Monday, January 9, 2017

नींव का निर्माण फिर


नोटबंदी ने सरकार की तीन सबसे महत्‍वाकांक्षी कोशिशों को सबसे ज्‍यादा नुकसान पहुंचाया है 


रोनाल्ड  रीगन कहते थे सरकारें समस्याओं का समाधान नहीं करतीं बल्कि उन पर सब्सिडी दे देती हैं. हैरत है कि नोटबंदी के 50 दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बड़े साहसी अभियान को महज सब्सिडी और स्कीमों पर उतार लाए. सरकार को यह एहसास हो चला है कि नियंत्रण चाहे जितने आदर्श उद्देश्यों की टकसाल से निकले हों लेकिन खुलीचलती और विकसित होती अर्थव्यवस्था में उनका इस्तेमाल विस्फोटक हो सकता है. इसलिए दिल्ली का निजाम अब नोटबंदी के दर्द को भुलाकर पुनर्निर्माण की तरफ देखना चाहता है.
इस जोखिम ने पिछले ढाई साल में सरकार की कई महत्वाकांक्षी कोशिशों के धुर्रे बिखेर दिए हैं. नोटबंदी के जरिए काले धन को निकालने की कवायद इनकम टैक्स के हाथों में सिमटने के बाद देश तीन चिंताजनक आर्थिक नतीजों से मुकाबिल है.
एकऔद्योगिक उत्पादन बुरी तरह खेत रहा है. सबसे ज्यादा नुक्सान छोटे-मझोले उद्योगों को हुआ हैजहां सबसे ज्यादा रोजगार थे.
दोलोगों का उपभोग खर्च घट गया है जो कि जीडीपी में 66 फीसदी का हिस्सेदार है.
तीननोटबंदी के दौरान बैंकों पर भरोसा डगमगाया है. पैसे निकालने और जमा करने की उलझनों व बाद में जांच-पड़ताल का डर इसकी बड़ी वजह है. बैंकों को डर है कि नकद निकासी की सीमा हटने के बाद बड़े पैमाने पर लोग पैसा निकाल सकते हैं.
पिछले ढाई साल में मोदी सरकार तीन आर्थिक मकसदों को साधने की कोशिश करती दिखी है. पहला है प्रोडक्शन यानी (औद्योगिक) उत्पादनदूसरा खपत यानी मांग और तीसरा इन्क्लूजन यानी वित्तीय तंत्र में बड़ी पैमाने पर लोगों पर भागीदारी. मेक इन इंडियास्टार्ट अप और जनधन स्कीमें इन्हीं मकसदों से निकलीं जिनका लक्ष्य निजी निवेशज्यादा उत्पादनग्रोथरोजगार और आय में वृद्धि है.
अफसोस!  नोटबंदी ने इन तीनों को ज्यादा नुक्सान पहुंचाया है.
मेक इन इंडिया
नोटबंदी के कारण भारत दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था से सबसे तेजी से धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गया है. मेक इन इंडिया को मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार लाने वाला निजी निवेश बढ़ाने के मकसद से शुरू किया गया था. भारत के जीडीपी में निवेश का हिस्सा लगभग 30 फीसदी है जिसमें अधिकांश निवेश निजी क्षेत्र का है. पिछले दो साल में तमाम कोशिशों के बावजूद मांग में कमी और कर्ज के बोझ के कारण उद्योगों ने नए निवेश का जोखिम नहीं लिया. नोटबंदी के बाद उत्पादन और मांग में भारी कमी को देखते हुए अगले कई महीनों के लिए निवेश का उत्साह लगभग खत्म हो जाने वाला है.
नोटबंदी ने छोटे उद्योगों को सबसे ज्यादा बदहाल किया है. अत्यंत छोटी उत्पादन व ट्रेडिंग इकाइयां 95 फीसदी रोजगार का आधार हैं. जीडीपी गणना के नए फॉर्मूले के मुताबिक छोटे उद्योग जीडीपी में 37 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. निर्यात में इनका हिस्सा लगभग 45 फीसदी है. वैसे भी भारत के छोटे उद्योग अब केवल 6,000 छोटे उत्पादों तक सीमित हैं जो सामान्य तकनीक पर आधारित हैं. नोटबंदी के बाद बहुत-सी इकाइयां ठप हो गईंजिन्हें  पुनः संचालित करना मुश्किल है और इनके बिना मेक इन इंडिया की दोबारा सक्रियता व रोजगार की वापसी असंभव है.
स्टार्ट अप
नोटबंदी से खपत बुरी तरह टूट गई है जो 60 फीसदी आर्थिक ग्रोथ का आधार है और भारत में निवेश का सबसे बड़ा आकर्षण है. उपभोक्ता उत्पादवाहनपैक्ड  फूड की मांग में तेज गिरावट के आंकड़े इसका प्रमाण हैं. दरअसलपूरी स्टार्ट अप क्रांति इस उपभोग खपत पर निर्भर थी. ज्यादातर यूनीकार्न (एक अरब डॉलर से अधिक वैल्यूएशन वाले) स्टार्ट अप लोगों के शॉपिंग उपभोग पर आधारित हैं.
नोटबंदी से उपजी अनिश्चितता के कारण खर्च करने का उत्साह भी सीमित हो गया है. जब तक नकदी की आपूर्ति सामान्य नहीं होती और असमंजस खत्म नहीं होताउपभोग खर्च के लौटने की गुंजाइश कम है. यही वजह है कि रोजगार का सबसे ज्यादा नुक्सान स्टार्ट अप में हुआ है जहां पिछले दो साल में नौकरियां बनती दिख रही थीं.
जन धन
जन धन योजना नोटबंदी की अप्रत्याशित शिकार है. जद्दोजहद के बाद बैंकिंग की मुख्य धारा में आए सैकड़ों लोग अब आयकर और जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं. बैंकिंग में इनका विश्वास दोबारा जमाना मुश्किल होगा. फाइनेंशियल इन्क्लूजन की उलझन सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती. भारत की बैंकिंग मूलतः डिपॉजिट केंद्रित है. नोटबंदी के बाद बैंकों में डिपॉजिट का अंबार है और कर्ज सस्ता करने के लिए बैंक जमा की दर घटा रहे हैं. बैंकों के सबसे बड़े ग्राहकों यानी जमाकर्ताओं को अपने रिटर्न की कुर्बानी देनी पड़ रही है जिससे बैंकों में डिपॉजिट का आकर्षण घटता जाएगा. यदि सरकार नोटबंदी का बुरा असर जल्दी खत्म करना चाहती है तो उसे
  • छोटे और मझोलेे उद्योगों  के लिए कर्ज से राहत और इंस्पेक्टर राज हटाने वाली समग्र नीति 
  • खपत बढ़ाने के लिए जीएसटी में टैक्स की दर बेहद कम रखनी होगी.
  • वित्तीय समावेशन के लिए बैंकों में डिपॉजिट को आकर्षक बनाए रखना होगा. 

