रांड रिटेल में 100 फीसदी और मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी एफडीआइ खोला गया लेकिन सियासी ऊहापोह के कारण सुधार पूरी तरह लागू नहीं हो सके. इस बीच सरकार ने हाल में ही ई-कॉमर्स और फूड रिटेल में शत प्रतिशत विदेशी निवेश खोल दिया. कागजों पर पूरा रिटेल क्षेत्र विदेशी निवेश के लिए खुला हैलेकिन प्रक्रियागत उलझनों व राजनैतिक असमंजस के चलते निवेश नदारद है.
अधूरेअनगढ़ और असंगत सुधारों के कारणन चाहते हुए भी भारत में ऐसी अर्थव्यवस्था बन गई है जिसमें खुलेपन के फायदे चुनिंदा हाथों तक सीमित हैं और बाजार का स्वस्थ और समानतावादी विस्तार कहीं पीछे छूट गया. इस खुले बाजार में अवसर बांटने वाली ताकत के तौर पर सरकार आज भी मौजूद है जबकि अवसर लेने की होड़ में लगी कंपनियां कार्टेलनेताओं से गठजोड़ और भ्रष्टाचार से इस उदारीकरण को आए दिन दागी करती हैं.

ब्रिटिश कवि जॉन कीट्स कहते थे कि अच्छी शुरुआत से आधा काम खत्म नहीं होता. दरअसल जब तक आधा रास्ता न मिल जाए तक अच्छी शुरुआत का दावा ही नहीं करना चाहिए. आर्थिक सुधारों ने भारत को बड़ी नेमतें बख्शी हैं लेकिन सुधारों के तलवे में अधूरेपन का एक बड़ा कांटा चुभा है जो एक स्वस्थ देश को हमेशा लंगड़ा कर चलने पर मजबूर करता है. काश हम यह कांटा निकाल सकते!   

