Monday, September 21, 2009

पड़ गई न आदत !!!

भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति में सबसे नया परिवर्तन क्या है? ..मंदी को लेकर दिमागी ऊर्जा मत गंवाइये। इस फ्लू में तो हम पूरी दुनिया के साथ ही छींक-खांस रहे हैं। बदलाव दरअसल यह है कि भारत अब एक महंगे उपभोक्ता बाजार वाला मुल्क बन गया है। .. चौंकिये मत! लंबी व स्थाई महंगाई अर्थव्यवस्था का सबसे नया व बड़ा परिवर्तन है। महंगाई अब मौसम के मिजाज पर अपना मूड नहीं बदलती। महंगाई अब मांग व आपूर्ति के समीकरणों पर कान नहीं देती। महंगाई रिजर्व बैंक की मौद्रिक कोशिशों को ठेंगे पर रखती है। उपभोग के बदलते ढंग व बाजार ने महंगाई की गुत्थी को पिछले डेढ़ साल में काफी सख्त कर दिया है। सरकार थक कर निढाल हो गई हैं और हमें महंगाई की आदत पड़ गई है।
..रहे हमेशा संग
एक दो नहीं पूरे अठारह माह... ( महंगाई के ताजे चरण 2008 मार्च में पड़े थे) महंगाई का यह संग कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। उपभोक्ता मूल्यों की महंगाई पिछले अठारह माह के दौरान औसतन दस फीसदी से ऊपर रही है। यह महंगाई अतीत के मुकाबले अनोखी व वर्तमान से पूरी तरह अप्रभावित है। पिछले साल देश में रिकार्ड अनाज उत्पादन हुआ। औद्योगिक उत्पादन भी बढ़ा (वृद्धि दर कम थी), मगर महंगाई रिकार्ड बनाती रही। यानी कि आपूर्ति कम हो या ज्यादा, महंगाई के ठेंगे से। पिछला साल मंदी, यानी कि मांग कम होने का था। मांग कम हो तो कीमतें घटती हैं मगर महंगाई नहीं घटी। अर्थात न इस पर मांग कम होने की कला चली और न आपूर्ति बढऩे की। महंगाई ने अपना मौसमी चरित्र भी छोड़ दिया। अब वह एक रहस्यमय ताकत के साथ जमी है और बढ़ रही है।
हार गए सूत्रधार
विद्वान कहते हैं कि मुद्रास्फीति यानी महंगाई एक मौद्रिक परिदृश्य है। इस जमात का मानना है कि रिजर्व बैंक मुद्रा आपूर्ति के नल को खोल-बंद कर महंगाई को अपनी उंगलियों पर नचा सकता है। मांग आपूर्ति और मौसमी समीकरण तो बेअसर हुए ही मुद्रा आपूर्ति के सूत्रधार भी इस महंगाई से हार गए। नवंबर 2007 से लेकर अभी हाल तक रिजर्व बैंक कितनी बार पैंतरा बदल चुका है। महंगाई आती देख बैंक ने नवंबर 2007 में मुद्रा आपूर्ति पर सीआरआर का ढक्कन कसा और यह दर बढ़ते-बढ़ते अगस्त 2008 में नौ फीसदी हो गई। मगर इसके बाद उसने सीआरआर घटाई और अप्रैल 2009 में यह पांच फीसदी पर आ गई। रिजर्व बैंक ने करीब अठारह में माह अपना पूरा नीतिगत कत्थक कर लिया मगर महंगाई टस से मस नहीं हुई। अंतत: रिजर्व बैंक ने मान लिया खाने पीने की चीजों की महंगाई पर उसके मौद्रिक मंत्रों का कोई असर नहीं होता।
निवाले के लाले
महंगाई की ताजी प्रकृति हैरतअंगेज है। सारी तेजी मानों निवाले पर पर फट पड़ी है। क्या आपको पता है कि थोक मूल्यों वाली महंगाई, जो अभी शून्य पर थी उसमें खाद्य उत्पादों का सूचकांक करीब 15 फीसदी की वृद्धि दिखा रहा था जो कि इस दशक का सबसे ऊंचा स्तर है। अप्रैल तक बारह माह के दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर खाने पीने की चीजों में महंगाई दर 13 फीसदी थी जो महंगाई की आग मिले सूखे के ईंधन के बाद 26 फीसदी के आसपास पहुंच रही है। अंतररराष्ट्रीय कारक औद्योगिक उत्पादों की महंगाई बढ़ा सकते हैं क्यों कि कच्चे माल, ईंधन, पूंजी आदि दुनिया के बाजार के इशारे पर नाचते हैं। मगर मगर खाने पीने की बुनियादी चीजों का स्रोत तो देशी है। सरकार कच्चे तेल की कीमतें बढऩे जैसे बोदे तर्कों के पीछे खुद को छिपा लेती है, लेकिन उसके ज्ञानी गुणवंत यह नहीं बता पाते कि पिछले अठारह माह में हर कोशिशें के बावजूद खाने पीने की चीजें सस्ती क्यों नहीं हुईं। जबकि पिछले एक साल के दौरान वह अच्छे कृषि उत्पादन, कर दरों में रियायत, उदार आयात का आदि का ढोल बजाती रही है।
रहस्य क्या है?
पिछले अठारह माह में मांग आपूर्ति, मौद्रिक प्रयास, कर रियायतें, उत्पादन आदि लगभग सभी मोर्चों पर एक साथ बहुत कुछ ऐसा हुआ है जिससे महंगाई घटनी चाहिए थी मगर यह नामुराद कुछ ज्यादा जिद्दी हो गई। आखिर वजह क्या है? दरअसल महंगाई में अब प्रत्यक्ष के बजाय परोक्ष कारक ज्यादा बड़ी भूमिका निभा रहे हैं जो मांग व आपूर्ति या मौद्रिक चश्मे से महंगाई को देखने पर नजर नहीं आते। पहला कारण- देश में लगभग हर तरह के कारोबार की लागत सेवाओं का बड़ा हिस्सा है और माल ढोने से लेकर पैकिंग, वितरण, फोन तक सेवायें भी सैकड़ों किस्म की है। उपभोक्ताओं के उपभोग खर्च में अब आधे से ज्यादा पैसा सेवाओं पर जाता है। कीमतें इनकी भी बढ़ी हैं,जो उत्पादों की महंगाई में जुड़ती हैं मगर हमें नहीं दिखतीं। दूसरा कारण- बुनियादी ढांचे की अपनी एक परोक्ष लागत है। जो महंगी बिजली, खराब सडक़ों, ट्रैफिक में ईंधन की खपत आदि से बनती है और जिंसों व उत्पाद की कीमत में जुड़ जाती है। तीसरा कारण- सरकार बाजार से हार गई है। बाजार अब उसकी नहीं सुनता। सूचनाओं के तेज प्रवाह के कारण व्यापारी बाजार को पहले भांप लेते हैं। जमाखोरी के नए रास्ते व तकनीकें मौजूद हैं। थोक और खुदरा बाजार के बीच की विभाजक रेखा धुंधली हो रही है। रिटेल में प्रतिस्पर्धा और प्रोसेस्ड व पैकेज्ड खाद्य सामग्री के चलन ने मोटी जेब वाले थोक ग्राहकों का एक नया वर्ग खड़ा कर दिया है। जिनके पास सूचना, साधन और सुविधा सब कुछ है।
मूल्यवृद्धि एक पेचीदा आर्थिक तत्व है। कमाई व निवेश के लिए इसका होना जरुरी है, मगर बेहाथ होना जोखिम भरा। जिस देश में 30 फीसदी आबादी के लिए दो जून का जुगाड़ ही जिंदगी हो वहां निवाले का लगातार कीमती होते जाना खतरनाक है। बढ़ती कीमतें हमेशा बढ़ी हुई आय के फायदे चाट जाती हैं। इसलिए महंगाई गरीबी की पक्की दोस्त होती है। गरीबी से निजात मिलने में हमें देर लगेगी क्यों कि हम स्थाई महंगाई आदी हो चले हैं। अमीर खुसरो होते तो कुछ ऐसी पहेली पूछते...... दूर रहे तो भी न भावै, प्यार बढ़ावै बहुत सतावै, रहे हमेशा संग लगाई, कहु सखि पत्नी? नहिं महंगाई।
---------------

No comments: