Monday, November 29, 2010

नीतीश होने की मजबूरी

अर्थार्थ
वोटर रीझता है मगर सड़क से नहीं (जातीय) समीकरण से, विकास से नहीं (वोटों का) विभाजन से और काम से नहीं (व्यक्तित्व के) करिश्मे से! एक पराजित मुख्यमंत्री ने कुछ साल पहले ऐसा ही कहा था। यह हारे को हरिनाम था ? नहीं ! यह भारत में विकास की राजनीति के असफल होने का ईमानदार ऐलान था। नेता जी बज़ा फरमा रहे थे,भारत की सियासत तो जाति प्रमाण पत्रों की दीवानी है। विकास के सहारे बदलते आय (कमाई)प्रमाण पत्रों की होड़ उसे नहीं सुहाती। चुनावी गणित विकास के आंकड़ो से नहीं सधती, इसलिए ठोस आर्थिक विकास से सिंझाई गई राजनीति को हमने कभी चखा ही नहीं। भारत में सियासत अपनी लीक चलती है और विकास अपनी गति से ढुलकता है। सत्ता में पहुंच कर आर्थिक प्रगति दिखाने वालों का माल भी वोट की मंडी में कायदे से नहीं बिकता तो फिर विकास की राजनीति का जोखिम कौन ले? इसलिए आर्थिक विकास दलों के बुनियादी राजनीतिक दर्शन की परिधि पर टंगा रहता है। मगर इस बार कुछ हैरतअंगेज हुआ। जनता नेताओं से आगे निकल गई। पुरानी सियासत के अंधेरे में सर फोड़ती पार्टियों को, बिहार का गरीब गुरबा वोटर धकेल कर नई रोशनी में ले आया है। बिहार के नतीजे राजनीति को उसका बुनियादी दर्शन बदलने पर मजबूर कर रहे हैं। चौंकिये मत! राजनीति हमेशा मजबूरी में ही बदली है।
प्रयोग जारी है
भारत का प्रौढ़ लोकतंत्र,उदार अर्थव्यवस्था से रिश्ते को कई तरह से परख रहा है। पूरा देश राजनीतिक आर्थिक मॉडलों की विचित्र प्रयोगशाला है। राजनीतिक स्थिरता विकास की गारंटी है लेकिन बंगाल का वोटर अब विकास के लिए ही स्थिरता से निजात चाहता है। दूसरी तरफ लंबी राजनीतिक स्थिरता के सहारे राजस्थान चमक जाता है। गठजोड़ की सरकारें पंजाब में कोई उम्मीाद नहीं जगातीं लेकिन बिहार में वोटरों को भा जाती हैं। बड़े राज्यों में पहिया धीरे घूमता है मगर छोटे राज्य विकास का रॉकेट बनते भी नजर नहीं
आते। अकूत प्राकृतिक संपदा वाला झारखंड गिरोहबंद हिंसा और अस्थिरता की मिसाल है लेकिन छत्तीसगढ़ हिंसा के बावजूद स्थिरता की। बहुमत के जनादेश पर सवार गुजरात चमक जाता है मगर उत्तर प्रदेश को
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इन सब उलटबांसियों के बीच जातिवादी राजनीति के रोम (बिहार) ने विकास की सियासत का राजतिलक कर देश को एक नया मॉडल सौंप दिया है। इसके बाद राजनेताओं को तो असमंजस में फंसना ही है। पता नहीं कहां कौन सा मॉडल चलेगा? वोटरों के स्वीकार व इंकार भी तो गजब के रहस्यमय हो चले हैं। सत्ता विरोधी जनादेश के लिए कुख्याबत भारतीय वोटर अब कुछ ठहर कर पुरानों को दोबारा आजमाने लगा है, मानो काम करने के लिए कुछ और मौका दे रहा हो। दरअसल चाहते न चाहते, हर राजनीतिक आर्थिक मॉडल में विकास की उम्मीद सियासत के साथ चिपक ही गई है यानी कि नेताओं को इस नई राजनीति के अखाड़े में उतरना ही पड़ेगा।
जोखिम भारी है
सियासत तो प्रतिस्पर्धी से अलग दिखने की कला है मगर आर्थिक विकास तो सबको सबकी क्षमता के मुताबिक बराबर कर देता है। विकास निखालिस निर्मम, रुखे और खरे पैमानों में नपता है। एक टटपूंजिया सी सड़क, कुछ दर्जन स्कूल, कुछ घंटे की बिजली वर्षों के राजनीतिक दर्शन और समीकरणबाजी को ऐ वेईं उड़ा देती है। आर्थिक विकास का कोई चुनाव चिह्न नहीं होता, इसलिए विकास की रोशनी सबकी साझी होती है। जबकि सियासत तो कुछ को उपकृत और कुछ को उपेक्षित करने का खेल है। विकास का मतलब है नीति बनाने से लेकर अंतिम छोर तक फायदे पहुंचाने की एक लंबी व कष्टकप्रद कवायद और उसमें भी ढेरों अड़ंगे। सियासत जब जातिगत अस्मिता, धार्मिक आग्रह और व्यक्तित्वों की चमक जैसे अमूर्त मुद्दों से चुटकियों में सध जाती है तो फिर कौन ले इतना जोखिम और क्यों करे इतनी मेहनत ?... यहां तो उम्मीद की चपेट में आने का खतरा भी है। दरअसल उम्मीद विकास का दूसरा नाम है। कच्चीे सड़क से पक्की सड़क, से हाई वे से फ्लाई ओवर ...