Monday, September 28, 2009

गलातियों को सुधारने का बाजार

दमी की पेचीगदी भी कम नहीं, वह झीलों को सुखा देता है और मरुस्थल में फूल खिला देता है... मगर इससे पहले कि आप पर्यावरणवादियों की तरह संजीदा हो जाएं पूरी बात पढ़ लीजिये... क्योंकि बात चाहे रेगिस्तान में बहार लाने की हो या झीलों को सुखाने की, मामला दरअसल पैसे का है। समृद्धि के लिए पहले हमने हवा-पानी को बिगाड़ा अब हम इसे सुधारने में पैसा गंवायेंगे और कमायेंगे। आखिर दुनिया को कोई बड़ा काम तो चाहिए न, वरना कमाई व खर्च के नए रास्ते कहां से आएंगे। इसलिए अमेरिकी डॉलर अब अपने एक उपनाम ग्रीनबैक को सार्थक करने वाला है। हो सकता है कि इस सप्ताह पर्यावरण को लेकर आप कुछ ज्यादा चिंतित हो गए हों जब आपने दुनिया के दिग्गजों को बड़े गंभीर और भावनात्मक लहजे में हवा-पानी पर बात करते सुना हो। इसी मुद्दे पर दिसंबर में कोपेनहेगन में दुनिया की पंचायत लगेगी और तब तक यह चख-चख और बढ़ जाएगी। मगर मुगालते में मत रहिये। दरअसल अब मामला हवा पानी को बचाने के अर्थशास्त्र का है। यह पूरी मगजमारी हकीकत में एक नए बाजार से ताल्लुक रखती है जो पर्यावरण को बचाने के लिए तैयार हो रहा है। यह गलतियों के सुधार का बाजार है। जाहिर है कि दुनिया ने प्रकृति को बिगाड़ कर काफी महंगी गलतियां की हैं, इसलिए सुधार भी अब हजार और लाख नहीं बल्कि खरबों डॉलर की कीमत का होगा।
हर चीज की कीमत है...
कुदरत इस बात की फिक्र नहीं करती कि आपकी आर्थिक हैसियत क्या है-अभिनेत्री वूपी गोल्डबर्ग।.... डॉलर पौंड यूरो में सोचने वाली दुनिया को समझ में आ गया है कि उसने अगर करीब 61 ट्रिलियन डॉलर की विश्व अर्थव्यवस्था हासिल की है तो वह हर साल करीब 20 ट्रिलियन डॉलर की कीमत का पर्यावरण भी गंवा रही है। यह नुकसान का मोटा आंकड़ा है जो मौसम के बदलाव से खेती, संपत्ति और जीवन को होने वाला सीधा नुकसान गणित पर आधारित है। पारिस्थितिकी को होने वाले परोक्ष नुकसान, लोगों आव्रजन या पानी या खाने की कमी की गणना इसमें शामिल नहीं है। धरती का तापमान पहले ही करीब 0.6 डिग्री बढ़ चुका है। बाढ़, सूखा व तूफानों की सूरत में मौसम में अप्रत्याशित बदलाव शुरु हो गए हैं और दुनिया के मुनीम नुकसान का आकलन कर हैरत में पड़ रहे हंैं। स्विटजरलैंड की रिइंश्योरेंस कंपनी स्विस री कहती है कि मौसमी आपदाओं से दुनिया हर साल करीब 200 अरब डॉलर की संपत्ति गंवा रही है। एसोसिएशन ऑफ ब्रिटिश इंश्योरर्स ने आंका है कि बढ़ती गर्मी के असर से अगर इस सदी के अंत तक समुद्रों का जल स्तर अगर एक मीटर बढ़ गया तो करीब 1.5 खबर डॉलर की संपत्ति समुद्री तूफानों के सीधे खतरे में पहुंच जाएगी। भारत के संदर्भ में तो यह गुणा भाग काफी भयानक है। अकेला महाराष्ट्र एक साल के सूखे में राज्य का करीब 30 फीसदी कृषि उत्पादन गंवा देता है। कोई लंबा सूखा भारत की खेतिहर अर्थव्यवस्था को कुछ माह में सात अरब डॉलर की चपेट दे सकता है। दरअसल पर्यावरण के नुकसान का हिसाब किताब इतना डरावना है कि अब इसे बचाने का कोई भी हिसाब के किताब छोटा लगता है।
...महंगा है बचाव