Wednesday, July 20, 2016

ताकि नजर आए बदलाव

सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है

ह अनायास नहीं था कि मंत्रिपरिषद को फेंटने से ठीक पहले प्रधानमंत्री ने कुछ अखबारों को दिए अपने साक्षात्कार में बेबाकी के साथ कहा कि ''मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा."
प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी से ठीक एक सप्ताह पहले सरकार के दो साल पूरे होने का अभियान खत्म हुआ था जो देश बदलने के अभूतपूर्व दावों से भरपूर था. इसमें आंकड़ोंदावोंसूचनाओं की बाढ़-सी आ गई थी लेकिन प्रधानमंत्री ने उन मंत्रियों को ही बदल दिया जो पूरे जोशो-खरोश से यह स्थापित करने में लगे थे कि जो बदलाव 60 साल में नहीं हुएवे दो साल में हो गए हैं.
दरअसल यह फेरबदल बताता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब दिल्ली के लिए नए नहीं रहे. दो साल में उन्होंने सरकार और अपनी टीम के बारे में बहुत कुछ जान-समझ लिया है. उनका एक अपना स्वतंत्र सूचना तंत्र भी है जो उन्हें दावों और हकीकत का फर्क बता रहा है. यह हकीकत पांच घंटे की उस समीक्षा बैठक में भी सामने आई थी जो प्रधानमंत्री ने मंत्रिपरिषद में फेरबदल से ठीक पहले बुलाई थी.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बदलाव ने भले ही सुर्खियां बटोरीं हों लेकिन ताजा फेरबदल का शिकार हुए प्रत्येक मंत्री के पिछले दो साल के कामकाज को करीब से देखिए तो पता चल जाएगावह क्यों बदला गयाग्रामीण विकास मंत्रालय में बदलाव प्रधानमंत्री स्वच्छता मिशन की असफलता से निकला. संसदीय समन्वय में कमी के चलते पूरी संसदीय टीम बदल गई. कॉल ड्रॉप रोकने में असफलता ने संचार मंत्री बदले बल्कि मंत्रालय भी दो-फाड़ हो गया. स्टील और खनन मंत्रालय भी इसी राह चला. कानून और खनन मंत्रालयों के मुखिया बदलने के पीछे भी पिछले दो साल का कामकाज ही है. जहां खराब प्रदर्शन के बावजूद मंत्री जमे रहे हैं तो वहां शायद राजनैतिक मजबूरियां गवर्नेंस के पैमानों पर भारी पड़ी हैं.
अलबत्ता मंत्रालयी विश्लेषणों से परे इस फेरबदल का व्यापक संदेश प्रधानमंत्री के इस साहसी स्वीकार से निकलता है कि बदलाव है तो महसूस होना चाहिए. आज दो साल बाद अगर प्रधानमंत्री उन उम्मीदों को कमजोर होता पा रहे हैं तो हमें यह भी मानना चाहिए कि वे मंत्रिमंडल फेरदबल तक सीमित नहीं रहना चाहेंगे बल्कि उन दूसरी कमजोर कडिय़ों को भी संभालने की कोशिश करेंगेजो बड़े बदलावों को जमीन पर उतरने से रोक रही हैं.
एक ताकतवर पीएमओ की छवि के विपरीत जाकर क्या प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों को अब अधिकारों से लैस करना चाहेंगेकेंद्र सरकार को चलाने का ढंग राज्यों से अलग है. केंद्रीय गवर्नेंस का इतिहास गवाह है कि प्रधानमंत्री मंत्रियों को अधिकारों से लैस करते हैं और मंत्री अपने अधिकारियों को. मंत्रियों को मिली आजादी और अधिकार नीतियां बनाने और नीतियों को लागू करने की प्रक्रिया तय करने के लिए जरूरी है.
पिछले दो साल में सरकार ने कई नई पहल की हैं लेकिन ज्यादातर फैसले स्कीमों की घोषणा तक सीमित थे. सरकार के महत्वाकांक्षी मिशन वह असर पैदा करने में सफल नहीं हुए जिसकी उम्मीद खुद प्रधानमंत्री को थी. मोबाइल कॉल ड्रॉप डिजिटल इंडिया की चुगली खाते हैंकिसानों की आत्महत्याएं ग्रामोदय को ग्रस लेती हैं या शहरों में बदस्तूर गंदगी स्वच्छता मिशन को दागी कर देती है या नए निवेश की बेरुखी मेक इन इंडिया की चमक छीन लेती है. इस तरह के सभी मिशन पूरक नीतियांप्रक्रियाएं और लक्ष्य मांगते हैंइसलिए नीतियों और व्यवस्थाओं में बदलाव जरूरी है.  
प्रधानमंत्री ने पिछले दो साल में जिस तेवर-तुर्शी के बदलावों का सपना रोपाराज्य सरकारें उसके मुताबिक सक्रिय नहीं नजर आईं. राज्य सरकारें जो मोदी की विकास रणनीति की ताकत हो सकती थींफिलहाल कुछ बड़ा कर गुजरती नहीं दिखीं हैं. कांग्रेस अपने दस साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए तरसती रही थीवह बीजेपी को संयोग से अपने आप मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ,  जब 12 राज्यों  में उस गठबंधन या पार्टी की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है.
देश का लगभग 40 फीसदी जीडीपी संभालने वाले नौ बड़े राज्यों में बीजेपी या उसके सहयोगी दल राज्य कर रहे हैं जो केंद्र सरकार की स्कीमों के क्रियान्वयन के लिए सबसे बेहतर मौका है. लेकिन पिछले दो साल में राज्यों ने प्रधानमंत्री की किसी भी प्रमुख स्कीम के क्रियान्वयन में कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की. मंडी कानून को खत्म करनेनिवेश और कारोबार को सहज करने या खदानों के ई-ऑक्शन जैसे कार्यक्रम बीजेपी शासित राज्यों में भी उस उत्साह के साथ आगे नहीं बढ़े जिसकी उम्मीद थी. 
शिक्षास्वास्थ्यग्रामीण विकासनगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की प्रभावी जिम्मेदारी अब राज्यों के हाथ है. केंद्र सरकार इसके लिए संसाधनों के आवंटन कर रही है. पिछले दो साल में सबसे सीमित विकास इन सामाजिक सेवाओं में दिखा हैजो बीजेपी की राजनैतिक आकांक्षाओं के लिए नुक्सानदेह है. 
इस फेरबदल से आगे बढ़ते हुए अब प्रधानमंत्री को राज्यों के साथ समन्वय का सक्रिय व प्रभावी ढांचा विकसित करना होगा. नीति आयोग राज्यों से समन्वय और नीतियों की नई व्यवस्था में अभी तक कोई ठोस योगदान नहीं कर सका हैउसे सक्रिय करना जरूरी है. राज्य यदि बढ़-चढ़कर आगे नहीं आए तो केंद्रीय मंत्रालय कोई ठोस असर नहीं छोड़ सकेंगे. 

मंत्रिपरिषद में बदलाव से चुनाव नहीं जीते जाते. सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है. यह अच्छे दिन के संदेश व उम्मीदों से ही जुड़ता है जो नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान का आधार था. शुक्र है कि प्रधानमंत्री को बदलाव नजर न आने की हकीकत का एहसास है इसलिए हमें मानना चाहिए कि सरकार का पुनर्गठन अभी शुरू ही हुआ है. प्रधानमंत्री अपनी टीम के बाद स्कीमोंनीतियों और प्रक्रियाओं को भी बदलेंगे ताकि उपलब्धियां महसूस हो सकेउनका दावा न करना पड़े.

Monday, July 11, 2016

... तो फिर मत लाइये जीएसटी

जीएसटी का ड्राफ्ट कानून न आधुनिक है और न दूरदर्शी। यह निराश ही नहीं आशंकित भी करता है। 

यदि आप भी मानते हैं कि जीएसटी (गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स) के लागू होने के बाद कारोबार करना सांस लेने जितना आसान हो जाएगा और परतदार टैक्सों के जरिए बढऩे वाली महंगाई से मुक्ति मिल जाएगीतो आप को एक बार केंद्र सरकार के मॉडल जीएसटी कानून (http://goo.gl/cxDWtx) को जरूर पढऩा चाहिएजो जीएसटी का आधार बनेगा और जिसे संसद के आगामी सत्र में मंजूर कराने की कोशिश की जाएगी.

हम जानते हैं कि सरकार के कानून कतई पठनीय नहीं होते. लेकिन कठिनता और पेच-परतों के बावजूद इस कानून को पढऩा जरूरी है. इसे पढ़कर ही यह पता चल सकेगा कि इस कानून से निकलने वाला जीएसटी भारत का सबसे बड़ा टैक्स सुधार नहीं बल्कि बड़ी मुसीबत बनने के खतरों से लैस है. 

जीएसटी कानून के मकडज़ाल में उतरते हुए यह याद रखना जरूरी है कि इस कर सुधार के तीन मकसद हैं: पहलापूरे देश में दर्जनों टैक्स हैं जो भारत को एक कॉमन मार्केट बनाने में सबसे बड़ी बाधा हैं. जीएसटी से पूरे देश में उत्पादनबिक्री और सेवाओं पर समान दर से एक टैक्स लगेगा और भारत एक निर्बाध बाजार में बदल जाएगा.

दूसराभांति-भांति के टैक्स महंगाई बढ़ाते हैंजीएसटी के तहतकस्टम ड्यूटी के अलावा केंद्र और राज्यों के सभी इनडाइरेक्ट टैक्स (एक्साइजसर्विसवैटचुंगी आदि) एक साथ मिलाए जाएंगे जिससे टैक्स की प्रभावी दर कम होगी. इसके तहत निर्माता और सेवा प्रदाताओं कोउत्पादन और सेवा के अलग स्तरों पर लगने वाले टैक्स वापस होंगे जिससे अंतिम उत्पाद या सेवा पर सिर्फ एक टैक्स लगेगा और महंगाई कम होगी.

तीसराजीएसटी एक सहज टैक्स प्रशासन लेकर आएगा जिसमें कारोबार करना बेहद आसान हो जाएगा.

इन्हीं तीन वजहों से जीएसटी को लेकर उम्मीदों का सूचकांक हमेशा आसमान पर चढ़ा रहा. लेकिन इन उम्मीदों से प्रभावित कोई व्यक्ति अगर जीएसटी कानून को पढ़े तो वह इसमें आधुनिक टैक्स सिस्टम और कारोबार की सहजता तलाशता रह जाएगा.
जीएसटी सबूत है कि सरकार जो कह रही हैंकानून उसका ठीक उलटा करने वाला है. इसमें एक नहीं बल्कि कई ऐसे प्रावधान हैं जो भविष्योन्मुखी और आधुनिक टैक्स ढांचा देने के बजाए मौजूदा टैक्स प्रणाली को ही कई साल पीछे धकेल सकते हैं.

