Monday, February 25, 2013

भूल सुधार बजट



भरोसा जुटाने के लिए चिदंबरम को निर्ममता के साथ पिछले वित्‍त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बजटों को गलत साबित करना होगा।

ह महासंयोग कम ही बनता है जब सियासत के पास खोने के लिए कुछ न हो और अर्थव्‍यवस्‍था भी अपना सब कुछ गंवा चुकी हो। भारत उसी मुकाम पर खड़ा है जहां सत्‍तारुढ़ राजनीति अपनी साख व लोकप्रियता गंवा चुकी है और अर्थव्‍यवस्‍था अपनी बढ़त व ताकत। 2013 का बजट इस दुर्लभ संयोग की रोशनी में देश के सामने आएगा। यह अपने तरह का पहला चुनाव पूर्व बजट है जिससे निकलने वाले राजनीतिक फायदे इस तथ्‍य पर निर्भर होंगे बजट के बाद आर्थिक संकट बढ़ते हैं या उनमें कमी होगी। इस बजट के लिए आर्थिक सुधारों का मतलब दरअसल पिछले बजटों की गलतियों का सुधार है। चिदंबरम मजबूर हैं, वोटर और निवेशक, दोनों का भरोसा जुटाने के लिए उन्‍हें निर्ममता के साथ पिछले वित्‍त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बजटों को गलत साबित करना होगा। मुखर्जी ने तीन साल में करीब एक लाख करोड़ के नए टैक्‍स थोपे थे जिनसे जिद्दी महंगाई, मरियल ग्रोथ, रोजगारों में कमी और वित्‍तीय अनुशासन की तबाही निकली है। प्रणव मुखर्जी के आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा करने के बाद ही चिदंबरम
कुछ उम्‍मीद जगा  सकेंगे।
इस बजट की राजनीतिक व आर्थिक मंजिलें बेहद स्‍पष्‍ट हैं। इसके दो ग्राहक हैं एक है देश का मध्‍य वर्ग, जो महंगाई, आय और रोजगार घटने से बुरी तरह चिढ़ा है और चुनाव में फैसला सुनायेगा। दूसरी है रेटिंग एजेंसियां,  जो बजट के बाद भारत की साख पर निर्णय देंगी। ध्‍यान रहे कि एक और नकारात्‍मक रेटिंग निजी और विदेशी निवेश को अंतिम तौर पर रोक सकती है। आर्थिक विकास दर में गिरावट, रुपये में जबर्दस्‍त कमजोरी और एक समग्र आर्थिक संकट इसका परिणाम होगा। आर्थिक संकटों का गहराना, चुनाव की तरफ जाती एक सरकार के लिए आत्‍मघात है। क्‍या चिदंबरम यह राजनीतिक आत्‍महत्‍या करेंगे?    
बजटों का फार्मूला लोकतांत्रिक व जनसुलभ है जिसके आधार देश के ताजा हालात के लिए जरुरी बजट की पैमाइश की जा सकती है। संकटों के ताजा पर्चे को पढ़ने से वह रसायन मिल सकता है जिसके इस्‍तेमाल से वित्‍त मंत्री एक व्‍यावहारिक बजट पेश कर अपनी पार्टी और अर्थव्‍यवस्‍था के लिए उम्‍मीदें लौटा सकते हैं। भारत की मुसीबतों के केंद्र में महंगाई है। जिसने मांग को खत्‍म किया और मांग ने नए पूंजी निवेश को। देशी व विदेशी निवेश सूखने से ग्रोथ लड़खड़ा गई। रोजगारों में कमी, सरकार के राजस्‍व में गिरावट व घाटे इसी दुष्‍चक्र का नतीजा है। ग्रोथ गई तो विदेशी निवेशकों का विश्‍वास भी गुम गया जिसके कारण विदेशी पूंजी की आवक में गिरावट आई है। आयात तो नहीं थमे इसलिए विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी में अंतर अब इतना बढ गया है कि डॉलर के मुकाबले रुपया तलहटी पर है और विदेशी मुद्रा सुरक्षा खतरे में हैं। कुल मिलाकर महंगाई, मंदी, मरियल ग्रोथ और कमजोर रुपया भारत के संकट का ताजा पर्चा है और ताकतवर महंगाई व कमजोर रुपये का इलाज फिलहाल सबसे बड़ा आर्थिक सुधार है। जो न होने पर अर्थव्‍यवस्‍था भी डूबेगी और कांग्रेस की चुनावी संभावनायें भी।
