Monday, June 6, 2011

कालिख का फंदा

ब्रह्म को काले धन की भांति अनुभव करो। अदृश्य, निराकार काला धन हमारे भीतर परम सत्ता की तरह धड़कता है।....जिज्ञासु भक्त बाबा के वचनों से कृतार्थ हुआ और ब्रह्म को छोड़ काले धन के जुगाड़ में लग गया। क्योंक कि इस कालिख को जानने लिए किसी तप की जरुरत नहीं है, यह तो सरकार है जो काला धन तलाशने के लिए समितियां छोड़ रही है। हमें खुद पर तरस आना चाहिए कि सरकार उस ऐलानिया सच पर आजादी के चौंसठ साल बाद, अब कसमसा रही है जो नागरिक, प्रशासनिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन के पोर पोर में भिद कर हमारी लत बन चुका है। मत कोसिये लाइसेंस परमिट राज को, काले धन की असली ग्रोथ स्टोरी उस बदनाम दौर के बाद लिखी गई है। मत बिसूरिये बंद अर्थव्यवस्था को, उदार आबो हवा ने कालिख को पंख लगा सर्वव्यापी कर दिया है। मत रहिए इस गफलत में कि ग्रोथ और आय बढ़ना हर मुश्किल का हल है, विकास के साथ लूट भी बढ़ती है। भारत में काले धन की पैदावार के लिए तरक्की का मौसम ज्यादा माफिक बैठा है। कानून काला धन पैदा कराते हैं। बाजार इसे छिपाता है और न्याय का तंत्र इसे पोसता है। हम अब चिंदी चोर तरीकों से लेकर बेहद साफ सुथरे रासतों तक से काला धन बनाने में महारथ रखते हैं। काला धन तो कब का अपराध, शर्म या समस्या की जगह सुविधा, स्वभाव,  संस्कार और आवश्यकता बन चुका है।
किल्लत की कालिख
भारत की 99.5 फीसदी आबादी कोटा, लाइसेंस, परमिट नहीं चाहती। सांसद विधायक मंत्री, राजदूत बनने की उसे तमन्ना नहीं है। उसे तो सही कीमत व समय पर बुनियादी सुविधायें और जीविका व बेहतरी के न्यायसंगत मौके चाहिए जिनकी सबसे ज्यादा किल्लत है। भारत का अधिकांश भ्रष्टाचार सेवाओं की कमी से उपजता है। उदारीकरण में सुविधाओं और सेवाओं की मांग बढ़ी, आपूर्ति नहीं। रेलवे रिजर्वेशन से लेकर अनापत्ति प्रमाण पत्र तक, सकूल दाखिले से लेकर, इलाज तक हर जगह मांग व आपूर्ति में भयानक अंतर है, जो कुछ लोगों के हाथ में देने और कुछ को उसे खरीदने की कुव्वत दे देता है। हमारी 76 फीसदी रिश्‍वतें
 2.5 लाख रुपये और उसे कम ( संदर्भ ब्राइब लाइन रिपोर्ट) की होती है। इसमें भी करीब 26 फीसदी रिश्वत 20 डॉलर यानी महज एक हजार रुपये की होती है। भारत में 51 फीसदी रिश्वंत बस, सिर्फ काम को समय पर कराने के लिए दी जाती है। काले धन के पिरामिड का यह चौड़ा आधार सुविधाओं और व्‍यवस्थाओं की कमी से निकला है। वैसे आपूर्ति बढ़ने से भ्रष्टा चार रुकने की कुछ उजली गाथायें भी हमारे पास हैं। फोन के लिए अब रिश्‍वत और सीमेंट खरीदने के लिए नेता जी की पर्ची नहीं चाहिए आदि आदि। अगर बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति पारदर्शी और पर्याप्‍त हो जाए तो शायद काले धन की सबसे घटिया फैक्ट्रियां बंद हो जाएंगी, क्यों कि आम लोगों को 2जी लाइसेंस या कॉमनवेल्थ के ठेकों की जरुरत नहीं है।
ताकत की कालिख
