Monday, February 28, 2011

भरोसे का बजट खाता

अर्थार्थ
ज बजट है।. मत कहियेगा कि सालाना रवायत है। यह बजट के बिल्कुल अनोखे माहौल और नए संदर्भों की रोशनी में आ रहा है। याद कीजिये कि हमेशा आंकड़े बुदबुदाने वाली सरकारी आर्थिक समीक्षा पहले ऐसा कब बोली थी “ध्यान रखना होगा कि हमारी नीतियां चोरी करने वालों के लिए सुविधाजनक न बन जाएं। या ईमानदारी और विश्वसनीयता नैतिक मूल्य ही नहीं आर्थिक विकास के लिए भी जरुरी हैं ” (आर्थिक समीक्षा 2010-11, पेज 39 व 41) ....मतलब यह कि बजट को लेकर देश की नब्ज इस समय कुछ दूसरे ढंग धड़क रही है। इस बजट का इंतजार सुहानी अपेक्षाओं (रियायतों की) के बीच नहीं बल्कि एक खास बेचैनी के साथ हो रहा है। यह बैचनी आर्थिक उलझनों की नहीं बल्कि नैतिक चुनौतियों की है। देश यह जानने को कतई बेसब्र नहीं है कि ग्रोथ या राजकोषीय घाटे का क्या होगा बल्कि यह जानने को व्याकुल है कि व्यवस्था में विश्वास के उस घाटे का क्या होगा जो पिछले कुछ महीनों में सरकार की साख (गवर्नेंस डेफशिट) गिरने के कारण बढ़ा है। इस बार बजट का संदेश उसके संख्या (आंकड़ा) पक्ष से नहीं बल्कि उसके विचार पक्ष से निकलेगा।
बिखरा भरोसा
महंगाई से बुरी है यह धारणा कि सरकार महंगाई नहीं रोक सकती। आर्थिक समीक्षा इशारा करती है कि महंगाई के सामने सरकार का समर्पण लोगों को ज्याोदा परेशान कर रहा है। ग्रोथ के घोड़े पर सवार एक हिस्सा आबादी के लिए महंगाई बेसबब हो सकती है, मगर नीचे के सबसे गरीब लोग महंगाई से लड़ाई हार रहे हैं। इसलिए देश को ऐक ऐसी सरकार दिखनी चाहिए जो महंगाई के साथ जी जान से जूझ रही हो। बढ़ती कीमतों के कारण गरीब विकास के फायदे गंवा रहे हैं और समावेशी विकास या इन्क्लूसिव ग्रोथ का पूरा दर्शन एक खास किस्म के अविश्वास
में फंस गया है। इधर कुछ और घटनायें उम्मीसदों के टूटने की प्रक्रिया को तेज कर रही है। वित्तीय कंपनियों के लालच से माइक्रोफाइनेंस की सफलता बुरी तरह दागदार हो गई। गरीबी मिटाने वाली स्कीमों पर भारी आवंटन के बावजूद सरकार मुतमइन नहीं है कि इनसे कितना भला हो रहा है। नई नवेली मनरेगा को पुर्नगजठित करने की बात शुरु हो गई है। सरकार को लगता है कि अगर गरीबों को सीधे सब्सिडी सीधे दे दी जाए तो शायद पूरा सिस्टम कुछ भरोसेमंद हो जाएगा और भ्रष्टाचार रुक जाएगा। उद्योग भी बुनियादी ढांचे की हालत और अफसरशाही के ढंग ढर्रे को देखकर ऊबने लगे हैं। इस बीच भ्रष्टाचार के विस्फोट और लोकतंत्र के हर पहरुए का दागदार होना पूरे माहौल को गंभीर रुप से अविश्वसनीय बनाता है। इधर इसके ठीक विपरीत गैर सरकारी क्षेत्र तमाम बाधाओं के बावजूद विश्वास से लबरेज है।
खरा भरोसा
भारत एक अनोखी स्थिति में है। यहां एक हिस्सा जबर्दस्त विश्वास से खौल रहा है। यह हिस्सा निजी उद्यमिता, तकनीक, युवा पीढ़ी और दुनिया के साथ दौडऩे के संकल्प से बना है। यही वह पक्ष है जिसने विश्व में सबसे कमजोर सुविधाओं बावजूद तेज विकास की कहानी लिखी है और तमाम आफतों के बावजूद ग्रोथ को बनाये रखा। समीक्षा बताती है कि भारत के आम लोग जीडीपी के अनुपात में 23 फीसदी बचत की भी कर रहे हैं और अपने उपभोग खर्च से (निजी उपभोग का जीडीपी में योगदान 47.8 फीसदी) मांग को बढ़ा रहे है। यह दरअसल तेज विकास में लोगों के विश्वास का आंकड़ाशुदा प्रमाण है। इनके भरोसे के चलते भारत दुनिया में सबसे