Monday, August 6, 2012

सूखे का मौका


सूखा आ गया है यानी सरकारों को महसूस करने का मौका आ गया है।  पिछले दो साल में हमें सरकारें नहीं दिखीं हैं या अगर दिखीं हैं तो सिर्फ अपना मुंह छिपाती हुई। लेकिन अब  अगर देश में सरकारें हैं तो उन्‍हें अब खुद को साबित करने के लिए सड़क पर आ जाना चाहिए। पिछले एक दशक में यह तीसरा सूखा है जो सबसे अलग, बेहद पेचीदा किस्‍म का है। नीतियों के शून्‍य, ग्रोथ की ढलान, बहुआयामी उलझनों के बीच नियति ने चुनौती की कहानी को एक नया ट्विस्‍ट दिया है। यह सूखा खेत से निकल कर सरकार के खजाने तक जाएगा और बैंकों के खातों से होता हुआ बाजार तक आएगा। इसलिए यह सरकारों के बुद्धि और विवेक का सबसे तगड़ा इम्‍तहान लेने वाला है। केंद्र की गैरहाजिर और प्रभावहीन सरकार के लिए यह आपदा दरअसल लोगों से जुड़ने का एक अवसर है। वरना तो भारत के इतिहास में सूखा दरअसल लूट का नया मौका ही होता है।
तब और अब 
अपने 137 साल के इतिहास में भारतीय मौसम विभाग कभी भी मानसून की विफलता नहीं बता सका। पिछले सौ वर्षों में 85 फीसदी मानूसन सामान्‍य रहे हैं इसलिए मानूसन को सामान्‍य कहना मौसम विभाग आदत बन गई है। इस मानसून का झूठ हमें देर तक सुनना पड़ा, क्‍यों कि देश को सूखा बताने का फैसला भी सियासत करती है यह पिछले एक दशक का तीसरा सूखा है। 2002-03 और 2009 की तुलना में यह हीं से कमजोर नहीं है। सूखे की गंभीरता को सामान्‍य से कम बारिश से स्‍तर से नापते हैं। इस अगस्‍त तक सामान्‍य से औसतन 19 फीसदी कम पानी बरसा है जबकि देश की अनाज पट्टी में बारिश की कमी 37 फीसदी तक है। अभी सितंबर बाकी है, जब अल निनो (समुद्री सतह के तापमान में वृद्धि) असर करेगा। पिछले 40 साल में जो पांच बड़े सूखे
पड़े हैं उनमें 1972 और 2009 में पूरे देश में बारिश की कमी औसतन 23-24 फीसदी रही थी। इस साल सितंबर तक यह नौबत आ सकती है। सूखे वाले दूसरे तीन वर्षों ( 1979
, 1987 और 2002) में सामान्‍य से करीब 19 फीसदी कम बारिश हुई थी। यानी कि उस स्‍तर का सूखा अब गया है। मानसून की असफलता के आर्थिक असर लेकर हमारे पास ठीक ठाक आंकडे़ मौजूद है। पिछले एक दशक के दो सूखे (2002 व 2009) अपने असर में दिलचस्‍प से रुप से काफी अलग अलग रहे थे। 2002-03 में बारिश की कमी 20 फीसदी के आसपास थी और खेती की विकास दर शून्‍य से नीचे (-4.9 फीसद) चली गई। जीडीपी वृद्धि दर भी केवल चार फीसदी रह गई। लेकिन मुद्रास्‍फीति छह फीसदी के इर्दगिर्द ही रही। 2009 में मानूसन की विफलता का जयादा बड़ी थी। पिछले एक दशक का सबसे बुरा मानसून था वह। खरीफ की पैदावार ने गोता खाया मगर रबी सुधर गई। खेती की विकास दर केवल एक फीसदी रही लेकिन जीडीपी की 8.4 फीसदी की दर से बढ़ा और ग्रोथ के जोश में देश को सूखा पता ही नहीं चला। अलबत्‍ता महंगाई करीब उछलकर दहाई में पहुंच गई और तब से आज तक नीचे नहीं उतरी। एक असफल मानसून अनाज उत्‍पादन में औसतन दस फीसदी की कमी करता है मगर सूखे के  दो पिछले तजुर्बे बताते हैं कि अनाज की पैदावार में गिरावट से 2003 में महंगाई नहीं बढ़ी बल्कि ग्रोथ टूट गई, जबकि 2009 में ग्रोथ खड़ी रही और महंगाई बेहाथ हो गई।
सूखे के साथी 
अकेला सूखा मारक नहीं होता, इसके साथ विपत्ति की प्‍लेट में और क्‍या क्‍या परोसा गया है, इसके आधार पर सूखे से नुकसान की कीमत तय होती है। सकल घरेलू उत्‍पाद में खेती का हिस्‍सा केवल 14 फीसदी है। उसमें भी पूरी खेती वर्षा आधारित नहीं है। इसलिए खेती पर असर सीमित ही नजर आएगा। लेकिन यह सूखा अभूतपूर्व महंगाई, ग्रोथ में गिरावट, बैंकों की पतली हालत, पेट्रो मूल्‍यों की तेजी, ऊंचा आयात बिल, बिजली का रोना, कृषि उत्‍पादों की ऊंची ग्‍लोबल कीमतें, बजट के भारी घाटे के बीच आया है इसलिए मुसीबत छोटी नहीं है। एक विफल मानूसन खाद्य उत्‍पादों की कीमत करीब पांच फीसदी तक बढाता हैं यानी कि महंगाई 15 फीसदी पर जाएगी !! मानसून का बुरा हाल देख कर बैंक कांप रहे हैं। खेती को दिया गया 5 लाख करोड़ से ऊपर का कर्ज फंसने वाला है क्‍यों कि सूखा घोषित होते ही कर्ज की वसूली टल जाती है। बैंकों की पहले से हालत खराब हैसरकार पर कर्ज माफी पैकेज का दबाव बनना शुरु हो रहा है अर्थात भारी घाटे के बीच यह नई मुसीबत। बिजली की कमी और डीजल की बढती मांग आयात व रुपये पर दबाव बनायेगी। 2009 के मुकाबले गांवों में अब पेयजल की किल्‍लत ज्‍यादा है ज‍बकि जमीन की कमी के कारण पशु चारे की समस्‍या बढ़ चुकी है। हो सकता है कि खरीफ की पैदावार बुरी तरह न टूटे और अनाज भंडार के सहारे सरकार अनाज की आपूर्ति को थाम ले लेकिन अन्‍य चुनौतियों रोशनी में यह सूखा बड़ी विपत्ति बन सकता है। यह सूखा केवल अनाज उत्‍पादन के आंकडों में नहीं बल्कि पानी की कमी से लेकर ग्रामीण बाजार में मांग गिरने तक कई जगह पढ़ा जाएगा और सरकार के दखल की जरुरत जगायेगा। सूखे की मार इस साल जीडीपी की ग्रोथ में घटकर पांच साढे पांच फीसदी पर आ सकती है।
दुआ कीजिये कि यह पिछले एक दशक में यह मानसून की सबसे बड़ी विफलता न साबित हो लेकिन इसके बावजूद सूखा तो आ गया है। यह नीतियों के सूखे में सूखा है। मानसून के चूकने का यह परिद़श्‍य पिछले एक दशक में सबसे ज्‍यादा चुनौतीपूर्ण है। यह सरकार के राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, वित्‍तीय, मौद्रिक कौशल से लेकर मनरेगाओं, भारत निर्माणों, पेयजलों की स्‍कीमों की फौज की परीक्षा लेने का वक्‍त है। यह राज्‍य सरकारों के लिए प्रतिस्‍पर्धा की सियासत से निकलने का मौका है। यकीनन आपदायें बुरी होती हैं मगर उन्‍हीं के बीच सरकारों के दयालु चेहरे उभरते हैं। अगले तीन माह बता देंगे कि सूखे और महंगाई से जूझते देश ने अपने कंधे पर सरकारों के मददगार हाथों को महसूस किया या फिर सरकार का भ्रष्‍ट और लूट तंत्र दरअसल सूखे के जश्‍न में डूब गया। कई सरकारों (केंद्र व राज्‍य) के लिए लोगों को छूने का यह शायद आाखिरी मौका है। 
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