बानगी के लिए टैक्स पंजीकरण को ही लें जो कि टैक्सेशन का बुनियादी पहलू है और कारोबारियों की सबसे बड़ी सांसत है. यह कानून लागू हुआ तो दर्जनों टैक्स रजिस्ट्रेशन कराने होंगे. जीएसटी के प्रस्तावित तीन स्तरीय टैक्स (सेंट्रलस्टेटइंटीग्रेटेड) ढांचे के तहत पूरे देश में माल बेचने या सप्लाई करने वालों को हर राज्य में तीन अलग-अलग पंजीकरण कराने होंगे और अलग-अलग रिटर्न भरते हुए टैक्स का हिसाब रखना होगा.

यही नहींअगर कोई कंपनी कई तरह के कारोबार करती है तो सभी कारोबारों का अलग-अलग पंजीकरण होगा. अब यह सरकार ही बता सकती है कि असंख्य रजिस्ट्रेशनों और रिटर्न की व्यवस्था के बाद जीएसटी कारोबार को कैसे आसान करेगाहकीकत यह है कि जीएसटी में पंजीकरण का यही अकेला प्रावधान इस पूरे सुधार को पटरी से उतार देगा क्योंकि भारत में कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) पहले ही काफी ऊंची हैजो जीएसटी के बाद कई गुना बढ़ सकती है.

एक और प्रावधान काबिलेगौर है जो देश में अलग-अलग राज्यों में संचालन करने वाली कंपनियों या प्रतिष्ठानों पर भारी पड़ेगा. जीएसटी ऐक्ट के तहत अगर कोई कंपनी अपनी ही किसी शाखा या इकाई को माल या सेवा भेजती है तो इस पर टैक्स लगेगा. माल या सेवा पाने वाली इकाई इस टैक्स की वापसी के लिए बाद में दावा करेगी. यह प्रावधान जीएसटी से देश में कॉमन मार्केट बनने की उम्मीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि है.

इनपुट टैक्स क्रेडिट जीएसटी की जान हैजिसके तहत उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है पर इससे जुड़ा प्रावधान अनोखा है. जीएसटी ऐक्ट कहता है कि सप्लायर ने सरकार को टैक्स नहीं चुकाया है तो उस सेवा या कच्चे माल का इस्तेमाल करने वाला निर्माता टैक्स क्रेडिट का दावा नहीं कर सकेगा. यह प्रावधान जीएसटी के मिलने वाले फायदों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा होगा.

एक्साइज और सर्विस टैक्स कानूनों में जटिल परिभाषाओं और प्रावधानों के कारण सुप्रीम कोर्टहाइकोर्टट्रिब्यूनलों और अपील कमिशनरों के पास 1.20 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. जीएसटी कानून में भी असंगतियों और पेचदार परिभाषाओं की बहुतायत है जो कानूनी जटिलताएं बढ़ाएंगी और मनमाने नोटिस भेजने का मौका देंगी.

जीएसटी के मॉडल ऐक्ट को पढ़ते हुए यह समझना मुश्किल नहीं कि अधिकारियों ने जीएसटी कानून को पुराने कस्टमएक्साइजसर्विसेज और वैट कानूनों की असंगतियों का पुलिंदा बना दिया है. उम्मीद यह थी कि जीएसटी के जरिए आधुनिकसहज और दूरदर्शी टैक्स सिस्टम मिलेगा. अगर यह मॉडल कानून है और इसके आधार पर राज्‍यों के एसजीएसटी (स्‍टेट जीएसटी) कानून बनेंगे तो फिर कारोबारी सहजता की उम्‍मीदों का ऊपर वाला ही मालिक है। 

इस कानून को देखने के बाद जीएसटी में कारोबारी सहजता की उम्मीदें किनारे लग गई हैं. रही बात समेकित कर ढांचे की तो तीन स्तरीय जीएसटी में न स्टांप ड्यूटी शामिल होगीन मोटर वेहिकल टैक्स और कुछ राज्यों में तो चुंगी शामिल होने पर भी शक है. पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला टैक्स जीएसटी के अतिरिक्त होगा. मंदीराज्यों के राजस्व में गिरावट और वेतन आयोग के कारण बढ़े खर्चों की वजह से जीएसटी की दर ऊंची ही रहनी है. इनडाइरेक्ट टैक्स की औसत दर इस समय 24 फीसदी हैइसे देखते हुए जीएसटी रेट 18 से 20 फीसदी के बीच रह सकता है जिसका मतलब है कि सर्विस टैक्स की दर में चार से छह फीसदी का इजाफा होगा और कई स्तरों पर उत्पाद शुल्क वैट भी बढ़ेगा.