भारत का उदारीकरण चालाकी से हुआ, नीतियां बदलीं कानून नहीं। लाइसेंस परमिट राज प्रक्रियाओं व अधिकारों में छिप गया। भारत एक चुनिंदा जमात के विवेकाधीन अधिकारो का अभयारण्य है। सड़क के किनारे खड़े पुलिस वाले से लेकर सबसे बड़े नौकरशाह तक, सिस्टम को शिकंजा बनाने के अकूत अधिकारों से लैस हैं, सुविधाओं की किल्लत के सहारे उनकी यह ताकत मारक हो जाती है। नीतियों में पेंच और उनके सहारे तरफदारी व उपेक्षा की कला सिखाने के लिए हमारी नौकरशाही स्कूल खोल सकती है। अदना सी सेवा के लिए लोगों को नोचने के नियमों से भरा सरकारी तंत्र, मानो काला धन पैदा करने के कानूनी अधिकारों पर चलता है। 121 करोड़ लोगों के इस देश में बेहद सामान्यक सुविधायें और नागरिक अधिकार देने की ताकत केवल कुछ लाख लोगों के पास है। आंकडे़ (ब्राइब लाइन) गवाह हैं भारत में कुल रिश्‍वतों में मोटी रिश्वतें (पांच लाख रुपये से ऊपर) केवल 14 फीसदी है। जो हर दफ्तर के महज एक दो फीसदी बड़े अफसरों को जाती है। हमारे यहां 91 फीसदी रिश्वचत सरकारी बाबू लेते हैं और 77 फीसदी रिश्‍वत काम वक्त पर कराने या कारोबारी नुकसान से बचने के लिए दी जाती है। राजनेताओं व नीति निर्माताओं का बहुत छोटा समूह ताकत की इस कालिख का नियंता है जो बहुत बडी कीमत पर, थोड़े से लोगों को कुछ सपेक्ट्र म, कुछ खदानें, कुछ जमीनें, कुछ कं‍पनियां, कुछ ठेके दे देता है। काले धन के पिरामिड का शिखर यही है।
हिफाजत की कालिख
काले धन की भारतीय दुनिया जटिल है। छोटे लेन देन के सहारे बना कालाधन मेहनती मध्ययवर्ग के बीच एक काला उच्च वर्ग तैयार करता है जो इस पैसे से दूसरों का हक मारकर सुविधायें खरीदते हैं। अंतत: यह पूरी कालिख, राजनीति, उद्योग, नौकरशाही के शिखरों पर एकत्र हो जाती है क्यों कि वहां इसकी सुरक्षा और निर्यात के रास्ते मौजूद हैं। आय से अधिक संपत्ति के मामले में किसी बडे़ नाम को सजा नहीं (सुखराम को छोड़कर, नकद बरामद होने के कारण) होती। काला धन के पीछे भ्रष्टाचार, जरायम, हकमारी की कई पर्तें हैं जबकि जांच तंत्र बोदा और भ्रषटाचार रोकने के कानून सतही व बौने हैं। काले धन के निवेश के दर्जनों घोषित और प्रामाणिक ठिकानों, मसलन जमीन जायदाद, वित्तीय कारोबार और कंपनियों के मकडजाल, को रोकने का कानूनी ढांचा हमारे पास नहीं है। काला धन न तो अब अपराध के तौर पर तलाशा जाता है और न ही शर्मिंदगी का बायस है। इसका उत्पादन स्वाभाविक और इसतेमाल सुरक्षित है। कालिख के कलाकार पूरी ठसक के साथ बच निकलते हैं।
सरकार जागी कहां हैं? समितियां तो सरकार की उबासियां है। हाकिमों को कब समझ में आएगा कि हम जांच समितियों के लिए नहीं किल्लत दूर करने वाले सिस्टम, विवेकाधीन अधिकारों को सीमित करने वाली नीतियों और सजा दिलाने वाले कानूनों के लिए तरस रहे हैं। अर्थव्यंवस्थाध के फैलते आकार के सामने वैध वित्तीय तंत्र छोटा पड़ गया है। काले धन की असंख्य अदृश्य‍ पाइप लाइनें हमारे आसपास है, सिस्टाम से भयभीत और किल्ल्क‍त के मारों से लेकर बड़े छोटे तक सब इनका इस्तेमाल करते हैं। वैसे तो हर अर्थव्यवस्था, एक छोटी मोटी समानांतर अर्थव्यवस्था को पचाने की कुव्वत रखती है क्यों कि पैसे का प्रवाह ही इसकी हिफाजत है। मगर हम तो अपनी खपत से कई गुना ज्यादा काला धन बना रहे हैं और विदेश में छिपा रहे हैं। हम स्याह पसंद कारोबारियों, प्रॉफिट सेंटरों जैसे सरकारी दफ्तरों, बेफिक्र नेताओं और मौलिक अधिकार खरीदते आम लोगों का मुल्कॉ हो गए हैं। हम दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्‍यवस्‍था ही नहीं बल्कि सबसे तेज बढ़ती काली अर्थव्यवस्था भी हैं। यह हमारी उद्यमिता पर लगा सबसे बड़ा कलंक है। हमारी ग्रोथ स्टोरी दागदार है।
------------------
अर्थार्थ पर यह भी
हम सब काले, कालिख वाले



No comments: