Monday, January 3, 2011

ग्रोथ की सोन चिडि़या

अर्थार्थ 2011
दुनिया अपने कंधे सिकोड़ कर और भौहें नचाकर अगर हमसे यह पूछे कि हमारे पास डॉलर है ! यूरो है ! विकसित होने का दर्जा है! बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं ! ताकत हैं! हथियार हैं! दबदबा है !!.... तुम्हा़रे पास क्या् है ??? ... तो भारत क्या कहेगा ? यही न कि कि (बतर्ज फिल्म दीवार) हमारे पास ग्रोथ है !!! भारत के इस जवाब पर दुनिया बगले झांकेगी क्यों कि हमारा यह संजीदा फख्र और सकुचता हुआ आत्मविश्वास बहुत ठोस है। ग्रोथ यानी आर्थिक विकास नाम की बेशकीमती और नायाब सोन चिडि़या अब भारत के आंगन में फुदक रही है। यह बेहद दुर्लभ पक्षी भारत की जवान (युवा कार्यशील आबादी) आबो-हवा और भरपूर बचत के स्वा्दिष्ट चुग्गे पर लट्टू है। विकास, युवा आबादी और बचत की यह रोशनी अगर ताजा दुनिया पर डाली जाए एक अनोखी उम्मीद चमक जाती है। अमेरिका यूरोप और जापान इसके लिए ही तो सब कुछ लुटाने को तैयार हैं क्यों कि तेज विकास उनका संग छोड़ चुका है, बचत की आदत छूट गई है और आबादी बुढ़ा ( खासतौर पर यूरोप) रही है। दूसरी तरफ भारत ग्रोथ, यूथ और सेविंग के अद्भुत रसायन को लेकर उदारीकरण के तीसरे दशक में प्रवेश
कर रहा है। यह संयोग बड़ी मुश्किल से बनता है,इसलिए नए दशक और नए साल की शुरुआत में इस उपलबिध और इस से जुड़ी उम्मीदों पर न्योछावर हुआ जा सकता है।
बचत बहादुर
हम ( और चीन भी) अपनी बचत से दुनिया को बचाने वाले हैं। दुनिया के कुछ बड़ों ने बचत नहीं की इसलिए ही यह संकट आया है। विकसित मुल्क बचतशून्य हैं। अमेरिकी लोग दशकों पहले बचत छोड़ कर चार्वाकी बन गए थे और कर्ज पर खाने उड़ाने लगे थे बाद में जापान और यूरोप को भी यही लत लग गई। इसलिए वहां बाजारों में इसकी टोपी उसके सर वाला एक तंत्र खड़ा हो गया। व्यलक्तिगत कर्ज व क्रेडिट कार्डों से लेकर बैंकों के बांड और सरकारों के कर्ज तक फैला यह पेचीदा नेटवर्क उपभोक्ता खर्च से लेकर निवेश तक सबको चलाता है जबकि इसके पास खुद के पांव ( लोगों की बचत) नहीं थे। इसलिए यह आमो खास सबको ले डूबा। दुनिया सौ रुपये के आर्थिक उत्पांदन में औसतन 24 रुपये ( जीडीपी के अनुपात में राष्ट्रींय बचत दर) बचाती है मगर अमेरिका केवल 11 फीसदी और यूरो जोन 18 फीसदी। हम 33 फीसदी बचा रहे हैं। अमेरिका यूरोप का यह आंकड़ा भी आधा सच है। इसमें कंपनियों की बचत शामिल है, आम लोगों की बचत दर तो अमेरिका में शून्य के करीब है और यूरोप में तीन फीसदी के इर्द गिर्द। जबकि हमारे यहां एक बड़ी आबादी कमा और बचा रही है। भारत की अधिकांश घरेलू बचत आम लोगों की देन है। इसलिए हमारे पास निवेश के लिए अपनी पूंजी व संसाधन हैं। विकास के लिए विदेशी पूंजी व संसाधनों की जरुरत महज तीन फीसदी (चालू खाते का घाटा) है और विदेशी कर्ज न के बराबर। यकीन मानिये विश्व के मौजूदा सूरते हाल में यह एक अद्भुत और बहुत बड़ी उपलब्धि है। अगर हम बचाते रहे तो ग्रोथ की सोन चिडि़या चहकती रहेगी।
यंगिस्तान की शान