जीएसटी की राजनीति नहीं बल्कि इसका अर्थशास्त्रक्रियान्वयन और प्रशासन महत्वपूर्ण है. क्रांतिकारी सुधार दिखाने को बेचैन सरकार को इससे चाहे जो राजनैतिक उम्मीदें हों लेकिन जीएसटी जिस तरह आकार ले रहा हैवह आर्थिक अवसरों के बजाए पूरे टैक्स सिस्टम में असंगतियों और अराजकता के रास्ते खोल सकता है. उम्मीद है कि हमारे नेता इतने संवेदनशील सुधार को लेकर 'आ बैल मुझे मारनहीं करेंगे.

Tuesday, July 5, 2016

बार बार मिलने वाला आखिरी मौका

काला धन रखने वालेे सरकार पर कभी भरोसा नहीं करते लेकिन फिर भी उन्‍हें हर दशक में एक बार बच निकलने का मौका जरुर मिल जाता है

दि आप ईमानदारी से अपना टैक्स चुकाते हैं और सरकार से किसी मेहरबानी की उम्मीद नहीं रखते तो आपको इस बात पर चिढ़ जरूर होनी चाहिए कि यह कैसा आखिरी मौका है जो बार-बार आता है और जो सिर्फ टैक्स चोरों और काली कमाई वालों को ही मिलता है. बीते सप्ताह प्रधानमंत्री ने ''न की बात" में काले धन की स्वैच्छिक घोषणा की नई स्कीम को जब आखिरी मौका कहा तो वे दरअसल इतिहास को नकार रहे थे. हकीकत यह है कि नई स्कीम काले धन (घरेलू) के पाप धोकर चिंतामुक्त होने का आखिरी नहीं बल्कि एक और नया मौका है. आम करदाताओं के लिए सहूलियतें भले न बढ़ी हों लेकिन आजादी के बाद लगभग हर दशक में एक ऐसी स्कीम जरूर आई है जो कर चोरों को बच निकलने का एकमुश्त मौका देती है.

कर चोरों को माफी देने की स्कीमों के नैतिक सवाल हमेशा से बड़े रहे हैं क्योंकि यह ईमानदार करदाताओं के साथ खुला अन्याय है. इसलिए ज्यादातर देश विशेष हालात में ही ऐसी पहल करते हैं. भारत में माफी स्कीमों के दोहराव ने नैतिकता के सवालों को तो पहले ही नेस्तनाबूद कर दिया थाअब तो इनकी भव्य विफलता कर प्रशासन की साख के लिए बड़ी चुनौती है. लेकिन इसके बाद भी सरकारें यह जुआ खेलने से नहीं हिचकतीं.

एनडीए सरकार पिछले 65 वर्षों की दूसरी सरकार (1965 में तीन स्कीमें) है जो दो साल के भीतर कर चोरों को सजा से माफी (टैक्स चुकाने के बाद) की दो स्कीमें ला चुकी है. अचरज तब और बढ़ जाता है जब हमें यह पता हो कि 2015 में विदेश में जमा काले धन की महत्वाकांक्षी स्वैच्छिक घोषणा की स्कीम सुपर फ्लॉप रही. इसमें केवल 3,770 करोड़ रु. का काला धन घोषित हुआ और सरकार के खजाने में महज 2,262 करोड़ रु. का टैक्स आया. इसके बाद एक और स्कीम समझनीयत और नैतिकता पर गंभीर सवाल खड़े करती है.

कर चोरों को बार-बार मिलने वाले ''आखिरी" मौकों का इतिहास बहुत लंबा है लेकिन इससे गुजरना जरूरी है ताकि हमें काली कमाई करने वालों के प्रति अक्सर उमडऩे वाली सरकारी सहानुभूति का अंदाज हो सके और यह पता चल सके कि इन स्कीमों के डीएनए में ही खोट है.

आजादी मिले चार साल ही बीते थे जब 1951 में पहली वॉलेंटरी डिस्क्लोजर स्कीम आई. त्यागी स्कीम (तत्कालीन राजस्व और खर्च मंत्री महावीर त्यागी) के नाम से जानी गई यह खिड़की केवल 70 करोड़ रु. का काला धन और 10-11 करोड़ रु. का टैक्स जुटा सकी क्योंकि लोगों को आगे कार्रवाई न होने का भरोसा नहीं था.

