Monday, December 2, 2013

बड़ी सूझ का पुर्नजन्‍म


गरीबी बनाम सब्सिडी और बजट घाटे बनाम जनकल्‍याण की उलझन के बीच बेसिक इनकम की पांच सदी पुरानी आदर्शवादी कल्‍पना नए सिरे से चमक उठी है। 

ह जनमत संग्रह अगर कामयाब हुआ तो स्विटजरलैंड को काले धन की जन्‍नत या खूबसूरत कुदरत के लिए ही नही बल्कि एक ऐसी अनोखी शुरुआत के लिए भी जाना जाएगा जो गरीबी उन्‍मूलन की पुरातन बहसों का सबसे बड़ा आइडिया है। स्विटजरलैंड अपनी जनता में हर अमीर-गरीब, मेहनती-आलसी, बेकार-कामगार, बुजर्ग-जवान को सरकारी खजाने से हर माह बिना शर्त तनख्‍वाह देने पर रायशुमारी करने वाला है। अर्थ और समाजशास्त्र इसे यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी सरकारी खर्च पर जनता की न्‍यूनतम नियमित आय कहता है। बजट घाटों से परेशान एंग्‍लो सैक्‍सन सरकारों को लगता है कि किस्‍म किस्‍म की सब्सिडी की जगह हर वयस्‍क को बजट से नियमित न्‍यूनतम राशि देना एक तर्कसंगत विकल्‍प है जबकि समाजशास्त्रियों के लिए तो यह गरीबी मिटाने की विराट सूझ के पुनर्जन्‍म जैसा है। इसलिए जनकल्‍याण के अर्थशास्‍त्र की यह पांच सदी पुरानी आदर्शवादी कल्‍पना नए सिरे से चमक उठी है
बेसिक इनकम की अवधारणा कहती है कि सरकार को प्रत्येक वयस्‍क नागरिक को बिना शर्त प्रति माह जीविका भर का पैसा देना चाहिए, इसके बाद लोग अपनी कमाई बढ़ाने के लिए स्‍वतंत्र हैं। स्विटजरलैंड में हर वयस्‍क को प्रतिमाह 2500 फ्रैंक दिये
जाने का प्रस्‍ताव है जो देश की मासिक प्रति व्‍यकित आय का आधा है और जीविका के लिए पर्याप्‍त है। 79 लाख की आबादी वाले इस देश में जनमत संग्रह जनता की मांग पर ही होते हैं और यह प्रस्‍ताव करीब 1.25 लाख लोगों दस्‍तखत के साथ सरकार के पास आया है, इसलिए बेसिक इनकम के हकीकत बनने की उम्‍मीद मजबूत है। यही वजह है कि बर्लिन, जेनेवा से न्‍यूयार्क तक राजनेता, अर्थविद व समाजशास्‍त्री सरकार प्रदत्‍त बेसिक इनकम की सूझ पर पहली बार गंभीर विमर्श कर रहे हैं जो लगभग हर सदी में उभरती रही है।
थॉमस मूर के ग्रंथ यूटोपिया (1516) का काल्‍पनिक पुर्तगाली यात्री रॉफेल नॉनसेंसो कहता है कि चोरों को मौत की सजा देने के बजाय जीविका के लिए हर माह कुछ धन देना एक बेहतर व्‍यवस्‍था होगी। सरकारी खर्च पर जनता की आय के विचार का यह सबसे पुराना साक्ष्‍य है। स्‍पेनिश मानवविद जोहांस वाइव्‍स ने इसे समग्र सिद्धांत में बदला और 1526 में ब्रूज के मेयर को इसे लागू करने के लिए प्रेरित किया। 19वीं सदी में वेलफेयर स्‍टेट के यूरोपीय सिद्धांतों से लेकर 1960 के अमेरिकी सिविल राइट्स मूवमेंट तक गरीबी उन्‍मूलन का यह मॉडल विभिन्‍न नामों से बार-बार चर्चा में आया है। सबसे ताजा बहस 1970 में नीदरलैंड व डेनमार्क से उठी थी जब नागरि‍कों का वेतन की मांग ब्रिटेन व जर्मनी तक पहुंची थी। अलबत्‍ता अति आदर्शवाद की छौंक व लोगों को काहिल बनाने के तर्कों के चलते यह विचार बहसों के मंच से से निकल कर सरकारों तक नहीं पहुंच सका। 