बात ही खत्म नहीं होती। अपेक्षाओं के पैमाने ऊंचे और ऊंचे होते जाते हैं। राजनीति को जाति का अतीत कुरेदने की लत लगी हुई है जबकि विकास इससे ठीक उलट उम्मीक भरे भविष्यद की बात करता है। दरअसल भारतीय राजनीति उम्मींद से खेलने में डरती है, क्यों कि इसमें चूकने का बड़ा खतरा है। मगर नेता अब मजबूर हैं जनता उन्हें,उनके समीकरणों की सुविधाजनक छांव से निकाल अपनी अपेक्षाओं की खुली सड़क पर खड़ा करने लगी है।
उम्मीदों की सवारी है
बिहार में पिछड़ेपन के विशाल काले फलक पर विकास के कुछ सफेद बिंदुओं को देखकर वोटर बिछ गया है मगर यही सबसे बड़ा जोखिम भी है कि यह पूरा फलक विकास से रंगीन कैसे होगा? आर्थिक विकास प्रतीकों में नहीं ठोस परिणामों में बात करता है इसलिए अगला हिसाब किताब वास्तविकता की जमीन पर होगा। बिहार विकास की एक अति विशिष्ट चुनौती है। इसे अपना मॉडल तत्काल चुनना होगा क्यों कि इसके औद्योगिक अर्थव्यिवस्था बनने की गुंजायश सीमित है। खेती इतनी बड़ी आबादी को खींच नहीं सकती। आर्थिक संसाधनों का टोटा है और सरकार के राजस्व की गठरी फिलहाल खाली रहनी है। नीतीश को अपने अगले सफर में एक दोस्त केंद्रीय सरकार की कमी बहुत खलेगी। बिहार जैसे राज्यों के लिए यह दोस्ती बहुत जरुरी है। दूसरी पारी में राजनीतिक संयम की पिच भी टूटती है। सत्ता का लाभ लेने की कोशिश, भ्रष्टाचार व घोटाले बहुमत की सरकारों का चरित्र हैं, बिहार उदय में इन दागों का बड़ा खतरा है, क्यों कि बिहार के अतीत में यह बीमारियां सक्रिय रही हैं। सबसे अहम बात यह कि विकास की सियासत का स्वाद लेने के बाद वोटर का इंकार बहुत मुखर व निर्दयी हो जाता है। बिहार में विकास उम्मीदें अब बढ़ेंगी नहीं बल्कि खौलेंगी और उबलेंगी। बिहार का वोटर अब हथेली पर पेड़ उगाना चाहेगा और नीतीश को ऐसा करते हुए दिखना होगा।
  नीतीश भी उसी स्कूल के छात्र हैं, जहां से भारत की पारंपरिक जातिवादी राजनीति में मास्टर डिग्री मिलती है। नीतीश यूं ही नहीं बदले। पुरानी सियासत के सामने विकास की राजनीति रखने के अलावा उनके सामने कोई दूसरी राह नहीं थी। अगर वह पुराना खोल नहीं तोड़ते तो वोटर उन्हें भी किसी कोने में टिका देता। क्यों कि आम लोग अब नेताओं को विकास के लिए झगड़ते देखना चाहते हैं। मजबूरी में ही सही, हमारे नेताओं यह समझ में तो आया कि नए दौर का वोटर अपनी आय का प्रमाण पत्र देखकर रीझता है जाति की सार्टीफिकेट पढ़ कर नहीं। इसलिए तत्काल दुआ कीजिये कि बिहार की यह वोटर वाणी पूरे मुल्क में गूंज जाए और नीतीश होना मजबूरी नहीं बल्कि भारत की राजनीति का फैशन बन जाए। .... सच मानिये बड़ा मजा आएगा।

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3 comments:

ashish said...

आज सुबह आपका ये आलेख जागरण में पढ़ा था . सच में अगर नितीश होना हमारे राज नेताओ की मजबूरी बन जाए तो देश की किस्मत संवर जाए . उम्दा आलेख .

anshuman tiwari said...

आभारी हूं आशीष जी।

atul said...

aalekh bahut pasand aaya...
Atul kuishwaha mp..