Monday, October 18, 2010

कमजोरी की ताकत

अर्थार्थ
कमजोरी में भी बिंदास ताकत होती है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार जल्द ही कमजोर मुद्राओं (करेंसी) की करामात देखेगा जब मुद्राओं के अवमूल्यन से निकले सस्ते निर्यात लेकर दुनिया के देश एक दूसरे के बाजारों पर चढ़ दौड़ेंगे। मंदी ने सारा संयम तोड़ दिया है, करेंसी को कमजोर करने की होड़ में शेयर बाजारों के चहेते विदेशी निवेशक पराए होने लगे हैं। उनके डॉलर अब उल्टा असर (विदेशी पूंजी की भारी आवक मतलब देशी मुद्रा को ज्यादा ताकत) कर रहे हैं। उदार विश्व व्यापार की कसमें टूटने लगी हैं। अपने बाजारों के दरवाजे बंद रखने में फायदे देख रहा विश्व मुक्त बाजार का जुलूस फिलहाल रोक देना चाहता है। दुनिया में ट्रेड या करेंसी वार का मैदान तैयार है। एक ऐसी जंग जिसमें पराए बाजार को कब्जाने और अपने को बचाने के लिए सब कुछ जायज है। इसे रोकने की एक बड़ी कोशिश (मुद्राकोष-विश्व बैंक की ताजा बैठक) हाल में ही औंधे मुंह गिरी है। इसलिए अब दुनिया के देशों ने अपने-अपने पैंतरों का रिहर्सल शुरू कर दिया है। इस जंग में पैंतरे ही अलग हो सकते हैं, लड़ाई की रणनीति तो एक ही है- जिसकी मुद्रा जितनी कमजोर वह उतना बड़ा सीनाजोर।

मांग रे मांग
भारत व चीन जैसी किस्मत सबकी कहां? इनके यहां तेज आर्थिक वृद्धि की रोशनी, लेकिन दुनिया के बड़ों के यहां गहरा अंधेरा है। कई बड़ी अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह पेंदी में बैठ गई हैं। अमेरिका, जापान, जर्मनी, फ्रांस, इटली, यूके में इस साल की दूसरी तिमाही इतनी खराब रही है कि खतरे के ढोल बजने लगे हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं दरअसल पिछले दस साल के औसत रुख से ज्यादा कमजोर हैं। अमेरिका और यूरोजोन में उत्पादन ठप है और मांग घटने के कारण मुद्रास्फीति एक
 फीसदी पर है। जापान का हाल भी ऐसा ही है। दुनिया की इन दिग्गज अर्थव्यवस्थाओं में डिफ्लेशन (अपस्फीति- न मांग, न कीमतों में कोई वृद्धि) की स्थिति है। इन्हें मांग की ऑक्सीजन चाहिए जो निर्यात से ही मिल सकती है।
जीत की मुद्रा
अमेरिका व यूरोप के लिए निर्यात बढ़ाने का मंत्र साधना अब जरा मुश्किल है, क्योंकि चीन सहित एशियाई देश अवमूल्यन के पैंतरे को भली प्रकार साध चुके हैं और बाजारों पर काबिज हैं। चीन ने कमजोर मुद्रा व सस्ते उत्पादों के सहारे दुनिया के बाजार का नक्शा बदल दिया। यूरोप व अमेरिका आज इसी राह पर बढऩे व मांग के लिए भारत, ब्राजील, रूस, दक्षिण अफ्रीका जैसे उभरते बाजारों की तरफ देख रहे हैं। मगर इन देशों के बाजार घोर प्रतिस्पर्धी हैं। अच्छी विकास दर और विदेशी निवेश संस्थाओं की कृपा से इनके पास खूब डॉलर हैं और इनकी मुद्राएं मजबूत हैं यानी वहां आयात पहले से ही सस्ता है। चीन इनके सस्ते बाजार का चैंपियन है। अमेरिका व यूरोप को इस बाजार में टिकने के लिए अपने उत्पादों की कीमत बेतरह घटानी होगी, जो मुद्राओं के अवमूल्यन के बिना नामुमकिन है, क्योंकि लागत तो घटने से रही। ...मजबूरी का नाम मुद्रा अवमूल्यन।
सब बनाम सब
करीब छह साल बाद जब बैंक ऑफ जापान हाल ही में बाजार में उतरा और येन को मजबूत होने से रोकने की कोशिश शुरू की तो दुनिया के सामने यह साफ हो गया कि अब बड़ों ने उस मैदान में ताल ठोंक दी है, जिसे पहले चीन बनाम अमेरिका माना जाता था। करेंसी वार में चीन अकेला नहीं है, यूरोप, अमेरिका, कनाडा, ब्राजील, कोरिया सभी अपनी-अपनी तरह से अपनी मुद्राओं को कमजोर कर निर्यात बाजार में ताकत तलाश रहे हैं। यूरोप के देश चीन की राह पर चलकर अमेरिका को छका रहे हैं। यही वजह है कि यूरोप को कमजोर यूरो से कोई दिक्कत नहीं है। इसी के सहारे यूरोपीय देश चीन को टक्कर दे पा रहे हैं और पिछले साल कठिन समय में कमजोर यूरो जर्मनी के लिए शानदार निर्यात का वरदान लेकर आया। इसलिए यूरोप चीन के खिलाफ अमेरिकी अभियान के साथ आवाज नहीं मिला रहा है। वैसे अमेरिका भी इसी नाव में सवार है। ब्राजील के बाजार में जगह बनाने के लिए डॉलर का अवमूल्यन किया गया है। ब्राजील ने बाकायदा इसकी शिकायत की है। तो कनाडा अपनी मुद्रा को सस्ता कर अमेरिकी बाजार में बड़ा हिस्सा पाने की जुगत में है। इधर ब्राजील, कोरिया, थाइलैंड जैसे उभरते बाजारों के पास एक दूसरा पैंतरा है वह भी अपनी मुद्रा को एक सीमा से ज्यादा मजबूत होने देकर निर्यात की होड़ पिछडऩा नहीं चाहते। इसलिए उन्होंने विदेशी निवेश संस्थाओं से आ रहे निवेश को निशाना बनाया है। शेयर बाजारों में विदेशी डॉलरों की आवक इन देशों की मुद्राओं को मजबूत कर रही है, इसलिए ब्राजील ने पूंजी की आवक पर जबर्दस्त टैक्स लगा दिया। भारत व थाइलैंड भी ऐसा कर सकते हैं।
विश्व को 25 साल पहले का वक्त याद है, जब यूरोप व अमेरिका ने मिलकर डॉलर का अवमूल्यन किया था। 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन का दस फीसदी आयात सरचार्ज अभी भी चर्चा में रहता है। राष्ट्रपति जेम्स हूवर के दौर का स्मूट हाउले एक्ट और भीषण ट्रेड वार 1930 की महामंदी की यादों का मजबूत हिस्सा है, क्योंकि इस जंग में दुनिया के देशों के बीच अपने बाजार बंद करने की होड़ चल निकली थी और विश्व व्यापार करीब दो तिहाई घट गया था। मगर इतने तजुर्बों के बाद भी एक बार फिर तीर तरकश सज रहे हैं। तभी तो मुद्राकोष व विश्व बैंक की पंचायत (ताजा वॉशिंगटन बैठक) बगैर किसी नतीजे के उठ गई। कहना मुश्किल है कि यह जंग सिर्फ मुद्राओं की प्रतिस्पर्धात्मक कमजोरी या अवमूल्यन तक ही सीमित रहेगी या अमेरिका चिढ़कर चीन से आयात पर पाबंदी ठोंक देगा। अथवा दुनिया के देश आयात प्रतिबंधों के खोल में घुस जाएंगे। अलबत्ता यह बात तय है कि कमजोर मुद्राओं की यह ताकत पारदर्शी व मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार की कोशिशों का तिया पांचा कर देगी। ...विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ के लिए, इतिहास में एक सम्मानजनक स्थान की तलाश शुरू कर देने में अब कोई हर्ज नहीं है।
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