Monday, August 30, 2010

जागते रहो!

अर्थार्थ
नजर उतारिए सरकार की, बड़ी हिम्मत दिखाई हुजूर ने, वरना तो लोकतंत्र में सरकारें बुनियादी रूप से दब्बू ही होती हैं। बात अगर बड़ी निजी कंपनियों की हो तो फैसले नहीं, समझौते होते हैं। वेदांत के मामले जैसी तुर्शी और तेजी तो बिरले ही दिखती है। नाना प्रकार के दबावों को नकारते हुए सरकार ने जिस तेजी से वेदांत को कानूनी वेदांत पढ़ाया, वह कम से कम भारत के लिए तो नया और अनोखा ही है और इस हिम्मत पर सरकार को विकास और विदेशी निवेश के वकीलों से जो तारीफ मिली, वह और भी महत्वपूर्ण है। इसे भारत में ऐसे सुधारों की शुरुआत मानिए, जिसका वक्त अब आ गया था। जरा खुद से पूछिए कि अब से एक दशक पहले क्या आप भारत में सरकारों से इस तरह की जांबाजी की उम्मीद कर सकते थे। तब तो सरकारें विदेशी निवेश की चिंता में सांस भी आहिस्ता से लेती थीं। वेदांत को सबक सरकारी तंत्र के भीतर सोच बदलने का सुबूत है और यह बदलाव सिर्फ वक्त के साथ नहीं हुआ है, बल्कि इसके पीछे जन अधिकारों के नए पहरुए भी हैं और, माफ कीजिए, दंतेवाड़ा व पलामू भी।
वेदांत से शुरुआत
यूनियन कार्बाइड से लेकर वेदांत तक कंपनियों के कानून से बड़ा होने की ढेरों नजीरें हमारे इर्दगिर्द बिखरी हैं। इसलिए वेदांत पर सख्ती भारत के कानूनी मिजाज से कुछ फर्क नजर आती है। उड़ीसा सरकार तो आज भी मानने को तैयार नहीं है कि नियामगिरी में बॉक्साइट खोद रही वेदांत ने वन अधिकार, वन संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण और आदिवासी अधिकारों के कानूनों को अपनी खदान में दफन कर दिया। अलुमिना रिफाइनरी की क्षमता (एक मिलियन टन से छह मिलियन टन) हवा में नहीं बढ़ जाती, जैसा कि लांजीगढ़ में वेदांत ने बगैर किसी मंजूरी के कर लिया। यह कैसे हो सकता है कि सरकारों को 26 हेक्टेयर वन भूमि पर अवैध कब्जा, पर्यावरण की बर्बादी या आदिवासियों के हकों पर हमला न दिखे। खनन कंपनियां तो वैसे भी अपनी मनमानी के लिए पूरी दुनिया
 में कुख्यात हैं। अमेरिका में इडाहो में बंकर हिल माइनिंग के भयानक प्रदूषण से लेकर ऑस्ट्रेलिया (खनन से पशु पक्षियों की प्रजातियां खतरे में), अफ्रीका, ब्राजील, वेनेजुएला (14 लाख हेक्टेयर जमीन पर खनन कंपनी का अवैध कब्जा) तक यह उद्योग कानून की हदें लांघने और पर्यावरण को नेस्तनाबूद कर देने का महारथी है। अलुमिना और आयरन ओर पर्यावरण को बेहद खतरनाक एसिड माइन ड्रैनेज यानी यलोब्वॉय का तोहफा देते हैं जो सीधे भूजल के स्त्रोत में भिद जाता है। पूरी दुनिया में खनन उद्योग भ्रष्टाचार की लंबी कथाओं का महाकोश है। भारत भी खनन कंपनियों से जुड़े विवादों का गढ़ बन रहा है और अदालतों को सक्रिय होना पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने लाफार्ज को मेघालय की खासी पहाडि़यों में चूना पत्थर खोदने से रोका। छत्तीसगढ़ के तमनार में जिंदल का थर्मल बिजलीघर विवादों में है। पोस्को, कोंकण तट, ओबलापुरम, उड़ीसा की सुकिंडा घाटी में क्रोमाइट खनन जैसे कई मामले अदालतों से लेकर सरकार की जांच के तहत हैं। इस पृष्ठभूमि में पहली बार कानून कंपनी से बड़ा नजर आया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वेदांत से हुई शुरुआत दूर तक जाएगी।
नए पहरुए
इस शुरुआत के दूर तक जाने की पता नहीं कितनी गारंटी है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में एक नए तरह की सजगता का प्रमाण जरूर मिल रहा है। वेदांत, पोस्को, लाफार्ज जैसे मामले राजनीति या मीडिया के मंच से नहीं बल्कि स्वयंसेवी संगठनों की सक्रियता से निकले हैं। भारत सहित पूरी दुनिया की सरकारें और कंपनियां अब एक नई निगहबानी में हैं। यह पहरेदारी कई मामलों में बड़े काम की साबित हुई है। विकास की परिभाषा में अब सिर्फ अंधाधुंध निवेश ही केंद्रीय नहीं है, बल्कि कुछ नए तरह की बहसें जन्म ले रही हैं। भारत में उदारीकरण के बाद अपनाया गया विकास का मॉडल, आदिवासियों के हक और पर्यावरण की चिंताओं को कोई भाव नहीं देता था, मगर अब दंतेवाड़ा, मलकानगिरि, पलामू, गढ़चिरौली की रोशनी में सरकारें कानूनों की नई पैमाइश कर रही हैं। एक दशक पहले यह सोचना भी मुश्किल था कि खनन कंपनियों को अपना 26 फीसदी मुनाफा स्थानीय समुदाय से बांटने की शर्त में बांधने की बात होगी या अवैध खनन रोकने के लिए ताकतवर खनन नियामक बनेंगे। यकीनन अच्छे-बुरे तजुर्बो ने बहुत कुछ बदल दिया है, सरकार से लेकर उद्योंगों तक अब हर जगह आखें कुछ दूसरे सच भी देखने लगी हैं।
सोए तो खोए
तीसरी दुनिया खनिजों का नया स्त्रोत बन रही है। विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2000 के बाद से दुनिया में आयरन ओर, निकल, एल्युमिनियम और तांबे का अधिकांश उत्पादन तीसरी दुनिया से आया है। ये सभी खनिज प्रदूषण के चैंपियन हैं। ब्राजील लोहे, चीन एल्युमिनियम व सोने, चिली तांबे, पेरू चांदी और दक्षिण अफ्रीका प्लेटिनम के दुनिया में सबसे बड़े नए उत्पादक हैं। दुनिया की शीर्ष 30 खनन कंपनियों में 11 विकासशील देशों की हैं। इनके अलावा वेदांत, एंटोफेगास्ता, कजाखमिक जैसी कंपनियां भी हैं, जो विकसित बाजारों में सूचीबद्ध हैं, मगर उनका पूरा कारोबार तीसरी दुनिया में होता है। विकास की भूखी तीसरी दुनिया में ये कंपनियां तेजी से उभरी हैं, जहां इन्हें संसाधनों पर आसानी से हक मिल जाता है। मांग व आपूर्ति का गणित भी इनके साथ है, क्योंकि नई उत्पादन क्षमताएं इन्हीं देशों (मसलन चीन) में बन रही हैं। इसलिए तीसरी दुनिया में खनन सबसे तेजी से उभरता उद्योग है। कानून कमजोर हैं और भ्रष्ट सत्ता तंत्र इनका काम आसान कर देता है। विकास को लेकर यह नए किस्म की नसीहतों का दौर है।
आर्थिक प्रगति की तस्वीरों में जन अधिकारों के चेहरे तलाशे जाने लगे हैं। पर्यावरण के हरे रंग मुखर हो रहे हैं। काफी कुछ गंवाने के बाद भारत में भी अब नींद टूटी है। वेदांत से हुई शुरुआत प्रमाण है कि खनन क्षेत्र में कानून के राज की बहस को जड़ें मिल गई हैं। इसलिए दुआ कीजिए कि अब आंख न लगे और देश का कानून इसे तोड़ने वालों के साथ नहीं बल्कि टूटने वालों के साथ खड़ा नजर आए। सरकारों को यह इलहाम लगातार होते रहना चाहिए कि विकास को सिर्फ जीडीपी के आंकड़े से नहीं, बल्कि जंगल, जमीन और पहाड़ की हालत से भी नापा जाता है और कानून को सिर्फ निवेश की ही नहीं, बल्कि नियामगिरी और नक्सल की फिक्र भी करनी है। ..जागते रहो!
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