पहले मंदी से निकला और इतनी ऊंची महंगाई, खराब बुनियादी ढांचे, ब्याज दरों, भ्रष्ट व्यवस्था के बावजूद दस फीसदी विकास के दर की मंजिल की तरफ दौडऩे को तैयार है। भारत निजी उद्यमिता और अवसरों के इस्तेमाल के खाते में इतना जबर्दस्त मुनाफा है कि व्यवस्था के स्तर पर मौजूदा घाटा बहुत बड़ा दिखने लगता है। विश्वाइस और अविश्वाहस की इस असंगति के चलते उम्मीतदों के शिखर जितनी तेजी से बनते हैं मोहभंग के गर्त भी उतने ही तेजी से तैयार हो जाते हैं।
भरोसे का बजट
दुनिया की कोई भी आर्थिक प्रणाली एक खास किस्मे के विश्वास पर चलती है जो व्यक्तियों के बीच होता हुए सिस्टम का हिस्सा बन जाता है। यदि वित्तव मंत्री की निगाह के सामने बनने वाली आर्थिक समीक्षा यह कहे कि हमारी नीतियों को चोरी करने वालों के प्रोत्सा हन नहीं होना चाहिए या फिर अच्छीष व्यहवस्थां व नैतिक मूल्योंप के बिना आया विकास अराजकता बढ़ाता है तो समझा जा सकता है कि भरोसा टूटने की आवाज सरकार तक पहुंच गई है। इस विश्वास का घाटा कितना बड़ा है कि पहली बार समीक्षा ने आर्थिक विकास के सामाजिक आयामों, सिस्टम में भरोसे और पारदर्शिता पर पूरा एक विशेष खंड लिखा है और ईमानदारी, विश्वसनीयता जैसी गैर आर्थिक शबदावली का बार-बार इस्तेएमाल किया है। समीक्षा ने ईमानदारी की आर्थिक जरुरत को प्रमाणित करने के लिए उन अध्ययनों का उदारहण दिया है जो बताते हैं कि व्यवस्था और व्यक्तियों के बीच गहरे विश्वास वाले देशों में तेज ग्रोथ होती है। इसके बाद बजट की वरीयता अपने आप साफ हो जाती है। यह तय कर पाना मुश्किल है कि व्यीवस्था में भरोसा बढ़ाने के लिए बजट क्या करेगा। हो सकता है नए नियामक बनाये जाएं, या काला धन बाहर लाने की कोशिश नजर आए या फिर उत्सायह बढ़ाने वाले कुछ आर्थिक सुधार किये या फिर सरकार अपने क्रियान्वकयन तंत्र में बदलाव के लिए कुछ घोषणायें करे। दरअसल कोई न कोई ऐसा कदम जरुर होना चाहिए जो यह साबित कर सके कि सरकार भी व्यवस्था की विश्वसनीयता को लेकर फिक्रमंद है।
  यकीनन भरोसे और पारदर्शिता जैसे नैतिक और अमूर्त घाटों के लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं हो सकता है लेकिन यह भी सही है कि बजट सरकार का सबसे बड़ा सालाना नीतिगत दस्तावेज है और अधिकतर बड़े सुधार इसी से निकले हैं। इसलिए बजट को हमेशा हसरतों के साथ देखा सुना जाता है और सिर्फ आंकड़े ही नहीं संकेत व संदेश भी हासिल किये जाते हैं। इस बजट की पृष्ठतभूमि में जेल जाते मंत्री (राजा), भ्रष्टाचार में लिप्त देश के नामचीन औद्योगिक (2 जी) घराने, साख खोती लोकतांत्रिक संस्थायें (सुप्रीम कोर्ट, सीवीसी), प्रतिष्ठित सरकारी विभागों की बदनामी (अंतरिक्ष, दूरसंचार), लचर प्रशासन और बुरी तरह मजबूर सरकार है। इन सबने मिलकर अर्थव्यवस्था के उस विश्वास को हिला दिया है जो मंदी, आतंक, महंगाई और दुनिया की हलचलों से भी नहीं डिगा। इसलिए वित्त मंत्री के एक-एक शब्द को ध्यान से सुनिये और उस विश्वास को तलाशने की कोशिश कीजिये जो कि आंकड़ों आवंटनों से परे है। यह बजट देश को अगर एक दमदार सरकार की झलक और पारदर्शी व्यवस्था का विश्वास भी दे सका तो आर्थिक अपेक्षाओं के लिए लोग अगले बजट का इंतजार कर लेगें, क्यों कि व्यसवस्था पर भरोसा जमने के बाद कोई भी मंजिल दूर नहीं है।
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