Tuesday, January 26, 2010

आपके जमाने का बजट या बाप के?

यह बजट कांग्रेसी समाजवाद पर आधारित होगा या फिर कांग्रेसी बाजारवाद पर। इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि यह बजट प्रणब मुखर्जी का होगा या डा. मनमोहन सिंह का? ..वैसे यह सब छोडि़ए, सीधा सवाल दो टूक सवाल किया जाए कि यह बजट आपके जमाने का होगा या बाप के जमाने का? गणतंत्र का साठ बरस का हो गया है और नई अर्थव्यवस्था बीस बरस की। बहस जायज है कि आने वाला बजट साठ वालों का होगा या बीस वालों का? 1991 सुधारों के साथ बढ़ी पीढ़ी बहुत कुछ सीख कर युवा हो गई है और जबकि दूसरी तरफ गणतंत्र और अर्थतंत्र को संभालने वाले हाथ उम्रदराज हो चले हैं। दो दशक पुराने सुधारों का बहीखाता सामने है तो सियासत के पास भी इन आर्थिक प्रयोगों को लेकर अपने तजुर्बे हैं। इसलिए उलझन भारी है कि दादा यानी प्रणब मुखर्जी किस पीढ़ी के लिए बजट बनाएंगे। अपनी वाली पीढ़ी के लिए या आने वाली पीढ़ी के लिए।
बजट की तासीर और असर
अधिकांश बजट देने वाली कांग्रेस की टकसाल से समाजवादी बजट भी निकले हैं और बाजारवादी भी। बजट का रसायन हमेशा राजस्व, खर्च, घाटे और आर्थिक नीतियों के तत्वों से बनता है, सो इसकी तासीर नहीं बदलती है। अलबत्ता लगभग हर दशक में बजट की केमिस्ट्री और असर जरूर बदले हैं। पचास से साठ के अंत तक बजट अर्थव्यवस्था को सार्वजनिक उपक्रमों की उंगली पकड़ा रहे थे। समाजवाद की फैक्ट्री से निकला आर्थिक चिंतन अर्थव्यवस्था में सरकार को सरदार बनाता था। आजादी के आंदोलन में तपी पीढ़ी के सभी कल्याणकारी सपने सरकार में निहित हो गए थे। ऊंचे कर, भारी खर्च और हर कारोबार में सरकार बजट की तासीर और असर के हिस्से थे। सातवें आठवें दशक में अर्थव्यवस्था ने चुनिंदा निजी उद्योगों व सरकार की जुगलबंदी देखी जो लाइसेंस राज के साज पर बज रही थी। ऊंची कर दरें मगर कुछ खास को कर रियायतों, नियमों के मकड़जाल, लोकलुभावन स्कीमें और तरह-तरह के लाइसेंसों से बजट का यह ताजा रसायन बना था। आठवें दशक में अर्थव्यवस्था बदलाव के लिए कसमसाने लगी थी और नब्बे के दशक के बाद की कहानी अभी ताजी है। दस का बजट इन्हीं तत्वों से बनेगा, लेकिन बहस अब साठ बनाम बीस की है।
इतिहास की तर्ज पर?
साठ की पीढ़ी के हिसाब से बजट बनाने में दादा माहिर हैं। अगर वह उसी राह पर चले तो पिछले बजटों का कोई भी अध्येता बता देगा कि दादा दरअसल क्या करने वाले हैं। यह उधारवाद, कांग्रेसी समाजवाद और लोकलुभावनवाद का आजमाया हुआ बजट होगा। ऐसे बजटों में भारी खर्च पर तालियां बजवाई जाती हैं न कि बड़े सुधारों पर। इंदिरा, नेहरू, राजीव के नाम वाली स्कीमों की छेद वाली टंकियों में नया पानी, किसान, गांव, गरीब की बात, उद्योगों में जो ताकतवर होगा, उसे प्रोत्साहन और भारी घाटे की गठरी। ध्यान रखिए घाटा पहले से ही विस्फोटक बिंदु पर है। राजस्व विलासिता पर कर, कुछ कामचलाऊ कर प्रोत्साहन और रियायतों में कतर ब्योंत। ..