सरकारें नियंत्रण बढ़ाना चाहती हैं जबकि सभ्यता का इतिहास बताता है कि दुनिया में कोई बड़ी उपलब्धि नौकरशाही के जरिए नहीं आई. मिल्टन फ्रीडमैन कहते थे कि आइंस्टीन ने किसी ब्यूरोक्रेट के कहने से थ्योरी नहीं बनाई थी और न ही किसी सरकारी बाबू ने हेनरी फोर्ड को ऑटोमोबाइल क्रांति के लिए कहा था.
नोटबंदी ने सरकार का आकार बढ़ा दिया है और आर्थिक आजादियों को सीमित कर दिया है जबकि विकासआय व रोजगार बढ़ाने का रास्ता छोटी सरकार और बड़े कारोबार से ही निकलेगासरकार जितनी जल्दी यह हकीकत स्वीकार कर लेउसी में अर्थव्यवस्था की भलाई है. 

Saturday, December 31, 2016

कल क्या होगा?

नीति शून्यता (पॉलिसी पैरालिसिस) जवाब नीति रोमांच (पॉलिसी एडवेंचरिज्म)  हरगिज नहीं हो सकता

नोटबंदी के बाद राम सजीवन हर तीसरे दिन बैंक की लाइन में लग जाते हैं, कभी एफडी तुड़ाने तो कभी पैसा निकालने के लिए. फरवरी में बिटिया की शादी कैसे होगी? फ्रैंकफर्ट से भारत के बाजार में निवेश कर रहे एंड्रयू भी नोटबंदी के बाद से लगातार शेयर बाजार में बिकवाली कर रहे हैं.

सजीवन को सरकार पर पूरा भरोसा है और एंड्रयू को भारत से जुड़ी उम्मीदों पर. लेकिन दोनों अपनी पूरी समझ झोंक देने के बाद भी आने वाले वक्त को लेकर गहरे असमंजस में हैं.

सजीवन और एंड्रयू की साझी मुसीबत का शीर्षक है कल क्या होगा?

सजीवन आए दिन बदल रहे फैसलों से खौफजदा हैं. एंड्रयू को लगता है कि सरकार ने मंदी को न्योता दे दिया है, पता नहीं कल कौन-सा टैक्स थोप दे या नोटिस भेज दे इसलिए नुक्सान बचाते हुए चलना बेहतर.

सजीवन मन की बात कह नहीं पाते, बुदबुदा कर रह जाते हैं जबकि एंड्रयू तराशी हुई अंग्रेजी में रूपक गढ़ देते हैं, ''म ऐसी बस में सवार हैं जिसमें उम्मीदों के गीत बज रहे हैं. मौसम खराब नहीं है. बस का चालक भरोसेमंद है लेकिन वह इस कदर रास्ते बदल रहा है कि उसकी ड्राइविंग से कलेजा मुंह को आ जाता है. पता ही नहीं जाना कहां है?"

