आम आदमी पार्टी की राजनीति और गवर्नेंस ऐसे मौके पर फिसल रही है जब उसे ज्यादा सजग और संवेदनशील होना चाहिए था.
सरकार कब महसूस होती है? जब संकट, बीमारी, महामारी, आपदा या हादसे फट पड़ते हैं. सरकार एक अमूर्त इकाई है, इसलिए गवर्नेंस के ज्यादातर अनुभव व्यक्तिगत होते है. आपदाएं ही अक्सर गवर्नेंस की सक्रियता और राजनीति की संवेदनीशलता को लेकर ठोस और सामूहिक अनुभव तैयार करती हैं. अफसोस कि संक्रामक मौसमी रोगों से जूझती दिल्ली को हमदर्द सरकार का अनुभव कराने के पहले मौके पर आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार बुरी तरह चूकने के बाद सुप्रीम कोर्ट में लताड़ी जा रही है और ऐसे विवादों में लिथड़ रही है जो आप की राजनीतिक पहचान के बिल्कुल विपरीत जाते हैं। यह सच है कि दिल्ली के अपने दूसरे कार्यकाल में आम आदमी पार्टी, अब तक वैकल्पिक राजनीति का सकारात्मक मॉडल नहीं गढ़ सकी और गवर्नेंस भी ऐसे मौके पर फिसली है जब उसे ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए था.
संक्रामक रोगों की आमद नई नहीं है, लेकिन दिल्ली सरकार, शायद, केंद्र से लड़ाई में उलझी थी, चुनावी राजनीति में ज्यादा मसरूफ थी या फिर अति आत्मविश्वास से घिरी थी. बीमारियों या हादसों का असर समय के साथ खत्म होता है लेकिन इनके बीच लोग सरकार को अपने साथ जूझता हुआ देखना चाहते हैं. ऐसे मौकों पर विदेश यात्रा करते नेता, बेतुके तर्क देते कार्यकर्ता, दूसरी एजेंसियों पर आरोप लगाते मंत्री और सवालों पर खीझते मंत्री राजनैतिक नुक्सान की गारंटी हैं.
आप के नेताओं पर दिल्ली के राजनिवास की कार्रवाइयों में राजनैतिक षड्यंत्र की छाया दिख सकती है लेकिन यदि कोई साजिश थी तो पार्टी को ज्यादा सूझ-बूझ के साथ प्रतिक्रिया करनी चाहिए थी. लेकिन इस नई पार्टी को टकराव के अलावा कोई दूसरी राजनीति शायद नहीं आती. इसलिए गवर्नेंस के मूलभूत कामों पर भी आप ने टकराव को ही संवाद बना लिया. इस लंबे झगड़े में न केवल गवर्नेंस खेत रही बल्कि साफ-सफाई जैसी बुनियादी गवर्नेंस में चूक के लिए सुप्रीम कोर्ट ने आप के मंत्री पर जुर्माना लगा दिया, जो अपनी तरह का पहला उदाहरण है. पार्टी को राजनैतिक नुक्सान का एहसास जरूर होगा, क्योंकि संक्रामक रोगों से प्रभावित होने वाले अधिकांश लोग दिल्ली में निम्न और मध्यवर्ग के हैं, जो आप की नई सियासत का आधार है.
आप को नई राजनीति और नई गवर्नेंस, दोनों का आविष्कार करना था. यह पार्टी भारतीय राजनीति की क्षेत्रीय, जातीय और वैचारिक टकसालों से नहीं निकली. इसे गवर्नेंस में बदलाव के आंदोलन ने गढ़ा था. संयोग से इस पार्टी को देश की राजधानी में सत्ता चलाने का भव्य जनादेश मिल गया था, इसलिए नई सियासत और नई सरकार की उम्मीदें लाजिमी हैं. दिल्ली सरकार के पास सीमित अधिकार हैं, यह बात नई नहीं है लेकिन इन्हीं सीमाओं के बीच केजरीवाल को सकारात्मक गवर्नेंस की राजनीति करनी थी.