साठ की पीढ़ी के बजट का यही नुस्खा है। चुनाव में जाने और जुलाई में जीतकर आने के बाद दादा ने इसी परिपाटी का निर्वाह किया था। अगर यह बजट दादा की अपनी पीढ़ी के फार्मूले पर बनता है तो सुधारों आदि की उम्मीद लगाकर अपना दिमाग मत खराब करिए। वैसे भी तगड़े सुधार सियासत का हाजमा खराब करते हैं और जब दुनिया में बाजारवाद व उदारीकरण के दिन जरा खराब चल रहे हों तो दादा के पास पुरानी रोशनाई से बजट लिखने का तर्क भी मौजूद है।
या इतिहास बनाने के लिए?
वैसे नए जमाने का बजट कुछ और ही तरह होना चाहिए। क्योंकि साठ के बजट चार-पांच फीसदी की ग्रोथ देते थे और अब के बजटों से आठ-नौ फीसदी की विकास दर निकली है व निकलने की उम्मीद होती है। लेकिन इस तरह के बजट से जुड़ी उम्मीदों की केमिस्ट्री ही दूसरी है। यह बहीखाते वाली नहीं, बल्कि डाटाबेस वाली पीढ़ी है। इसे तो जल्द से जल्द नया कर ढांचा यानी जीएसटी चाहिए। .. वित्त मंत्री देंगे? वह तो टल गया है। इसे नया आयकर कानून चाहिए। इसे श्रम कानूनों में बदलाव चाहिए। इसे वित्तीय बाजार का विनियमन और उदारीकरण चाहिए। इसे भरपूर बुनियादी ढांचा चाहिए। इसे महंगाई पर स्थायी काबू चाहिए ताकि वह अपनी बढ़ी हुई आय महंगी रोटी दाल लेने के बजाय अपनी जिंदगी बेहतर करने पर खर्च करे और बाजार में मांग बढ़ा सके। इसे सही कीमत पर शानदार सरकारी सेवाएं चाहिए ताकि वह उत्पादक होकर जीडीपी बढ़ा सके। इसे संतुलित, पारदर्शी बाजार चाहिए। और साथ में इसे चाहिए ऐसा बजट जिसमें घाटा हो मगर अच्छी क्वालिटी का यानी कि विकास के खर्च के कारण होने वाला घाटा, न कि फालतू और अनुत्पादक खर्च के कारण।
आर्थिक डाक्टर यानी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दो दशक पहले पुरानी पीढ़ी वाले बजट का खोल तोड़ा था और नई पीढ़ी को उसके सपनों के मुताबिक बजट दिया था। इसके बाद से नई अर्थव्यवस्था वाले जवान पीढ़ी हर बजट से ड्रीम बजट होने की उम्मीद लगाती है। उनके सपनों की सीमा नहीं है, इसलिए हर बजट को देखकर उनके सपने जग जाते हैं। इधर साठ की पीढ़ी का बजटीय हिसाब-किताब आर्थिक जरूरतों के फार्मूले से कम सियासी सूत्रों से ज्यादा बनता है। अर्थव्यवस्था संक्राति के बिंदु पर है। पिछले दो दशकों में खोए-पाए, गंवाए- चुकाए आदि का लंबा हिसाब-किताब होना है। वक्त बताएगा कि तजुर्बेकार प्रणब दादा ने उम्रदराज सियासत के लिए बजट बनाया या फिर चहकती नई पीढ़ी के लिए? ..इस बजट को बहुत ध्यान से देखिएगा। नई अर्थव्यवस्था यहां से तीसरे दशक की गाड़ी पकड़ेगी।
---------------------
और अन्‍यर्थ के लिए स्‍वागत है .....
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

Monday, January 18, 2010

वेताल फिर डाल पर!

भारत में आर्थिक मंदी दुनिया की मार थी या अपनी महंगाई व अपनी ही नीतियों का उपहार? उद्योगों को प्रोत्साहन देने का तुक तर्क क्या था? मंदी का डर दिखाकर उद्योगों ने जो सरकार से झटक लिया उसमें उन्होंने आम उपभोक्ताओं को क्या बांटा? प्रोत्साहन की जरूरत दरअसल किसे थी और टानिक किसे पिला दी गई?.... वक्त का वेताल फिर डाल पर है और अजीबोगरीब व बुनियादी किस्म के सवाल कर रहा है? अर्थव्यवस्था का पहिया घूम कर 2007-08 के बिंदु पर आ गया है, बल्कि चुनौतियां कुछ ज्यादा ही उलझी हैं। ब्याज दरें बढ़ने वाली हैं, मांग बढ़े या न बढ़े उत्पादन की लागत का बढ़ना तय है, महंगाई पहले से ज्यादा ठसक के साथ मौजूद है, जबकि घाटे से हलकान सरकार के सामने कर बढ़ाने और खर्च घटाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। इसलिए चलिये भूले बिसरे आंकड़ों की गुल्लक फोड़ें और मंदी व उद्योगों की रियायतों को लेकर लामबंदी के दावों को निचोड़ें।.. हकीकत दरअसल आल इज वेल के दावों से बिल्कुल उलटी है।
दिमाग पर जोर डालिये
2007-08 की पहली तिमाही याद करिये। ठीक इसी समय से भारत में आर्थिक विकास दर में गिरावट की शुरुआत हुई थी। दुनिया में उस वक्त मंदी की चर्चा भी नहीं थी। मत भूलिये कि अप्रैल 2007 में पहली बार रिजर्व बैंक ने सीआरआर दर बढ़ाई थी क्योंकि तब महंगाई आठ फीसदी का स्तर छू रही थी और सरकार की सांस ऊपर नीचे हो रही थी। कोई कैसे भूल सकता है दो साल पहले इसी वक्त चल रही उस बहस को, जिसमें रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय यह मानने लगे थे कि अर्थव्यवस्था ओवरहीट हो रही है, यानी कि कुछ ज्यादा ही तेज गति से दौड़ रही है और महंगाई बाजार में बढ़ रही अप्रत्याशित मांग का नतीजा है। मांग पर ढक्कन लगाने की चर्चायें नीतिगत समर्थन पाने लगी थीं और नतीजतन रिजर्व बैंक ने लगातार सीआरआर बढ़ाई और 2007-08 की चौथी तिमाही (औद्योगिक विकास दर पहली तिमाही के दस फीसदी से घटकर चौथी तिमाही में 6.3 फीसदी पर) से भारत में आर्थिक मंदी शुरू हो गई। यह बात हजम करना जरा मुश्किल है कि भारत में मंदी दुनिया की मंदी की देन है। लेहमैन की बर्बादी सितंबर 2008 की घटना है, जिसका असर वित्तीय बाजारों पर हुआ था। भारत में आर्थिक फिसलन तो इससे कई महीने पहले शुरू हो गई थी। अगर मंदी ने किसी को मारा था तो वह निर्यात (वह भी दिसंबर 2008 के बाद। दिसंबर तक निर्यात 17 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रहा था) का क्षेत्र था। मंदी के नाम पर रियायतों की लामबंदी करने वाले उद्योग यह भूल जाते हैं कि कुल आर्थिक उत्पादन में निर्यात का हिस्सा बहुत छोटा है, अधिकांश मांग तो देशी बाजार से आती है। भारत में दरअसल मंदी दुनिया से पहले आई और वह भी इसलिए क्योंकि महंगाई ने मांग का दम घोंट दिया था। बाद में बची खुची कसर ब्याज दरों ने पूरी कर दी।
इलाज, जो बन गया खुराक?
चलिये अब स्टिमुलस यानी मंदी से उबरने के लिए प्रोत्साहनों की बहस को भी कुछ तथ्यों के आईने में उतारा जाए। उद्योग जिन कर रियायतों को जारी रखने का झंडा उठाये हैं वह हकीकत में महंगाई का इलाज थीं। मंदी हटाने की खुराक नहीं। सरकार ने कभी नहीं माना कि भारत मंदी का शिकार है। पिछले साल के अंतरिम बजट भाषण में आदरणीय वित्त मंत्री के शब्द थे, 'भारत की अर्थव्यवस्था 7.1 फीसदी की वृद्घि दर के साथ अभी भी दुनिया की दूसरी सबसे तेज अर्थव्यवस्था है।' संसद में पेश सरकारी आर्थिक समीक्षा कहती है कि भारत में आर्थिक विकास दर में गिरावट सख्त मौद्रिक नीतियों की देन थी। इसलिए प्रोत्साहन भी मंदी दूर करने के लिए दिये ही नहीं गए थे। प्रोत्साहनों का दौर नवंबर 2008 से शुरू हुआ और वह भी महंगाई घटाने के लिए। सरकार ने एक मुश्त कई कृषि जिंसों के आयात पर शुल्क हटाये और घरेलू उत्पादन पर करों में रियायत दी। यह सब चुनाव सामने देख कर किया गया