नोटबंदी से पस्त सजीवन कपाल पर हाथ मार कर चुप रह जाते हैं. लेकिन एंड्रयू, डिमॉनेटाइजेशन को भारत का ब्लैक स्वान इवेंट कह रहे हैं. सनद रहे कि नोटबंदी के बाद विदेशी निवेशकों ने नवंबर महीने में 19,982 करोड़ रु. के शेयर बेचे हैं. यह 2008 में लीमन ब्रदर्स बैंक तबाही के बाद भारतीय बाजार में सबसे बड़ी बिकवाली है.


ब्लैक स्वान इवेंट यानी पूरी तरह अप्रत्याशित घटना. 2008 में बैंकों के डूबने और ग्लोबल मंदी के बाद निकोलस नसीम तालेब ने वित्तीय बाजारों को इस सिद्धांत से परिचित कराया था. क्वांट ट्रेडर (गणितीय आकलनों के आधार पर ट्रेडिंग) तालेब को अब दुनिया वित्तीय दार्शनिक के तौर पर जानती है. ब्लैक स्वान इवेंट की तीन खासियतें हैः

एकऐसी घटना जिसकी हम कल्पना भी नहीं करते. इतिहास हमें इसका कोई सूत्र नहीं देता.
दोघटना का असर बहुत व्यापक और गहरा होता है.
तीनघटना के बाद ऐसी व्याख्याएं होती हैं जिनसे सिद्ध हो सके कि यह तो होना ही था

ब्लैक स्वान के सभी लक्षण नोटबंदी में दिख जाते हैं.

इसलिए अनिश्चितता 2016 की सबसे बड़ी न्यूजमेकर है.

और

नोटबंदी व ग्लोबल बदलावों के लिहाज से 2017, राजनैतिक-आर्थिक गवर्नेंस के लिए सबसे असमंजस भरा साल होने वाला है.

ब्लैक स्वान थ्योरी के मुताबिक, आधुनिक दुनिया में एक घटना, दूसरी घटना को तैयार करती है. जैसे लोग कोई फिल्म सिर्फ इसलिए देखते हैं क्योंकि अन्य लोगों ने इसे देखा है. इससे अप्रत्याशित घटनाओं की शृंखला बनती है. नोटबंदी के बाद उम्मीद थी कि भ्रष्टाचार खत्म होगा लेकिन यह नए सिरे से फट पड़ेगा, बेकारी-मंदी आ जाएगी यह नहीं सोचा था.

नोटबंदी न केवल खुद में अप्रत्याशित थी बल्कि यह कई अप्रत्याशित सवाल भी छोड़कर जा रही है, जिन्हें सुलझाने में इतिहास हमारी कोई मदद नहीं करता क्योंकि ब्लैक स्वान घटनाओं के आर्थिक नतीजे आंके जा सकते हैं, सामाजिक परिणाम नहीं.
  • नोटबंदी के बाद नई करेंसी की जमाखोरी का क्या होगाक्या नकदी रखने की सीमा तय होगीडिजिटल पेमेंट सिस्टम अभी पूरी तरह तैयार नहीं है. क्या नकदी का संकट बना रहेगाकाम धंधा कैसे चलेगा?
  • नई करेंसी का सर्कुलेशन शुरू हुए बिना नए नोटों की आपूर्ति का मीजान कैसे लगेगानकद निकासी पर पाबंदियां कब तक जारी रहेंगी ?
  • नकदी निकालने की छूट मिलने के बाद लोग बैंकों की तरफ दौड़ पडे तो ?
  • कैश मिलने के बाद लोग खपत करेंगे या बचतयदि बचत करेंगे तो सोना या जमीन-मकान खरीद पाएंगे या नहीं.
और सबसे बड़ा सवाल

इस सारी उठापटक के बाद क्या अगले साल नई नौकरियां मिलेंगी? कमाई के मौके बढेंग़े? या फिर 2016 जैसी ही स्थिति रहेगी?

भारत को ब्लैक स्वान घटनाओं का तजुर्बा नहीं है. अमेरिका में 2001 का डॉट कॉम संकट और जिम्बाब्वे की हाइपरइन्क्रलेशन (2008) इस सदी की कुछ ऐसी घटनाएं थीं. शेष विश्व की तुलना में भारतीय आर्थिक तंत्र में निरंतरता और संभाव्यता रही है. विदेशी मुद्रा संकट के अलावा ताजा इतिहास में भारत ने बड़े बैंकिंग, मुद्रा संकट या वित्तीय आपातकाल को नहीं देखा. 

आजादी के बाद आए आर्थिक संकटों की वजह प्राकृतिक आपदाएं (सूखा) या ग्लोबल चुनौतियां (तेल की कीमतें, पूर्वी एशिया मुद्रा संकट या लीमन संकट) रही हैं, जिनके नतीजे अंदाजना अपेक्षाकृत आसान था और जिन्हें भारत ने अपनी देसी खपत व भीतरी ताकत के चलते झेल लिया. नोटबंदी हर तरह से अप्रत्याशित थी इसलिए नतीजों को लेकर कोई मुतमइन नहीं है और असुरक्षा से घिरा हुआ है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सक्रिय राजनेता हैं. वह जल्द से जल्द से कुछ बड़ा कर गुजरना चाहते हैं. हमें मानना चाहिए कि वह सिर्फ चुनाव की राजनीति नहीं कर रहे हैं. पिछले एक साल में उन्होंने स्कीमों और प्रयोगों की झड़ी लगा दी है लेकिन इनके बीच ठोस मंजिलों को लेकर अनिश्चितता बढ़ती गई है. 

2014 में मोदी को चुनने वाले लोग नए तरह की गवर्नेंस चाहते थे जो रोजगार, बेहतर कमाई और नीतिगत निरंतरता की तरफ ले जाती हो. प्रयोग तो कई हुए हैं लेकिन पिछले ढाई साल में रोजगार और कमाई नहीं बढ़ी है. पिछली सरकार अगर नीति शून्यता (पॉलिसी पैरालिसिस) का चरम थी तो मोदी सरकार नीति रोमांच (पॉलिसी एडवेंचरिज्म) की महारथी है.

ब्लैक स्वान वाले तालेब कहते हैं विचार आते-जाते हैं, कहानियां ही टिकाऊ हैं लेकिन एक कहानी को हटाने के लिए दूसरी कहानी चाहिए. नोटबंदी की कहानी बला की रोमांचक है, लेकिन अब इससे बड़ी कोई कहानी ही इसकी जगह ले सकती है जिस पर उम्मीद को टिकाया जा सके. 

क्या 2017 में अनिश्चितता और असमंजस से हमारा पीछा छूट पाएगा?

Monday, December 26, 2016

न होती नोटबंदी तो ..

डिमॉनेटाइजेशन में क्‍या ऐसा है  जो हमें इसकी मंशा पर नहीं बल्कि इसे नतीजों को लेकर बहुत अााश्‍वस्‍त नहीं करता 

रकारी नीतियों का मूल्यांकन मंशा से नहीं बल्कि ठोस नतीजों पर होता है. इसलिए जब नीतियां उलझती हैं तो राजनेता अमूर्त उम्मीदों की लंबी रस्सी थमा देते हैं. नोटबंदी को लेकर उम्मीदों का दौर खत्म हो रहा हैअब बारी पहले आधिकारिक नतीजों की हैजिनकी तरफ बढ़ता चार बड़े सवालों से मुकाबिल है।

एकः कितना काला धन नकदी में थानोटबंदी से पहले तक आयकर छापों में औसतन पांच फीसदी अघोषित धन नकद (काले धन पर श्वेत पत्र 2012) के तौर पर मिला है. रिजर्व बैंक के पास लगभग उतनी नकदी पहुंच गई है जितनी बाजार में थी. कालिख वालों को बच निकलने का एक और मौका क्यों मिल रहा है?

दोः काले धन के खिलाफ निर्णायक लड़ाई जरूरी है लेकिन क्या नोटबंदी से इस पर लगाम लगी हैलगता है कि काला धन नए गुलाबी नोटों में बदल गया है. बैंक भ्रष्ट साबित हुए हैं और अब इंस्पेक्टर राज आने वाला है.

तीनः रोजगार को गहरी चोट पहुंची है फायदे होंगे भी कि नहीं ? पता नहीं कष्ट कितना लंबा होगा? पैसा निकालने से पाबंदियां कब हटेंगी?

चारः अगर इनकम टैक्स के छापे ही काला धन का इलाज थे तो पूरे देश को सजा देने की क्या जरूरत थी?

इन सवालों की रोशनी में नोटबंदी को लेकर चार तरह के निष्कर्ष हमारे सामने हैः

पहलाः नोटबंदी असफल हो चुकी है क्योंकि पूरे अभियान में दर्जनों छेद थे.
दूसराः नोटबंदी इतनी कामयाब नहीं हुई कि त्याग व बलिदान बेकार जाते महसूस न होते.
तीनः इसकी सफलता इसके बाद उठाए जाने वाले कदमों से तय होगी.
चारः काले धन के खिलाफ ऐसा कुछ क्या हो सकता था कि इस दर्द से गुजरना ही न पड़ता.

दरअसलनोटबंदी के पूरे अभियान को गौर से देखने पर कुछ तथ्य सामने आते हैंजिनकी नामौजूदगी में पूरी कवायद पटरी से उतर गई. अगर कुछ फैसले पहले ही हो गए होते तो क्‍या पता कि नोटबंदी का दर्द देने की जरूरत ही नहीं पड़ती. दिलचस्प यह भी है कि नोटबंदी को निर्णायक नतीजे तक पहुंचाने के लिए इन्हीं फैसलों को लागू किये बिना बात नहीं बनेगी।  

क्या नोटबंदी का दर्द टल सकता था और कैसे?

1. कितना नकद लेन-देन और कितनी नकदीनोटबंदी शुरू होते ही इनकम टैक्स अफसरों को पता चल गया था कि ज्यादातर काला धन कॉर्पोरेटसरकारी खजानेबिजनेसराजनैतिक दलवित्तीय कंपनियोंबैंक और धार्मिक संस्थाओं व ट्रस्ट का हिस्सा बनकर सफेद होने जा रहा है. नकदी रखने की कोई सीमा नहीं है. इनकम टैक्स नियमों के तहत व्यक्तिगत करदाताओं को नकद जमा (सोने की खरीद भी) को बताने की शर्त नहीं है जब तक कि आयकर विभाग अघोषित संपत्ति की जांच न करे. कारोबारी नकदी (कैश इन हैंड) को लेकर तो नियम ही नहीं है.