 बेसिक इनकम की सूझ को ताजा समर्थन बदले हुए वक्‍त की देन है।  बाजारवादी व समाजवादी दोनों ही व्‍यवस्‍थायें इस निष्‍कर्ष पर पहुंच चुकी हैं कि गरीबी व असमानता दूर किये बिना प्रगति मुश्किल है और नाम या तरीका कोई भी हो लेकिन लोक कल्‍याण पर भारी रकम खर्च करनी होगी। एंग्‍लो सैक्‍सन वेलफेयर स्‍टेट का पूरा ढांचा ही सवालों में है क्‍यों कि एक तरफ अमीर देशों में असमानता बढ रही है तो दूसरी तरफ कर्ज और घाटे के चलते सामाजिक सुरक्षा पर खर्च को काटना मजबूरी बन गया है। हाल में ही स्विस जनता ने एक जनमत संग्रह के जरिये कंपनियों व बैंको के अफसरों के वेतन में अनाप शनाप बढ़ोत्‍तरी का प्रस्‍ताव खारिज कर दिया है, जो अमीरों के प्रति विरोध का प्रमाण है। सामाजिक सुविधायें कम होने के खिलाफ आंदोलन अब यूरोप में रोज की बात हो चले है। इस असमंजस के बीच सरकारी खर्च पर जनता की न्‍यूनतम नियमित आय को लेकर उत्‍सुकता बढ़ गई है क्‍यों कि इससे गरीबी और सब्सिडी के एक साथ खत्‍म होने की उम्‍मीद जगती है। एक आकलन के मुताबिक 16 खरब डॉलर के सालाना जीडीपी वाले अमेरिका को अपनी वयस्‍क आबादी को गरीबी रेखा के हिसाब से बेसिक इनकम देने पर करीब 2.14 खरब डॉलर खर्च करने होंगे। सामाजिक कल्‍याण की विभिन्‍न स्‍कीमों पर हर साल 750 अरब डॉलर खर्च निकालने के बाद इस कार्यक्रम का खर्च हर साल करीब 1.2 खरब डॉलर होगा जिससे आबादी के 15 फीसद लोगों का गरीबी से एक मुश्‍त निजात दी जा सकेगी। ब्रिटेन के विशेषज्ञ मानते है प्रति माह प्रति व्‍यक्ति करीब 520 पाउंड देकर तमाम फालतू स्‍कीमों व नौकरशाही से निजात पाई जा सकती है।
   कनाडा के डॉफिन (मिनटोबा) में 1970 में बेसिक इनकम का पहला प्रयोग हुआ था। प्रांत की सरकार ने गांव के 1000 परिवारों को चार वर्ष तक प्रति माह एक न्‍यूनतम राशि का भुगतान किया, जिसे मिनकम कहा गया और डॉफिन गरीबी से मुक्‍त हो गया। लेकिन जैसा कि फ्रेंच लेखक विक्‍टर ह्यूगो कहते थे कि हर विचार का अपना एक वक्‍त होता है, वह दौर शायद बेसिक इनकम के माफिक नहीं था इसलिए मिनकम के दस्‍तावेज तक विनीपेग के अभिलेखागार में छिपा दिये गए। अलबत्‍ता गरीबी बनाम सब्सिडी और बजट घाटे बनाम जनकल्‍याण की उलझन के बीच यह यूटोपियन सूझ अब प्रासंगिक हो चली है। सामाजिक स्‍कीमों पर बढ़ती सब्सिडी एक ग्‍लोबल मुसीबत है जो विशाल नौकरशाही व स्‍कीमों की संदिग्‍ध सफलता के कारण दोगुनी हो जाती है। बेसिक इनकम सिद्धांत में कई खामियां हैं लेकिन इसकी बहस जीवंत है क्‍यों कि दुनिया सामाजिक सुरक्षा और बजट घाटों को एक साथ साधने का मंत्र शोध रही है। जीडीपी के अनुपात में करीब 15 फीसद सबिसडी बांटने वाले भारत के लिए भी यह बहस कीमती है। आखिर हम भी तो गरीबी उन्‍मूलन के नाम पर भ्रष्‍टाचार की सियासत से छक व पक चुके हैं  और सब्सिडी राज व गरीबी उन्‍मूलन के लिए एक बिग आइडिया की तलाश में कब से भटक रहे हैं। हमारे साहब, शहजादे और आम आदमी इस तरह की सार्थक बहसों में आखिर कब उतरेंगे?  

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