Monday, November 15, 2010

संकटों के नए संस्करण

अर्थार्थ
दुनिया की आर्थिक फैक्ट्रियों से संकटों के नए संस्करण फिर निकलने लगे हैं। ग्रीस के साथ ही यूरोप की कष्ट कथा का समापन नहीं हुआ था, अब आयरलैंड दीवालिया होने को बेताब है और इधर मदद करने वाले यूरोपीय तंत्र का धैर्य चुक रहा है। बैंकिंग संकट से दुनिया को निकालने के लिए हाथ मिलाने वाले विश्व के 20 दिग्गज संरक्षणवाद को लेकर एक दूसरे पर गुर्राने लगे हैं यानी कि बीस बड़ों की (जी-20) बैठक असफल होने के बाद करेंसी वार और पूंजी की आवाजाही पर पाबंदियों का नगाड़ा बज उठा है। सिर्फ यही नहीं, मंदी में दुनिया की भारी गाड़ी खींच रहे भारत, चीन, ब्राजील आदि का दम भी फूल रहा है। यहां वृद्धि की रफ्तार थमने लगी है और महंगाई के कांटे पैने हो रहे हैं। दुनिया के लिए यह समस्याओं की नई खेप है और चुनौतियों का यह नया दौर पिछले बुरे दिनों से ज्यादा जटिल, जिद्दी और बहुआयामी दिख रहा है। समाधानों का घोर टोटा तो पहले से ही है, तभी तो पिछले दो साल की मुश्किलों का कचरा आज भी दुनिया के आंगन में जमा है।

ट्रेजडी पार्ट टू
यूरोप के पिग्स (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस, स्पेन) में दूसरा यानी आयरलैंड ढहने के करीब है। 1990 के दशक की तेज विकास दर वाला सेल्टिक टाइगर बूढ़ा होकर बैठ गया है और यूरोपीय समुदाय से लेकर आईएमएफ तक सब जगह उद्धार की गुहार लगा रहा है। डबलिन, दुबई जैसे रास्ते से गुजरते हुए यहां तक पहुंचा है। जमीन जायदाद के धंधे को कर्ज देकर सबसे बड़े आयरिश बैंक एंग्लो आयरिश और एलाइड आयरिश तबाह हो गए, जिसे बजट से 50 बिलियन यूरो की मदद देकर बचाया जा रहा है। आयरलैंड का घाटा जीडीपी का 32 फीसदी हो रहा है, सरकार के पास पैसा नहीं है और बाजार में साख रद्दी हो गई है। इसलिए बांडों को बेचने का इरादा छोड़ दिया गया है। आयरलैंड के लिए बैंकों को खड़ा करने की लागत 80 बिलियन यूरो तक जा सकती है। करदाताओं को निचोड़कर (भारी टैक्स और खर्च कटौती वाला बजट) यह लागत नहीं निकाली जा सकती। इसलिए ग्रीस की तर्ज पर यूरोपीय समुदाय की सहायता संस्था (यूरोपियन फाइनेंशियल स्टेबिलिटी फैसिलिटी) या आईएमएफ से मदद मिलने की उम्मीद है। लेकिन यह मदद उसे दीवालिया देशों की कतार में पहुंचा देगी। यूरोपीय समुदाय की दिक्कत यह है कि
बांड बाजार में अपनी टूटी साख को सहलाता हुए पुर्तगाल भी लाइन में खड़ा है। घाटे, बैंकों के बुरे हाल और मंदी के कारण पुर्तगाल भी दिसंबर तक सहायता के लिए चिल्ला पड़ेगा। सहायता पैकेजों के मुखिया जर्मनी को मालूम है कि यह धर्मादा लंबे समय तक नहीं चलना है, इसलिए निवेशकों को कुछ कर्ज माफ करने (हेयरकट) की सलाह मिल रही है। यूरोपीय समुदाय को मालूम है कि वह एक ग्रीस तो झेल सकता है, लेकिन पूरे पिग्स को नहीं बचा सकता है। यूरोप में ग्रीक ट्रेजडी का नया शो शुरू हो रहा है।
जंग के नगाड़े
करेंसी युद्ध की दहलीज पर खड़ी दुनिया को अब अपना रास्ता खुद चुनना होगा। दुनिया के 20 प्रमुख पंच इसका कोई इलाज नहीं दे सके, उलटे आपस में उलझ गए हैं। मंदी, बैंकिंग संकट और कर्ज संकट के बीच मुद्राओं को सस्ता करने की होड़ घाव में खौलते तेल की मानिंद होगा। अमेरिका ने ओबामा के सियोल पहुंचने से पहले ही 600 बिलियन डॉलर बाजार में झोंककर (क्यू ई-2) डॉलर को कमजोर करने के संकेत दे दिए थे। इधर चीन अपनी सबसे बड़ी ताकत (कमजोर युआन) से समझौते को राजी नहीं है। इन दो बड़ों की लड़ाई में बहुतों का नुकसान होना है। एशिया और लैटिन अमेरिका की उभरती अर्थव्यवस्थाएं अब अपने यहां पूंजी प्रवाह रोकने यानी कैपिटल कंट्रोल की रणनीति अपनाएंगी। ताइवान, दक्षिण कोरिया इस दिशा में बढ़ चले हैं, जबकि अमेरिका व यूरोप अपनी मुद्राओं को कमजोरकर पलटवार करेंगे। यह स्थिति जिंसों की कीमत में तेजी सहित तमाम तरह की विसंगतियों को जन्म देगी और बहुत संभव है कि कई छोटे देशों की मुद्राएं इस जंग में खेत रहें, लेकिन फिलहाल कोई बड़ी उम्मीद नहीं दिखती। अगले एक साल तक दुनिया के देश अब एक दूसरे को संरंक्षणवाद के पंजे मारेंगे।
उम्मीद वालों की उलझनयह सबसे ज्यादा परेशान करने वाला तथ्य है कि दुनिया को उम्मीद की रोशनी दिखा रही उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी आर्थिक सुस्ती घर करने लगी है। भारत में लगातार दूसरे महीने औद्योगिक उत्पादन गोता खा गया। चीन में भी गिरावट शुरू हो गई। ब्राजील, चीन, भारत, रूस सहित सभी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में महंगाई सर उठा रही है, जो गिरते डॉलर और महंगे होते कच्चे माल व ईंधन के कारण बढ़ती जाएगी। इनके लिए दुनिया के बाजार में मांग नहीं है, जबकि महंगाई से घरेलू मांग भी सिकुड़ रही है। इन अर्थव्यवस्थाओं ने मंदी के दौर में दुनिया को बड़ा सहारा दिया। इनके बाजारों में वित्तीय निवेशकों ने आसरा लिया है और दुनिया में उत्पादन को इनकी मांग से मदद मिली है, लेकिन दुनियावी मंदी के सामने आखिर यह सूरमा कब तक लड़ते? यदि मंदी के कीड़े ने इन्हें भी काट लिया तो मुश्किलें बहुआयामी हो जाएंगी।
विश्व के पास संकटों का स्टॉक पहले से ही काफी था अर्थात उसे किसी नए संकट या पुरानी समस्या के नए संस्करण की जरूरत नहीं थी, क्योंकि पहले के ही घावों को भरते हुए पांच साल निकल जाएंगे। मगर वक्त ने घायल आर्थिक दुनिया को आयरलैंड, करेंसी युद्ध और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सुस्ती के तीर मार दिए हैं। क्या दुनिया एक बड़ी मंदी की तरफ खिसक रही है!!! महामंदी ??? दुआ कीजिए कि यह आशंका कभी भी सच न हो।
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