Monday, March 29, 2010

भरपूर भंडारों से निकली भूख

भारत इस समय पूरी दुनिया को कई बेजोड़ नसीहतें बांट रहा है। हम दुनिया को सिखा रहे हैं कि भरे हुए गोदामों के बावजूद भूख को कैसे संजोया जाता है। कैसे आठ करोड़ परिवारों (योजना आयोग के मुताबिक गरीबी की रेखा से नीचे आने वाले परिवार केवल छह करोड़ हैं) को गरीब होने का सर्टीफिकेट यानी बीपीएल कार्ड तो मिल जाता है मगर अनाज नहीं मिलता। करोड़ों की सब्सिडी लुटाकर ऐसी राशन प्रणाली बरसों-बरस कैसे चलाई जा सकती है, जिसे प्रधानमंत्री निराशाजनक कहते हों और सुप्रीम कोर्ट भ्रष्टाचार वितरण प्रणाली ठहराता हो। दरअसल भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था खामियों की एक ग्रंथि बन गई है। आने वाली हर सरकार इस गांठ में असंगतियों का ताजा एडहेसिव उड़ेल देती है। सस्ता अनाज वितरण प्रणाली यानी टीपीडीएस (लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली), बीपीएल-एपीएल, अंत्योदय आदि कई घाटों पर पिछले बीस साल में कई बार डुबकी लगा चुकी है, लेकिन इसका मैल नहीं धुला। गरीबों की रोटी का जुगाड़, महंगाई पर नियंत्रण और अनाज उत्पादन को प्रोत्साहन... यही तो तीन मकसद थे खाद्य सुरक्षा नीति के? इन लक्ष्यों से नीति बार-बार चूकती रही, लेकिन सरकार की नई सूझ तो देखिए वह इसी प्रणाली के जरिए भूखों को खाने की कानूनी गारंटी दिलाने जा रही है।
संकट सिर्फ अभाव से ही नहीं आदतों से भी आता है। केवल मांग-आपूर्ति का रिश्ता बिगड़ने से ही बाजार महंगाई के पंजे नहीं मारने लगता। कभी-कभी सरकारें भी बाजार को बिगाड़ देती हैं। बाजार में अनाज और अनाज के उत्पादों की कीमतें काटने दौड़ रही हैं, लेकिन इस समय भारतीय खाद्य निगम के भंडारों में 200 लाख टन गेहूं और 240 लाख टन चावल है जो कि खाद्य सुरक्षा के भंडार मानकों का क्रमश: पांच व दोगुना है। सरकार रबी की ताजी खरीद को तैयार है, जबकि पहले खरीदा गया करीब 100 लाख टन अनाज खुले आसमान के नीचे चिडि़यों व चोरों की 'हिफाजत' में है। इस भरे भंडार से महंगाई को कोई डर नहीं लगता, क्योंकि खुले बाजार में सरकारी हस्तक्षेप का कोई मतलब नहीं बचा है और अनाज के बाजार में मांग व आपूर्ति का गणित सटोरियों की उंगलियों पर है। रही बात गरीबों को राशन से सस्ता अनाज बंटने की तो वह न भरपूर भंडार के वक्त मिलता है और न किल्लत के वक्त।
विसंगतियों की खरीद
खाद्य सुरक्षा की बुनियाद ही टेढ़ी हो गई है। समर्थन मूल्य प्रणाली इसलिए बनी थी कि भारी उत्पादन के मौसम में सरकार निर्धारित कीमत पर अनाज खरीदकर एक निश्चित मात्रा में अपने पास रखेगी जो महंगाई के वक्त बाजार में जारी किया जाएगा। इस भंडार से बेहद निर्धनों को सस्ता राशन भी दिया जाएगा। लेकिन यह तो महंगाई समर्थन मूल्य प्रणाली बन गई। इसने अनाज की कीमतों व आपूर्ति का पूरा ढांचा ही बिगाड़ दिया है। सरकारें भंडार में पड़े पिछले अनाज की फिक्र किए बगैर हर साल अनाज खरीदती हैं। अनाज की मांग व आपूर्ति से बेखबर, समर्थन मूल्य बाजार में अनाज की एक न्यूनतम कीमत तय कर देता है। सटोरियों व बाजार को मालूम है कि कुल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा बफर मानकों के तहत सरकार के गोदाम में चला जाएगा, इसलिए अनाज बाजार में हमेशा महंगाई का माहौल रहता है। मौजूदा वर्ष की तरह 1998 व 2002 में भी सरकारी भंडारों में निर्धारित मानकों का कई गुना अनाज जमा था और लाखों टन अनाज बाद में बाहर सड़ा था। अब सरकार अनाज की भारी अनाज खरीद करने वाली है, फिर पिछला भंडार खुले आसमान के नीचे सड़ेगा और सब्सिडी बजट को खोखला करेगी, लेकिन बाजार में अनाज की कीमतें टस से मस नहीं होंगी। रही बात किसानों की तो उन्हें इस समर्थन मूल्य प्रणाली ने कभी आधुनिक नहीं होने दिया। किसान तो बाजार, मांग व आपूर्ति को देखकर नहीं सरकार को देखकर अनाज उगाते हैं। सरकार इस प्रणाली से किसानों की आदत व अपना खजाना बिगाड़ कर बहुत खुश है और उसका आर्थिक सर्वेक्षण पूरे फख्र के साथ इस विशेषता को स्वीकार करता है।
बेअसर बिक्री
सरकार अगर आंख पर पट्टी बांध कर अनाज खरीदती है तो कान पर हाथ रखकर उसे बाजार में बेचती है। हम बात कर रहे हैं अनाज की उस ओपन सेल की जो कि खाद्य सुरक्षा नीति का दूसरा पहलू है। बताया जाता है कि सरकार उपभोक्ताओं को महंगाई के दांतों से बचाने के मकसद से बाजार में अनाज रिलीज करती है। आप जानना चाहेंगे की महंगाई रोकने के लिए अनाज किसे बेचा जा जाता है? आटा बनाने वाली मिलों को। हाल में सरकार ने करीब 1240 रुपये क्विंटल की दर अनाज बेचा, मगर आटा वही बीस रुपये किलो पर मिल रहा है। अनाज दरअसल छोटी मात्रा में खुदरा व्यापारियों या सीधे उपभोक्ताओं को मिलना चाहिए, मगर मिलता है बड़े व्यापारियों को। उस पर तुर्रा यह कि ओपन सेल अक्सर बाजार की कीमत पर और कभी-कभी तो उससे ऊपर कीमत पर होती है, इसलिए व्यापारी भी सरकार का अनाज नहीं खरीदते। निष्कर्ष यह कि अनाज की सरकारी खरीद बाजार तो बिगाड़ देती है, मगर अनाज की सरकारी बिक्री से महंगाई का कुछ नहीं बिगड़ता।
फिर भी गरीब भूखा
अनाज की इतनी भारी खरीद, ऊंची लागत के साथ भंडारों का इंतजाम और राशन प्रणाली का विशाल तंत्र अगर देश के गरीबों को दो जून की सस्ती रोटी दे रहे होते तो इस महंगी कवायद को झेला जा सकता था। लेकिन इस प्रणाली से सिर्फ बर्बादी व भ्रष्टाचार को नया अर्थ मिला है। हकीकत यह है कि देश में गरीबों की तादाद से ज्यादा बीपीएल कार्ड धारक हैं और अनाज फिर भी नहीं बंटता। खाद्य सुरक्षा कानून बना रही सरकार भी यह मान रही है कि देश के जिन इलाकों में राशन प्रणाली होनी चाहिए वहां नहीं है और जहां है, वहां उपभोक्ताओं को इसकी जरूरत नहीं है। ऊपर से गरीब का कोई चेहरा या पहचान नहीं है। सरकार की एक दर्जन स्कीमें और आधा दर्जन आकलन गरीबों की तादाद अलग-अलग बताते हैं। इसलिए गरीबों की गिनती से लेकर आवंटन तक हर जगह खेल है। नतीजा यह कि एक दशक में खाद्य सब्सिडी 9,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 47,000 करोड़ रुपये हो गई है, लेकिन राशन प्रणाली बिखर कर ध्वस्त हो गई।
सरकार इसी ध्वस्त प्रणाली पर खाद्य सुरक्षा की गारंटी का कानून लादना चाहती है। इसमें गरीबों को सस्ता अनाज मिलना उनका कानूनी अधिकार बनाया जाएगा। यह बात अलग है कि गरीबों तक अनाज पहुंचाने की कोई व्यवस्था तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक कि उनकी सही पहचान व गिनती न हो। हो सकता है सरकार खाद्य कूपन देने या सीधी सब्सिडी की तरफ जाए, लेकिन उस प्रणाली में भी पहचान और मानीटरिंग का एक तंत्र तो चाहिए ही। ऐसा तंत्र अगर होता तो मौजूदा प्रणाली भी चल सकती थी। रही बात समर्थन मूल्य व बाजार में हस्तक्षेप की तो इन नीतियों के मोर्चे पर नीम अंधेरा है। दरअसल जब अनाज के भरपूर भंडार और दुनिया के सबसे बडे़ राशन वितरण तंत्र के जरिए गरीब के पेट में रोटी नहीं डाली जा सकी और महंगाई नहीं थमी तो खाद्य सुरक्षा कानून से बहुत ज्यादा उम्मीद बेमानी है। यह बात अलग है कि भूख से निजात की कानूनी गारंटी की बहस खासी दिलचस्प है।...
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे-बहस यह मुद्दआ।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)

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