था। रही बात खर्च बढ़ाने की तो वह प्रोत्साहन चुनावी संभावनाओं के लिए था। खर्च बढ़ाने के पैकेज वेतन आयोग की सिफारिशों पर अमल, किसानों की कर्ज माफी और सब्सिडी में वृद्घि से बने थे। जिनका मंदी से सीधा कोई लेना देना नहीं था। सच तो यह है कि देश को पलट कर उद्योगों से पूछना चाहिए कि उन्होंने महंगाई को कम करने में क्या भूमिका निभाई? किस रियायत को उन्होंने उपभोक्ताओं से बांटा? सच यह है कि महंगाई घटाने के लिए मिली कर रियायतों को उद्योगों ने सफाई के साथ मंदी दूर करने से जोड़ दिया और सारा प्रोत्साहन पी गए। महंगाई जस की तस रही। औद्योगिक उत्पादन दरअसल इन रियायतों की वजह से पटरी पर नहीं लौटा है बल्कि वापसी तब शुरू हुई जब बाजार में रुपये का प्रवाह बढ़ा। अगस्त 2008 में रिजर्व बैंक ने सख्त मौद्रिक नीति की जिद छोड़ी और सीआरआर व रेपो रेट कम करना शुरू किया। यह कदम उठाने के ठीक एक साल 2009-10 की दूसरी तिमाही से उत्पादन पटरी पर आया है। .. मगर विसंगति देखिये कि अब बारी ब्याज दर फिर बढ़ने की है क्योंकि रिजर्व बैंक को फिर 2007-08 की तरह ब्याज दरें बढ़ाकर और कर्ज की मांग घटाकर महंगाई पर काबू करना है।
बीमार कौन और दवा किसको?
भारत में मंदी की शुरुआत अर्थात अप्रैल 2007 और हाल की उम्मीद भरी वापसी सितंबर 2009 के बीच दो कारक स्थिर रहे हैं। एक है महंगाई और दूसरी मांग में कमी। बदली है तो सिर्फ रिजर्व बैंक की मौद्रिक मुद्रायें और सरकार के असमंजस के रंग। महंगाई में वृद्घि और मांग में कमी का सीधा रिश्ता है। अप्रैल 2007 में खाद्य जिंसों व उत्पादों की महंगाई 9.4 फीसदी पर थी, अप्रैल 2008 में यह 10.7 फीसदी हो गई और पिछले सप्ताह के आंकड़ों में यह 18 फीसदी है। यानी कि महंगाई लगातार बढ़ी और मांग टूटती गई है। औद्योगिक उत्पादन में ताजे सुधार की जमीन इस तथ्य की रोशनी में खोखली दिखती है। औद्योगिक उत्पादन में यह वृद्घि हालात सुधरने की उम्मीदों और सस्ते कर्ज के सहारे आए नए निवेश की देन है, इसे बाजार में ताजी मांग का समर्थन हासिल नहीं है। प्रोत्साहन, खुराक या इलाज की जरूरत खेती को थी जहां से महंगाई पैदा हो रही है और लेागों की क्रय शक्ति व मांग को खा रही है। जबकि मंदी से मारे जाने का सबसे ज्यादा स्यापा उद्योगों ने किया और रियायतें ले उड़े। ताजा हालात में उद्योगों की एक खुराक रिजर्व बैंक के पास है अर्थात सस्ता कर्ज और दूसरी बाजार के पास अर्थात मांग में सुधार। रिजर्व बैंक सस्ते कर्जो का शटर गिराने वाला है, जबकि मांग की दुश्मन महंगाई बाजार का रास्ता घेरे बैठी है। यानी दोनों जगह मामला गड़बड़ है। ऐसे में अगर सरकार कर रियायतें देती भी रहे तो उसका कोई बड़ा फायदा नहीं होने वाला।
पिछले तीन साल के आंकड़े और तथ्य किस्म-किस्म के सवाल पूछ रहे हैं। कठघरे में उद्योग भी हैं, सरकार भी और रिजर्व बैंक भी। नीतियों को लेकर गजब का भ्रम और जबर्दस्त अफरा-तफरी है। रिजर्व बैंक मानता है कि इस महंगाई का इलाज मौद्रिक सख्ती से नहीं हो सकता मगर फिर भी वह ब्याज दरें बढ़ाकर मंदी से उबरने की कोशिशों का दम घोंटने की तैयारी कर रहा है। सरकार तो अब तक यह तय नहीं कर पाई है कि पहले वह मंदी का इलाज करे या महंगाई का या फिर बढ़ते घाटे का। तीनों का इलाज एक साथ मुमकिन नहीं है क्योंकि एक की दवा दूसरे के लिए कुपथ्य है। घाटा कम करने के लिए खर्च घटाना और कर बढ़ाना जरूरी है, लेकन इससे मंदी को अगर खुराक मिलने का खतरा है, वहीं दूसरी तरफ घाटा इसी तरह बढ़ा तो भी आर्थिक दुनिया नहीं छोड़ेगी। रही बात महंगाई की तो वहां सरकार पहले से थकी-हारी और पस्त व निढाल होकर वक्त के आसरे है।..दस के बरस का बजट हाल के वर्षो में सबसे गहरे असमंजस का बजट है। .. इक तो रस्ता है पुरखतर अपना, उस पे गाफिल है राहबर अपना। .. खुदा खैर करे।
और अन्‍यर्थ ( the other meaning ) के लिए स्‍वागत है
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच) पर