जब इस कदर गंवा रहे हैं तो बचाना महंगा पड़ेगा ही। दुनिया पिछले कई वर्षो से खुद को बदलने की लागत हिसाब किताब लगातार बदल रही है। संयुक्त राष्ट्र की समिति अर्थात यूएनएफसीसी ने आंका था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए 2030 तक दुनिया को 40 से 170 अरब डॉलर खर्च करने होंगे मगर ब्रिटिश शोधकर्ताओं के ताजे आकलन के मुताबिक यह आंकड़ा सही नहीं है, लागत इससे कई गुना ज्यादा होगी। और अगर ऊर्जा, मैन्युफैक्चरिंग, रिटेल, खनन आदि उद्योगों में बड़े बदलावों की लागत जोड़ ली जाए तो कोई भी आंकड़ा छोटा है। यूएनएफसीसी ने आंका था कि बाढ़ रोकने पर करीब 11 अरब डॉलर खर्च होंगे मगर ताजा आकलन कहता है गर्मी के कारण होने वाली पानी की कमी दूर करने की लागत इसमें जोडऩे पर खर्च बहुत बढ़ जाएगा। इसी तरह मौसम से असर से पैदा होने वाली बीमारियों से बचने का खर्च पांच अरब डॉलर से बहुत ज्यादा होगा क्यों कि शुरुआती आकलन में यूएनएफसीसी ने केवल चुनिंदा बीमारियों को आधार बनाया था। इसी तरह जलवायु परिवर्तन के हिसाब से बुनियादी ढांचा ठीक करने पर खर्च 1000 अरब डॉलर, समुद्र तटीय क्षेत्र को बचाने पर खर्च 33 अरब डॉलर और पारिस्थितिकी को बचाने पर 350 अरब डॉलर तक खर्च हो सकता है। गलतियों को सुधारने का बिल कितना बड़ा होगा यह तो वक्त बतायेगा लेकिन गलतियों के सुधार का यह बाजार काफी बड़ा होने वाला है।
दर्द देने वाले अब दवा बेचेंगे...
ग्रीन इन्वेस्टमेंट आने वाले दौर का सबसे दिलचस्प धंधा है और क्लीन टेक्नोलॉजी सबसे हॉट उत्पाद। अमेरिकी ऊर्जा एजेंसी मानती है कि धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी रोकने के लिए ऊर्जा क्षेत्र में अगले दो दशक में दो खरब डॉलर का निवेश होगा। विकसित देशों को सिर्फ बाढ़ रोकने, सूखे में उगने वाली फसलों और बीमारियों से बचाव आदि को लेकर तीसरी दुनिया में 16 खरब डॉलर का बाजार दिख रहा है। निवेश शुरु हो चुका है, दक्षिण कोरिया ने इस गलती सुधार बाजार में अपने जीडीपी के दो फीसदी के बराबर निवेश का निर्णय किया है जो कि 107 खरब वॉन है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाली तकनीकें, उत्पाद, सेवाएं अगले एक दशक में जगह बिकेंगी। अमेरिकी रिसर्च फर्म क्लीनटेक बताती है कि इन तकनीकों को विकसित करने के लिए 2008 में निवेशक दुनिया के बाजार से करीब 8.4 अरब डॉलर जुटा चुके हैं। दरअसल इस गलती सुधार बाजार में करीब 86 फीसदी निवेश निजी क्षेत्र ही करेगा। वही तकनीक बनाएगा और वही खरीदेगा। इस तरह की तकनीकों के लिए चीन अगर एक खरब डॉलर का बाजार है तो भारत भी छोटा बाजार नहीं है। दूसरी तरफ विकासशील देश इस खर्च के बदले कार्बन विनिमय के अंतरराष्ट्रीय बाजार में अपने लिये मुनाफा देख रहे हैं। अर्थात वह कम प्रदूषण फैलायेंगे और प्रदूषक पश्चिम से मुनाफा कमायेंगे।
कुला मिलाकर यह पूरा खेल काफी दिलचस्प हो चला है। पर्यावरण भविष्य का सबसे बड़ा बाजार है, जिसमें एक टन ऑक्सीजन और कार्बन डाइ आक्साइड से लेकर एक वर्ग किलोमीटर की मिट्टी तक का अपना मूल्य है। दुनिया इस नए हरे भरे हिसाब-किताब में गर्मी सर्दी, हवा- पानी, धुआं-धूल, हरियाली-मरुस्थल, बाढ़-सूखा, जीव-जीवन केवल प्रकृति के रंग ही नहीं हैं, बल्कि अब इनका अपना अर्थशास्त्र है और इन्हें रोकने, बढ़ाने या बचाने की एक मोटी लागत है। इसलिए हवा पानी की चर्चा अब वस्तुत: निवेश, कर्ज, लाभ, हानि, विनिमय, लेन-देन और वित्तीय उपकरणों की चर्चा है। तो देखिये जरा ...हम कितने नासमझ हैं कि हमने खुद को ही बर्बाद कर लिया और हम कितने समझदार हैं कि बर्बादी से उबरने के लिए हमने एक बाजार गढ़ लिया। ....सच में इंसान बेहद पेचीदा जीव है!!!
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