यूरोप, अमेरिका, जापान संकटों से भले ही उबर जाएं लेकिन अपनी कामकाजी आबादी की उम्र का पहिया उलटा नहीं घुमा सकते। वहां अब काम करने वाले एक आदमी पर चार पेंशनयाफ्ता हैं। काम करने वालों की कमी है और पेंशन लेने वालों की संख्या बढ़ रही है। सरकारें कर्ज लेकर पेंशन दे रही हैं और काम के लिए विदेशियों पर आश्रित हैं। जबकि भारत में यंगिस्तान का जलवा है। हालांकि आबादी के फायदे अब उतने नहीं है जितने कि उदारीकरण शुरु होते हुए थी लेकिन फिर एक बहुत बड़ी आबादी युवा और कार्यक्षम है। इसने लागत कम करने और नए कारोबारों को उभरने में मदद की है। भारत में ज्यादा लोग कामकाजी हैं और पेंशन वाले कम, इसलिए गाड़ी मजे से चल रही है। भारतीयों को अपने यहां काम के लिए बुलाना दुनिया की मजबूरी बनने वाला है। युवा आबादी के फायदे अभी कम से कम तीन दशक तक और रहेंगे। यानी कि ग्रोथ की सोन चिडि़या इसी यंगिसतान के कंधे पर बैठेगी जो इसके लिए बचत भी कर रहा है और खर्च भी।
नायाब नेमत
अमेरिका में उपभोक्ता खर्च बढ़ने का एक मासिक आंकड़ा जरा सी उम्मीद दिखाता है तो अमेरिका का शेयर बाजार नाच उठता है। यूरो जोन में अकेला जर्मनी अपनी ग्रोथ के सहारे पूरे यूरोप से अपने नाज नखरे उठवा रहा है। तेज विकास दर यानी ग्रोथ बहुत कीमती है। जापान पिछले एक दशक में इसके लिए हर तरह की कसरत कर चुका है। अमेरिका सिर्फ ग्रोथ के लिए नोट छाप रहा है और मुद्रास्फीति का खतरा उठा रहा है। यूरोप के देश जनता को टैक्स् मशीन में निचोड़ कर घाटा पूरा करना चाहते हैं ताकि तेज विकास की गाड़ी चलाने के लिए सरकारों के पास पैसा आ सके। यानी कि दुनिया जिसके लिए बेचैन है, वही ग्रोथ तमाम बाधाओं के बावजूद भारत में फल फूल रही है। भारत की ऊंची बचत ने उद्योगों को प्रति कर्मचारी ज्यादा पूंजी निवेश का मौका दिया है। उत्पाबदकता बढ़ाने के लिए सुविधायें बढ़ रही हैं जो उपभोग खर्च को प्रेरित करती हैं और नतीजतन मांग बढ़ती है। इसलिए दुनियावी मंदी और घरेलू महंगाई के बावजूद भारतीय उपभोक्ता ओं ने अपने खर्च से अर्थव्यवस्था़ को दौड़ाये रखा है और यह खर्च कर्ज पर नहीं बल्कि अतिरिक्त आय पर आधारित है। अच्छी बचत और बढ़ता उपभोक्ता् खर्च!ग्रोथ की सोन चिडि़या और कहां जाएगी ?
 पूंजी, मांग और श्रम के तीन कंधों पर आर्थिक विकास खड़ा होता है। उदारीकरण के तीसरे दशक की शुरुआत पर भारत के पास यह तीनों तत्व प्रचुर मात्रा में हैं और तीनों पूर्णत: देशी हों तो फिर क्या कहना? हम पूंजी, श्रम और मांग के लिए दुनिया के मोहताज नहीं हैं इसलिए भारत में बना लिए यह संयोग एक पर एक ग्यारह का नही बल्कि एक सौ ग्यारह का है। उदारीकरण के पहले दशक में हमने तेज विकास को न्योता था और दूसरे दशक में जड़ें दे दीं। हम अब ग्रोथ का अमृत छक रहा है जबकि विकसित मुल्क इसी के लिए दुनिया मथने को तैयार हैं। तेज आर्थिक विकास के इस सफर में कुछ अंधेरे कोने और जोखिम के गर्त भी हैं लेकिन उन पर निगाह फिर कभी। फिलहाल तो वर्ष व दशक को शुरु करते हुए ग्रोथ की सोन चिडि़या की राई नोन उतारिये। दुआ कीजिये कि इसे जालिम दुनिया नजर न लगे और यह हमेशा हमारे आंगन में चहकती रहे। यही स्वर्ण पक्षी इस दशक में हमें समृद्धि की मंजिल तक ले जाएगा।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य प्रकाश तुम्हारा /
लिखा जा चुका अनल अक्षरों में इतिहास तुम्हारा/
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल दूर नहीं है/
थक कर बैठ गए क्‍या भाई ! मंजिल दूर नहीं है। ( दिनकर)
हैप्पी न्यू इयर.
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2 comments:

Atul kushwah said...

Dear Sir, Aaki shabdon ki sajavat ka raaj kya hai...?
Atul Kushwaha
Gwalior..

anshuman tiwari said...

धन्‍यवाद अतुल जी