Monday, January 11, 2010

चुनौतियों की चकरी

इस होम में हाथ तो जलने ही थे। अलबत्ता होम तो हो गया, और सुनते हैं कि मंदी का अनिष्ट भी कुछ हद तक टल गया है लेकिन अब बारी हाथों की जलन तो रहेगी। अगर देश की अर्थव्यवस्था से कुछ वास्ता रखते हैं तो बस एक पखवाड़े के भीतर सरकारी घाटे और ऊंची ब्याज दरों की अप्रिय खबरें आपकी महंगी सुबह कसैली करने लगेंगी। बजट की उलटी गिनती और घाटे की सीधी गिनती शुरु हो चुकी है। मंदी की इलाज में सरकार ने खुद को बुरी तरह बीमार कर लिया है। राजकोषीय घाटा पिछले सत्रह साल के सबसे ऊंचे और विस्मयकारी स्तर पर है। महंगाई जी भरकर मार रही है। बाजार में मुद्रा के छोड़ने वाला पाइप अब संकरा होने वाला है अर्थात ब्याज दरें ऊपर जाएंगी। हम आप तो भले ही कर्ज न लें लेकिन सरकार तो कर्ज बिना एक कदम नहीं चल पाएगी। यानी ऊंचा घाटा, ज्यादा कर्ज, महंगाई, सख्त मौद्रिक नीति और ऊंचा ब्याज.. राजकोषीय चुनौतियों की चकरी धुरे पर बैठ गई है। इस दुष्चक्र की मार हमेशा से मीठी और लंबी होती है। मुसीबत का यह पहिया पहले भी घूमता रहा है लेकिन तब से अब में सबसे बड़ा फर्क यह है कि मंदी से उबरने की कोशिशों कायदे से शुरु हो पातीं इससे पहल ही यह दुष्चक्र शुरु हो गया है और वह भी उस वक्त जब नया वित्त वर्ष, केंद्र सरकार सामने पुराने कर्जो की भारी देनदारी का तकाजा खोलने वाला है।
वित्तीय अनुशासन का शीर्षासन
इस साल फरवरी में आने वाला बजट पिछले कुछ दशकों के सबसे अभूतपूर्व राजकोषीय घाटे वाला बजट हो तो चौंकियेगा नहीं। सरकार के आधिकारिक आंकड़ों में राजकोषीय और राजस्व घाटा, जीडीपी के अनुपात मे क्रमश: सात और पांच फीसदी, सत्रह साल के सबसे के सबसे ऊंचे स्तरों पर है। दरअसल दुनिया जब तक मंदी से निबटने की रणनीति बनाती भारत सरकार सांता क्लॉज बन कर वित्तीय रियायतों बांटने निकल पड़ी। चुनाव सामने था और सरकार मंदी को प्रोत्साहन के सहारे तमाम ऐसे खर्चे सब्सिडी और वेतन आयोग की सिफारिशों पर खर्च, ढकने थे जिन पर आम दिनों में वित्तीय सवाल उठ सकते थे। प्रोत्साहन पैकेज से मंदी से कितनी दूर हुई इस पर चर्चा फिर कभी लेकिन खजाना विकलांग हो गया है। उत्पादन व मांग घटने के कारण राजस्व घटा और इधर जुलाई में सरकार ने अब तक का सबसे बड़ा कर्ज , 4,50,000 करोड़ रुपये, कार्यक्रम घोषित किया। ताकि दस लाख करोड़ के खर्च का बजटीय गुब्बारे में हवा भरी जा सके। अचरज नहीं कि मार्च के अंत तक कर्ज इससे भी ऊपर चला जाए क्यों कि लिब्रहान आदि पर बहसों के बीच बीते माह सरकार ने संसद से अपने बढ़े खर्च का बिल पास करा लिया। और राजस्व की हालत पतली है। अगला साल खर्च में कोई रियायत देने नहीं जा रहा क्यों कि सब्सिडी, नरेगा आदि के मुंह पहले से बड़े हो गए हैं। वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों को करों में पहले से ज्यादा हिस्सा देना होगा। पूरी तरह बेहाथ हो चुके घाटे को भरने के लिए अगले वित्त वर्ष में सरकार बाजार से कितना कर्ज उठायेगी, अंदाज मुश्किल है। अब डरिये कि घाटे को देख अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख यानी रेटिंग न घट जाए।
मुंबई वाली मदद
आइये अब मुंबई वाले सूरमा को देखते हैं यानी रिजर्व बैंक जो कि चुनौतियों की इस चकरी को अपनी तरह से रफ्तार देने वाला है। प्रणव बाबू अब रिजर्व बैंक से यह उम्मीद तो नहीं कर सकते कि वह बाजार में घड़े में पानी भरता रहेगा ताकि सरकार को कर्ज मिल सके। रिजर्व बैंक को जो महंगाई दिख रही है वही प्रणव मुखर्जी की भी निगाहों के सामने है। भले ही यह महंगाई मौद्रिक नहीं बल्कि आर्थिक दुर्नीतियों का नतीजा हो लेकिन रिजर्व बैंक की किताब में महंगाई और मौद्रिक उदारता के बीच छत्तीस का फार्मूला है। इसलिए बजट से पहले ही मौद्रिक सख्ती शुरु हो जाएगी और साथ ही बढ़ने लगेंगी ब्याज दरें। महंगाई के बीच अगर ब्याज दरें भी बढ़ गई तो उद्योगों की पार्टी तो खत्म समझिये। एक तो महंगाई ने लोगों की क्रय शक्ति लूट ली ऊपर से अब कर्ज के सहारे ग्राहकी निकलने की उम्मीद भी खत्म क्यों कि महंगा कर्ज लेकर कौन खर्च करेगा? सरकार के लिए मुश्किलें दोहरी हैं। यह माहौल उत्पादन को हतोत्साहित करता है जिससे राजस्व में कमी आती है और दूसरी तरफ खर्च कम करने की कोई गुंजायश नहीं है।
तकाजे का वक्त
मुसीबतों के इस पहिये का सबसे चुनौती भरा मोड़ यह है कि सरकारी खजाने के लिए बेहद कठिन दशक इसी साल से शुरु हो रहा है। बीते सालों के सरकार ने जो जमकर कर्ज जुटाये थे उनकी भारी देनदारी 2010-11 से शुरु हो रही है। सरकारी ट्रेजरी बिलों के संदर्भ में रिजर्व बैंक का आंकड़ा बताता है कि इस साल सरकार को करीब 1,12,000 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाना है। जो कि मौजूदा साल में महज 27000 करोड़ रुपये था। यह भारी तकाजे अगले एक दशक तक चलेगा और हर साल सरकार की देनदारी 70,000 करोड़ रुपये से ऊपर होगी। 2014-15 में तो इसके 1,75,000 करोड़ रुपये तक जाने का आकलन है। इधर ब्याज दर बढ़ने से ब्याज की देनदारी बढ़ेगी से अलग से। मौजूदा साल में खजाना 2,25,000 करोड रुपये का ब्याज दे रहा है यह रकम मौजूदा साल में सरकार को इनकम टैक्स से मिलने वाले राजस्व की दोगुनी और कुल कर राजस्व की लगभग आधी है। ब्याज देनदारी में बढ़ोत्तरी के पिछले आंकड़ों के आधार अगले साल यह तीन लाख करोड़ रुपये आसपास हो सकता । जाहिर इसे चुकाने के लिए सरकार को नया कर्ज चाहिए। इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे कि क्या यह घरेलू ऋण संकट की शुरुआत है? लेकिन यह आंकड़ा जरुर जहन में रखना चाहिए कि जीडीपी के अनुपात में घरेलू कर्ज 60 फीसदी पर पहुंच गया है। दुनिया के कुछ मुल्कों के ताजे दीवालियेपन से डरे दुनिया के निवेशकों को डराने के लिए अब हमारे पास बहुत कुछ है।
बाड़ ने खेत को कितना बचाया तो यह बाद में पता चलेगा लेकिन मंदी रोकने की बाड़ राजकोष के खेत का बड़ा हिस्सा चट जरुर कर गई है। आर्थिक चुनौतियों का यह चरित्र है कि इसमें तात्कालिक उपाय अक्सर दूरगामी समस्या बन जाते हैं। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने बीते सप्ताह कहा है कि वित्तीय संकट अभी टला नहीं है बल्कि नए सिरे से आ रहा है। यकीनन उनका इशारा अब उस संकट की तरफ है जो बैंकों की बैलेंस शीट और निवेशकों के खातों से निकल कर सरकारी खजानों के हिसाब किताब में बैठ गया है। भारत भी इसी नाव में सवार है और हम व आप भी इसी नौका के यात्री हैं। बजट का इंतजार बेशक करिये मगर बहुत उम्मीद के साथ नहीं क्यों चुनौतियों का पहिया थमते-थमते ही थमेगा।

Tuesday, January 5, 2010

बस इतना सा ख्वाेब है

नया साल बहत्तर घंटे बूढ़ा हो चुका है, यानी कि उम्मीदों का टोकरा उतारने में अब कोई हर्ज नहीं हैं। कामनायें और आशायें सर माथे. लेकिन हमारी बात तो अनिवार्यताओं, अपरिहार्यताओं और आकस्मिकताओं से जुड़ी है। यह चर्चा उन उपायों की है जिनके बिना नए साल में काम नहीं चलने वाला, क्यों कि कई क्षेत्रों में समस्यायें, संकट में बदल रही हैं। अगले साल की सुहानी उम्मीदों पर चर्चा फिर करेंगे पहले तो सुरक्षित, शांत और संकट मुक्त रहने के लिए इन उलझनों को सुलझाना जरुरी है। .. दरअसल यह 'दस के बरस' का संकटमोचन या आपत्ति निवारण एजेंडा है। कभी, ताकि सुरक्षा, शांति और संकटों से मुक्ति सुनिश्चित हो सके।

तो खायेंगे क्या ?

कभी आपने कल्पना भी की थी कि आपको सौ रुपये किलो की दाल खानी पड़ेगी। यानी कि उस खाद्य तेल से भी महंगी, जो गरीब की थाली में अब तक सबसे महंगा होता था। भूल जाइये गरीबी हटाने को दावों और हिसाबों को। यह महंगाई गरीबी कम करने के पिछले सभी फायदे चाट चुकी है। खाद्य उत्पादों की महंगाई गरीबी की सबसे बड़ी दोस्त है। दरअसल खेती का पूरा सॉफ्टवेर ही खराब हो गया है। इसका कोड नए सिरे से लिखने की जरुरत है और वह भी युद्धस्तर पर। अगर सरकार को कुछ रोककर भी खेती की सूरत बदलनी पड़े तो कोई हर्ज नहीं है। किसान के सहारे वोटों की खेती तो होती रहेगी लेकिन अगर खेतों में उपज न बढ़ी तो देश की आबादी खाद्य इमर्जेसी की तरफ बढ़ रही है। दस का बरस खाद्य संकट का बरस हो सकता है। एक अरब से ज्यादा लोगों को अगर सही कीमत पर रोटी न मिली तो सब बेकार हो जाएगा।

शहर फट जाएंगे

आपको मालूम है कि इस साल करीब आधा दर्जन नई छोटी कारें भारतीय बाजार में आने वाली हैं। मगर कोई बता सकता है कि वह चलेंगी कहां? शहर फूलकर फटने वाले हैं। पिछले दो दशकों के उदारीकरण ने शहरों को रेलवे प्लेटफार्म बना दिया है। सरकारें गांवों की तरफ देखने का नाटक करती रही और गांव के गांव आकर शहरों में धंस गए। सूरत सुधारने के लिए हर शहर में राष्ट्रमंडल खेल तो हो नहीं सकते लेकिन हर शहर को ढहने से बचने का रास्ता जरुर चाहिए। आबादी के प्रवास से लेकर, शहरी ढांचे की बदहाली व बीमार आबोहवा तक और कानून व्यवस्था की दिक्कतों से लेकर बिजली पानी की जरुरतों तक, शहरों का ताना बाना हर जगह खिंचकर फट रहा है। सिर्फ दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बंगलौर ही देश नहीं है। कानपुर, पटना, नासिक, इंदौर, लुधियाना भी देश में ही है। बरेली, जलगांव, भागलपुर, पानीपत भी उतने ही बेहाल हैं। दस का बरस शहरों के लिए नई और बड़ी दिक्कतों का है।

हवा में है खतरा

मतलब पर्यावरण से कतई नहीं है। बात विमानन क्षेत्र की है। अगर हवाई यात्रा करते हों इस साल बहुत संभल कर चलने की जरुरत है। देश का उड्डयन ढांचा चरमरा गया है। पिछले बरस लगभग हर माह कोई बड़ा हादसा हुआ है या होते-होते बचा है। हेलीकॉप्टर गिर रहे हैं, जहाज जमीन पर रनवे छोड़ कर गड्ढों में उतर रहे हैं, पायलट नशे में डूब कर सैकड़ो जिंदगियों के साथ एडवेंचर कर रहे हैं। जहाजों की तकनीकी खराबियां खौफ पैदा करने लगी हैं। विमानों को ऊपर वाला ही मेंटेन कर रहा है। दरअसल पूरा विमानन क्षेत्र एक गंभीर किस्म के खतरे में है और वह भी उस समय जब कि देश में विमान यात्रियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है और नए हवाई मार्ग खुले हैं। विमानन सेवाओं को सुधारने के लिए पता नहीं किस अनहोनी का इंतजार है। दस के बरस में यहां संकट बढ़ सकता है।

इंसाफ का तकाजा

आर्थिक स्तंभ में न्यायिक सुधारों की चर्चा पर चौंकिये मत? दुनिया में कोई अर्थव्यवस्था चाहे कितनी समृद्ध क्यों न हो, कानून के राज के बिना नहीं चलती। जहां सरकार के मंत्री अदालतों की निष्क्रियता और दागी साख को अराजकता बढ़ने की वजह बता रहे हो वहां कौन निवेशक अदालतों पर भरोसा करेगा। मुश्किल नहीं है यह समझना जिन इलाकों व राज्यों में न्याय और कानून व्यवस्था ठीक है वहां निवेशक अपने आप चले आते हैं। न्यायिक तंत्र में सुधार इसलिए जरुरी है क्यों कि यह लोकतंत्र के अन्य हिस्सों को जल्दी सुधार सकता है। वक्त का तकाजा है कि इंसाफ करने वाला पूरा तंत्र सुधारा जाए और वह भी बहुत तेजी से। यह सिर्फ लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनिवार्य नहीं है बल्कि आर्थिक प्रगति के लिए भी अपरिहार्य है। .. नया साल अदालतों से बहुत से सवाल करने वाला है।

बस एक पहचान

आखिर इस देश के सभी लोगों को एक पहचान पत्र देने के लिए कितने कर्मचारी और कितना पैसा चाहिए? लाखों बाबुओं की फौज और लाखों करोड़ के बजट वाला यह देश अगर चाहे तो एक या दो साल में पूरी परियोजना लागू नहीं कर सकता? मामला पैसे या संसाधनों का नहीं है, करने की जिद का है। अगर आतंकी हमले न हुए होते तो शायद नागरिक पहचान पत्र को लेकर कोई गंभीर नहीं होता। लेकिन वह संजीदगी भी किस काम की, जो वक्त पर नतीजे न दे सके। सुरक्षा संबंधी चाक चौबंदगी के लिए ही नहीं बल्कि लोगों को एक आधुनिक और वैधानिक पहचान भी चाहिए ताकि वह सरकारी सेवाओं तक और सरकारी सेवायें उन तक पहुंच सकें। यह परियोजना सरकार की इच्छा शक्ति की सबसे बड़ी परीक्षा है। इसमें देरी का नतीजा सिर्फ नुकसान है। दिसंबर में पूछेंगे कि हमें आपको पहचान देने की यह मुहिम फाइलों से कितना बाहर निकली?

नए साल में इस खुरदरे और अटपटे एजेंडे के लिए माफ करियेगा। हम जानते हैं कि यह नूतन वर्ष की रवायती शुभकामनाओं के माफिक नहीं है लेकिन यह हम सबकी उलझनों के माफिक जरुर है जो नए साल की पहली सुबह से ही हमें घेर कर बैठ गई हैं। तो नए साल में सिर्फ इतनी सी ख्वाहिश है कि सुधार अगरचे धीमे हों लेकिन संकटों के इलाज में सरकारें जल्दी दिखायेंगी। यह उम्मीद भी हमने सिर्फ इसलिए की है क्यों कि उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। इसके बाद इंतजार के अलावा और क्या हो akataa है। ..तुम आए हो, न शबे इंतजार गुजरी है , तलाश में है सहर, बार-बार गुजरी है। (फैज)