काले धन पर एसआइटी ने आयकर कानून में संशोधन के जरिए नकद लेन-देन के लिए तीन लाख रुपए और कारोबार में 15 लाख रुपए तक नकद की सीमा तय करने की सलाह दी थीजिसे लागू किए बिना बात नहीं बनेगी.  

2. कौन खरीद रहा है सोना और जमीनसोने-जेवरात की बड़े पैमाने पर खरीद बगैर पैन नंबर या पहचान के होती है. इस कारोबार में ग्राहक की पहचान (केवाइसी) निर्धारित करना जरूरी है. नोटबंदी के बाद बड़े पैमाने पर सोने की खरीद हुई. ठीक इसी तरह अगर बेनामी संपत्ति को रोकने का कानून और पहचान रजिस्टर करने का नियम लागू होता तो नोटबंदी के दौरान खासकर कृषि भूमि में बड़े निवेश न होते.
नोटबंदी के बाद सबसे बड़ी उम्मीद मकान-जमीन सस्ते होने की है. सर्किल रेट (सरकारी दर) और बाजार मूल्य के बीच अंतर यहां काले धन की वजह है. सर्किल रेट घटाकर इसे रोका जा सकता है जो नोटबंदी के पहले होना चाहिए था. यह काम बाद में भी हो सकेगाइस पर शक है क्योंकि राज्य सरकारें मुश्किल से तैयार होंगी. नतीजतन नई नकदी वापस जमीन की खरीद में लग जाएगी.

3. दर्जनों कंपनियां-दसियों खातेकाले धन की धुलाई के कानूनी तरीकेगैर-कानूनी तरीकों से कई गुना ज्यादा हैं. नोटबंदी से पहले बैंकों- कंपनियों में अकाउंटिंग रिफॉर्म (फोरेंसिक अकाउंटिंग) होने चाहिए थे ताकि दर्जनों कंपनियां और विदेश में ट्रस्ट बनाकर या राउंड ट्रिपिंगमल्टीपल अकाउंटघाटा दिखानेखर्च दिखानेकैपिटल बढ़ाकर नकदी की धुलाई न हो पाती. जीएसटी लागू करने के बाद अगर नोटबंदी आती तो शायद कामयाबी ज्यादा होती.

4. सियासत की कालिख राजनैतिक दलों के लिए इनकम टैक्स कानून (धारा 13 ए) के तहत छूट व गोपनीयता बरकरार रखकर सरकार ने पूरे अभियान की साख को पलीता लगा लिया. राजनैतिक दलों के लिए 20,000 रुपए से कम की राशि को सार्वजनिक न करने की छूट है. ज्यादातर काला चंदा इसी छेद से आता है. 2005 से 2013 के बीच बीजेपी और कांग्रेस सहित पांच प्रमुख दलों के कुल 5,000 करोड़ रुपए के चंदे का 73 फीसदी हिस्सा अज्ञात स्रोतों से आया. सरकार अगर काले धन वालों को राहत देने के लिए नोटबंदी के बीच में ही कानून बदल सकती थी तो सियासत के लिए कानून क्यों नहीं बदला जा सकता?


सरकारों की मंशा कभी खराब नहीं होती. युद्ध भी शांति के इरादे के साथ लड़े जाते हैं. सरकारी नीतियों की सफलता उनके नतीजों से तय होती है. नोटबंदी के दो माह पूरे होने के बाद 30 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी (यदि) देश से बात करेंगे तो उनके आह्वान पर ''पस्या" कर चुके लोग अब नोटबंदी के पीछे की मंशा नहीं बल्कि नतीजों पर जवाब की अपेक्षा करेंगे. 



सरकार में सबको मालूम है कि नकदीकॉर्पोरेट अकाउंटिंगअचल संपत्ति और राजनैतिक चंदे के नियम बदल कर ही नतीजे सामने आ सकते हैं. प्रधानमंत्री को अब यह साबित करना होगा कि नोटबंदी से उन ''खा" लोगों की जिंदगी पर क्या असर पड़ा जिन्हें सजा देने के लिए आम लोगों को गहरी यंत्रणा से गुजरना पड़ रहा है.

Monday, December 19, 2016

नोटबंदी की पहली नसीहत

सरकारें समस्याओं के ऐसे समाधान लेकर क्‍यों आती हैं जो समस्याओं से ज्यादा बुरे होते हैं? 

नोटबंदी के बाद छापेमारी में जितने नए गुलाबी नोट मिले हैं, नकद निकालने की मौजूदा सीमाओं के तहत लाइनों में लगकर उन्हें जुटाने में कई दशक लग जाएंगे. किसे अंदाज था कि बैंक ही काले धन की धुलाई करने लगेंगे, गली-गली में पुरानी करेंसी बदलने की डील होने लगेंगी और जांच एजेंसियों को गली-कूचों की खाक छाननी पड़ेगी. पूरा परिदृश्य सुखांत कथा में ऐंटी क्लामेक्स आने जैसा है. लगता है कि नोटबंदी से होना कुछ था, जबकि कुछ और ही होने लगा है.
हो सकता है कि आप आयकर विभाग और अन्य एजेंसियों की सक्रियता पर रीझना चाहें, लेकिन हकीकत यह है कि डिमॉनेटाइजेशन ने कोई अच्छा नतीजे देने से पहले भारत में भ्रष्टाचार के बुनियादी कारणों को भारी ताकत से लैस कर दिया है.
1. कमी और किल्लत भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी वजह है. करेंसी किसी अर्थव्यवस्था की सबसे आधारभूत सेवा है. नकदी की किल्लत का मतलब है हर चीज की कमी. यह ग्रांड मदर ऑफ शार्टेजेज है, जो हर तरह के भ्रष्टाचार के लिए माकूल है.

2. भ्रष्टाचार की दूसरी सबसे बड़ी वजह अफसरों व नेताओं के विवेकाधिकार हैं यानी कि कुर्सी की ताकत. इस ताकत का नजारा नोटबंदी के साथ ही शुरू हो गया था जो अब तेजी से बढ़ता जाएगा.

मांग व आपूर्ति में अंतर भारत में भ्रष्टाचार का सबसे महत्वपूर्ण कारण है. देशी-विदेशी एजेंसियों और स्वयंसेवी संस्थाओं (ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ब्राइब पेयर्स और करप्शन इंडेक्स आदि) के तमाम अध्ययन बताते रहे हैं कि ज्यादातर रिश्वतें जिन विभागों, संस्थाओं, सेवाओं या संगठनों में दी जाती हैं, वहां सुविधाओं की मांग व आपूर्ति में बड़ा अंतर है. भारत की 70 फीसदी रिश्वतें इस किल्लत के बीच अपना काम निकालने के लिए दी जाती हैं. फोन, रसोई गैस, ऑटोमोबाइल, सीमेंट की आपूर्ति में किल्लत खत्म हो चुकी है, इसलिए उन्हें हासिल करने के लिए रिश्वत नहीं देनी पड़ती.

भारत में 90 फीसदी विनिमय का आधार नकदी है. यदि इसकी किल्लत हो जाए तो फिर भ्रष्टाचार के अनंत मौके खुल जाने थे. नोटबंदी के तहत 86 फीसदी करेंसी को बंद करने के बाद पूरा मुल्क, ताजा इतिहास की सबसे बड़ी किल्लत से जूझने लगा है.
नोटबंदी के पहले सप्ताह में ही पुराने नोट बदलने के नए तरीके चल निकले. उसके अगले एक सप्ताह में तो गली-गली में डील शुरू हो गई, क्योंकि बैंकों के पिछले दरवाजे से निकाली गई नई करेंसी बाजार में पहुंचने लगी थी.

नोटबंदी का पहला पखवाड़ा बीतने तक भारत में खुदरा मनी लॉन्ड्रिंग का सबसे बड़ा आयोजन शुरू हो गया था जो अब तक जारी है. नोटबंदी और नोटों की किल्लत ने भारत में पुराने नए नोटों के विनिमय की कई अनाधिकारिक दरें बना दीं जैसा कि हाल में वेनेजुएला और जिम्बाब्वे में देखा गया है.

नकदी की कमी अन्य किल्लतों से ज्यादा भयानक है क्योंकि यह अर्थव्यवस्था में आपूर्ति का इकलौता रास्ता है, इसके इस्तेमाल से ही खरीद-बिक्री, उत्पादन, मांग और ग्रोथ आती है. बाजार मांग बुरी तरह टूट गई, उपभोक्ता खरीद ठप हो गई और जरूरी चीजों की आपूर्ति सीमित होने लगी. हो सकता है कि नवंबर में घटी महंगाई मांग टूटने का प्रमाण है. नकदी की किल्लत के बाद सभी क्षेत्रों में उत्पादन घटेगा, जिसके सामान्य होने में एक साल लग सकता है. इसके बाद किल्लत वस्‍तुओं और सेवाओं
की होगी जो महंगाई की वापसी कर सकती है.

किल्लत से उन अफसरों व नेताओं को अकूत ताकत मिलती है जिनके पास सामान्य सुविधाएं देने से लेकर हक और न्याय बांटने के अधिकार हैं. नकदी की कमी के दौरान बैंक अधिकारी वस्‍तुत:, देश के सबसे ताकतवर नौकरशाह हो गए. उन्होंने अपने विशेषाधिकार का जमकर इस्तेमाल किया और इसके बाद जो हुआ, पूरे देश में नए नोटों की बरामदगी के तौर पर सामने आ रहा है.