1965 भारत-पाक युद्ध का वर्ष था. उस साल तीन स्कीमें आई थीं. इनमें एक सिक्स फोर्टी स्कीम थी और दूसरी ब्लैक स्कीम. दोनों की कर दर ऊंची थी इसलिए केवल 49 करोड़ रु. का टैक्स मिला. उसी साल सरकार ने काला धन जुटाने के लिए नेशनल डिफेंस गोल्ड बॉन्ड जारी किए जिसमें निवेश करने वालों का ब्यौरा गोपनीय रखा गया लेकिन बॉन्ड बहुत लोकप्रिय नहीं हुए.

इमरजेंसी की छाया में 1975 में आई स्कीम में कंपनी और व्यक्तिगत आय को घोषित करने और 25 से 60 फीसदी टैक्स देने पर सजा से माफी का प्रावधान था. स्कीम से केवल 241 करोड़ रु. का राजस्व मिला. 1978 में 1,000 रु. के नोट बंद करके काले धन को सीमित करने की कोशिश हुई. काले धन के निवेश के लिए 1981 में स्पेशल बॉन्ड जारी हुए जिसमें रिटर्न कर मुक्त था जो बहुत कामयाब नहीं हुए. काली संपत्ति की घोषणा पर 1985 में आयकर विभाग ने छूट के प्रावधान किए और 1986 में इंदिरा विकास पत्र लाए गए जो काली कमाई के निवेश का मौका देते थे. 1991 की नेशनल हाउसिंग डिपॉजिट स्कीम भी काली कमाई निकालने में नाकाम रही.

1991 की फॉरेन एक्सचेंज रेमिटेंस स्कीम और नेशनल डेवलपमेंट बॉन्ड में काले धन की घोषणा पर माफी का प्रावधान था. ये बॉन्ड अपेक्षाकृत सफल रहे लेकिन 1993 की गोल्ड  बॉन्ड स्कीम को समर्थन नहीं मिला. 1997 की वीडीआइएस अकेली स्कीम थी जो 33,697 करोड़ रु. के काले धन और 9,729 करोड़ रु. के टैक्स के साथ सबसे सफल प्रयोग थी.

इतिहास प्रमाण है कि काला धन माफी स्कीमों का डिजाइन लगभग एक-सा हैकेवल टैक्स पेनाल्टी दरों में फर्क आता रहा है. यह स्कीमें सूचनाओं की गोपनीयता के प्रति कभी भी भरोसा नहीं जगा सकींबल्कि बाद के कुछ मामलों में टैक्स की पड़ताल ने विश्वास को कमजोर ही किया. कर दरें ऊंची होने के कारण भी काला धन रखने वाले स्वैच्छिक घोषणा को लेकर उत्साहित नहीं हुए. 

इन स्कीमों के बार-बार आने से काला धन तो बाहर नहीं आया और न ही काली कमाई के कारखाने बंद हुएअलबत्ता इन स्कीमों के कारण कर प्रशासन का उत्साह और रसूख टूट गया. टैक्स सिस्टम से लेकर बाजार तक सबको यह मालूम है कि हर दशक में इस तरह का आखिरी मौका फिर आएगा. इसलिए एक बार सफाई के बादकाली कमाई जुटाने वाले अगली स्कीम का इंतजार करने लगते हैं.

1971 में वांचू कमेटी ने पिछली तीन स्कीमों के अध्ययन के आधार पर कहा था कि हमें भरोसा है कि कर माफी या काला धन घोषणा की कोई स्कीम न केवल असफल होगीबल्कि ईमानदार करदाता का विश्वास और कर प्रशासन का उत्साह टूटेगा. इसलिए भविष्य में स्कीमें नहीं आनी चाहिए. 1985 में शंकर आचार्य कमेटी ने कहा कि काला धन को सीमित करने की कोशिशों को इन स्कीमों से कोई फायदा नहीं हुआ. 

असफलता को दोहराने की एक सीमा होती है लेकिन भारत मे काले धन पर माफी की स्कीमें तो विफलताओं का धारावाहिक बन चुकी हैं. पिछले छह-सात दशकों में काले धन को बाहर लाने के लगभग सभी तरीके अपनाने और असफल होने के बाद भी जब नए मौके तैयार किए गए तो क्या यह शक नहीं होना चाहिए कि ये स्कीमें सिर्फ इसलिए लाई जाती हैं कि हर दशक में एक बार काला धन रखने वालों को बच निकलने का मौका देना जरूरी हैक्योंकि इसके अलावा तो इन स्कीमों से और कुछ भी हासिल नहीं हुआ है.