एक्‍साइज ड्यूटी में कमी चिदंबरम का मास्‍टर स्‍ट्रोक हो सकती है। महंगाई के  इलाज, मांग को प्रोत्‍साहन और निवेश को बढ़ावा देने का यही एक तात्‍कालिक रास्‍ता है।  इस मामले में प्रणव के बजट बड़े कुख्‍यात थे। पता नहीं किस सूझ के तहत उन्‍होंने घटती मांग के बीचो बीच उत्‍पादन को बुरी तरह महंगा कर दिया था। पिछले तीन बजटों में एक्‍साइज व कस्‍टम की दरें बढाने के रिकार्ड बने और एक लाख रुपये का अतिरिक्‍त टैक्‍स जुटाया गया। टैक्‍स बढ़ने से घाटा तो कम नहीं हुआ अलबत्‍ता महंगाई के पैर जम गए। लागत ऊंची होने से कई  कंपनियां उत्‍पादन छोड़ ट्रेडिंग पर आ गईं और आयात बढ़ गया क्‍यों कि भारत में कई उत्‍पादों का आयात घरेलू उत्‍पादन से सस्‍ता है। चिदंबरम को मुखर्जी राज के चिह्न मिटाते हुए उत्‍पाद शुल्‍क की दर 12 से दस फीसदी, सीमा शुलक की शीर्ष दर 10 से 7.5 फीसदी और सेवा कर की 12 से 10 या 7.5 फीसदी पर लाना चाहिए ताकि उत्‍पादन सस्‍ता हो सके और मांग व निवेश लौट सके। विदेशी निवेश अब उलटी राह पर है।  इस साल जनवरी में 480 भारतीय कंपनियों ने 3.3 अरब डॉलर का निवेश विदेश में किया। बडे उद्योग समूह पिछले तीन साल में काफी पूंजी विदेश में लगा कर रुपये की कमजोरी में हाथ बंटा चुके हैं।
यह बजट पुराने के तरीकों से वोटलुभावन नहीं बन सकता। सरकारी स्‍कीमों की साख डूब चुकी है और सरकार के पास पैसा भी नहीं है। इतनी महंगाई में आयकर की कोई रियायत चिल्‍लर साबित होगी। सिर्फ उत्‍पादन की लागत में कमी ही माहौल बदल सकती है। जिससे न केवल महंगाई थमेगी बल्कि मांग, खपत व उत्‍पादन बढाने वाला फील गुड लौट सकता है। विकास दर तलहटी पर है। महंगाई थक रही है। वापसी की छटपटाहट है। गलतियां सुधारने का मौसम भी है। आपरेशन डीजल व सब्सिडी में कमी इसी मौसम का असर हैं। इस समय चतुरता व साहस से भरा बजट जल्‍दी नतीजे ला सकता हैं।  
चुनाव एक साल दूर है जबकि आर्थिक संकट सर पर टंगा है। चिदंबरम तेज ग्रोथ की वापसी पर दांव लगाकर ही बाजी जीत सकते हैं। ग्रोथ को लेकर कांग्रेस ग्‍लानि में भर गई थी। जिसका नतीजा था कि लोकलुभावन स्‍कीमों से सजी इन्‍क्‍लूसिव ग्रोथ का ईजाद हुआ जिससे बजट की लूट व घाटा निकला। यूपीए के पिछले बजट इस दर्शन की देन थे जो तेज आर्थिक विकास के दुश्‍मन साबित हुए। चिदंबरम को गलतियां सुधार कर ग्रोथ को बजट के केंद्र में लाना होगा। खोने के लिए जब कुछ न हो तो नई कोशिशें बहुत मूल्‍यवान हो जाती हैं। कांग्रेस की लोकप्रियता और अर्थव्‍यवस्‍था की हालत तकरीबन एक जैसी है इसलिए यह 1991 के बाद का सबसे कीमती बजट है। 30-353 30 30-35  पेज के इस भाषण से या तो संकट निकलेंगे या संभावनायें। यह हर हाल में आर या पार का बजट है।



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