Monday, December 13, 2010

साख नहीं तो माफ करो!

अर्थार्थ
साख नहीं तो माफ करो! .. दुनिया का बांड बाजार अर्से बाद जब इस दो टूक जबान में बोला तो लंदन, मैड्रिड, रोम, ब्रसेल्स और न्यूयॉर्क, फ्रैंकफर्ट, बर्लिन और डबलिन में नियामकों व केंद्रीय बैंकों की रीढ़ कांप गई। दरअसल जिसका डर था वही बात हो गई है। वित्तीय बाजारों के सबसे निर्मम बांड निवेशकों ने यूरोप व अमेरिका की सरकारों की साख पर अपने दांत गड़ा दिए हैं। घाटे से घिरी अर्थव्यवस्थाओं से निवेशक कोई सहानुभूति दिखाने को तैयार नहीं हैं। ग्रीस व आयरलैंड को घुटनों के बल बिठाकर यूरोपीय समुदाय से भीख मंगवाने के बाद ये निवेशक अब स्पेन की तरफ बढ़ रहे हैं। स्पेन, यूरोप की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, क्या आयरलैंड व ग्रीस की राह पर जाएगा? सोच कर ही यूरोप की सांस फूल रही है। लेकिन यह बाजार तो स्पेन के डेथ वारंट पर दस्तखत करने लगा है, क्योंकि इस क्रूर बाजार में बिकने वाली साख यूरोप की सरकारों के पास नहीं है और तो और, इस निष्ठुर बाजार ने अमेरिका की साख को भी खरोंचना शुरू कर दिया है।
खतरे की खलबली
पूरी दुनिया में डर की ताजा लहर बीते हफ्ते यूरोप, अमेरिका व एशिया के बांड बाजारों से उठी, जब सरकारों की साख पर गहरे सवाल उठाते हुए निवेशकों ने सरकारी बांड की बिकवाली शुरू कर दी और सरकारों के लिए कर्ज महंगा हो गया। बीते मंगलवार अमेरिकी सरकार के (दस साल का बांड) बाजार कर्ज की लागत सिर्फ कुछ घंटों में
14 फीसदी बढ़ गई। पिछले करीब 25 साल से स्थिर अमेरिका के बांड बाजार का यह तेवर बेहद चौंकाने वाला था। इधर यूरोप की सरकारों की धड़कनें रोकते हुए बांड निवेशकों ने स्पेन, बेल्जियम, इटली और पुर्तगाल जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के कर्ज की लागत रिकार्ड ऊंचाई पर पहुंचा दी। जर्मनी के बांड इश्यू को पूरा सब्सक्रिप्शन नहीं मिला और ब्रिटेन के बांड महंगे हो गए। डर की इस लहर ने कई दशकों के बाद जापान सरकार के लिए भी कर्ज की कीमत बढ़ा दी है। ताजा संकट को दो साल से चुपचाप देख रहे बांड विजिलेंट्स (सरकार की साख खराब होते देख बांड बेचने वाले निवेशक) सक्रिय हो गए हैं। इनका सिद्धांत है कि साख नहीं तो कर्ज नहीं।
साख का सिक्का
संप्रभु सरकारी बांडों के बाजार में साख सबसे बड़ी करेंसी है। यह बाजार किसी सरकार को कंपनी की तरह आंकता है और उसके घाटे की स्थिति व मौद्रिक नीति देखकर फैसला करता है। बांड निवेशक इस समय अमेरिका व यूरोप में एक साथ जोखिम देख रहे हैं। हाल में ही ओबामा प्रशासन ने जब बुश के दौर की कर रियायतें जारी रखने का फैसला किया तो बाजार को समझ में आ गया कि अमेरिका के घाटे का इलाज नहीं है। इसी तरह आयरलैंड की तबाही के बाद निवेशकों को यूरोप की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भी जोखिम दिखने लगा है। बांड निवेशकों की सक्रियता एक किस्म का परोक्ष दबाव है, जो सरकारों को अपनी वित्तीय सेहत सुधारने को बाध्य करता है। 1993 में अमेरिका में बांड बाजार के साथ क्लिंटन प्रशासन का मुकाबला चर्चित रहा था, जब बांड निवेशकों ने घाटा कम करने के लिए सरकार पर दबाव बना दिया था।
मुसीबत का पहिया
संप्रभु बांड निवेशकों की बिकवाली किसी देश के आर्थिक भविष्य को लेकर जोखिम की भविष्यवाणी है, इससे समस्याओं का एक दुष्चक्र शुरु होता है और अमेरिका व यूरोप मुसीबत के इसी पहिये से चिपक गए हैं। बांड बाजार ही इन विशाल अर्थव्यवस्थाओं को खर्च के लिए संसाधन देता है। बांड निवेशकों की बेरुखी कर्ज को महंगा करती है। इटली को 340 बिलियन यूरो और स्पेन को 180 बिलियन यूरो अगले साल बाजार से उठाने हैं। अमेरिका को भी बाजार से मोटा कर्ज जुटाना है। महंगा कर्ज इनकी साख और ज्यादा कमजोर करेगा। मगर सरकारें महंगे कर्ज से ज्यादा बांड निवेशकों की खुली बेरुखी से डरती हैं। देश की आर्थिक स्थिति पर गहरा जोखिम देखकर निवेशक किसी देश के बांडों में निवेश से किनारा कर सकते हैं। यूरोप के कुछ देशों के मामले में यह नौबत आ सकती है, क्योंकि बांड निवेशक ग्रीस व आयरलैंड को इस स्थिति में ला चुके हैं और बाद में दोनों देशों को दीवालिया होने से बचाने के लिए यूरोपीय समुदाय को उद्धार पैकेज देने पड़े। बांड विजिलेंट्स की बिकवाली मुद्रास्फीति की आफत की तरफ भी इशारा कर रही है। अमेरिका में फेड रिजर्व डॉलर छापकर बाजार में फेंक रहा है। यह नीति मुद्रास्फीति की तरफ ले जाएगी।
  अमेरिका व यूरोप की सरकारें जानती हैं कि बांड विजिलेंट्स का गुस्सा कितना भारी पड़ता है। वित्तीय बाजार अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सलाहकार जेम्स कार्वाइल की यह टिप्पणी आज भी याद करता है कि यदि मेरा पुनर्जन्म हो तो मैं बांड मार्केट बनना चाहूंगा, जो किसी को भी डरा सकता है।.. यकीनन बांड बाजार ने अपनी एक घुड़की से पूरी दुनिया को डरा दिया है।.. यूरोप का वित्तीय संकट खतरनाक और निर्णायक मोड़ पर आ पहुंचा है। अब अगर यूरोप की एक भी अर्थव्यवस्था ढही तो वह अमेरिका से लेकर एशिया तक अपने साथ बहुत कुछ लेकर डूबेगी। अगले छह माह में साफ हो जाएगा कि यूरोप में कौन-कौन डूबा और क्या-क्या नहीं बचा? संकट की इस महागाथा में अभी कुछ महत्त्‍‌वपूर्ण पन्ने खुलने बाकी हैं।

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3 comments:

Akshitaa (Pakhi) said...

यह तो सोचने वाली बात हो गई....

पाखी की दुनिया में भी आपका स्वागत है.

anshuman tiwari said...

lovely ... thanks Pakhi...but pls you just play..let your mom dad think..tc

Nehal Ahmad said...

nice