अलबत्ता बात यहीं खत्म नहीं होती. नोटबंदी के दौरान छापेमारी या खातों की जांच इंस्पेक्टर राज का नया दौर शुरू करेगी. करीब 144 करोड़ खातों की जांच का काम महज 15 हजार आयकर अधिकारियों के जिम्मे होगा. अगर हर खाते को कायदे से जांचा जाए तो दस साल लगेंगे. इसलिए थोक में नोटिसें जारी होंगी. अधिकारी अपने तरीके से तय करेंगे कि किसका धन काला है और किसका सफेद. इस प्रक्रिया में खूब गुलाबी धन बनने की गुंजाइश है. बताते चलें कि आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाइयां ही सिर्फ सुर्खियां बनती हैं, उनकी जांच और दोषियों को सजा देने का रिकॉर्ड बताने लायक नहीं है.

नोटबंदी के एक सप्ताह बाद (मैले हाथों से सफाई http://artharthanshuman.blogspot.in/2016/11/blog-post_28.html) में हमने लिखा था कि इस नए स्वच्छता अभियान की जिम्मेदारी सबसे मैले विभागों को मिली है. एक माह बीतते-बीतते आशंकाएं सच हो गई हैं.

नोटबंदी के आर्थिक नुक्सान तो सरकार भी स्वीकार कर रही है. अब चुनौती इन नुक्सानों के सामने फायदे खड़े करने की है. यह प्रक्रिया पूरी करने के बाद सरकार को तत्काल दो अभियान चलाने होंगे

1. जिन सेवाओं में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है, उनमें बुनियादी ढांचे और आपूर्ति की कमी दूर करनी होगी.
2. अफसरों और नेताओं के विवेकाधिकार सीमित करने के लिए सरकार की ताकत कम करनी होगी और समाज व मुक्त बाजार की ताकत बढ़ानी होगी.

मिल्टन फ्रीडमैन कहते थे कि सरकारें समस्याओं के ऐसे समाधान लेकर आती हैं जो समस्याओं से ज्यादा बुरे होते हैं. अगर नोटबंदी के बाद जरूरी सेवाओं व सुविधाओं की आपूर्ति नहीं बढ़ी और नेता-नौकरशाहों के अधिकार कम नहीं हुए तो नोटबंदी के बाद
उभर रहा भ्रष्टाचार न केवल नई ताकत से लैस होगा कि बल्कि पहले से ज्‍यादा पहले से ज्यादा चालाक व चौौकन्‍ना भी होगा। 

Monday, December 12, 2016

8.11.16 बनाम 6.6.66 और 1.7.91


डिमॉनेटाइजेशन ने दुनिया में आर्थिक सुधारों का बुनियादी पैमाना ही बदल दिया है



दि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिमॉनेटाइजेशन के जरिए लोगों की जिंदगी में बड़े ठोस व प्रत्यक्ष बदलाव ला सके तो वे आधुनिक युग के पहले ऐसे राजनेता होंगेजिसने सुधारों का बुनियादी पैमाना ही बदल दिया. प्रत्यक्ष बदलावों से मतलब ऐसी तरक्की हैजो देंग श्याओपिंग (1978-84) के सुधारों के बाद चीन मेंरोनाल्ड रीगन (1981-89) के जरिए अमेरिका मेंमार्गरेट थैचर (1979-90) के जरिए ब्रिटेन में और 1991-1995 के सुधारों के बाद भारत में नजर आई. इन सुधारों से इन देशों के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को लंबे समय के लिए अभूतपूर्व सकारात्मक ताकत हासिल हुई.  

अधिकांश आर्थिक परिवर्तनों की बुनियाद किसी तात्कालिक राजनैतिकआर्थिक या सामाजिक संकट से तैयार हुई है. इस पैमाने पर नरेंद्र मोदी पहले ऐसे नेता हैंजिन्होंने सुधार के लिए संकट को न्यौता दिया है. नोटबंदी एक बड़ा आर्थिक सुधार हैलेकिन फिलहाल इसके चलते विश्व की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गई है और दौड़ता हुआ देश नौकरियांसुकून व आर्थिक आजादी गंवाकर बीच राह में खड़ा हो गया है.

देश के ताजा इतिहास में दो ऐसे फैसले मिलते हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों और असर के आधार पर नरेंद्र मोदी के डिमॉनेटाइजेशन के समानांतर हैं. दोनों ही फैसलेसंकट से उपजे थे अलबत्ता नतीजे एक-दूसरे से विपरीत थे.

वह 6.6.66 ही थाजब इंदिरा गांधी ने रुपए का 35.5 फीसदी अवमूल्यन किया. लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने कुछ ही महीने बीते थे. मंदी व सूखे और राजनैतिक चुनौतियों के बीच यह भूकंप जैसा फैसला इस उम्मीद के साथ हुआ कि विदेशी पूंजी आएगीनिर्यात बढ़ेगा और अमेरिका सहित अन्य देशों से मिलने वाली सहायता बढ़ जाएगी. अलबत्ता अवमूल्यन बड़ी भूल साबित हुआ. अंतरराष्ट्रीय सहयोग नहीं मिला और संकट बढ़ते चले गए.