दिल्ली की सत्ता में आप की राजनैतिक शुरुआत बिखराव से हुई और गवर्नेंस की शुरुआत टकराव से. सत्ता में आते ही पार्टी का भीतरी लोकतंत्र ध्वस्त हो गया. इसलिए वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदें जड़ नहीं पकड़ सकीं. दिल्ली सरकार से गवर्नेंस के नए प्रयोगों की अपेक्षा भी थी जो केंद्र की सरकार के बरअक्स एक सकारात्मक विपक्षी संवाद का आधार बन सकते थे. सच यह है कि सीधे टकराव के अलावा आप, केंद्र की गवर्नेंस और नीतियों की धारदार और तथ्यसंगत समालोचना विकसित नहीं कर पाई. आर्थिक, नीति, विदेश नीति, सामाजिक सेवाओं से लेकर रोजगार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था तक सभी पर, आधुनिक और भविष्योपरक संवादों की जरूरत है, जिसे शुरू करने का मौका आप के पास था.
ऐसे संवादों को तैयार करने के लिए दिल्ली में आप को नई गवर्नेंस भी दिखानी थी. लेकिन 49 दिन के पिछले प्रयोग की नसीहतों के बावजूद अरविंद केजरीवाल अपनी सरकार को प्रशासन के ऐसे अभिनव तौर-तरीकों की प्रयोगशाला नहीं बना सके, जो उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं का आधार बन सकते थे. यही वजह है कि आप के नेता भारतीय राजनीति व गवर्नेंस के सकारात्मक और गुणात्मक संवादों से पूूरी तरह बाहर हैं और सिर्फ केंद्र से टकराव की सुर्खियां बनने पर नजर आते हैं।
सत्ता में आने के बाद कई महीनों तक मोदी सरकार के नेता भी पिछली सभी मुसीबतों के लिए कांग्रेस को कोसते रहे थे. यह एक किस्म का विपक्षी संवाद था, जिसकी अपेक्षा सरकार से नहीं की जाती. डेढ़ साल बाद मोदी सरकार ने अपने संवाद बदले, क्रियान्वयन पर ध्यान दिया और विपक्ष से सहमति बनाई, तो गवर्नेंस में भी सक्रियता नजर आई. इसी तरह हर समस्या के लिए केंद्र से टकराव वाला केजरीवाल का धारावाहिक कुछ ज्यादा लंबा खिंच गया जिसके कारण गवर्नेंस सक्रिय नहीं हो सकी और दिल्ली सरकार वह काम भी करती नहीं दिखी, जो आसानी हो सकते थे।
जब राष्ट्रीय राजधानी में आम आदमी पार्टी की अनोखी सरकार के तजुर्बे पूरे देश में गंभीरता से परखे जा रहे हैं, तब आप की सरकार पारंपरिक राजनीतिक दलों की तर्ज पर दिनों दिन दागी हो रही है। जाहिर है कि पंजाब या गोवा के चुनावों में मतदाताओं के पास पुराने दलों को आजमाने का विकल्प मौजूद है। यदि आप खुद को विकल्प मानती है तो उसे ध्यान रखना होगा कि इन चुनावों में दिल्ली की गवर्नेंस का संदर्भ जरूर आएगा. फिलहाल पार्टी के चुनावी संवादों में पंजाब या गोवा के भविष्य को संबोधित करने वाली नीतियां नहीं दिखतीं.
मच्छर मारने में चूक और राजनीति पर सुप्रीम कोर्ट से लताड़ खाना किसी भी सरकार की साख पर भारी पड़ेगा क्योंकि इस तरह के काम तो बुनियादी गवर्नेंस का हिस्सा हैं. आप के लिए यह गफलत गंभीर है क्योंकि केजरीवाल (दिल्ली की संवैधानिक सीमाओं के बीच) नई व्यवस्थाएं देने की उम्मीद के साथ उभरे थे. अब उन्हें सबसे पहले दिल्ली में अपनी सरकार का इलाज करना चाहिए और टकरावों से निकलकर सकारात्मक बदलावों के प्रमाण सामने लाने चाहिए.
आप का जनादेश कमजोर जमीन पर टिका है. उसके पास विचाराधारा, परिवार व भौगोलिक विस्तार जैसा कुछ नहीं है, जिसके बूते पुराने दल बार-बार उग आते हैं. आप उम्मीदों की तपिश और मजबूत प्रतिस्पर्धी राजनीति से एक साथ मुकाबिल है. इसलिए असफलता का जोखिम किसी भी पुराने दल की तुलना में कई गुना ज्यादा है. केजरीवाल को यह डर वाकई महसूस होना चाहिएः गवर्नेंस की एक दो बड़ी चूक उनकी राजनीति को चुक जाने की चर्चाओं में बदल सकती है.