इस सुधार के बाद देश का अर्थचक्र उलटा घूम गया. लाइसेंस परमिट राज आ गया. एमआरटीपी ऐक्ट बना और निजी बैंकों में जमा धन को जनता तक पहुंचाने के वादे के साथ बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. यह अंधा युग 1991 में आर्थिक सुधारों के साथ खत्म हुआ.

भुगतान संकट और विदेश में गिरवी सोने की पृष्ठभूमि में 1 जुलाई, 1991 को प्रधानमंत्री नरसिंह रावजब रुपए का  अवमूल्यन कर रहे थे तो 6.6.66 उन्हें डरा रहा था. राव के नेतृत्व में पहला अवमूल्यन (7 फीसदी) 1 जुलाई को हुआ. दूसरा (9 फीसदी) 3 जुलाई को होना था. 1 जुलाई के फैसले पर प्रतिक्रिया के बाद प्रधानमंत्री राव हिचक गए. 3 जुलाई की सुबह उन्होंने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर अगला अवमूल्यन रोकने के लिए कहालेकिन तब तक रिजर्व बैंक गवर्नर सी. रंगराजन फैसला लागू कर चुके थे.

इस अवमूल्यन के नतीजे 1966 की तुलना में पूरी तरह विपरीत थे. भारत को तुरंत विदेशी मदद मिलीलेकिन इसका वास्तविक असर 1995 के बाद नजर आया जब भारत डब्ल्यूटीओ का हिस्सा बना. 1996 से 2000 के बीच आयात से प्रतिबंध हटाए गए. इसके बाद अर्थव्यवस्था खुलतीफैलती गई और लोगों की आय बढ़ती चली गई. 8 नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी जब डिमॉनेटाइजेशन कर रहे थेतब ग्लोबल मंदी के बीच भारत दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था थी जिसकी बुनियाद इन्हीं सुधारों ने बनाई थी.

उथल-पुथल पैदा करने वाले आर्थिक सुधारों का इतिहास दो बड़े निष्कर्ष लेकर आता है. 

पहलाज्यादातर सफल सुधारों ने अंततः नागरिकों को आजादी और ताकत बख्शी है और नया मध्य वर्ग तैयार किया. रीगन के सुधार सरकारी नियंत्रण कम करनेमुद्रास्फीति थामने और निजी उद्यमिता को बढ़ाने पर केंद्रित थे. इसका नतीजा अस्सी के दशक की तेज ग्रोथनए रोजगारों और तेज खपत में नजर आया.
लेबर यूनियन और समृद्ध तबके के बीच बंटे तत्कालीन ब्रिटेन में थैचर का पैकेज भी मुक्त बाजारसरकारी कंपनियों के निजीकरणमहंगाई पर नियंत्रण और सरकार को सीमित रखने पर आधारित थाजिसने ब्रिटेन में थैचर समर्थक नया मिडिल क्लास तैयार किया.
चीन में देंग श्याओपिंग के सुधार विशाल आबादी की आय बढ़ाने के मकसद से शुरू हुए. इन सुधारों ने चीन को दुनिया की बेजोड़ आर्थिक ताकत बनाया और 70 करोड़ लोगों को गरीबी से निजात देकर दुनिया का सबसे बड़ा मध्य वर्ग बना दिया.

दूसराज्यादातर सुधार आर्थिक और सामाजिक जरूरतों की देन थे जिनके राजनैतिक लाभ बाद में नजर आए.

डिमॉनेटाइजेशन भारत में आजादी के बाद की सबसे बड़ी आर्थिक उथल-पुथल हैजो प्रधानमंत्री की तरफ से तय सीमा के मुताबिक अपने आखिरी चरण में पहुंच रही है. इसके तात्कालिक नतीजों में राहत कम और चुभन ज्यादा है.
  • इस सुधार ने आम लोगों की आर्थिक आजादी को सीमित कर दिया है.
  • मोदी के सत्ता में आने से पहले एक मध्य वर्ग तैयार हो चुका था जो रोजगारआयखर्च और खपत में बढ़ोतरी को लेकर बेचैन है. वह इस सुधार के रॉबिन हुड मॉडल (अमीरों को सजागरीबों को राहत) से रोमांचित तो है लेकिन बढ़ते दर्द के साथ आशंकाओं और अमूर्त उम्मीदों के बीच झूल रहा है.
  • इस सुधार से अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण बढऩे का खतरा है.
  • इस सुधार के राजनैतिक लक्ष्य तो दिखते हैंप्रत्यक्ष आर्थिक फायदों की तस्वीर अभी तैयार होनी है.

वक्‍त बताएगा कि नरेंद्र मोदी मार्गरेट थैचर या रोनाल्ड रीगन साबित हुए या नहींलेकिन अगर डिमॉनेटाइजेशन ने पांच वर्ष बाद भी भारत को 1991 के सुधारों जैसे नतीजे दिए तो इतिहास इस तथ्य के साथ लिखा जाएगा कि समाज व अर्थव्यवस्था को नई ताकत देने के लिए उसे कमजोर करने में कोई हर्ज नहीं है.